कृषि प्रश्न | समीक्षात्मक लेख
June 20, 2022फार्म इनकम इन इंडिया
ए नारायणमूर्ति द्वारा लिखित 2021 में प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा का एक प्रयास भाग – 1
अजय सिन्हा
चंद शुरूआती टिप्पणियां…
पिछले दिनों किसानों का एक साल से भी अधिक लंबे समय तक चलने वाला ऐतिहासिक आंदोलन हुआ जिसके केंद्र में भी मुख्य रूप से यही बात थी कि कृषि से होने वाली किसानों की आय अत्यंत कम है और ऐसे में एमएसपी पर सरकारी खरीद की व्यवस्था, जिसका फायदा हालांकि चंद फीसदी किसान ही उठा पाते हैं, अगर खत्म हो जाती है जो कि मोदी सरकार द्वारा बनाये गये कृषि कानूनों से शनै: शनै: खत्म हो जाती, तो किसानों की एक बहुत बड़ी गरीब, सीमांत और निम्न-मध्यम तथा मध्यम आबादी के समक्ष कृषि से पूरी तरह उजड़ने का खतरा उपस्थित हो जाएगा जैसा कि शासक वर्गों का इन कृषि कानूनों को लागू करने के पीछे का वास्तविक उद्देश्य था। अच्छी बात यह रही है कि किसानों ने एक साल से अधिक समय तक चले आंदोलन के बल पर इन कानूनों को रद्द करवाने में सफलता पाई और मोदी सरकार पीछे हटी।
अगर हम सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) में कृषि के हिस्से की बात करें तो यह पिछले दशकों में तेजी से गिरा है एवं गिर रहा है, लेकिन कुल मजदूर वर्ग की संख्या में कृषि-मजदूरों का हिस्सा लगातार ज्यादा बना हुआ है जिससे देहातों में गरीबी बढ़ी और फैली है। यह भारतीय कृषि की एक ढांचागत समस्या है जिसकी जड़ भारतीय कृषि के राज्य प्रायोजित सुधारों के द्वारा शनै: शनै: हुए जमींदारपक्षीय पूंजीवादी रूपांतरण में है। इसकी हम यहां विशद चर्चा नहीं करेंगे लेकिन यह विषय बीच-बीच में हमारी चर्चा के मध्य आती रहेगी या आने के लिए अभिशप्त है।
क्या पूंजीवाद के अंतर्गत सभी या अधिकांश किसानों के लिए खुशहाली के दिन लाना संभव है? खुशहाली इस बात पर निर्भर करती है कि वे जो उपजाते हैं उसकी खुले बाजार या सरकारी मंडी में बिक्री से आय कितनी होती है। लेकिन इसमें तो प्रतिस्पर्धा का साम्राज्य है और कम संपन्न एवं गरीब किसानों का इसमें दम निकल जाएगा और निकल गया है। और अगर बाजार पर इजारेदार पूंजीपतियों का कब्जा हो जाए तो गरीब किसानों की बात कौन कहे संपन्न किसानों की भी मौजूदा आय अक्षुण्ण नहीं रह जाएगी। इसलिए उक्त प्रश्न को फार्म इनकम (कृषि से होने वाली आय) की बहस में जरूर शामिल किया जाना चाहिए, अन्यथा बहस का कोई अर्थ या माकूल निष्कर्ष नहीं निकलेगा।
पूंजीवाद में एक की खुशहाली दूसरे के लिए तबाही का कारण बन सकती है। मसलन, किसानों की फसलों को ज्यादा से ज्यादा कीमत मिले इसे किसानों की खुशहाली की कुंजी मानी जाती है। पूंजीवाद के अंतर्गत यह बात स्वाभाविक लगती है। छोटा से छोटा उत्पादक या व्यापारी यही चाहता है कि उसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा मिले ताकि वह अपने कारोबार का विस्तार कर सके और वह खुशहाली में रह सके। लेकिन यह बिना दूसरे को आर्थिक रूप से चोट पहुंचाए संभव ही नहीं है। पूंजीवाद में सभी को खुशहाल करने का कोई उपाय ही नहीं है। मसलन किसानों की फसलों की ज्यादा से ज्यादा कीमत का अर्थ यह भी है कि खाद्यान्नों सहित अन्य सभी कृषि मालों की महंगाई बढ़ेगी जो दूसरे कमजोर वर्गों – जैसे मजदूर वर्ग – की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करेगी। अगर उसकी मजदूरी नहीं बढ़े, या उल्टे कमे जैसा कि आज कल हो रहा है, तो मजदूर पहले की तुलना कम खाने को मजबूर होंगे। लेकिन दूसरी तरफ, अगर किसानों को लाभ नहीं मिलेगा तो फिर किसानों को लगेगा उसका विकास रुक गया है या उसकी खुशहाली छिन गई है। पूंजीवाद में आगे बढ़ने के लिए गलाकाटू प्रतिस्पर्धा की आग के दरिया को पार करना होता है। जो इसे पार नहीं कर पाते हैं वे पीछे छूट जाते हैं और तबाही व बर्बादी का सामना करने को मजबूर होते हैं। अगर खेती में किसानों को अधिकांशत: घाटा होता है तो फिर किसान निवेश नहीं कर सकते हैं और धीरे-धीरे उजड़ने की प्रक्रिया के शिकार होने लगते हैं जो कि पूंजीवाद में एक आम तथा स्वाभाविक प्रक्रिया है। अगर खेती अभी भी किसानों पर निर्भर है तो इसका बुरा असर उत्पादन और उत्पादकता पर पड़ेगा और एक बार फिर से खाद्य सुरक्षा खतरे में आ जाएगी।
पूंजीवाद के अंतर्गत उत्पादन और उत्पादकता में ह्रास का एक हल पूंजीवादी थिंक टैंक के लोगों के द्वारा कॉर्पोरेट खेती या बड़े पैमाने की पूंजीवादी इजारेदाराना खेती में बताया जाता है, लेकिन इससे अधिकांश किसान देहातों एवं कृषि से बाहर धकेले जाएंगे जो एक बड़े सामाजिक संकट तथा उथल-पुथल का कारण बन सकता है। लेकिन अगर पूंजीवाद बना रहता है तो इसकी स्वाभाविक गति इसी ओर जाने की है, अर्थात पूंजीवाद बना रहेगा तो कृषि का कॉर्पोरेटीकरण निश्चित है। कॉर्पोरेटीकरण का अर्थ है कृषि क्षेत्र और खेती का इजारेदार पूंजी के हाथों में चले जाना और किसानों का बड़े पैमाने पर देहातों से बलात निष्कासन। जो किसान देहातों से उजड़ेंगे वे शहरों में मजदूर बनेंगे और श्रमशक्ति बेचकर अपना गुजारा करने के लिए विवश होंगे जैसा कि आज कल गरीब, सीमांत तथा निम्नमध्यम वर्ग के किसान अक्सर करने को मजबूर हो रहे हैं। हम कह सकते हैं कि किसान के रूप में अधिकांश किसानों का बना रहना पूंजीवाद के अंतर्गत अंतत: संभव नहीं है, खुशहाली तो दूर की बात है।
ऐसे में हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि अगर समाजवाद कायम हो और पूंजीपति वर्ग की जगह मजदूर वर्ग शासन में आए तो क्या किसानों का किसान के रूप में अस्तित्व बना रहेगा और क्या वे खुशहाली का जीवन भी गुजार सकेंगे। अगर हां, तो यह किन शर्तों पर संभव है? आज जो संपन्न किसान हैं वे भी कृषि व देहातों पर इजारेदार पूंजी के वर्चस्व व कब्जे के बाद बुरे हालात मे होंगे। उनका भी आज न कल सर्वहाराकरण होगा, क्योंकि उनका एक बड़ा हिस्सा इजारेदार पूंजीपतियों के साथ प्रतस्पर्धा में नहीं टिकेगा हम यह जानते हैं। क्या उनका भी समाजवाद के अंतर्गत भलाई एवं निस्तार संभव है? अगर हां, तो इसकी क्या शर्तें हैं? इसकी पहली और सबसे महत्वपूर्ण शर्त तो यही है कि वे चाहे दिल से करें या मजबूरी के तहत, उन्हें शोषण के अपने इरादे एवं प्रवृत्ति तथा निजी पूंजी जमा करके दूसरे को पीछे धकेलते हुए और उनकी छाती रौंदते हुए आगे बढ़ने के सपने एवं दूसरों को दबाकर अपनी खुशहाली का जुगाड़ करने की प्रवृत्ति का हर हाल में परित्याग करना होगा और मजदूर एवं मेहनतकश वर्गों की मातहती में सामूहिकता के तहत खुशहाली खोजने की नीति को स्वीकार करना होगा। संपन्न किसानों के अलग वर्ग के रूप में उनका अस्तित्व मिट जाएगा। उन्हें दूसरों के श्रम की लूट से प्राप्त अधिशेष पर जीने और मुनाफा कमाने के विपरीत अपनी मेहनत के बल पर ही जीना सीखना होगा। हां, मजदूर वर्ग उन्हें इन शर्तों पर खुशहाल किसान का दर्जा देगा।
देखा जाए, तो दोनों ही हालातों में – यानी इजारेदार पूंजीपति वर्ग के लुटेरे वर्चस्व के अंतर्गत और मजदूर वर्ग के न्यायपूर्ण शासन के अंतर्गत भी – उन्हें अपने अतीत से छुटकारा प्राप्त करना होगा। लेकिन दोनों के बीच का फर्क यह है कि मजदूर वर्ग की मातहती में उनके जीवन का सारतत्व और खुशहाली संभव हो सकेगी और वे शान के साथ पूरी जनता के साथ मिलकर नए खुशहाल समाज का हिस्सा बनने का गौरव हासिल कर सकेंगे, वहीं कॉर्पोरेट के वर्चस्व की स्थिति में उनके जीवन का सार और खुशहाली दोनों का सफाया होना तय है। सब कुछ इससे तय होता है कि वे मेहनतकश वर्गों के साथ मिलकर और उनकी मातहती में रहना चाहते हैं अथवा रहते हैं या नहीं। जाहिर है वे सभी के लिए खुशहाल समाज के निर्माण में बाधा करते हैं तो वे अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारेंगे और उन्हें इसका अत्यंत बुरा खामियाजा, आज से भी ज्यादा बुरा खामियाजा भविष्य में चुकाना हो सकता है। स्वयं भारत में ‘आजादी’ के पूर्व से लेकर आज तक कृषि के हुए पूंजीवादी विकास के क्रम से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि पूंजीवाद, और खासकर वित्तीय इजारेदार पूंजीवाद के अंतर्गत किसानों की आबादी के एक छोटे हिस्से को छोड़कर बाकियों का कोई भविष्य नहीं है और उनकी खुशहाली का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता है।
‘आजादी’ पूर्व अग्रेजी गुलामी के तहत भी भारत में कृषि का विकास कई दशकों तक थमा रहा और ठहराव एवं पश्चगमन का शिकार रहा। 1911-41 के दौरान प्रति व्यक्ति सकल कृषि उत्पादन 0.71 प्रतिवर्ष की दर से गिरा जबकि खाद्यानों का उत्पादन, जो खाद्य सुरक्षा का एक अहम तत्व है, 1.14 प्रति वर्ष की दर से गिरा। (द्वारा – राधाकृष्ण, पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग, फार्म इनकम इन इंडिया किताब के प्राक्कथन में) इसलिए आजादी के बाद खाद्य समस्या एक बड़ी समस्या बनकर उभरी जिसके कारण भारत 60 के दशक तक विदेशों से खासकर अमेरिका से खाद्यानों (खासकर गेहूं) की आयात पर निर्भर रहा। यह निर्भरता हरित क्रांति के सफल प्रयोग के बाद ही खत्म हो सकी। इसलिए हम पाते हैं कि पूरे देश में, और खासकर चुनिंदा राज्यों में कृषि सुधारों एवं कृषि क्षेत्र का आधुनिकीकरण तेज हुआ और पिछड़े कृषि उत्पादन को पूंजीवादी रास्ते पर लाने के लिए नीतियां बनीं, क्योंकि इसके अतिरिक्त खाद्य समस्या से सीमित तौर पर ही सही लेकिन किसी और तरीके से निपटा नहीं जा सकता था। पूंजीवादी व्यवस्था जैसे इसे हल करता है वैसे ही किया गया। इसका केंद्रीय प्रभाव किसानों के बीच हुए वर्गीय विभेदीकरण के रूप में हुआ। किसान संपन्न, कम संपन्न तथा मध्यम एवं गरीब किसानों में तेजी से विभक्त हुए और किसानों का गरीब तथा वंचित हिस्सा तेजी से अपनी श्रम शक्ति बेचकर अपना गुजारा करने की तरफ बढ़ा।
जब 60 के दशक के मध्य में आए सूखे से पूरे देश में अकाल आया तो कृषि के पूंजीवादी रूपांतरण में तेजी आई। नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की इसमें काफी बड़ी भूमिका थी। एक ओर नये तरह के आधुनिक बीज, कीटनाशक, खाद और सिंचाई के नये साधनों के साथ हरित क्रांति का प्रयोग पंजाब एवं हरियाणा आदि राज्यों में शुरू किया गया, वहीं पूरे देश में भी सिंचाई (बांध और नहरों का जाल बिछाया गया) एवं बिजली में बड़े पैमाने का निवेश किया गया। क्रेडिट संस्थाएं खड़ी की गईं, अनाज एवं दूसरे कृषि मालों के बाजार को रेगुलेट किया गया, नई सड़कें बनीं, कृषि शोध संस्थान बने। इन सबकी वजह से 1980 आते-आते खाद्यान्नों के उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर हो गया और खाद्य सुरक्षा में काफी सुधार हुआ। 1980 के दशक को कृषि क्षेत्र में श्रम उत्पादकता की दृष्टि से सबसे सफल दशक माना जाता है। हम यह भी पाते हैं कि खाद्यान्नों के विदेशी आयात पर निर्भरता घट गई और इसके चंद वर्षों बाद ही भारत खाद्यान्नों के मामले में आयातक से निर्यातक देश बन जाता है। खाद्यान्नों के अलावा इसी (1980 के) दशक में ही कॉटन (कपास), और पशुधन (livestock) उत्पादों के क्षेत्र में भी उच्च विकास दर हासिल कर लिया गया था।
परिणामस्वरूप देहातों में ‘आजादी’ के उपरांत जैसी गरीबी थी वह नहीं रही, बंधुआ मजदूरी का अंत होने लगा और लोगों के सामाजिक जीवन में भी सुधार हुए। देहातों में, खासकर बिहार जैसे अत्यंत पिछड़े राज्यों के देहातों में भी 1980 के दशक के अंत में ट्रैक्टर, ट्यूब-वेल, थ्रेशर मशीन आदि बहुतायत में देखे जाने लगे। 1960 के दशक में ही जमींदार विरोधी नक्सलवादी संघर्षों की ऊंची उठती लहरों ने पुराने सामंती संबंधों पर करारा प्रहार किया और इसके फलस्वरूप भी सामंती जकड़न टूटा और ढीला पड़ा। देहातों में गरीब श्रमिक और किसान ‘आजाद’ हुए। इसी दशक में पूरे भारत में पिछड़े राज्यों से श्रमबल का बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ। रेलगाड़ियों में देहातों के गरीब लोग भर-भर कर शहरों की तरफ (खासकर औद्योगिक शहरों की तरफ) काम की तलाश में जाने लगे।
लेकिन 90 के दशक के शुरूआती वर्षों में कृषि तथा इसके अनुषंगी क्षेत्रों में संपूर्णता में विकास दर में गिरावट देखने को मिलने लगी। 2000 के दशक में इसमें और ज्यादा गिरावट आई। 2011-12 और 2016-17 में खाद्यान्नों के उत्पादन दर में काफी कमी दिखाई देती है (ibid) जिसका अर्थ यह है कि हम 90 के दशक से ही कृषि क्षेत्र में आज के भारी संकट की तरफ बढ़ना शुरू कर चुके थे। यह भी याद रहे कि 1990 के दशक में किसानों के आत्महत्याओं का दौर शुरू होता है जो आज भी उसी गति से जारी है। इसके बाद से ही कृषि से होने वाली आय का प्रश्न कृषि प्रश्न पर चलने वाली बहस के केंद्र में आता है और इससे जुड़ी चर्चा शासक वर्ग के थिंक टैंक से जुड़े लोगों के बीच जोर-शोर से शुरू हो जाती है। यह संकट वास्तव में कितना गहरा था या है यह इससे पता चलता है कि तब से यह प्रश्न न सिर्फ किसानों के बीच बल्कि शासक वर्ग के लिए भी ज्यादा से ज्यादा महत्वपूर्ण होता गया, क्योंकि देश के नए-नए पनपे इजारेदार पूंजीवादी निजाम को यह पता था कि किसानों के बीच अगर नक्सलबाड़ी के बाद फिर से वैसे ही किसी विद्रोह की स्थिति पैदा होती है जो इस बार पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध लक्षित होगी जो शासक वर्ग के दुर्ग का अंतिम तौर पर नाश करने वाली शक्ति मजदूर वर्ग के साथ मिलकर खड़ी होगी और यह उनके लिए शासन करने की मुफीद स्थितियों को उलट देंगी। शासकवर्गीय बुद्धिजीवियों एवं उनके थिंक टैंकों के बीच यह चर्चा शुरू हो जाती है कि किसानों के इनकम को कैसे बढ़ाया जाए। लेकिन पूंजीवाद में यह सभी किसानों के लिए किया ही नहीं जा सकता है।
दूसरी तरफ समस्या यह भी थी कि 1990 के दशक के बाद जो कॉर्पोरेट (बड़ी) एवं इजारेदार पूंजी देश में उभरी और ताकतवर हुई तथा सत्ता को अपने हाथ में लेने में सफल रही, उसके कृषि में प्रवेश को कैसे सुगम बनाया जाए यह प्रश्न भी आ खड़ा हुआ। नवउदारवादी नीतियों की असफलता से उत्पन्न असमाधेय संकट की स्थिति उन्हें चौतरफा इजारेदारी कायम करने के लिए बाध्य कर रही थी। इसलिए कृषि में उनका प्रवेश एक अहम मुद्दा बना और इसका दबाव मनमोहन सरकार के समय से बन रहा था और जो मोदी सरकार के तहत अमल में आना शुरू हुआ जिसका ही परिणाम देश में फासीवाद के आमद के रूप में देखा जा सकता है। आर्थिक रूप से इसे हम कृषि में सतत हो रहे पूंजीवादी विकास का दूसरा चरण मान सकते हैं।
कृषि में आये संकट को पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत कृषि के और ज्यादा विकास के द्वारा ही निपटने की नीति ली जा सकती थी और ली गई, जिसका स्वाभाविक अर्थ है कि कृषि में बड़ी इजारेदार पूंजी के प्रवेश के रास्ते को सुगम बनाया जाएगा, जिसका अर्थ यही हो सकता है कि कृषि में छोटी एवं मंझोली पूंजी के मालिकों, जो कृषि के पूंजीवादी विकास के प्रथम चरण में छक कर मुनाफे उड़ाए थे और गरीब मजदूरों तथा कृषि में लगे और उस पर निर्भर श्रमिकों के खून चूसकर मालामाल हुए, के भी बूरे दिन आने वाले हैं। मोदी सरकार ने जब कोरोना महामारी से जीवन और मौत से लड़ते लोगों को बचाने की कार्रवाई छोड़ बीच में ही नये कृषि कानूनों को आनन-फानन में यानी पूंजीवादी संसदीय मानक तरीकों को ताक पर रखकर और उन्हें ध्वस्त करते हुए पारित करवा लिया और फिर इन कानूनों को एन-केन-प्रकारेण लागू करने की कवायद शुरू करने की ठानी, तो इससे किसानों के बीच यह साफ संदेश पहुंचा कि अभी नहीं जागे तो फिर कभी संभलने का कोई मौका शायद नहीं मिलेगा। 2020-21 में हुए ऐतिहासिक आंदोलन की संक्षेप में यही मूल पृष्ठभूमि थी।
फार्म इनकम की बहस किसानों के बीच के वर्गीय विभेदीकरण को ध्यान में रखे बिना नहीं की जा सकती है। यही बात कृषि संकट को लेकर भी है। किसानों के किन वर्गों एवं संस्तरों पर संकट का बुरा या सबसे अधिक बुरा असर पड़ा, किन किसानों ने आत्महत्यायें की और किसानों का कौन संस्तर इस पूरे संकट से लाभान्वित हुआ या हो रहा है, यह भी इस बहस का एक अहम हिस्सा है। पूंजीवाद के अंतर्गत किसान एकसमान वर्ग नहीं है। इसलिए आम या अधिकांश किसानों की खुशहाली कैसे होगी या कैसे हो सकती है, यह प्रश्न पूंजीवाद में एक पेचीदा मामला और अबूझ पहेली जैसी चीज बन जाता है। भारत में पूंजीवादी कृषि के विकास के प्रथम चरण तथा आज के दूसरे चरण पर हम सरसरी निगाह दौड़ाएं तो यह पाएंगे कि अलग-अलग दौरों की अलग-अलग कहानियां है। 1980 के दशक में ही यह पूरी तरह दिख गया था कि खेती के पूंजीवादी रूपांतरण से किसानों के सभी वर्ग या संस्तर लाभान्वित नहीं हुए और उस दौर में मध्यम, धनी और बड़े किसानों ने इस पूंजीवादी विकास की भरपूर मलाई काटी, लेकिन आय एवं साधन तथा संसाधन से वंचित गरीब किसानों और मध्यम किसानों के सबसे निम्न आर्थिक स्तर के किसानों की पूंजीवादी खेती से कुल मिलाकर उल्टे हानि हुई। संपन्न किसानों की तरह बाजार में ऊंचे दाम मिलने के सपने से वशीभूत हो तथा रातों-रात अमीर बनने की चाहत में वे कर्ज में डूबते चले गये और संपन्न किसानों के बीच से ही उभरे व्यापारियों एवं सूदखोरों के चंगुल में फंसते चले गए। पूंजीवादी खेती महंगी होती है जिसमें लाभ कमाना आर्थिक-सामाजिक रूप से एक जोखिम भरा प्रतिस्पर्धात्मक काम होता है और इसमें वे (गरीब एवं कम आय व साधन वाले निम्न मध्यम किसान) संपन्न एवं धनी किसानों की टक्कर नहीं ले सकते हैं। और यही हुआ। वे इस पूंजीवादी प्रचार के प्रभाव में कि “तुम भी चाहो तो अमीर बन सकते हो” वे इस बात को भूल गए कि प्रतिस्पर्धा का परिणाम आर्थिक-सामाजिक बल से तय होता है। बाद में 1990 के दशक में जब कृषि क्षेत्र का ग्रोथ रेट नीचे गिरा, तो इन्हें कर्ज न चुकाने की वजह से गले में फांसी लगानी पड़ी या सल्फास खाकर अपनी जीवन लीला को समाप्त करने जैसे आत्मघाती कदम उठाने पड़े। और यह स्थिति उन्हीं क्षेत्रों में सबसे ज्यादा दिखाई दी जो हरित क्रांति के प्रदेश या क्षेत्र थे। इसने शासक वर्ग के लिए भी एक मुश्किलों से भरी नैतिक स्थिति पैदा कर दी, क्योंकि यह उनके शासन करने के तरीके और शासन करने के मूल लेकिन खोखले संसदीय जनतांत्रिक तर्क (जो जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन की बात करता है) को खारिज करता है, खासकर किसानों के बीच। इससे पूंजीवादी सरकारें जैसे निपट सकती हैं वैसे ही रास्ते लिए गए।
मुख्य रूप से दो बातें हुईं। पहली बात यह कि सीमांत और गरीब किसानों को संस्थागत कर्ज मुहैया कराये जाएं ताकि वे आत्महत्या नहीं करें और वे पूंजीवादी खेती में टिके रहें तथा यदाकदा कुछ आय भी कमा सकें ताकि पूंजीवादी खेती से उनका जीवन बदल सकता है यह भ्रम उनके बीच तथा अन्यों के बीच बना रहे। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं यह संभव नहीं था और उनकी हालत में कुछ भी सुधार नहीं हुआ और वे पहले से और ज्यादा खस्ताहाल होते गए। बाजार तो अक्सर दगा देता ही था, प्रकारांतर में इजारेदार पूंजी के दबाव में सरकारी मंडी में एमएसपी पर बिक्री का लाभ भी हाथ से जाता दिखने लगा। बाद में जब कृषि में लागत मूल्य तेजी से बढ़ने लगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में महंगाई ने धावा बोला तो गरीब किसान ही नहीं अन्य संस्तर के किसानों की हालत भी खराब होती गयी।
फार्म इनकम बढ़ाने को लेकर दूसरा उपाय यह निकाला गया कि उत्पादकता और ज्यादा बढ़ाई जाए (पूंजीवादी थिंक टैंकों द्वारा)। ये उपाय किये भी गए लेकिन इससे एकमात्र बड़ी कॉर्पोरेट यानी इजारेदार पूंजी के कृषि क्षेत्र में प्रवेश के लिए किये जा रहे प्रयासों को ही बल मिला। इसके अतिरिक्त, इजारेदार पूंजी के कृषि क्षेत्र में उपजे नये हितों (जिसके तहत वे देहातों की हर चीज, जमीन से लेकर उत्पाद और उससे जुड़े बाजार पर कब्जा करना चाहती है और जिसकी जद में पूर्व में पूंजीवादी खेती से लाभान्वित मध्यम एवं धनी किसानों का एक हिस्सा भी आने वाला है) के समक्ष उत्पादकता बढ़ाकर किसानों की आय को बढ़ाने की नीति एवं प्रयास की तुच्छ सीमा जल्द ही प्रकट हो गई। परिणामस्वरूप जैसा कि कोई भी पूंजीवादी सरकार करना चाहेगी, देहातों की बहुत बड़ी आबादी, जो गरीबी और आर्थिक अभावग्रस्तता से पूरी तरह त्रस्त है, को आगे की लाभकारी योजनाओं से बाहर रखने की चाल चली जाने लगी। लक्ष्य यह बना कि इन्हें देहातों से बाहर किया जाए और शहरों में धकेलकर औद्योगिक रिजर्व सेना (बेरोजगारों की सेना) को और ज्यादा बढ़ाया जाए ताकि मजदूरी दर और नीचे गिरे तथा पूंजीपति वर्ग को और भी ज्यादा मुनाफा कमाने के अवसर प्राप्त हों। यह सरकारी दस्तावेजों में भी दर्ज है कि देहातों की बेशी तथा आय व साधन से वंचित आबादी को कृषि क्षेत्र से बाहर धकेला जाए यानी देहाती आबादी को कम किया जाए। और जो मुट्ठी भर संपन्न लोग बचेंगे उन्हें इजारेदार पूंजी के नेतृत्व में बड़े पैमाने की खेती की लाभकारी योजनाओं का हिस्सा बनाया जाए और इस तरह देहात में मौजूद भयंकर गरीबी, कंगाली और बदहाली के कलंक से शासक वर्ग को मुक्त होने का अवसर दिया जाए।
लेकिन सामाजिक-राजनीतिक घटनाएं इतनी सरलरेखीय गति से नहीं बढ़ती हैं। बाजार पर बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के क्रमश: होने वाले पूर्ण कब्जे की स्थिति में संपन्न किसानों के एक बड़े हिस्से को, जो अभी भी खेती में पूंजी निवेश करके अपनी आय कमाते हैं, को तेजी से इस बात का अहसास हुआ कि उनकी आज की आय, जो नीचे गिरने की ओर प्रवृत्त है, एक ही स्थिति में बची रह सकती है– और वह है लाभकारी मूल्य पर सरकारी खरीद की पहले जैसी गारंटी बनी रहे । लेकिन इसमें एक दिक्कत की बात यह आई कि सिर्फ इस हद तक सीमित मांग से सभी वर्ग तथा संस्तर के किसानों का पूर्ण समर्थन नहीं मिलेगा। इसके लिए एक ऐसी मांग को सामने लाना या ऐसी मांग का सामने आना जरूरी था जिससे गरीब से गरीब किसान को भी यह लगे कि उसकी उपज भी सरकार द्वारा तय लाभकारी सरकारी मंडी के दाम पर अवश्य बिकेगी। इसी का नतीजा है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग उठी जो देखा जाए तो संपन्न किसानों को इसलिए मंजूर हुआ क्योंकि इजारेदार पूंजी से आने वाला खतरा उनके सामने प्रकट हो चुका था। अन्यथा वे कभी नहीं चाहेंगे कि एमएसपी को कानूनी दर्जा मिले। इससे किसानों का कमजोर तबका भी एक हद तक लाभान्वित होता है जो एमएसपी की पुरानी व्यवस्था में नहीं होता था क्योंकि उनकी पहुंच सरकारी मंडी तक विभिन्न कारणों से नहीं बनती थी। यह मांग संपन्न किसानों के हितों पर अप्रत्यक्ष रूप से चोट भी पहुंचाती है और शायद यही कारण है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर किसान आंदोलन का एक बड़ा तबका डट कर लड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। बड़े और संपन्न किसानों को यह भी पता है कि यह मांग पूंजीवादी राज्य की आर्थिक-सामाजिक तथा रजनीतिक सीमा से भी टकराती है और इस मांग पर अंत तक डटे रहने के लिए वह अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप तैयार नहीं थे। यह अलग बात है कि जीवन उन्हें फिर से इस मांग पर संघर्ष करने को मजबूर कर दे।
जब मोदी सरकार नए कृषि कानून लेकर आई तो यह साफ हो गया कि ये कानून न सिर्फ इजारेदार पूंजी को कृषि क्षेत्र की उपज के बाजार पर पूर्ण नियंत्रण देने के लिए हैं अपितु खेती एवं पूरे देहात को शनै: शनै: कॉर्पोरेट को हवाले करने और साथ ही साथ (क्योंकि इसके बिना देहातों को कॉर्पोरेट के हवाले नहीं किया जा सकता है और न ही “देहातों में भयंकर गरीबी है” के कलंक से शासक पूंजीपति वर्ग को मुक्ति ही मिल सकती है) कम संपन्न या पूंजीवादी खेती में टिके रहने के लिए आवश्यक पूंजी से वंचित सीमांत, गरीब किसानों तथा खेती में लगे बेशी मजदूरों को देहातों से बाहर निकालने के लिए हैं। लेकिन इसके दूरगामी असर को देखें तो कालांतर में बाजार पर कब्जे और सरकारी खरीद की पुरानी एवं अधूरी ही सही लेकिन काम कर रही एक व्यवस्था को भी खत्म करके धनी किसानों, जिनकी आय पहले की तुलना में आज ही कम रह गई है, को भी भारी मुसीबत में डालने की नीति है। यही वह कारण है जिससे किसानों के एक ऐतिहासिक आंदोलन की नींव डली और जीत भी दर्ज करते हुए कृषि कानूनों को वापस करवाने में किसानों ने सफलता हासिल की। यह अलग बात है कि इस अकेली जीत से किसानों के ऊपर जो बर्बादी के संकट छाए हुए हैं वे हटने वाले नहीं हैं, जब तक कि कॉर्पोरेट पूंजी को प्रश्रय देने वाली पूंजीवादी व्यवस्था कायम है। सवाल है, अगर यह व्यवस्था कायम है तो वित्तीय कॉर्पोरेट पूंजी के कृषि क्षेत्र में प्रवेश को आखिर कितने दिनों तक रोका जा सकेगा? बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के खिलाफ पूर्ण बगावत (जिसका अर्थ इसकी ताकत के मूल स्रोत पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ बगावत से है) किए बगैर किसानों की मुक्ति संभव नही है तथा उनके ऊपर छाए तबाही के बादल छंटने वाले नहीं हैं।
हम इन्हीं बातों की पृष्ठभूमि में फार्म इनकम इन इंडिया की समीक्षा का प्रयास कर रहे हैं जो मूल रूप से यह मानती है कि किसानों की आय वास्तविक पदों में नहीं बढ़ी है। हम इस पुस्तक की समीक्षा को इसलिए ही हाथ में ले रहे हैं ताकि यह दिखाया जा सके कि किसानों की गिरती आय का वर्गीय साररूप क्या है और इसका समाधान पूंजीवाद में है ही नहीं।
2021 में प्रकाशित इस पुस्तक का पूरा नाम फार्म इनकम इन इंडिया: मिथ एंड रियलिटी है। यानी, इस पुस्तक का ध्येय खेती से किसानों की होने वाली आय को सरकारी तथ्यों व आंकड़ों की रोशनी में जांचना और परखना है। इसकी समीक्षा का प्रयास शुरू करते ही हमें यह लगा कि पांच अलग-अलग हिस्सों (जो निस्संदेह सभी आपस में गुंथे हुए हैं) में बंटी इस पुस्तक की समीक्षा एक ही बार में करने के बजाए उसके अलग-अलग हिस्सों की एक-एक कर समीक्षा की जाए ताकि गहनता से लेखक की बात को समझा जाए और किसानों के प्रश्न पर उसकी गहराई में उतर कर उसके समाधान की बात की जाए, और फिर अंत में संपूर्णता में अलग-अलग हिस्सों में की गई समीक्षा को अंतिम निष्कर्ष के साथ पेश किया जाए। जाहिर है हमारा यह लेख इस अर्थ में अभी अधुरा है। हम इसके तमाम समीक्षात्मक निष्कर्षों का निचोड़ अंत में करेंगे।
सवाल है, पहले हिस्से में क्या है जिसकी हम अगले अंक में समीक्षा करेंगे? दरअसल पहले हिस्से में दो अध्याय हैं – फार्म इनकम इन इंडिया : ट्रेंड्स, डाइमेंशन्स एंड मिथ (रुझान, आयाम और मिथक) तथा फार्म इनकम: एरिगेटेड वर्सस अन-ऐरिगेटेड (सिंचित बनाम असिंचित)। इसके अतिरिक्त लेखक ने एक इंट्रोडक्शन (प्रस्तावना) भी लिखा है जो महत्वपूर्ण है और इसलिए हमारी समीक्षा के पहले हिस्से में शामिल होगा। इस तरह कुल पांच समीक्षात्मक लेख होंगे और एक अंतिम लेख होगा जिसमें हम पिछले पांच भागों में की गई समीक्षा के निचोड़ को पेश करते हुए निष्कर्षों पर बात करेंगे।
फिर भी, हम इस अंक में इंट्रोडक्शन (प्रस्तावना) पर एक संक्षिप्त चर्चा करेंगे। इंट्रोडक्शन में लेखक ए. नारायणमूर्ति लिखते हैं कि ”आबादी में चार गुना वृद्धि के बीच भारत खाद्यान्नों के एक निवल (net) आयातक देश से एक नेट निर्यातक देश के रूप में विकसित कर चुका है। (Amidst a four-fold increase in population, India has now emerged from being a net importer of foodgrains to net exporter of different agricultural commodities.) फिर वे इसे तथ्यों से पुष्ट करने के लिए सरकारी आंकड़े देते हैं कि 1965-66 से 2016-17 के बीच चावल का उत्पादन 30.59 मिलियन (एक मिलियन में 10 लाख होता है) टन से बढ़कर 110.15 मिलियन टन हो गया। इसी तरह गेहूं का उत्पादन 10.40 मिलियन टन से बढ़कर 98.38 मिलियन टन हो गया। कुल खाद्यान्न उत्पादन को देखें तो उसी अवधि में यह 72.35 मिलियन टन से बढ़कर 275.68 मिलियन टन हो गया है। लगभग ऐसी ही या उससे थोड़ी कम वृद्धि गैर-खाद्यान्नों के उत्पादन में हुई है। मसलन, तिलहन का उत्पादन उसी अवधि में 6.40 मिलियन टन से बढ़कर 32.10 मिलियन टन हो गया। कपास का उत्पादन 4.85 मिलियन बेल्स (एक बेल में 170 किलोग्राम होता है) से बढ़कर 33.09 मिलियन बेल्स हो गया। ईख का उत्पादन इसी अवधि में 123.99 मिलियन टन से बढ़कर 306.72 मिलियन टन हो गया। वे बताते हैं कि भारत का कृषि क्षेत्र आज खाद्यान्नों, फलों और दूध के उत्पादन में दुनिया के चंद सबसे बड़े क्षेत्रों में एक माना जाता है। वे यह भी लिखते हैं कि ”कुछ अनुमान यह बताते हैं कि भारत का सकल कृषि माल उत्पादन एक बिलियन टन से भी ज्यादा हो गया है।”
लेकिन उत्पादन के इस आंकड़े का क्या यह भी अर्थ है कि किसानों का इनकम भी इसी अनुपात में बढ़ा है? वे इसका जवाब ”ना” में देते हैं। वे कहते हैं कि पंजाब, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडू जैसे विकसित कृषि क्षेत्र वाले राज्यों में भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं और वे कृषि क्षेत्र के विशेष लेखक विद्वानों जैसे श्रीमान देशपांडे और अरोड़ा के हवाले से यह कहते हैं कि इसका मुख्य कारण फार्म इनकम का अत्यंत कम होना और इससे उत्पन्न कर्ज के बोझ का लगातार बढ़ना है। वे लिखते हैं – “Because of inadequate income from farming, farmers are unable to repay the loans that they have taken for agricultural purposes, which not only leads to increased indebtness but at times forces them to commit suicides as well (Deshpande, 2002; Deshpande and Prabhu] 2005) Professor Radhakrishna’s committee on agricultural indebtedness appointed by the Ministry of Finance to study the reasons for farm indebtedness clearly underlined that inadequate income from crop cultivation was the root cause for the widespread indebtedness in India (GOI, 2007)
हम यहां देख पाते हैं कि कृषि संकट के मूल कारणों तक पहुंच रहे हैं लेकिन उसकी जड़ पूंजीवाद तक उनकी नजर नहीं जाती है या जा पाती है। वे यह नहीं देखते या देख पाते हैं कि यह कृषि संकट किसानों के बीच के वर्गीय विभेद के कारण अलग-अलग संस्तर के किसानों पर अलग-अलग प्रभाव डालता रहा है। वे यह भी नहीं बता रहे हैं कि जो आत्महत्या कर रहे हैं वे कौन किसान हैं। वे कृषि में पूंजीवादी विकास के दो चरणों को भी नहीं देख पाते हैं और इसीलिए वे यह नहीं समझ पाते हैं कि 90 के दशक के पहले के कृषि के विकास के दो से ढाई दशकों में, जिनके बीच कृषि के इतने बड़े पैमाने के विकास की नींव पड़ी, किसानों के बीच के पहले से मौजूद विभेदीकरण और बढ़ा है, न कि घटा है तथा 90 के दशक में जब कृषि के विकास का दूसरा चरण शुरू होता है तब इसके पहले के दो से ढाई दशकों में हुए तीव्र वर्गीय एवं आर्थिक विभेदीकरण के कारण पूंजीवादी दुष्चक्र में फंसे पिस रहे गरीब और सीमांत तथा अति निम्न मध्यम वर्ग के किसानों की हालत बद से बदतर हो गई और वे आत्महत्या को मजबूर हुए। हम यह भी पाते हैं कि संपन्न किसानों के बीच भी दाम के मामले में बाजार के दगे ने धक्का पहुंचाया है। लेकिन वे इसे झेलने में सक्षम थे और कालांतर में कई अवसरों पर अतिलाभ कमाकर एक समय की हुई क्षति की भरपाई भी कर ले गए।
यह बात सही है कि खाद्य सुरक्षा सरकारों की प्राथमिकता रही है और इसलिए खाद्यान्नों के उत्पादन पर ध्यान देना जरूरी था। लेकिन क्या यह सब कुछ कृषि क्षेत्र के संपन्न वर्गों के हित को सुरक्षित करके और गरीब तथा वंचित वर्ग के हितों की तिलांजलि दे कर नहीं किया गया? यह भी सही है कि फार्म इनकम पर बहस तब केंद्र में आया जब गरीब एवं सीमांत किसानों, जो पूंजीवादी खेती के दुष्चक्र में रातों-रात अमीर बन जाने के सपने के वशीभूत हो खींचे चले आये, की आत्महत्याएं शुरू हो गईं और कई वर्षों तक तथा आज भी जारी हैं। लेकिन क्या इस बहस में भी संपन्न वर्गों के किसानों के हित ही मुख्य विषय वस्तु नहीं बने रहे? अगर ऐसा नहीं है तो गांवों से गरीबों को बाहर धकेलने की बात क्यों और किस तरह आई? जब वर्तमान सदी के पहले दशक की शुरूआत में स्वामीनाथन कमिटी ने यह कहा कि कुल लागत (C2) के ऊपर 50 फीसदी का लाभ किसानों को दिया जाना चाहिए तो क्या यह संपन्न किसानों के हितों को आगे बढ़ाने के अनुरूप ही नहीं था, क्योंकि इससे गरीब किसानों को फायदा मिले इसे सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था ही नहीं की गई थी? पूंजीवाद के तहत यह संभव भी नहीं था। क्या गरीब किसानों ने एमएसपी का फायदा उठाया या क्या देश के सभी किसानों को इसका फायदा मिला या मिल सकता था? उस समय की सरकारों ने इस रिपोर्ट को लागू करने की बात कभी नहीं स्वीकारी, लेकिन एमएसपी लगातार बढ़ता गया, तो क्या एमएसपी का फायदा गरीब किसानों को मिले इसे किसी तरह सुनिश्चित करने की कवायद दिखी?
दरअसल समस्या तब ज्यादा गहराई जब एमएसपी के बावजूद संपन्न किसानों की एक बड़ी आबादी कर्ज के जाल में फंसती चली गई और उससे उबरने की स्थिति खत्म होती दिखी, क्योंकि 2000 के दशक के अंत तक सरकार और बाजार दोनों पर इजारेदार पूंजीपतियों का कब्जा लगभग पूरा हो चुका था और सरकार उनके हितों के अनुरूप एक तरफ बाजार को उनके हवाले करने को राजी हो गई, खासकर मोदी सरकार ने, और दूसरी तरफ सरकारी मंडी को शनै: शनै: खत्म करने की नीति को लागू करने की कार्रवाई के लिए भी राजी हो गई। हालांकि इसकी सिफारिश यूपीए की सरकार ने ही की थी लेकिन उसे लागू करने की हिम्मत नहीं दिखा सकी। मोदी राज में अनाजों की सरकारी खरीद में व्यापारियों की तरह-तरह की धांधली शुरू हुई, खरीद मूल्य को बढ़ाया गया जबकि खरीद की मात्रा को घटाने की प्रवृत्ति साफ देखी गई। जो खरीद हुई उसमें व्यापारियों का घपला बड़े पैमाने पर शामिल होने व रहने लगा। लागत मूल्य बढ़ता गया, इसलिए निवेश खर्च बढ़ता गया और कर्ज भी बढ़ता गया तथा दूसरी तरफ बंपर फसल के समय बाजार मूल्य लागत के भी नीचे चला जाने लगा। सरकारी खरीद पूरे देश में समान नहीं थी और यह लगातार घटती गई। कुल मिलाकर संपन्न किसानों को भी लगने लगा कि उनके दिन भी कॉर्पोरेट पूंजी के प्रवेश के बाद लदने वाले हैं।
भारत में फार्म इनकम बढ़ रहा है या घट रहा है? लेखक इस पर भी वर्गीय विश्लेषण से कतराते हुए भी यह मानते हैं कि फार्म इनकम की लाभ दर कई सालों के दौरान वास्तविक पदों में कमा है। लेकिन वे इस बात पर चुप्पी साध लेते हैं कि क्या ये औसत आंकड़े वर्गीय विभेद को नहीं छुपाते हैं? क्योंकि सभी किसानों की आय तो कमी नहीं यह वास्तविकता है। ईख उत्पादकों को सुनिश्चित बाजार चैनेल की वजह से पहले कई सालों तक नियमित तौर पर अच्छा-खासा लाभ मिलता रहा है लेकिन इधर काफी वर्षों से ईख उत्पादक किसान भी कहने लगे हैं कि उनका इनकम घट गया है जिसका कारण ईख के उत्पादन में लागत मूल्य का बढ़ जाना है। इसकी पुष्टि सीसीएस – Cost of Cultivation Survey – के आंकड़ों से होती है। यह भी एक तथ्य है कि आंध्र प्रदेश के धान किसानों के द्वारा क्रॉप होलीडे मनाने का निर्णय लिया गया तथा वे इसे लागू करने की मांग देश के समस्त किसानों से भी करते हैं। ए. नारायणमूर्ति यह भी मानते हैं कि बाजार की सुविधा को एमएसपी, जिसका फायदा 4 प्रतिशत किसान परिवार ही उठा पाते हैं (एनएसएसओ, 2014) की तुलना में कम महत्व दिया गया और फार्म इनकम में आने वाली कमी के लिए इसको भी जिम्मेवार मानते हैं। लेकिन इसके उलट वे यह भी मानते हैं कि ”It is found that where ever state-managed procurement infrastructures are readily available for farmers, it helps them to reap better profit from their crops” (Singh et al, 2015) जाहिर है खुले बाजार में किसानों की इनकम में वृद्धि की गारंटी नहीं है वे इसे मानते हैं, जबकि सरकारी मंडी में मिलने वाले सरकार द्वारा तय दाम को अगर सभी किसानों के लिए कानूनी रूप से सुनिश्चित किया जाए, तो आम किसानों को इससे कुछ फायदा होगा और उनकी इनकम में वृद्धि होगी। लेकिन सवाल है क्या पूंजीवादी राज्य के तहत सभी किसानों के लिए फार्म इनकम में वृद्ध की कानूनी-वैधानिक गारंटी की जा सकती है? क्या एमएसपी को सभी किसानों के लिए सुलभ और सुनिश्चित बनाया जा सकता है? यानी, क्या एमएसपी की कानूनी गारंटी की जा सकती है? पूंजीवाद के अंतर्गत इसकी संभाव्यता और असंभाव्यता पर नारायणमूर्ति बिल्कुल ही विचार नहीं करते हैं, और न ही इस पर विचार करते हैं कि पूंजीवाद के अंतर्गत किसानों को मिलने वाले लाभकारी मूल्य का अर्थ किसानों की आय को सुलझाने के बजाय और उलझाता भी है, खासकर इसका अर्थ मजदूर वर्ग के लिए खाद्यान्नों तक पहुंच का कम हो जाना भी है, क्योंकि इससे खाद्यान्नों की महंगाई बढ़ती है। इसलिए वे कुल मिलाकर किसानों की आय बढ़ाने की बात को पूंजीवाद के दायरे से बाहर विचार करने से पूरी तरह इनकार करते हैं जबकि यह सत्य है कि पूंजीवाद के अंदर एमएसपी को कानूनी बनाना वैसे तो संभव ही नहीं है लेकिन ऐसा हो भी जाता है तो यह समस्या को सुलझाने के बजाए और उलझा देगा। हम इस पर समीक्षा करते हुए आगे बात करेंगे। खासकर इस पर कि पूंजीवाद के हटे बिना किसानों की मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है।