दक्षिण एशिया में तीव्र होते अंतर्विरोध 

July 23, 2022 0 By Yatharth

पूंजीवाद के उन्मूलन के बिना मेहनतकश जनता की मुक्ति नहीं

संपादकीय, जुलाई 2022

श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान, बांग्लादेश व भारत सहित पूरा दक्षिण एशिया इस वक्त बड़े पूंजीवादी संकट के कगार पर है। विश्व की गरीब मेहनतकश आबादी के बहुत बड़े हिस्से वाला यह क्षेत्र एक तरह से वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी बनने का संभावित उम्मीदवार है। यह पूरा क्षेत्र प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी प्रभुत्व के दौर से गुजरा है और उसी दौरान इन देशों में एक संकटग्रस्त, बीमार, पंगु पूंजीवाद का विकास हुआ जो अपने जन्म से ही ऊर्जा हीन था।  अतः यह एक और साम्राज्यवाद तो दूसरी ओर सामंतवाद से समझौतों के जरिए ही ‘परिपक्व’ हुआ और अपने सामने खड़े होते मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जुझारू क्रांतिकारी तरीके से समाज को बदलने के खतरे को भांपते हुए इसने समाज के जनवादीकरण के काम को पूरी तरह तिलांजलि दे दी। अतः आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्र में पूंजीवादी व्यवस्था के बावजूद इस पूरे क्षेत्र में सामंती समाज के प्रतिक्रियावादी मूल्य आज भी बड़े पैमाने पर मौजूद हैं।

वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के दौर में हुए पूंजीवादी विकास की वजह से इनकी अर्थव्यवस्थाओं में चौतरफा औद्योगीकरण भी नहीं हुआ व बड़ी आबादी आज भी कृषि व अन्य प्राथमिक क्षेत्रों पर निर्भर है और बेहद कंगाली का जीवन बिता रही है क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में एक और तो इन क्षेत्रों के छोटे मालिकों की बरबादी तय और जारी है, दूसरी ओर यहां से सरप्लस बनती इस आबादी को नए औद्योगिक क्षेत्रों में खपाए जाने की संभावनाएं भी पहले ही चुक गईं हैं। अतः पूरे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, अर्ध-बेरोजगारी, छिपी बेरोजगारी का भारी संकट है और काम करने लायक उम्र के आधे से भी कम किसी वास्तविक रोजगार में हैं, बाकी रोजगार पाने की संभावनाओं तक से हार मानकर रोजगार ढूंढना तक छोड़ चुके हैं। जिनके पास रोजगार हैं वे भी मांग के मुकाबले श्रम शक्ति की इस बड़ी आपूर्ति के चलते अत्यंत कम मजदूरी वाले अस्थाई, बिना किसी श्रम सुविधा, अधिकार या बुनियादी सुरक्षा तक से रहित अनौपचारिक/असंगठित रोजगार हैं जिनमें हर साल बड़े पैमाने पर मजदूर कार्य स्थल पर मौत का शिकार होते हैं। 

ये सभी देश कोयला, पेट्रोल-डीजल से लेकर अन्य उपभोक्ता वस्तुओं, उच्च तकनीक, मशीनरी व लग्जरी सामान आयात करते हैं जबकि इनका मुख्य निर्यात श्रम शक्ति का निर्यात है जिसमें सीधे श्रमिकों का निर्यात जो वहां से विदेशी मुद्रा देश में भेजते हैं तथा देश में ही अत्यंत कम मजदूरी पर विदेशों में निर्यात के लिए सामानों-सेवाओं का उत्पादन शामिल है जिससे भी विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। अतः ये हमेशा विदेशी मुद्रा की कमी से जूझते रहते हैं और इसके लिए हर मुमकिन समझौतों रियायतों द्वारा विदेशी पूंजी निवेश को निमंत्रित करने में जुटे रहते हैं। इस हेतु 1970-80 के दशकों से ही एक के बाद एक इन्होंने पूंजीवाद की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को तेजी से अपनाया है जिसमें निजीकरण, अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में सत्ता के संरक्षण में कॉर्पोरेट पूंजी का दखल, श्रमिक यूनियनों का दमन, काम का ठेकाकरण, सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च में कटौती जैसे सभी कदम शामिल हैं। इसने मेहनतकश जनता के जीवन को और भी अधिक संकट में डाल दिया है तथा सभी टटपुंजिया वर्गों की कंगाली-बरबादी के जरिए सर्वहाराकरण की प्रक्रिया को अत्यंत तेज कर दिया है। 

स्वाभाविक तौर पर ही नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के साथ ही साथ राजनीति में अधिनायकवादी, बहुसंख्यकवादी, कट्टरपंथी, फासीवादी, गैरजनवादी, सैन्यवादी रुझान प्रभावी हुए हैं, जनवादी अधिकारों में कटौती हुई है और सत्ता का दमन तंत्र मजबूत हुआ है। इससे राष्ट्रीय, धार्मिक, भाषाई, आदि अल्पसंख्यकों पर जुल्म बेहद बढ़ गया है और जाति व लिंग के आधार पर पहले के दशकों में समानता के जो दरवाजे कुछ हद खुले थे उन्हें फिर से बंद किया जा रहा है ताकि समाज के पुराने सामंती, कबीलाई अभिजातों के विशेषाधिकार पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में भी न सिर्फ सुरक्षित रहें बल्कि नवीन राजसत्ता की संस्थाओं व सामाजिक संबंधों में भी प्रभावी बने रहें। खुद इन देशों का पूंजीपति वर्ग इन परंपरागत प्रतिक्रियावादी मूल्यों-संबंधों को अपने हित में प्रयोग करने के उपाय ढूंढ चुका है और अपने शासन व उत्पादन संबंधों को कायम रखने में इस्तेमाल कर रहा है।  

इन सब प्रवृत्तियों ने पूरे दक्षिण एशिया के समाजों में अंतरविरोधों को बेहद तीक्ष्ण व गहन कर दिया है। पहले कोविड फिर उक्रेन में अमरीका-नाटो व रूस के बीच साम्राज्यवादी लुटेरे युद्ध ने इन अंतरविरोधों को खुले संकट में बदलने के ट्रिगर का काम किया है। इन सभी देशों में विभिन्न प्रकार के विक्षोभ से जो तरह-तरह के जन उभार देखे जा रहे हैं या खुद शासक वर्ग में ही अस्थिरता की स्थिति पैदा हो रही है उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।   

श्रीलंका में जन उभार 

श्रीलंका में अरगलया (संघर्ष) भी शासक वर्ग के खिलाफ रोष भरी जनता का ऐसा ही विराट उभार है। ‘सारे 225 नहीं’ (225 कुल सांसद हैं) के नारे इसे ही इंगित करते आ रहे थे। 9 जुलाई को जो विद्रोह हुआ जिसमें विक्षुब्ध जनता के विशाल हुजूम ने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री आवासों व अन्य सरकारी भवनों पर कब्जा कर लिया यह फिर से इस बात की अभिव्यक्ति था कि महिंदा राजपक्षे व अन्य के इस्तीफों से जनता संतुष्ट नहीं है और वह राजपक्षे की सरकार को बचाने के किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं करती। निश्चय ही ऐसे जनउभारों के वक्त अक्सर आरंभ से ही किसी विशिष्ट राजनीतिक शक्ति का नेतृत्व स्थापित नहीं होता, बहुत से समूह अपने विभिन्न नजरिए व मकसद से इसमें शामिल होते हैं। ऐसा राजनीतिक नेतृत्व कायम करने का संघर्ष बाद में चलता है, वहां भी अभी जारी है।

बुर्जुआ पार्टियां संकट के लिए मात्र राजपक्षे परिवार को जिम्मेदार बताकर इसे मौजूदा संविधानिक दायरे में सीमित रखने हेतु नई सरकार में गोटियां फिट करने में जुटी हैं। राष्ट्रपति प्रणाली को समाप्त कर संसदीय प्रणाली के लिए संविधान संशोधन का झुनझुना दिखाया जा रहा है। भारत, अमरीका, यूरोपीय यूनियन भी यही सलाह दे रहे हैं। इसके लिए ही गोटा का इस्तीफा दिलाकर रानिल विक्रमसिंघे ने  राष्ट्रपति का अस्थाई चार्ज लिया है और 20 जुलाई को मौजूदा 225 सांसद ही नया राष्ट्रपति चुनेंगे अर्थात सत्ता पिछले चुनाव में चुनी गई राजपक्षे समर्थक संसद के पास ही रहेगी बस राजपक्षे स्वयं नहीं रहेंगे। 

वामपंथी राजनीति को देखें तो मुख्यतः जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) है जो राजनीतिक लाइन से समाजवादी क्रांति का पक्षधर है परंतु 1971 व 1987-88 के सशस्त्र संघर्षों के बाद अब क्रांतिकारी व संसदीय लाइन के बीच झूल रहा है। इस संसदीय विचलन के चलते उसका एक बडा हिस्सा टूटकर 2012 में फ्रंटलाइन सोशलिस्ट पार्टी (एफएलएसपी) बना चुका है। जेवीपी दिसंबर से ही एक नेशनल पीपुल्स पावर (एनपीपी) मोर्चा बना सत्ता का दावा कर रही है हालांकि मौजूदा संसद में उसके अपने तीन ही सांसद हैं और कुछ सांसद व्यक्तिगत तौर पर उसके मोर्चे और कार्यक्रम के साथ हैं। एफएलएसपी पूंजीवादी राजसत्ता के उन्मूलन की नीति पर कायम है लेकिन इस वक्त जेवीपी के साथ सहयोग के लिए तैयार है। ये दोनों तमिल नेशनल एलायंस (टीएनए) के साथ भी साझा स्टैंड लेने के प्रयास में हैं। इनका कार्यक्रम फिलहाल एक तरह से एक पीपुल्स डेमोक्रेसी का कार्यक्रम प्रतीत होता है जिसमें राष्ट्रपति प्रणाली खत्म करने के साथ ही जनता को निर्वाचित प्रतिनिधियों पर राइट टू रिकॉल का अधिकार होगा और सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों के साथ ही राजनीतिक-प्रशासनिक विकेंद्रीकरण कर प्रांतीय सभाओं को अधिकार दिए जायेंगे, जो तमिल व अन्य अल्पसंख्यकों की 6 दशक पुरानी मांग को कुछ हद तक संतुष्ट करता है। ये सबके लिए निशुल्क सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था व इन पर बजट का क्रमशः 6 व 5% प्रतिशत आबंटन के साथ अन्य जनपक्षधर आर्थिक सुधारों की बात कह रहे हैं। साथ ही ये 6 महीने के अंदर नये संसद चुनाव व संविधान पर जनमतसंग्रह की मांग पेश कर रहे हैं। अन्य पुरानी वामपंथी पार्टियों को चुनावी राजनीति के दायरे में ही देखना चाहिए। जेवीपी और एफएलएसपी ही वास्तविक शक्ति हैं और ये अभी पूरे देश में अरगला कमिटियां बनाने में जुटी हैं। संभवतः पिछले दोनों बार की विदेशी फौजी दखलंदाजी का अनुभव भी जेवीपी/एफएलएसपी को जमीनी हकीकत से आगे की बडी बातों-दावों के प्रति चौकस कर रहा है जिसके कारण वे सावधान होकर अपने कदम उठा रहे हैं।

सोवरेंटी इज इन पीपुल‘ – जनता ही सार्वभौम सत्ता है

(कोलंबो के प्रदर्शन में एक बैनर)

कोलंबो के राष्ट्रपति भवन में नहाते, खाते, सोते, उछलते, अपने बच्चों-बुजुर्गों को वहां की सैर कराते, खुश पर साथ ही गोटबाया के सत्ता छोडने तक वहीं जमे रहने की जोशो-जिद वाले आम लोगों के हुजूम को कुछ तथाकथित जनवादी-अहिंसावादी-नैतिकतावादी गुंडागर्दी बता रहे हैं। पर राष्ट्रपति भवन पर काबिज ये लोग अपने उस बैनर की सच्चाई को ही स्थापित कर रहे हैं और इतने बड़े हुजूम के उमड़ने पर जितनी अव्यवस्था स्वाभाविक है उसके इतर इन्होंने अपने को इस सब सार्वजनिक संपत्ति का वास्तविक सर्वोच्च सामूहिक मालिक समझते हुए अत्यंत जिम्मेदारी का मुजाहिरा किया है, इसके तमाम उदाहरण इसके वर्णन की खबरों में मौजूद हैं। अपने में सिकुडे-सिमटे सामाजिक जीवन की जिम्मेदारी से अलग रहने वाले खुदगर्ज ही इसे देख पाने में असमर्थ हैं। वही ऐसा सोच सकते हैं कि सामाजिक संपत्ति पर शासक वर्ग के परजीवी लोगों का विशेषाधिकार है और आम लोगों का उसमें घुस आना गुंडागर्दी है। जो कोई भी किसी शुद्ध, पवित्र, सभ्य, लखनवी नफासत भरे जनसंघर्ष की बात करता है वह असल में ऐसे किसी भी अन्याय उत्पीड़न विरोधी संघर्ष का जाने-अनजाने विरोधी होता है।

दूसरे, जनता का यह विशाल हुजूम उमड़ पड़ना ही अमन चैन व अ-हिंसा की गारंटी कर रहा है अन्यथा श्रीलंकाई शासक वर्ग ने पिछले पांच दशक में अपना बेहद नृशंस व घिनौना कातिल चरित्र पूरी दुनिया को अच्छी तरह दिखा दिया है। अगर लोग इससे कम होते तो यह शासक वर्ग खून की नदियां बहा देता और इसकी तैयारी की खबरें बडे पैमाने पर अरगलया की शुरूआत से आ रही हैं। 8 जुलाई की रात को भी ऐसी तैयारी थी पर जब कोलंबो ही नहीं चारों ओर से बडी तादाद में जनता के हर मुमकिन साधन, पैदल और साइकिलों सहित, कोलंबो की ओर कूच की खबरें आने लगीं तभी शासक और उनकी फौज को अपने कदम पीछे खींचने पडे। 

तीसरे, जनता से छिपे रहने वाले शासक वर्ग के इन ठिकानों को अच्छी तरह देखने की जनता की उत्सुकता भी एक राजनीतिक कार्य है। वे देखना चाहते हैं कि जिस देश में बच्चों को भूखे सुलाना पड रहा है, लाइनों में खड़े-खड़े लोग मर जा रहे हैं और बिजली यातायात कागज के अभाव में स्कूल बंद हैं, वहां शासक वर्ग किस विलासिता का जीवन बिता रहा था। अतः यह उनके लिए राजनीतिक शिक्षण का टूर बन गया है जो मौजूदा निजाम में उनके रहे सहे भ्रमों को चकनाचूर कर रहा है और कहा जाये तो भविष्य में एक सच्चे जनवाद की बुनियाद रखने में एक मजबूत नींव की ईंट का काम करेगा।

चौथे, और एक तरह के लोग हैं जो कहते हैं कि यही लोग तो बहुसंख्यक सिंहल अंधराष्ट्रवाद के समर्थक थे। अब ये अपनी तकलीफों पर विरोध कर रहे हैं। अतः यह अनैतिक है और इससे कोई परिवर्तन नहीं होगा। ये ‘तर्क’ बहुत जनवादी और अन्याय विरोधी प्रतीत होता है, पर गहराई से पडताल करने पर ये असल में बहुसंख्यकवाद, अंधराष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता व फासीवाद के लिए शासक पूंजीपति वर्ग की सुनियोजित साजिश वाली संगठित राजनीतिक मुहिम के बजाय इसके शिकार आम लोगों को ही जिम्मेदार बता शासक व्यवस्था का ही बचाव करता है। वास्तविकता है कि किसी भी समाज में ये इसीलिए स्वीकृत होता है क्योंकि स्वयं मेहनतकश उत्पीडित जनता शासक वर्ग के विचारों के असर में होती है। ऐसा न होता तो शोषण की व्यवस्था चलती ही कैसे? चुनांचे यह सही है कि अभी विरोध करने वालों में से बहुतेरे उपरोक्त विचारों के प्रभाव में ही थे। बल्कि जब भी समाज में शोषण तंत्र के खिलाफ कोई भी विद्रोह होगा तो उसमें ऐसे ही उत्पीडित जनों की बडी तादाद शामिल होगी जो पहले उस शोषक तंत्र की समर्थक रही थी। अतः ऐसी जनता के विरोध में शामिल होने के आधार पर विरोध को अनैतिक ठहराना किसी भी विरोध की संभावना को समाप्त कर शोषक तंत्र की हिफाजत करने का कुतर्क है।

पांचवें, जरूरी नहीं कि हालिया घटनाओं का नतीजा तुरंत एक शोषण मुक्त समाज ही हो, पर ऐसे रोष प्रदर्शन, विद्रोह से गुजरे बगैर भी क्रांतियां संभव नहीं। यह संघर्ष जनता की सबसे बडी राजनीतिक शिक्षा हैं जो दशकों के राजनीतिक प्रचार से भी बडी है। दशकों के मरघट जैसे सन्नाटे को तोडने वाले ये संघर्ष स्वतः स्फूर्त भी हों तब भी ऐसी जीवंतता ही समाज में क्रांति के बीज बोती है, थोथी नैतिकता वाली बुजदिली नहीं।

आखिरी बात यह कि श्रीलंका सहित इन सभी देशों की जनता को समझ लेना होगा कि उसके सामने उपस्थित संकट का मूल कारण पूंजीवादी व्यवस्था है और उसके उन्मूलन के बिना सिर्फ सरकारों में बैठे व्यक्ति बदलने से इसका समाधान मुमकिन नहीं। परंतु ऐसे आमूल-चूल परिवर्तन के लिए मात्र व्यवस्थागत संकट और राजनीतिक अस्थिरता पर्याप्त नहीं। इसके लिए मजदूर वर्ग की एक ऐसी क्रांतिकारी पार्टी जरूरी है जो इस परिवर्तन की रणनीति के तौर पर एक कार्यक्रम प्रस्तुत कर सके जिस कार्यक्रम में राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन की अन्य बातों के अतिरिक्त ऐसा कार्यक्रम भी होगा जो बहुसंख्यकवादी राजनीति के प्रभाव में रही जनता को यह भी बताए कि धार्मिक, राष्ट्रीय, भाषाई अल्पसंख्यकों की उत्पीड़न से मुक्ति और वंचित जातियों-समुदायों व स्त्रियों की दोहरे शोषण से मुक्ति व समानता के संघर्ष में शामिल हुए बगैर पूंजीवादी शोषण के जुए से उनकी अपनी मुक्ति संभव नहीं।