फार्म इनकम इन इंडियासमीक्षा भाग-2

August 3, 2022 0 By Yatharth

मैक्रो एनालिसिस ऑफ फार्म इनकम (कृषि से होने वाली आय का स्थूल विश्लेषण)

विश्लेषण का विश्लेषण और निष्कर्ष

अजय सिन्हा

ज्ञातव्य है कि मैक्रो लेवल यानी बड़े स्तर पर फार्म इनकम (मुख्यत: कृषि से होने वाली आय, क्योंकि यही चर्चा के केंद्र में है और ए. नारायणमूर्ति भी इसी पर फोकस करते हैं) पर केंद्रित विस्तृत अध्ययन का भारत में सर्वथा अभाव रहा है। जब 2003 में एसएएस (SAS1 – Situational Assessment Survey), जो अलग-अलग फसलों से होने वाली प्रति किसान परिवार की वार्षिक आय की गणना पर केंद्रित सर्वेक्षण है, के शुरू होने के बाद यह समस्या एक हद तक हल हुई। इसके पूर्व, सीएसीपी (CACP – Commission for Agricultural Cost and Prices) द्वारा 1971 से ही प्रकाशित सीसीएस (CCS2 – Cost Of Cultivation Survey), जो प्रति फसल लागत मूल्य तथा फिर उसके आधार पर प्रति हेक्टेयर आय बताता है, ही एकमात्र माध्यम था जिससे कृषि से होने वाली किसानों की आय का कोई (वास्तविकता के करीब) अनुमान लगाया जा सकता था या उसकी गणना की जा सकती थी। लेकिन कई शोधार्थी सीसीएस को आधार बनाना गलत मानते हैं (चांद, सक्सेना और राणा)। इसकी यह सीमा बताई जाती है कि इसमें सभी राज्यों की मुख्य फसलें तथा पूरा कृषि क्षेत्र शामिल नहीं है। 

लेकिन फिर भी सीसीएस के आंकड़ों की मदद से कई प्रमुख शोधार्थियों ने फार्म इनकम के बारे में महत्वपूर्ण अध्ययन किए हैं और निष्कर्ष भी निकाले हैं। उदाहरण के लिए, स्वयं ए. नारायणमूर्ति के अनुसार, 2004 में सेन और भाटिया ने 1981-82 से 1999-2000 के बीच के सीसीएस के आंकड़ों के अध्ययन की मदद से यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला कि खेती से होने वाली प्रति किसान आय इतनी छोटी और अपर्याप्त है कि उससे जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी असंभव है।3 यह याद रहे कि यह औसत आंकड़ा है और हम इसके आधार पर आसानी से यह अनुमान लगा सकते हैं कि गरीब एवं निम्नमध्यम किसानों की आर्थिक स्थिति तब और आज कितनी तबाही की ओर प्रवृत्त या अग्रसर हो चुकी है। 

ए. नारायणमूर्ति ने एमएसपी के माध्यम से किसानों की आय में होने वाली वृद्धि से किसानों की आय और कृषि जीडीपी पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर भी महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। इस पर अनेकों शोध ही नहीं किए गए, अपतिु इसके यानी एमएसपी के पक्ष में (कुछ अपवादों को छोड़कर जैसे भल्ला ने एमएसपी को डर्टी इकोनॉमिक्स और डर्टियर पॉलिटिक्स कहा है) लेख और निष्कर्ष भी प्रकाशित हुए हैं। उदाहरण के लिए 2012 में गुलाटी ने लिखा कि एमएसपी में वृद्धि किसानों के लाभ को धनात्मक बनाने तथा कृषि जीडीपी को आगे धकेलने या बढ़ाने के लिए आवश्यक है। इसके पहले 2010 में, राव और देव ने 1981-82 से 2007-08 के बीच के धान और गेहूं से संबंधित सीसीएस के आंकड़ों के आधार पर शोध की मदद से किसानों की आय पर एमएसपी पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया और यह पाया कि दोनों उत्पादित फसलों का मूल्य (Value of output) पूरे कालखंड के दौरान उनके लागत मूल्य से ज्यादा था।4 यानी, ये मानते थे कि एमएसपी की भूमिका इस बीच किसानों की आय के संदर्भ में काफी सकारात्मक थी।    

लेकिन ए. नारायणमूर्ति 2013 में सीसीएस के आंकड़ों के अध्ययन की मदद से इससे अलग निष्कर्ष निकालते हैं। वे 1975-76 से 2006-07 के बीच के धान और गेहूं सहित चार अन्य खाद्यान्न फसलों से संबंधित सीसीएस के आंकड़ों का अध्ययन करके यह बताते हैं कि एमएसपी से किसानों को लाभ में हुई वृद्धि कुल लागत (Cost C2) में हुई वृद्धि की तुलना में नगण्य थी।5 एनसीएफ (नेशलन कमीशन ऑफ फार्मर्स) के द्वारा भी 2007 में एमएसपी में हुई वृद्धि के बावजूद लगभग किसानों की लाचार अवस्था की ऐसी ही तस्वीर पेश की गई। एसएएस के प्रकाशन के बाद हुए शोध ने इस निष्कर्ष को और ठोस बनाया है। 

एसएएस के बाद हुए सर्वेक्षण  

एसएएस (SAS) के प्रकाशन के बाद6, खासकर कृषि से होने वाली आय पर केंद्रित शोध नये सिरे से किए गए। स्वयं ए. नारायण मूर्ति बड़े एवं प्रमुख राज्यों के एसएएस के आंकड़ों का अध्ययन करते हुए कहते हैं कि एमएसपी के बावजूद पूरे देश के पैमाने पर 2002-03 में प्रति किसान परिवार की औसत वार्षिक आय 11,628 रूपये, यानी प्रतिदिन प्रति किसान परिवार की आय 32 रूपये पर आकर ठहरती है जो उस समय देश में औसत कृषि मजदूरी दर से भी कम है।7 

भारत सरकार द्वारा आर. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में नियुक्त एवं गठित कृषि क्षेत्र में व्याप्त कर्जग्रस्तता के कारणों की खोजबीन के लिए बने एक्सपर्ट ग्रुप (Expert Group on Agricultural Indebtness) ने भी एसएएस के आंकड़ों के आधार पर (2007 में प्रकाशित भारत सरकार की एक रिपोर्ट के हवाले से) किसानों के आर्थिक हालात तथा उनकी बदहाली को लेकर यही कहानी सुनाई। यहां यह साफ हो जाता है और स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इन औसत आंकड़ों में से झांकती गरीब एवं निम्न मध्यम किसानों की बदहाली की जो झलक दिखाई देती है वह कितनी दर्दनाक होगी या है! 

यहां यह याद रखने वाली बात है कि चांद, सक्सेना और राणा जैसे शोधार्थियों ने किसानों की आय की गणना के लिए एक पूरी तरह अलग तरीका (methodology) अपनाया। उन्होंने कृषि एवं इसके अनुषंगी क्षेत्रों की जीडीपी को कृषि और इसके अनुषंगी क्षेत्रों में लगी कुल पूंजी की खपत और कुल मजदूरी बिल पर हुए खर्च को घटाकर यह पता लगाने की कोशिश की कि किसानों की आय वास्तव में कितनी है। इस विधि का उपयोग करते हुए उन्होंने बताया कि 2004-05 की कीमतों के आधार पर देश के पैमाने पर भारतीय किसानों की कुल वास्तविक आय, जो 1983-84 में 211,000 रूपये थी, 2004-05 में बढ़कर 625,536 रूपये हो गयी, यानी प्रति वर्ष प्रति किसान परिवार की आय उक्त कालखंड में 16,103 रूपये से बढ़कर 42,781 रूपये हो गई। प्रतिशत में यह वृद्धि दर 7.29 है जो उस कालखंड में भारतीय अर्थव्यवस्था के औसत विकास दर के समतुल्य है।8 जाहिर है ए. नारायणमूर्ति जैसे शोधकर्ताओं के अनुसार यह एक गुलाबी तस्वीर (rosy picture) है जो वास्तविकता से मेल नहीं खाती है, हालांकि वे इसे ऊपर से व्यवस्थित लगने वाली विधि मानते हैं। वे अपनी असहमति प्रकट करते हुए लिखते हैं कि ध्यान से देखने से यह आंकड़ा व विधि फार्म इनकम की असली तस्वीर पेश नहीं करता है, क्योंकि 1) इसमें ट्रांजैक्सन कॉस्ट (व्यापार करने में लगने वाले विभिन्न तरह के खर्च) शामिल नहीं है जो फार्मिंग बिजनेस में लगने वाला एक बड़ा खर्च है, यानी लागत (A2) का 20 प्रतिशत जो मैक्रो स्तर के खर्च में कभी शामिल ही नहीं किया जाता है। 2) मैक्रो स्तर की गणना में खाद, बीज, कीटनाशकों आदि का थोक बाजार भाव के आधार पर हुआ खर्च शामिल किया जाता है जो सुक्ष्म स्तर पर हुए खर्च (जैसे कि प्रखंड और गांवों में खाद, बीज और कीटनाशकों पर हुए खर्च) से कम होता है। 3) इसमें प्रबंधकीय (managerial) खर्च शामिल नहीं है जो कुल लागत (C2) का लगभग 10 प्रतिशत होता है। अगर इन तीनों तरह के खर्चों को कुल लागत में जोड़ दिया जाए, तो यह स्वाभाविक है कि चांद, सक्सेना और राणा द्वारा प्राप्त आंकड़े अपने आप नीचे चले आएंगे।9 

ए. नारायणमूर्ति यह भी कहते हैं कि कृषि से होने वाली आय और पशुपालन से होने वाली आय में ज्यादा का अंतर नहीं है, हालांकि कृषि से होने वाली आय पशुपालन से होने वाली आय से अधिक है। इसका अर्थ यह है कि जो परिवार सिर्फ कृषि पर निर्भर है वह बहुत कम आय कमा पाता है। इसके अतिरिक्त वे यह भी कहते हैं कि भारत में ऐसे किसानों की आय में वृद्धि भी पिछले एक दशक में काफी कम रही है।10    

इसी तरह ए. नारायणमूर्ति यह साफ-साफ कहते हैं कि हालांकि उत्पादकता के बढ़ने से आय के बढ़ने के बीच एक सीधा रिश्ता होता है, लेकिन स्थिति यह है कि महज उत्पादकता और उत्पादन को बढ़ाकर किसानों की आय को बढ़ाने का सपना नहीं देखा जा सकता है और इसकी वह आंकड़ों से पुष्टि भी करते हैं। इसी तरह, राष्ट्रीय स्तर के ऊपर स्तर की सिंचाई सुविधाओं वाले राज्यों के किसानों की आय का उसके नीचे के स्तर की सुविधाओं का लाभ उठाने वाले राज्यों के किसानों की आय से तुलना करके यह बताते हैं कि इनमें भी ज्यादा का अंतर नहीं है।11 यानी उत्पादकता के बढ़ने (जिसका एक प्रत्यक्ष रिश्ता सिंचाई के साधनों व सुविधाओं की उपलब्धता से है) मात्र से किसानों की आय नहीं बढ़ने वाली है। वे इससे आगे आंकड़ों की मदद से यह अपवादजनक स्थिति का जिक्र भी करते हैं कि यह उल्टा भी हो सकता है या हुआ है।12 यानी कम सिंचिंत इलाके के किसान किन्हीं सालों में ज्यादा मुनाफा प्राप्त किए हैं।  

वे राष्ट्रीय स्तर के एसएएस (SAS) के आंकड़ों के अध्ययन की मदद से यह भी कहते हैं कि 1986-87 की कीमतों के आधार पर राष्ट्रीय औसत के रूप में (इसलिए कई अलग-अलग राज्यों के लिए यह आंकड़ा और कम होगा) कृषि से होने वाली प्रति किसान परिवार आय, जो 2002-03 में 3,645 रूपये थी, 2012-13 में बढ़कर 5,502 रूपये हो गई। फिर वे अन्य सभी कारकों को लेते हुए कृषि से होने वाली प्रति किसान परिवार की प्रतिदिन आय की गणना (आज की कीमतों के आधार पर, अर्थात at current prices) करते हुए यह बताते हैं कि यह मात्र 101 रूपये ही है, जिसका मतलब समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। यानी, आम नीचे संस्तर वाले किसानों के लिए घर का मामूली खर्च चलाना भी मुश्किल हो गया है।13 

इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 40 प्रतिशत किसान स्वयं भी खेती छोड़ना चाहते हैं14 और अपनी श्रम शक्ति बेचकर अपना जीवन चलाना चाहते हैं या कई वर्ष पहले से ही चलाना शुरू कर दिए हैं।  

इसका सबसे बड़ा कारण वे यह मानते हैं कि समय के साथ, खासकर (हमारे अनुसार) खेती के पूंजीवादी विकास के दूसरे चरण में, जबकि अर्थव्यवस्था पर बड़ी वित्तीय पूंजी के वर्चस्व कायम हो जाने के बारे में आज शायद ही किसी को संदेह हो, खेती करना काफी महंगा साबित हुआ है और कृषि लागतों पर होने वाला खर्च काफी ज्यादा बढ़ गया है, और बाजार जो बड़ी पूंजी के पक्ष में पुनर्गठित हो चुका है, में फसलों के ऐसे दामों का मिलना लगभग असंभव हो गया है (कुछ अपवादस्वरूप परिस्थितियों को छोड़कर) जिससे उनको लाभ हो सके।15 इसलिए ए. नारायणमूर्ति अंत में यह बात साफ तौर से कहते हैं कि उत्पादकता बढ़ाना उपभोकताओं (आम जनता) और देश के लिए फायदेमंद हो सकता है और है, क्योंकि इससे पहले से कम मुद्रास्फीति के साथ खाद्य सुरक्षा को मजबूत करने में मदद मिलती है, लेकिन किसानों की बहुसंख्या को इससे फायदा नहीं होगा जब तक कि खेती में उपयोग में आने वाले कृषि लागतों के खर्च को कम नहीं किया जाता है और अनाजों का राज्य एजेंसियों की मदद से प्रोक्योरमेंट नहीं बढ़ाया जाता है।16 हालांकि आज जब बड़ी पूंजी का खुला वर्चस्व है तो हम देख पा रहे हैं कि महंगाई चरम पर है और पहले के सारे अर्थशास्त्रीय गणित फेल हो चुके हैं। बाजार पर कब्जे से कुछ भी करना (द्वंद्ववादी अर्थों में) आज संभव है और बड़े वित्तीय पूंजीपति घराने जो आज कल मोदी सरकार की सहायता से कर रहे हैं वे इसका पुख्ता प्रमाण हैं। 

कुल मिलाकर ए. नारायणमूर्ति सारी बात कहते व समझते हुए भी यह समझने में नाकामयाब एवं असफल हो जाते हैं और इस गूढ़ बात को समझने से पूरी तरह चूक जाते हैं कि किसानों का जीवन (उनके कृषि उत्पादों से प्राप्त मुनाफे के आधार पर) सुधरे और इसका कुप्रभाव भी उपभोकताओं, खासकर मजदूर वर्ग पर नहीं पड़े, यह पूंजीवाद में संभव नहीं है। हालांकि आज इसका फायदा किसान चाहकर भी नहीं उठा सकते हैं क्योंकि बाजार पर बड़ी पूंजी का प्रत्यक्ष कबजा हो चुका है और किसानों के लिए मगरमच्छ का मछली से सामना वाली परिस्थिति बन चुकी है। 

फिर भी वित्तीय पूंजी की बात यहां हटा दें तो भी, किसानों का हित सधे और इसका कुप्रभाव भी आम उपभोकताओं यानी मुख्य रूप से सर्वहारा और मजदूर वर्ग पर नहीं पड़े, या तो संभव नहीं है या फिर इसके लिए किसानों को पूंजीवाद को त्याग कर दूसरे तरह की अर्थव्यवस्था, जो मुनाफा पर आधारित नहीं होगी, उसमें संक्रमण करने की तैयारी लेनी होगी। लेकिन आज किसानों के लिए मुनाफारहित अर्थव्यवस्था का सवाल उनके च्वाइस का मसला नहीं मजबूरी की चीज बन चुकी है क्योंकि बड़ी पूंजी आज उन्हें भी निगलने को तैयार बैठी है। मुनाफा पर आधारित नहीं होने वाली अर्थव्यवस्था निस्संदेह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही संभव है, किसी और वर्ग के नेतृत्व में नहीं। अगर यह मान लें कि किसान क्रांति का आगाज कर के अर्थव्यवस्था को अपने हाथ में ले लेते हैं तो भी किसानों द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था भी बिना किसी अपवाद के मुनाफा पर आधारित होगी और इसलिए न गरीब किसानों के लिए और न ही मेहनतकशों खासकर मजदूर वर्ग के लिए न्यायपरक होगी।   

निष्कर्ष 

योजना काल की शुरूआत से लेकर अब तक सरकार की कृषि क्षेत्र में नीतिगत पहुंच (policy approach) उत्पादन तथा उत्पादकता को बढ़ाने या फिर बनाये रखने पर केंद्रित रही है। यहां तक कि डबल्युटीओ (WTO) के आगमन के बाद भी सरकार की वही पहुंच बनी रही। अंतर सिर्फ इतना आया कि कृषि में विकास दर को इसके कुप्रभावों से बचाये रखने की कोशिश पुरानी नीतिगत पहुंच के केंद्र में आ गई। यह आम तौर पर (not exactly) माना जाना जा सकता है कि तब तक खेती से होने वाली आय में दिखाई दे रही गिरावट की प्रवृत्ति को रोकने का प्रश्न सरकार के नीति निर्माताओं की बहसों का विषय नहीं बना था।

सवाल है, किसानों की आय का प्रश्न बहस का केंद्र क्यों नहीं बना? आंशिक तौर पर इसलिए क्योंकि बुरी तरह कर्जग्रस्त और आत्महत्या करने वाले किसानो में मुख्यत: गरीब एवं निम्नमध्यम या एक हद तक मध्यम किसान थे और बड़े एवं धनी किसानों की आय में गिरावट एक स्थाई और बड़े खतरे के रूप में अभी प्रकट नहीं हुआ था। सरकारी एवं गैर सरकारी दोनों मंडियों से वे प्रचुर लाभ कमा रहे थे। यह स्थिति कृषि में पूंजीवादी विकास के नियम, उसकी प्रकृति एवं चरित्र के अनुरूप ही थी, न कि इसके विपरीत। दूसरा कारण यह भी था कि पूंजीवाद में इसका कोई निदान है ही नहीं।  

गरीब एवं निम्नमध्यम किसानों की बर्बादी या उनका उजड़ना एवं तबाह होना और उनका लाखों में आत्महत्या करना पूंजीवादी शासकों के लिए शासन करने में आने वाली एक नैतिक बाधा हो सकता है और रहा भी है, लेकिन यह प्रश्न उनकी पूंजीवादी नीति में कोई अड़चन पैदा न तो तब करता था और न ही अब करता है, यानी उनके लिए यह नीतिगत प्रश्न कभी नहीं था, क्योंकि पूंजीवादी विकास का अर्थ ही यही है कि इसमें सभी का विकास कदापि नहीं होगा। आर्थिक-सामाजिक रूप से ज्यादा सक्षम और ताकतवर वर्ग या व्यक्तियों के पास ही पूंजी संकेंद्रित या केंद्रीकृत होती जाती है एवं बाकी आबादी की आर्थिक तबाही और बर्बादी तय है, और पूंजीवादी शासक इसे मानकर ही चलते हैं, भले ही हम अगुआ लोग ही इसे समझने में नाकामयाब हो गये हों। हमें कभी भी पूंजीवादी विकास या पूंजीवादी व्यवस्था में विकास का अर्थ सभी का विकास नहीं समझना चाहिए। पूंजीवादी विकास का अर्थ पूंजी का विकास है, बिखरी कमजोर और विश्रृंखलित पूंजी का पूंजी के बड़े-बड़े दुर्गों में बदलना है जिन्हें किसी न किसी पूंजीपति द्वारा प्रतिनिधित्व का लाभ मिलता है। इसके विकास के नियम इस तरह के हैं कि यह कई स्तरों की घातक प्रतिस्पर्धा से गुजरते हुए मुट्ठी भर हाथों में संकेंद्रित एवं केंद्रीकृत होती जाती है जिससे इजारेदारी और वित्तीय पूंजी का जन्म हुआ जिसने आज दैत्याकार रूप ले लिया है जिसके चंगुल में किसान तो क्या पूरी दुनिया आ चुकी है। 

इसलिए हम देखते हैं कि उत्पादन और उत्पादकता के बढ़ने के साथ-साथ किसानों की एक बहुत बड़ी आबादी भी तबाही के कगार पर आ खड़ी हुई है जो हर किसी को दिखाई दे रही है। गौरतलब बात यह है कि आज तबाही के भंवर में वे बड़े तथा धनी किसानों का एक संस्तर भी आ चुका है जो कल तक पूंजी की प्रचुरता के बल पर देहातों के गरीबों के श्रम को निचोड़कर अकूत लाभ कमा रहे थे। पूंजीवादी खेती के दूसरे चरण पर गौर करें तो हम पाते हैं कि 21वीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में धनी किसानों के एक बड़े संस्तर के लिए भी घटती आय और इसी के अनुरूप कर्ज संकट दस्तक दे चुका है। 

हम यह भी पाते हैं कि जब आज का भयावह कृषि-संकट (किसानों की नजर से देखें तो) प्रकट नहीं हुआ था तब भी, यानी 1990 के दशक के पहले के कालखंड में भी सभी संस्तर और वर्ग के किसानों की आय नहीं बढ़ रही थी। पूंजीवादी खेती की ओर अग्रसर हुए गरीब, सीमांत एवं निम्न मध्यम किसानों की आय में शुरू से ही एक हृास का संकट दिखाई देता है और उसके कारणों की व्याख्या हम पहले भी कई बार कर चुके हैं। फिर भी हम कह सकते हैं कि सरकारी संस्थानों एवं बैंकों की उनके प्रति बरती जाने वाली उदासीनता, विभिन्न कारणों (जैसे एकाएक खराब मौसम की मार, संसाधनों की कमी की वजह से वक्त पर फसलों की सिंचाई का न हो पाना, पूंजीवादी खेती में पूर्ण सफलता के लिए कीटनाशकों, दवाइयों एवं खादों आदि के उपयोग से संबंधित वैज्ञानिक एवं तार्कित ज्ञान का अभाव होना, आदि आदि) से फसलों द्वारा बीच में ही की गई दगाबाजी, फसलों को सफलतापूर्वक बचा लेने, उगा कर घर ले आने के बाद भी खुले बाजार द्वारा की जाने वाली दगाबाजी (खुले दामों के एकाएक भरभराकर गिर जाने के रूप में), बाद में कृषि क्षेत्र में निवेश और खाद-बीज एवं कीटनाशकों के विपणन से सरकार का हाथ खींच लेना तथा धनी एवं बड़े सक्षम किसानों की तुलना में सरकारी मंडी तक अपनी मजबूत पकड़ नहीं कायम करने की वजह से वे लगातार होने वाले घाटे से ऊंचे ब्याज दर वाले कर्ज संकट में फंसते चले गये। लेकिन बड़े एवं धनी किसानों की स्थिति ऐसी नहीं थी और वे उपरोक्त बाधाओं से निपटने में न सिर्फ सक्षम थे, अपितु उन बाधाओं के बावजूद पूंजीवादी खेती से मालामाल भी हो रहे थे।   

किसी पूंजीवादी सरकार के लिए यह संतोष की बात होती है कि उत्पादकता बढ़ रही है, उत्पादन बढ़ रहा है, देश आयातक से निर्यातक देश में तब्दील हो रहा है, पूंजी का देहातों में प्रसार और संकेंद्रण हो रहा है जिससे किसानों का एक ऊपरी मालदार तबका विकसित हो रहा है (क्योंकि कृषि में ही नहीं किसी भी क्षेत्र में बड़ी पूंजी के प्रवेश का यही तरीका है जो पूंजीवाद में पूंजी के विकास का आम नियम है जिससे बड़ी पूंजी बनती है), भले ही इसकी कीमत किसानों की व्यापक आबादी की बर्बादी हो। यही सच है, भले ही हम नहीं मानें या किसान नेता मानने से इनकार कर दें। पूंजीवादी नीति-निर्माता यह जानते हैं कि पूंजीवादी विकास का यही अर्थ है और यह ऐसे ही होता है। इसलिए सरकार संतुष्ट थी कि किसानों के ऊपरी हिस्से एवं तबकों को लाभ हो रहा है, भले ही गरीब और निम्न मध्यम किसान बर्बाद हो रहे थे। 

जाहिर है, 1980 का दशक और पूंजी के विकास का स्तर भी वहीं नहीं रूका रह सकता था। इस बीच देश में विकसित और सत्ता में प्रतिष्ठित हो चुकी इजारेदार वित्तीय पूंजी आदमकद हो खुंखार बन चुकी थी और भारत का संपूर्ण विशाल देहाती एवं कृषि क्षेत्र उनकी खुंखार नजरों से बची नहीं रह सकती थी। 

आम तौर पर हम पाते हैं कि 1990 के बाद और खासकर 2000 के बाद देश की बड़ी वित्तीय पूंजी और उसके अंबानी और अडानी जैसे मठाधीश केंद्र सरकार के माध्यम से यह दवाब बनाने में लग गए थे कि उनके हितों के अनुरूप कृषि क्षेत्र के विकास की नीतिगत रूपरेखा तैयार की जाएं। वे अनाजों के बाजार पर एकाधिकार चाहती थीं जो कल तक बड़े एवं धनी किसानों एवं कुलकों के हाथों में केंद्रित था। निस्संदेह यह छोटी और बड़ी पूंजी के बीच का झगड़ा था और है लेकिन यह जिस तरह से हो रहा था उससे पूरे देहात में बड़ी पूंजी के विरूद्ध एक क्रांतिकारी लहर बन रही थी। और मजदूर वर्ग के लिए, खास कर उस हिस्से के लिए जिसके एजेंडे पर क्रांति करना और सर्वहारा की सत्ता कायम करना था, भले ही उसकी ताकत कुछ भी हो, यह बहुत महत्व की बात थी। बड़ी पूंजी के ठेकेदार भारत के विशाल कृषि क्षेत्र के उत्पादन को भी अपनी आवश्यकतानुसार ढालना, तैयार करना और इस तरह अपने कब्जे में लेना चाहते थे जैसा कि कृषि कानूनों में दिखा और किसानों ने भी माना। यानी, अंतत: कॉर्पोरेट खेती के लिए, जिसकी एक पहली कड़ी ये तीनों कृषि कानूनों के माध्यम से सरकारी मंडी को खत्म करना था, बड़ी पूंजी ने दबाव बनाना शुरू कर दिया। 

जब 1990 के दशक के अंत में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला चल निकला और इसके जारी रहने के सालों बाद यानी 21वीं सदी के पहले दशक में यह साफ-साफ दिखने लगा कि किसानों के ऊपरी तबके को भी घाटा होना तय है और वे भी कर्ज में डूबने वाले हैं, और उनका उजड़ना भी देर-सवेर तय है, तो एकमात्र तभी से सरकार का ध्यान किसानों की कृषि से होने वाली आय के प्रश्न पर गया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार आज एवं भविष्य में उजड़ने वाले किसानों को बचाना चाहती थी, इसके विपरीत उसकी चिंता की बात यह थी कि इजारेदार पूंजी का हित बिना किसी बड़े संकट के कैसे पूरे किए जाएं। मुख्य चिंता इजारेदार पूंजी के हाथों में कृषि को सौंपने के लिए उठाये जा सकने वाले संभव कदम एवं उपाय क्या हो सकते थे जिससे बड़ा सामाजिक उथल-पुथल भी न हो। 

ए. नारायण मूर्ति लिखते हैं कि 2000 के दशक के पूर्वार्द्ध से किसानों की आय की ओर सरकार द्वारा संचालित बहसों में नीति निर्माताओं का ध्यान गया, लेकिन वे इस बात की व्याख्या नहीं करते हैं कि सरकार का ध्यान इस ओर पहले क्यों नहीं गया जबकि व्यापक किसानों खासकर गरीब किसानो की बहुसंख्या पूंजीवादी खेती के प्रभाव से तबाह हो जाने के कगार पर 1980-90 के बीच में पहुंच चुकी थी। इसलिए उनका पूरा ध्यान इस प्रक्रिया को समझने में कम और यह साबित करने में ज्यादा है कि किसानों की आय अत्यंत कम है या गिरी है और लगातार गिर रही है, चाहे वे कम उत्पादकता वाले क्षेत्र व राज्य में रहते हों या ज्यादा उत्पादकता वाले क्षेत्र या राज्य में, राष्ट्रीय औसत से ऊपर स्तर के सिंचित इलाके में रहते हों या कम स्तर के सिंचित क्षेत्रों में। लेकिन उनके काम व उद्देश की इस सीमा के बावजूद, उनका यह शोध इस अर्थ में काफी महत्वपूर्ण है कि हमें इससे किसानों की आय गिरने के अकाट्य आंकड़े और तथ्य प्राप्त होते हैं।    

स्वयं भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र में व्याप्त कर्जग्रस्तता के कारण खोजने के लिए एक्सपर्ट ग्रुप आदि बनाये, जैसे यह एक अबूझ पहेली हो या कोई राकेट साइंस। फिर भी इससे यह बात सर्वमान्य साबित होती है कि किसान भारी संख्या और बहुत ही बुरे तरीके से कर्जग्रस्त हैं और कर्ज के जाल में फंस चुके है, लेकिन अक्सर इसका कोई ब्योरा नहीं दिया गया है या नहीं दिया जाता है कि कर्जग्रस्तता के शिकार हो आत्महत्या करने वाले ये किसान कौन किसान थे, किस आर्थिक संस्तर और वर्ग के किसान थे। ‘किसान’ नाम पर इनके बीच के वर्गीय विश्लेषण पर पर्दा पड़ा रहने दिया गया। इतना ही नहीं, साथ में उन अलग-अलग कालखंडों पर भी पर्दा पड़े रहने दिया गया जिस पर नजर डालते ही यह पता चल जाता है कि पूंजीवादी खेती के विकास के पहले दौर में गरीब एवं निम्न मध्यम किसान पूंजीवादी खेती से तबाह हुए, और फिर पूंजीवादी खेती के विकास के दूसरे चरण या कालखंड में (आम तौर पर 2000 के उत्तरार्द्ध से शुरू हुए कालखंड में), जब बड़ी एवं इजारेदार पूंजी देहातों में कृषि क्षेत्र और किसानों का आखेट करने निकलती है, तब पुराने समय के मालदार किसानों की आर्थिक हालत भी खराब होने लगती है। यह फिर से लिखने की जरूरत नहीं है कि गरीब किसानों आदि की खस्ताहाल स्थिति तथा उनकी बर्बादी की कहानी पहले ही कालखंड में लिखी जा चुकी थी और वे वर्ग के तौर पर कृषि क्षेत्र से आज से एक-दो दशक पूर्व ही खेतीबाड़ी करना छोड़ चुके थे और अपनी श्रम शक्ति को बेचकर कर अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने की राह पर निकल चुके थे।

इसी तरह लगभग सभी अर्थशास्त्रियों व शोधार्थियों ने यह माना कि खेती किसानी संकटग्रस्त है, लेकिन इसकी व्याख्या में अक्सर यह मुख्य बात छुपा ली गई कि यह संकट पूंजीवादी खेती का संकट है और यह इसकी चारित्रिक विशेषता है कि पूंजी के खेती में प्रवेश से बड़ी पूंजी के इसमें प्रवेश का द्वारा खुलता है और इससे किसानों की एक बड़ी आबादी (जिसमें कल के धनी और बड़े किसानों का एक तबका भी शामिल होता है) के उजड़ने की प्रक्रिया शुरू होती है, और जिसका अंत और हल स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन (अंत या खात्मे) में निहित है, और जो जाहिर है कि बड़ी पूंजी सहित सभी छोटी-मंझोली पूंजियों के उन्मूलन के लिए रास्ता खोलेगा और जो आज से पूरी तरह अलग मजदूर वर्ग की मुक्तिकामी नीतियों के आधार पर बनी मजदूर वर्ग की राज्यसत्ता की स्थापना के द्वारा ही संभव हो सकता है।       

गरीब एवं मध्यम किसानों की कर्जग्रस्तता और फिर उनका उजड़ना (जिसमें आत्महत्या महज एक अवस्था या मंजिल है) पूंजीवादी खेती के विकास की आम विशेषता है और पूंजीवाद के रहते इसका अंत नहीं किया जा सकता है। पूंजीवादी खेती पूंजी आधारित होती है और इसलिए आम भाषा में इसे किसानों के लिए अत्यंत महंगी माना जाता है जो आगे चलकर लागत खर्च में होने वाली सतत वृद्धि, जैसा कि भारत तथा दुनिया के सभी देशों में होता दिख रहा है, और अधिक महंगी होती जाती है और किसानों की बहुसंख्या के लिए जी का जंजाल बन जाती है, क्योंकि खेती से होने वाली आय की गारंटी नहीं हो पाती है, जबकि इसका मोह हावी रहता है जिसके वशीभूत हो गरीब से गरीब किसान भी शुरू में दोबारा-तिबारा धनी या बड़े एवं संपन्न किसानों की देखादेखी मुनाफा और रातों-रात अमीर हो जाने के सपनों को जीते हुए जोखिम मोल लेते हैं और इस तरह अपने गले के लिए फांसी के फंदे का इंतजाम खुद करते हैं, हालांकि अंतर्य में यह पूंजीवादी सरकार और व्यवस्था द्वारा गरीब किसानों की की जा रही हत्या है। उनकी बदहाली पहले कर्जग्रस्तता और फिर मौत को चुनने के रूप में प्रकट होती है। 

सरकारी एवं गैर-सरकारी दोनों अध्ययनों व बहसों में आम तौर पर यह बात छुपा ली गयी कि 1990 के दशक तक हुए पूंजीवादी खेती के विकास से धनी एवं बड़े किसानों की आय बढ़ी और वे मालामाल हुए, जबकि गरीब एवं निम्न मध्यम किसान कर्ज के जाल में फंसते चले गये। स्वयं ए. नारायणमूर्ति भी ऐसा ही करते हैं, हालांकि उन्होंने यह साबित करने की भरपूर और सफल कोशिश की कि किसानों की औसत आय पूंजीवादी विकास के पहले कालखंड में भी और दूसरे कालखंड में भी कम रही है और जो प्रकारांतर में धनी एवं बड़े किसानों की भी तबाही का कारण बना या बनेगा।  

यह बाद की, खासकर 2000 के दशक के बाद की परिघटना है कि धनी और बड़े किसानों का एक बड़ा तबका भी पूंजीवादी खुले बाजार की दगाबाजी का ज्यादा से ज्यादा शिकार होने लगा तथा मोदी सरकार द्वारा किसानों की आय दुगुनी करने के किये गये वायदे की वायदाखिलाफी से, सरकारी मंडी को खत्म करने के मोदी सरकार के कुत्सित प्रयासों से और अंतत: देश व दुनिया दोनों के स्तर पर मुट्ठी भर बड़ी-बड़ी इजारेदार कंपनियों द्वारा हासिल कृषि क्षेत्र में पनप रही इजारेदारी का अहसास होने से उनके बीच यह आम भावना पनपी कि उनके दिन अब लद चुके हैं। पूंजीवादी थिंक टैंक और शोधकर्ता पूंजीवादी खेती की इस आंतरिक प्रक्रिया, पूंजी के इस यात्रा-वृतांत को छुपाना चाहते हैं जबकि इसके परिणामों को स्वीकारते हुए (क्योंकि उन्हें स्वीकारना पड़ रहा है) बाकी अन्य निष्कर्षों को, खासकर इस निष्कर्ष को कि किसानों का भाग्योदय पूंजीवाद के खात्मे से ही संभव है, जो किसानों के ऊपर मजदूर वर्ग के सक्षम नेतृत्व के बिना संभव नहीं है, छुपाना चाहती है। 

ए. नारायणमूर्ति भी एक ऐसे ही शोधार्थी हैं, जो अपने ही तरह के अन्य शोधार्थियों की तुलना में इसीलिए भिन्न हैं कि वे अंतर्विरोधों को काफी आगे तक ना सिर्फ देखते हैं अपितु उसे लिखने में भी हिचकते नहीं है, यहां तक मानते हैं कि उत्पादकता आदि बढ़ाने से किसानों की आय को बढ़ाने के लिए किए जाने वाले ठोस कदमों का आज कोई सीधा संबंध नहीं रह गया है। लेकिन नारायणमूर्ति इसके आगे के निष्कर्ष पर जाना नहीं चाहते हैं, जब कि उनका उपरोक्त निष्कर्ष ऐसा करने के लिए उन्हें हर पल विवश करता दिखता है, अर्थात पूंजीवाद जिस तरीके से किसानों की एक न्यूनाधिक आबादी मात्र को ही मुनाफा सुनिश्चित करा सकता है और बाकी को सर्वहारा बनने के लिए विवश करता है – और आज जिस मुकाम पर (पूरी अर्थव्यवस्था के वित्तीयकरण के मुकाम पर) भारत की तथा अन्य पूंजीवादी मुल्कों के कृषि-क्षेत्र और उनकी अर्थव्यवस्था पहुंच चुके हैं उसमें और कुछ दूसरा हो भी नहीं सकता है, इसे छुपाने की हर कोशिश की हो रही है। लेकिन अब यह संभव नहीं रह गया है।

यही नहीं, ए. नारायणमूर्ति यह भी कहते हैं कि एमएसपी में वृद्धि करना भी हल नहीं है और इससे काम नहीं चलेगा, अपितु बाजार को भी किसानों के हित में ठीक से काम करना होगा। यानी, वे इस बात से चिंतित हैं और उनका यह सुझाव भी है कि किसानों की फसलें खुले बाजार में ज्यादा से ज्यादा दाम पर बिकें और अगर यह संभव न हो तो कम से कम सरकारी मंडी में ऐसे बदलाव लाए जाएं जिससे किसानों की फसलों की अधिकतम मात्रा में बिक्री हो सके। 

हम जानते हैं कि वे विद्वान व्यक्ति हैं और यह जानते होंगे कि आज की बड़ी इजारेदार एवं वित्तीय पूंजी के लगभग संपूर्ण वर्चस्व वाली पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसा कभी संभव नहीं होगा (हालांकि जिसका हमारा मतलब यह नहीं है किसान इसके लिए नहीं लड़ें) और किसानों का पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में कोई भविष्य नहीं है, खासकर उनकी एक न्यूनाधिक आबादी (कृषि में लगी एक अंतिकेंद्रीकृत पूंजी) को छोड़कर, जो या तो वित्तीय इजारेदार पूंजी के साथ समामेलन में जाएगी या फिर उनकी दलाली करेगी। विडंबना यह है कि वे स्वयं यह मानने को विवश होते हैं कि एमएसपी अंतिम हल नहीं है, क्योंकि एमएसपी पर सारे किसानों की सारी फसलों की खरीद नहीं हो रही है और न ही भविष्य में यह संभव होगी, क्योंकि इसका मतलब एमएसपी की कानूनी गारंटी करना होगा, व्यापारियों और पूंजीपतियों को बाजार भाव से उंचे दाम पर किसानों की फसलों को खरीदने के लिए एक तरह से बाध्य करना होगा और जो अंत में वित्तीय इजारेदार पूंजी के हितों पर एक बड़ा कुठाराघात होगा। उन्हें स्वयं से यह पूछना चाहिए था कि क्या यह पूंजीवादी व्यवस्था में संभव है? उन्हें पता होगा कि यह कदापि संभव नहीं है, उसके बाद भी उन्होंने दो कोड़ी के सुझावों से पन्ने भर दिए हैं। हम जानते हैं कि जब मोदी को हटा कर कोई दूसरी पार्टी का आदमी प्रधानमंत्री बनेगा, यह तब भी नहीं संभव होगा। परिणामत: ये भी अन्यों की तरह किसानों को पूंजीवाद से बंधे रहने के लिए ही कह रहे हैं, उन सारी बातों के बावजूद जिसे बोलते या लिखते वक्त वे यह कहते या लिखते प्रतीत होते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था की चौहद्दी से बाहर निकले बिना किसानों की मुक्ति का और कोई रास्ता नहीं है।     

परिशिष्ट:

1A. Narayanmurthy writes – ”SAS provides annual income from crop crop cultivation per hectare. It was first done in 2003 (59th round) and then in 2013 (70th round) for the second time. (page 79, Farm Income in India, Myth and reality) On the other hand, Biplab Sarkar, the assistant professor (economics) at the Centre for Development Studies in his famous article named The Situaation Assessment Survey, An Evaluation, – ”SAS conducted by the NSSO are detailed socio-economic sample surveys of farmer households. They are the only large scale surveys that focus specifically on estimating household crop income in India. Unlike the Comprehensive Scheme for Study of Cost of Cultivation of Production of Principal Crops (CCPC), SAS provide robust estimates of the incomes of cultivating households instead of crop-wise or plot-wise returns, as well as data on the social and economic profiles of farming households and use concepts thar are different from those in CCPC Scheme. …..the (SAS) Survey collected data on consumer expenditure, income and productive assets, indebtness, farming practice, resource availability, awareness of technological development and access to modern technology in agriculture. (bold added). Biplab sarkar also compares SAS with CCPC scheme. He writes – ” The items of cost included in SAS 2003 are conceptually closer to the Cost A2 concepts specified under the Comprehensive Scheme for Study of Cost of Cultivation of Production of Principal Crops (CCPC), but exclude maintenance of owned bullock labour and depreciation of owned farm machinery. It is thus expected that the estimated costs in SAS 2003 will be different from (actually less than ¬ added) the cost estimates of the CCPC scheme.”  

2A. Narayanmurthy writes – CCS data provide crop-wise cost and income details per hectare. (ibid)

 3…with the help of CCS data from 1981-82 to 1999-2000, Sen and Bhatia (2004) concluded that farm business income per farmer was miniscule and inadequate to pay even for the essentials (as cited by Chand, Saxena and Rana) (ibid)  

 4ibid, page 19

 5ibid, page 19  

 6the (SAS) Survey collected data on consumer expenditure, income and productive assets, indebtness, farming practice, resource availability, awareness of technological development and access to modern technology in agriculture. (bold added). Biplab sarkar also compares SAS with CCPC scheme. He writes – ” The items of cost included in SAS 2003 are conceptually closer to the Cost A2 concepts specified under the Comprehensive Scheme for Study of Cost of Cultivation of Production of Principal Crops (CCPC), but exclude maintenance of owned bullock labour and depreciation of owned farm machinery. It is thus expected that the estimated costs in SAS 2003 will be different from (actually less than ¬ added) the cost estimates of the CCPC scheme.”  

7ibid, page 19

8ibid, page 19

9see page 20-21, ibid

10see page 26-27, ibid

11A. Narayanmurthy writes – ”An analysis carried out wtith the help of CCS data does clearly show that the increased productivity would hlp the farmers reap higher profits. To clarify this issue, further, an attempt has been made to find to what extent the profitability of high productivity states is different from the low productivity states for six important crops : paddy, wheat, tur, groundnut, sugarcane and cotton. The result generated from 1971-72 to 2013-14 prove that the profitability of Hight productivity states is not significantly different from that of low productivity states in most crops presented in table 2.3 (see page 33)

12A, Narayanmurthy writes – ”In fact, in crops such as gram and groundnut, farmers from the less irrigated states have reaped higher profits in quite a few years than their counterparts in irrigated states. 

13Although the income from crop-cultivation alone (at 1986-87 prices has increased from 3,645 rupees in 2002-03 to 5,502 rupees in 22012-13 per farmer household as per SAS data at the national level, it was found to be far less than the national level in many states of India. In fact, the income realised from cultivation by the farmer household at current prices works out to be 101 rupees per day during 2012-13. Can a farmer household satisfy the family’s consumption needs and other expenditure with this meagre income? (see page 37 under the sub-heading Future Agenda) 

14He writes on page 38 – ”As per SAS data (NSSO, 2005b) about 40 percent of farmers are reportedly willing to quite agriculture because of poor remuneration from farming. The income from cultivation is not even enough to meet the annual cultivation expenditure in many states. 

15A. Narayanmurthy writes – ”Increase in productivity is surely not the solution and if we allow the market to have low prices during high productiviity/production years. (see page 36, ibid)  

16He writes – ”Raising productivity might help the consumers and the country to further strengthen food security with reduced food inflation. But the farmers at large won’t benefit through increased productivity simultaneous efforts are made to control the Cost Of Cultivation and improve the procurement arrangement through state agencies. (see page 36-37, ibid)