रिकार्डतोड़ कॉर्पोरेट मुनाफा और भूखे लोग, कुपोषित बच्चे-माताएं

August 3, 2022 0 By Yatharth

एम असीम

पोषक आहार खा पाने की सामर्थ्य पर विभिन्न देशों के बीच एक तुलना से पता चलता है कि 97 करोड़ से अधिक भारतीय, या देश की आबादी का लगभग 71 प्रतिशत, पौष्टिक भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ हैं – जबकि एशिया के लिए यह आंकड़ा 43.5 प्रतिशत और अफ्रीका के लिए 80 प्रतिशत है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, 2020 में दुनिया भर में लगभग 307 करोड़ लोग पोषक आहार का खर्च उठाने में असमर्थ थे। भारत, दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश, ऐसी वैश्विक आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा है। ये आंकड़े 6 जुलाई को जारी एफएओ की रिपोर्ट से हैं, जिसका शीर्षक है, ‘द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2022: रीपरपजिंग फूड एंड एग्रीकल्चर पॉलिसीज टू मेक हेल्दी डाइट मोर अफोरडेबल’।

वैसे पूरी दुनिया के लिए ही इस रिपोर्ट के आंकड़े भयावह हैं। एफएओ के महानिदेशक क्व डोंग्यु ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा, “महामारी के आर्थिक प्रभावों के कारण खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति ने 11 करोड़ से अधिक और लोगों को स्वस्थ आहार का खर्च उठाने में असमर्थ बना दिया है – मतलब दुनिया भर में कुल 310 करोड़ लोग ऐसे हो गए हैं।” एफएओ रिपोर्ट स्वस्थ आहार को परिभाषित करती है, जो विभिन्न प्रकार के न्यूनतम संसाधित (प्रोसेस्ड) भोजन पर आधारित होते हैं, जिसमें साबुत अनाज, नट्स, फलियां, फलों और सब्जियों की प्रचुरता और पशु प्रोटीन की मध्यम मात्रा सहित खाद्य समूहों में संतुलन होता है। रिपोर्ट के अनुसार 2020 में अधिकांश लोगों की आय में जो गिरावट हुई है उसके पूरे आंकड़े प्राप्त होने पर यह संख्या इससे भी अधिक हो सकती है। फिर इसके बाद 2022 तक खाद्यान्न व अन्य भोजन सामग्री के दामों में तेज इजाफा हुआ है और दुनिया भर के आम मेहनतकश लोगों की भोजन स्थिति में अत्यधिक गिरावट आई है। 

एफएओ के अनुसार, भारत में स्वस्थ आहार लेने के लिए प्रति व्यक्ति प्रति दिन (2020 में) अनुमानित $ 2.97 खर्च होता है। क्रय शक्ति समानता के संदर्भ में देखें तो इसका मतलब होता है कि एक चार सदस्यीय परिवार के स्वस्थ आहार के लिए प्रति माह 7,600 रुपये का खर्च भोजन पर होता है। क्रय शक्ति समता वह पैमाना है जिसका उपयोग विभिन्न देशों में माल की एक टोकरी की लागत को ध्यान में रखते हुए मुद्राओं की तुलना करने के लिए किया जाता है।

जबकि 70.5 प्रतिशत भारतीय स्वस्थ आहार लेने में असमर्थ थे, चीन (12 प्रतिशत), ब्राजील (19 प्रतिशत) और श्रीलंका (49 प्रतिशत) के लिए यह संख्या कम थी। उधर नेपाल में 84 प्रतिशत और पाकिस्तान में 83.5 प्रतिशत लोग अर्थात भारत की तुलना में भी अधिक गरीब स्वस्थ आहार लेने में असमर्थ हैं। (ग्राफ देखें) लगभग 80 करोड़, या लगभग 60 प्रतिशत भारतीय, सरकार द्वारा प्रदान किए जाने वाले सबसिडी वाले खाद्य राशन पर निर्भर हैं। लाभार्थियों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मुफ्त पांच किलोग्राम अनाज की विशेष महामारी सहायता के अलावा, प्रति व्यक्ति प्रति माह केवल 2-3 रुपये प्रति किलोग्राम पर पांच किलोग्राम अनाज मिलता है। 

खाद्य सहायता व पोषण कार्यक्रमों के खर्च में कटौती

 एक ओर जहां भारत की इतनी बड़ी आबादी पोषक भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ हैं और बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण व स्त्रियों की भारी आबादी रक्ताल्पता जैसी बीमारियों की शिकार है वहीं पूंजीपतिपरस्त सरकार बच्चों, स्त्रियों खास तौर पर माताओं की खाद्य व्यवस्था के लिए जो थोड़े बहुत कार्यक्रम चलाती थी उन्हें भी बंद कर रही है या उनमें होने वाले खर्च के बजट में कटौती करती जा रही है। कई साल से जारी सरकारी नीतियों से सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को भी कमजोर किया जा रहा है। इसका संकेत तो पिछले बजट में ही मिल गया था जब हमने अपनी बजट समीक्षा में लिखा था, “कृषि उपज की सरकारी खरीदारी को गेहूं-धान तक सीमित कर उसका बजट 2.48 लाख करोड़ से घटा 2.37 लाख करोड़, खाद सबसिडी आबंटन को 1.40 लाख करोड़ से 1.05 लाख करोड और खाद्य सबसिडी को 2.86 लाख करोड़ से कम कर 2.06 लाख करोड़ कर देने, आदि से स्पष्ट है कि एमएसपी पर खरीद की गारंटी देना तो दूर की बात है सरकार फसलों की खरीद कम कर रही है। जहां पिछले साल 1.97 करोड़ किसानों से 1286 लाख टन अनाज की खरीदारी हुई वहां इस वर्ष सरकार ने 1.63 करोड़ किसानों से 1208 लाख टन खरीदारी का लक्ष्य घोषित किया है।” खाद्य सहायता कार्यक्रमों में इन कटौतियों का क्या प्रभाव हो रहा है इसके लिए हम उत्तर प्रदेश में आंगनवाड़ी के जरिए चलाए जाने वाले पौष्टिक आहार कार्यक्रम पर इंड‍ियास्‍पेंड द्वारा 9 जून को प्रकाशित रणविजय सिंह की एक रिपोर्ट से कुछ उदाहरण दे रहे हैं। 

‘”मैं चार महीने की गर्भवती हूं। मुझे आंगनवाड़ी से हर महीने राशन मिलना चाहिए, लेकिन पिछले दो महीने में सिर्फ एक बार राशन मिला है। इतने में क्या होगा?” लखनऊ के हबीबपुर गांव की रहने वाली रोशनी रावत (27) कहती हैं। रोशनी के दो बच्‍चे हैं, एक चार साल का और दूसरा एक साल का जो कि अतिकुपोषित है। रोशनी को आंगनवाड़ी से हर महीने 1.5 किलो गेहूं दलिया, एक किलो चावल, एक किलो चना दाल और 500 मिलीलीटर खाद्य तेल मिलना चाहिए। हालांकि, रोशनी को अप्रैल के बाद जून में यह राशन मिल पाया, यानी दो महीने में एक बार। इसी तरह उनके एक साल के अतिकुपोषित बच्चे को भी दो महीने में एक बार राशन मिला है। 

बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग के मानक के अनुसार अतिकुपोषित बच्चे को हर दिन 800 कैलोरी और 20 से 25 ग्राम प्रोटीन मिलना चाहिए, लेकिन जब आंगनवाड़ी से अनुपूरक पुष्टाहार ही दो महीने में एक बार मिलेगा तो मानक कैसे पूरा होगा। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, भारत में 6 से 23 महीने के 89% बच्चों को पर्याप्त आहार नहीं मिलता। इस मामले में सबसे खराब स्थिति उत्तर प्रदेश (यूपी) और गुजरात की है। यूपी और गुजरात में सिर्फ 5.9% बच्चों को पर्याप्त आहार मिलता है। उत्तर प्रदेश में कुपोषण दूर करने के उद्देश्य से आंगनवाड़ी के तहत सूखा राशन दिया जाता है, जिसे अनुपूरक पुष्टाहार कहते हैं। यह पुष्टाहार 6 महीने से 6 साल तक के बच्चों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं, कुपोषित बच्चों और 11 से 14 साल की किशोरियों को दिया जाता है। हालांकि प्रदेश में यह योजना अनियमितताओं की शिकार है। इंडियास्पेंड ने अलग-अलग जिलों की आंगनवाड़ी कार्यकत्रियों से बात की तो जानकारी हुई कि लाभार्थियों की संख्या के मुकाबले राशन बहुत कम मात्रा में आता है और ऐसे में बहुत से लोग इससे वंचित रह जाते हैं। 

.. इंडियास्पेंड को व्यापक तौर पर यह समस्या देखने को मिली कि आंगनवाड़ी केंद्र पर जितने लाभार्थी हैं, उससे कम राशन पहुंच रहा है। इसका सीधा असर लाभार्थियों पर देखने को मिलता है। लखनऊ के हबीबपुर गांव की रहने वाली रोमा यादव (23) को आठ महीने पहले बच्ची हुई, जिसका नाम सृष्टि है। जन्म के वक्त सृष्टि का वजन सिर्फ 1.5 किलो था, जो कि जन्म के वक्त कम वजन (लो बर्थ वेट) माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जन्म के वक्त बच्चे का वजन 2.5 किलो से कम होने पर उसे लो बर्थ वेट के तौर पर देखा जाता है।

गांव की आंगनवाड़ी कार्यकत्री ने सृष्टि का कम वजन देखते हुए उसे अतिकुपोषित की श्रेणी में रखा। आंगनवाड़ी के अनुपूरक पुष्टाहार के मानक के अनुसार सृष्टि को हर महीने 1.5 किलो गेहूं दलिया, 1.5 किलो चावल, 2 किलो चना दाल, 500 ग्राम खाद्य तेल मिलना चाहिए। इंडियास्पेंड की टीम जब सृष्टि के घर पहुंची तो उसकी मां रोमा ने बताया, “पिछले दो महीने में एक बार राशन मिला है। मई और जून का मिलाकर एक बार। आंगनवाड़ी दीदी कहती हैं कि ऊपर से राशन कम आ रहा है, पता नहीं क्या सच है।”

रोमा की बात से साफ है कि सृष्टि को तय मानक के अनुसार जितना पुष्टाहार मिलना चाहिए वो नहीं मिल रहा, यानी सृष्टि को पर्याप्त आहार नहीं मिल पा रहा। सृष्टि की तरह भारत में 6 से 23 महीने के 89% बच्चों को पर्याप्त आहार नहीं मिलता। बच्चों को पर्याप्त आहार न मिलना कुपोषण के स्तर को बढ़ाने का एक कारक हो सकता है। यूपी में पहले ही कुपोषण का स्तर बहुत ज्यादा है। पांचवे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक, यूपी में पांच साल से कम उम्र के 39.7% बच्चे ठिगनापन, 17.3% बच्चे दुबलापन और 32.1% बच्चे अल्पवजन के हैं। ठिगनेपन के मामले में यूपी देश के उन 10 राज्यों में शामिल है जहां सबसे खराब स्थिति है। इस मामले में यूपी सिर्फ मेघालय और बिहार से बेहतर स्थिति में है।

आंगनवाड़ी केंद्रों पर राशन कम आने से आंगनवाड़ी‍ कार्यकत्रियों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। कम राशन और ज्यादा लाभार्थियों के बीच संतुलन बैठाने के लिए आंगनवाड़ी कार्यकत्रियां अलग-अलग तरीके आजमा रही हैं। इसके अलावा गांव वालों की नाराजगी भी झेल रही हैं। “गांव में लोग सीधा आरोप लगाते हैं कि उनका राशन हम खा रहे हैं, लेकिन यह सच नहीं है। हमें जितना राशन मिलता है, हम बांट रहे हैं,” लखनऊ के हबीबपुर गांव की आंगनवाड़ी कार्यकत्री उर्मिला मौर्य कहती हैं। “मुझे मई महीने में 66 लोगों का राशन मिला, जबकि मेरे यहां 6 माह से 3 साल के 74 बच्चे, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली 22 महिलाएं और अतिकुपोषित 4 बच्चे हैं। कुल 100 लाभार्थी हैं। अब इसमें से किसे राशन दें और किसे न दें,” उर्मिला बताती हैं। आंगनवाड़ी के सभी लाभार्थियों को एक साथ राशन मिल जाये इसलिए उर्मिला ने मई और जून में मिले राशन को एक साथ वितरित किया। इससे उर्मिला ने गांव वालों से विवाद की संभावना को खत्म किया लेकिन लाभार्थियों को दो महीने में एक बार राशन मिल पाया है। लाभार्थियों के पूछने पर अब उर्मिला ऊपर से कम राशन आने की दुहाई दे रही हैं।

उर्मिला की तरह गोरखपुर जिले के छितौनी गांव की आंगनवाड़ी कार्यकत्री गीता पांडेय भी जैसे तैसे पुष्टाहार वितरण को संभाल रही हैं। गीता पांडेय ने बताया कि उनके आंगनवाड़ी केंद्र पर 12 गर्भवती हैं जिसमें से सिर्फ 6 के लिए राशन आ रहा है। इसी तरह 6 माह से 3 साल के 60 बच्चे हैं, लेकिन 30 बच्चों का राशन आ रहा है। 3 साल से 6 साल के 48 बच्चे हैं, लेकिन 16 बच्चों का ही राशन आ रहा है। गीता कहती हैं, “हम लोगों को गांव में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हमें यह तय करना पड़ रहा है कि अबकी बार अगर किसी गर्भवती को राशन दे रहे हैं तो अगली बार किसी दूसरे को दिया जाए। इसके साथ सभी लोगों से यह बताना पड़ रहा है कि सरकार से कम राशन आया है।”’

आधार अनिवार्य कर बच्चों-माताओं का आहार छीना जा रहा है 

ऐसा ही एक और कदम है केंद्र सरकार द्वारा उन राज्यों के लिए कोष में कटौती करने का फैसला, जो यह सुनिश्चित नहीं करते हैं कि जिन बच्चों और माताओं को मुफ्त भोजन मिल रहा है, उनके पास आधार आईडी हैं। इस फैसले से लाखों गरीब परिवार पोषण के प्रमुख स्रोतों से वंचित हो सकते हैं। सरकार का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का उल्लंघन है जिसमें आधार नंबर के अभाव में किसी भी सबसिडी या सेवा से इंकार नहीं किया जा सकता है। भारत का राष्ट्रीय पोषण मिशन छह महीने से छह साल की उम्र के लगभग 8 करोड़ बच्चों और डेढ़ करोड़ गर्भवती, स्‍तनपान कराने वाली महिलाओं को मुफ्त भोजन प्रदान करता है। यह फैसला ऐसी स्थिति में किया गया है जबकि पांच साल से कम उम्र के सिर्फ 23 फीसदी बच्चों के पास आधार कार्ड हैं। 

रिपोर्टर्स कलेक्टिव की तपस्या की ‘मूकनायक’ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा देखे गए महिला और बाल विकास मंत्रालय के पहले अघोषित आधिकारिक पत्राचार और दिशानिर्देशों से खुलासा हुआ है कि मार्च 2022 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने पोषण कार्यक्रम के लिए आधार को अनिवार्य कर दिया था। इससे पहले, नवंबर 2021 में, सरकार ने राज्य सरकारों को धमकी दी थी कि वह इस योजना के लिए वित्तीय सहायता में कटौती करेगी, इसे केवल आधार के माध्यम से सत्यापित लाभार्थियों तक ही सीमित रखा जाएगा। केंद्र सरकार ने इसे आगे बढ़ाते हुए 23 जून, राज्य सरकारों को उन्हें मुफ्त-भोजन कार्यक्रम का उपयोग करने के लिए लाभार्थियों की आधार पहचान को जोड़ने में तेजी लाने के लिए कहा।

2013 में जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया था तब पूरक पोषण योजना को कानूनी अधिकार में बदल दिया गया था। कार्यक्रम के तहत छह साल तक के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और नई माताओं को बेहतर पोषण प्रदान करने के लिए लाभार्थियों को आंगनवाड़ी केंद्रों से गर्म पका हुआ भोजन या घर ले जाने का राशन दिया जाता है, जहां वे पंजीकृत हैं। अब यदि आधार को एक शर्त बना दिया जाए तो उनमें से बहुतों को कानूनी रूप से यकीनन इस अधिकार से वंचित किया जा सकता है।

अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली की सहायक प्रोफेसर (अर्थशास्त्र) दीपा सिन्हा ने बताया कि एक बार लाभार्थियों को आधार कार्ड के अभाव में उन्हें जरूरी पोषण देने से दूर रखना शुरू हो जाता है तो लाखों लोग पूरक पोषण कार्यक्रम के लाभों को खो सकते हैं, खासकर गरीब राज्यों में। सिन्हा ने कहा, “तमिलनाडु जैसे राज्य जिनके पास एक मजबूत और बेहतर वित्तपोषित बाल विकास सेवा ढांचा है, वे आधार के बिना लाभार्थियों की मदद जारी रख सकते हैं, लेकिन गरीब राज्य और जो पूरी तरह से केंद्रीय वित्त पोषण पर निर्भर हैं, वे बच्चों और महिलाओं को पोषण से वंचित कर देंगे।” केंद्र सरकार कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पूरक पोषण कार्यक्रम की आधी लागत, उत्तर-पूर्वी और हिमालयी राज्यों में 90% और बिना विधायिका के केंद्र शासित प्रदेशों में 100% का वित्तपोषण करती है।

पोषण योजना के लाभार्थियों के लिए आधार लागू करने की मोदी सरकार की मंशा 2021 से ही स्पष्ट है। महिला और बाल विकास मंत्रालय ने 2006 से एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) योजना के तहत अपने वर्तमान स्वरूप में पूरक पोषण कार्यक्रम संचालित किया है, जिसे 1975 में शुरू किया गया था और यह दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा कार्यक्रम है। 2018 में, मोदी सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों द्वारा संचालित पोषण संबंधी योजनाओं की निगरानी, इसकी नियंत्रण और संचालन के लिए एक एकीकृत राष्ट्रीय पोषण मिशन या पोषण अभियान शुरू किया। पूरक पोषाहार कार्यक्रम को इसमें शामिल कर लिया गया।

2018 में पोषण योजनाओं के परिणामों की निगरानी के लिए एक भारतीय निजी कंपनी और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा निर्मित ICDS-CAS (कॉमन एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर) को राष्ट्रीय पोषण मिशन के तहत शुरू किया गया था। यह विफल रहा। इसकी जगह एक अन्य मोबाइल ऐप लाया गया। यह केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा बनाया गया था। इसे पोषण ट्रैकर का नाम दिया गया था। आंगनबाड़ियों, जो बच्चों और माताओं के लिए सरकार द्वारा संचालित कल्याण केंद्र है, जहां आईसीडीएस योजनाओं के तहत भोजन प्रदान किया जाता है, वहां की कार्यकर्ता (सेविका) को पंजीकृत लाभार्थियों के स्वास्थ्य की स्थिति और उन्हें प्रदान की जाने वाली सेवाओं को ट्रैकर विवरण में बताना जरूरी होता है। सरकार ने इस पोषण ट्रैकर के माध्यम से आंगनबाड़ियों में दी जाने वाली सभी सेवाओं की निगरानी शुरू की।

नवंबर 2021 में केंद्र सरकार ने राज्यों से कहा कि लाभार्थियों के आधार विवरण को 15 दिसंबर तक पोषण ट्रैकर से जोड़ा जाना चाहिए। इसमें आगे कहा कि केंद्र सरकार से योजना के लिए धन पोषण ट्रैकर में फीड किए गए डेटा पर आधारित होगा। मार्च 2022 में, मंत्रालय ने आईसीडीएस के तहत योजनाओं सहित अपने पोषण मिशन पर राज्यों को विस्तृत दिशा-निर्देश भेजा। दिशानिर्देशों में कहा गया है, “केवल वे लाभार्थी जो आंगनवाड़ी केंद्रों में पंजीकृत हैं, वे पूरक पोषण प्राप्त करने के हकदार हैं। लाभार्थियों के पास अनिवार्य रूप से आधार कार्ड होना चाहिए और पंजीकरण के समय आधार संख्या जमा करनी होगी…।” दूसरे शब्दों में, केवल उन लाभार्थियों, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, जिनके पास आधार है, वही घर ले जाने वाले राशन, गर्म पके भोजन और आंगनवाड़ी केंद्रों द्वारा प्रदान किए जाने वाले अन्य लाभों के लिए पंजीकृत होंगे।

दिशानिर्देशों में कहा गया है कि लाभार्थियों को हर बार राशन या भोजन लेने के लिए अपने आधार कार्ड को आंगनवाड़ी केंद्र ले जाना होगा। 23 जून को केंद्र ने फिर राज्यों से आंगनवाड़ी केंद्रों में पंजीकृत सभी लाभार्थियों के आधार नंबर को पोषण ट्रैकर से जोड़ने का आग्रह किया। अधिकांश आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और राज्य के जिन वरिष्ठ अधिकारियों से रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने बात की, उन्होंने कहा कि हर बार जब वे भोजन के लिए या किराने के सामान के लिए आते हैं तो लाभार्थियों के आधार नंबर को प्रमाणित करना व्यावहारिक नहीं होगा।

सरकार ने राज्यों को दी जाने वाली सहायता में कटौती की धमकी देने के अलावा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं पर भी शिकंजा कस दिया है। उनका प्रोत्साहन ट्रैकर में “डेटा की शीघ्र इनपुटिंग” पर टिका है। दिशानिर्देशों में अधिकारियों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं पर लाभार्थियों को उनके आधार कार्ड बनवाने में मदद करने की जिम्मेदारी भी दी गई है। दिल्ली में एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “हमें सभी लाभार्थियों के लिए आधार सत्यापित करने के लिए कहा जा रहा है।” उसने हमें एक व्हाट्सएप ग्रुप पर अपने वरिष्ठों द्वारा पोस्ट किए गए हिंदी में संदेश दिखाए, जिसमें लिखा था: “सभी को आधार सत्यापित करवाना चाहिए। आधार के बिना, THR (टेक-होम राशन) नहीं भरा जाएगा।”

रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने दो अन्य राज्यों में पूरक पोषण कार्यक्रम के प्रभारी वरिष्ठ अधिकारियों से बात की और उनसे आधार और पोषण ट्रैकर-संचालित निगरानी तंत्र के बारे में पूछा, जिससे लाखों बच्चों को आंगनवाड़ियों में प्रदान किए गए पोषण सहायता के अधिकार से वंचित होने का जोखिम पैदा हो गया है। एक अधिकारी ने कहा कि हर समीक्षा बैठक में अधिकारियों पर सभी लाभार्थियों का आधार लिंक सुनिश्चित करने का दबाव होता था। उनके राज्य के अधिकांश दूरदराज के इलाकों में पर्याप्त इंटरनेट कनेक्टिविटी नहीं थी। “देश भर में एक चौथाई से भी कम बच्चों के पास आधार है। .. यह कैसे होगा?”, उन्होंने कहा। एक पूर्वी राज्य में, एक अधिकारी ने चेतावनी दी कि जब तक राज्य को कोई वैकल्पिक हाल नहीं मिलता, केंद्र सरकार के निर्देश लाभार्थियों को राशन और भोजन के वितरण में बड़े पैमाने पर व्यवधान पैदा कर सकते हैं। दोनों ही अधिकारी गुमनाम रहना चाहते थे।’

वहीं कॉर्पोरेट मुनाफे रिकार्ड तोड़ रहे हैं

उधर सीएमआईई की एक रिपोर्ट भारतीय कंपनियां कोविड के समय में शानदार मुनाफे कूट रही हैं। 2020-21 में, महामारी के वर्ष और गंभीर लॉकडाउन के झटके के दौरान भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र ने शुद्ध लाभ में 138% की भारी वृद्धि देखी है। कुल मिलाकर, शुद्ध लाभ 2019-20 में 3.2 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2020-21 में 7.6 लाख करोड़ रुपये हो गया। इस स्तर पर, 2020-21 में भारतीय कॉर्पोरेट क्षेत्र का शुद्ध लाभ पिछले पांच वर्षों में अर्जित औसत लाभ के दोगुने से भी अधिक था। यह पिछले एक साल में अर्जित उच्चतम मुनाफे से भी 81 फीसदी अधिक है। यहां गणना लगभग 30,000 कंपनियों के नमूने पर आधारित है, जिनके वित्तीय विवरण सीएमआईई के प्रोवेस डेटाबेस में उपलब्ध हैं। 2020-21 में कंपनी मामलों के मंत्रालय के साथ पंजीकृत कुल 1.34 मिलियन कंपनियों में से इन कंपनियों की हिस्सेदारी 2.2 प्रतिशत है। लेकिन 30,000 कंपनियों का यह नमूना सभी कंपनियों द्वारा उत्पन्न कुल मुनाफे का लगभग आधा है। 

4,512 सूचीबद्ध कंपनियों का शुद्ध लाभ, जिनके लिए दो साल 2019-20 और 2020-21 के लिए ऑडिटेड वित्तीय विवरण उपलब्ध हैं, 2019-20 में 2.37 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2020-21 में 5.07 लाख करोड़ रुपये हो गए। यानी 113.5% की वृद्धि। इसके विपरीत, इसी तरह की तुलना में, 25,223 गैर-सूचीबद्ध कंपनियों का शुद्ध लाभ 2019-20 में 0.66 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2.3 लाख करोड़ रुपये हो गया, जिसका अर्थ है 249% की वृद्धि। जाहिर है, कोविड झटके वाले वर्ष 2020-21 में असाधारण मुनाफे की घटना सूचीबद्ध और गैर-सूचीबद्ध कंपनियों के लिए साझा है। दोनों ने ही इस वर्ष के दौरान असाधारण लाभ कमाया है।

हम सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा प्रकाशित अंतरिम वित्तीय वक्तव्यों से जानते हैं कि उन्होंने 2021-22 में भी असाधारण मुनाफे कूटना जारी रखा है। साल में सूचीबद्ध कंपनियों का शुद्ध लाभ 66.2% बढ़ा। यह वृद्धि पिछले साल की तुलना में लगभग आधी है। फिर भी, यह सूचीबद्ध कंपनियों को मुनाफे के एक नए स्तर पर ले जाता है। सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा 2021-22 में 9.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया।

मेहनतकशों का निवाला छीनकर कॉर्पोरेट को सबसिडी व टैक्स छूट 

भारत का पूंजीपति वर्ग जिस काम के लिए मोदी की फासिस्ट सरकार को भारी पूंजी निवेश के जरिए सत्ता में लाया था अर्थात पूंजीवादी आर्थिक संकट का सारा बोझ मेहनतकश जनता पर डालकर पूंजीपतियों के मुनाफों में वृद्धि करना यह सरकार जोरों से उस काम को पूरा करने में लगी हुई है। पिछले सालों के दौरान हम ने देखा है कि बड़े पूंजीपतियों के लिए एक के बाद एक राहत पैकेज लाए गए हैं जिनमें उन्हें लाखों करोड़ रुपये के करों की छूट दी गई है और उनके लिए तमाम योजनाएं लाई जा रही हैं जिनसे उनके मुनाफे बढ़ें और उन्हें बहुत सारी सबसिडी दी जाए। इसमें उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन हैं जैसे नए कारखाने लगाने के लिए सबसिडी। हरेक औद्योगिक क्षेत्र के लिए कितने हजार करोड़ रुपये दिए जाएंगे इसके ऐलान किये जा रहे हैं। अब तक वित्त मंत्रालय 14 क्षेत्रों के लिए कुल 1.97 लाख करोड़ रु सबसिडी की घोषणाएं कर चुका है एवं अन्य क्षेत्रों के लिए योजना तैयार की जा रही है। कार बनाने वाली कंपनियों को 25,938 करोड़ रु दिए जाएंगे और इतने ही कारों के पुर्जे बनाने वाली कंपनियों को। इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को 48,376 करोड़ दिए जाएंगे तो केमिकल्स को 18,100 करोड़। फूड प्रोसेसिंग को 18,900 करोड़ तो मेडिकल उपकरण कंपनियों को 18,425 करोड़ रु, आदि। स्पेशल एक्सपोर्ट जोन (सेज) में उनके लिए और भी सुविधाएं जोड़ी जा रही हैं ताकि वहां न कोई श्रमिक अधिकार रहें, न अन्य कानून लागू हों, न टैक्स देना पड़े और अब तो निर्यात के नाम पर छूट लेने के बावजूद उन्हें यह उत्पादन देश के अंदर बेचने की सुविधा भी प्रस्तावित है। 

दूसरी ओर हमने विभिन्न उदाहरणों द्वारा दिखाया है कि कैसे भारत की लगभग तीन चौथाई जनता पेट भर भोजन से भी महरूम हो चुकी है और उसके लिए कोई राहत देने के बजाय जो थोड़ी सी योजनाएं पहले से थीं उनके खर्च में भी लगातार कटौती की जा रही है और उनमें हर रोज ऐसे नियम-कायदे बनाए जा रहे हैं ताकि योजना होने पर भी अधिकांश जरूरतमंद उनका लाभ न उठा सकें। यह मेहनतकश जनता के मुंह का निवाला छीनकर कॉर्पोरेट पूंजीपतियों की तिजोरी भरने की योजनाएं हैं जो यह पूंजीपरस्त सरकार एक के बाद एक ला रही है। पूंजीवादी व्यवस्था में ‘सबका साथ सबका विकास’ का यही मतलब होता है।

भारत की जनसंख्या का % जो पोषक आहार का खर्च उठाने में असमर्थ हैं

कॉर्पोरेट मुनाफों में एक साल में जबर्दस्त इजाफा