सुप्रीम अन्याय – प्रो साईंबाबा व साथियों की रिहाई पर रोक

October 16, 2022 0 By Yatharth

छपते-छपते – संपादकीय टिप्पणी

15 अक्टूबर शनिवार छुट्टी के दिन महाराष्ट्र सरकार की अपील पर विशेष सुनवाई कर सुप्रीम कोर्ट ने प्रो जीएन साईंबाबा व 5 अन्य को यूएपीए मामले में मुंबई हाईकोर्ट द्वारा बरी कर रिहा करने के आदेश को निलंबित कर दिया। ये सभी 8 साल से जेल में कैद हैं और इनमें से एक पांडु नरोते की सुनवाई के दौरान ही मृत्यु हो चुकी है। प्रो साईंबाबा 90% शारीरिक विकलांग हैं फिर भी सुप्रीम कोर्ट बेंच ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि उन्हें जमानत देने या घर पर नजरबंद करने से राज्य को कोई खतरा नहीं है। जजों ने कहा कि आतंकवादी गतिविधि में दिमाग ज्यादा खतरनाक है, सीधे शामिल होना जरूरी नहीं। हालांकि बाद में यह भी जोड़ दिया कि यह इस मामले के बारे में नहीं हैं। तो फिर कि‍स मामले के बारे में है जज साहिब? किसी पूर्वाग्रह के मामले में तो नहीं?

14 अक्टूबर को ही मुंबई हाईकोर्ट ने पुलिस द्वारा यूएपीए में मुकदमा चलाए जाने हेतु उच्च अधिकारी की अनुमति हेतु निर्धारित कानूनी कार्यवाही का पालन न किये जाने के आधार पर मुकदमे को ही खारिज करते हुए सबूतों में जाने से इंकार कर सभी की रिहाई का आदेश दिया था। उसी दिन महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। उस वक्त तक मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित उठ चुके थे। अतः दूसरे वरिष्ठतम जज चंद्रचूड़ के सामने मौखिक रूप से मामला उठाया गया। जस्टिस चंद्रचूड़ ने इस पर स्टे देने से मना करते हुए सोमवार को सुनवाई के लिए कहा। किंतु बाद में पता चला कि अपील शनिवार को एक और बेंच के सामने सूचीबद्ध कर दी गई।

यहां छुट्टी के दिन असाधारण सुनवाई के साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि खास इस मुकदमे के लिए एक नई व विशेष बेंच भी बनाई गई। इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एमआर शाह व जस्टिस बेला त्रिवेदी वाली कोई बेंच मुकदमे नहीं सुन रही है। खास इस एक मामले की सुनवाई के लिए इन्हीं दो जजों की एक खास बेंच बनाने की वजह क्या है, इस पर भी सवाल स्वाभाविक हैं, खास तौर पर इसलिए कि जज होते हुए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूरी-भूरी प्रशंसा करने के लिए जस्टिस शाह का नाम सबको पता है।

छुट्टी के दिन सुनवाई की परंपरा तभी रही है जब या तो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होने का खतरा हो। यहां ऐसा नहीं था। या कोई असाधारण संवैधानिक संकट हो, जैसे सरकार गिर सकती हो, जैसे कर्नाटक विधानसभा के मामले में था। इस मामले में सुनवाई न होने से व्यक्ति स्वतंत्रता पर खतरा नहीं, इस सुनवाई की वजह से ही व्यक्ति स्वतंत्रता पर रोक का खतरा था। वैसे तो सोमवार तक रुकने से भी प्रो साईंबाबा व अन्य की रिहाई की संभावना नहीं थी क्योंकि मुंबई हाईकोर्ट ने रिहाई के आदेश के साथ इन सभी को निचली अदालत में धारा 437a के अंतर्गत बॉन्ड भरने के लिए कहा था। यह कम सोमवार के पहले मुमकिन नहीं था। अतः सुनवाई न होने से वे रिहा हो जायें इस बात की संभावना तक नहीं थी। इन परिस्थितियों में खास तौर पर विशेष जजों की एक बेंच बना छुट्टी के दिन असाधारण सुनवाई कर बरी करने के आदेश को निलंबित करना इरादतन सबक सिखाने वाली कार्रवाई जैसा है क्योंकि हाईकोर्ट के आदेश से बहुत लोग खुश हुए थे। यह पूरी भारतीय न्याय व्यवस्था के चरित्र को ही उजागर कर देता है कि इसमें न्याय जैसा कुछ है ही नहीं। न्यायपालिका शासक वर्ग व कार्यपालिका के सामने अपनी थोड़ी-बहुत सापेक्ष स्वतंत्रता भी खो चुकी है और सत्ता के सामने नतमस्तक होकर उसे खुश करने के लिए कुछ भी करने को तैयार है।  

शनिवार को जस्टिस शाह तथा बेला त्रिवेदी की बेंच ने कहा कि गंभीर अपराध के मामले में सिर्फ कार्यवाही में दोष के आधार पर मामला खत्म करना ठीक नहीं, सबूतों को भी देखना चाहिए। वैसे पूछा तो यह भी जाना चाहिए कि जिस पुलिस ने निर्धारित कानूनी कार्यवाही का पालन नहीं किया उसके जुटाए सबूत कितने विश्वसनीय हैं। हाईकोर्ट के आदेश को निलंबित करते हुए व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाले प्रो साईंबाबा को मेडिकल व मानवीय आधार पर घर में नजरबंदी के अनुरोध को भी अस्वीकार कर दिया क्योंकि सरकार की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ‘अर्बन नक्सल’ लोग बार-बार घर में नजरबंदी की मांग करते रहते हैं। तुषार मेहता के अनुसार आजकल फोन के सहारे घर बैठे ही अपराध की योजना बन जाती है और प्रो साईंबाबा के पास दिमाग है जो अधिक खतरनाक है। सुप्रीम कोर्ट के विद्वान जजों ने विद्वान सरकारी वकील से ये पूछने की जरूरत नहीं समझी कि कौन से भारतीय कानून की कि‍स धारा में ‘अर्बन नक्सल’ नामक अपराध बताया गया है और इसकी क्या सजा होती है। बल्कि जस्टिस शाह ने सरकारी वकील के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि आतंकवाद के मामले में शरीर नहीं दिमाग अधिक खतरनाक होता है, अतः घर पर नजरबंदी का अनुरोध नहीं माना जा सकता।

हम जानते हैं कि भारत एक पूंजीवादी समाज है। और हर वर्ग विभाजित समाज में राज्य शासक वर्ग की सत्ता को बनाए रखने का औजार ही होता है। अतः न्यायपालिका का भी मुख्य कार्य यही है। फिर भी पूंजीवादी जनतंत्र में सत्ता के विभिन्न अंगों के बीच रहते आए एक औपचारिक अलगाव व उनकी सापेक्ष स्वायत्तता के चलते नागरिकों को जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष का एक स्थान रहता है। पर इस वक्त हम देख रहे हैं कि मौजूदा दौर में जब विश्व पूंजीवाद के साथ ही भारतीय पूंजीवाद भी घोर आर्थिक संकट का शिकार है, और पूंजीपति वर्ग अधिकाधिक तौर पर बुर्जुआ जनतंत्र के बजाय फासीवाद की ओर बढ़ने का विकल्प चुन रहा है, तब यह अलगाव व सापेक्ष स्वायत्तता समाप्त होती जा रही है। इसके चलते जनवादी अधिकारों के लिए समस्त स्पेस सिकुड़ता व समाप्त होता जा रहा है। प्रो साईंबाबा व उनके साथियों का मुकदमा भी इसकी एक और नजीर पेश कर रहा है।