गहराता संकट और लेनिनवादी पार्टी की जरूरत
October 19, 2022गहराते आर्थिक-राजनीतिक संकट और जनाक्रोश को क्रांतिकारी ताकतों की एकमात्र लेनिनवादी एकता ही क्रांतिकारी विस्फोट में तब्दील कर सकती है
संपादकीय, अक्टूबर 2022
इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि लेनिनवादी एकता कायम करने का सवाल सर्वहारा क्रांति को संपन्न करने के कार्यभार से सीधे तौर पर जुड़ा है, खासकर तब जब विश्व पूंजीवादी संकट के गहराते काले साये में जनता के बीच गुस्से के एक उफान आने के संकेत मिल रहे हैं जिसकी झलक जीवन के हर क्षेत्र में – उद्योग से लेकर कृषि क्षेत्र में और मजदूर वर्ग से लेकर मध्य वर्ग तक में दृष्टिगोचर हो रहा है। हम मानते हैं कि क्रांतिकारियों की, वे एक ही ग्रुप के भीतर के हों या बाहर के, उनकी लेनिनवादी एकता का सवाल अपने मूल रूप में एक सैद्धांतिक सवाल है, लेकिन मौजूदा समय में गहरे और असीम विस्तार लेते विश्वव्यापी पूंजीवादी संकट की वजह से वस्तुगत क्रांतिकारी परिस्थिति जिस तेजी से परिपक्व होती दिख रही है, उसे देखते हुए यह सवाल आज के हमारे क्रांतिकारी व्यवहार से भी गहरे रूप से जुड़ा है। परिस्थितियां हमें दिन-प्रति-दिन इस पर खुलकर बात करने के लिए बाध्य कर रही हैं। आइए, इसके प्रथम पहलू पर बात करें।
I
यह लेख अपने मूल रूप में पिछले संपादकीय लेख का जारी अंश है, जिसमें हमने यह जानने की कोशिश की थी कि समाज के गर्भ में कोई क्रांतिकारी जन उभार पल रहा है या नहीं? ; अगर हां, तो वह करवटें बदलता या अंगड़ाई लेता क्यों नहीं दिख रहा है? हमने लिखा था कि पूंजीवादी संकट इतना गहरा है कि आम जन साधारण की जीवन-स्थिति के सुधरने की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो चुकी हैं। इसलिए सतह के नीचे एक बेचैनी भरी सरगर्मी दिखाई देती है, जो आर्थिक अवनति के और बुरे दौर में बढ़ेंगी एवं तेज होंगी। कभी-कभी यह सतह के ऊपर दावानल के रूप में भी फूट रही है जिसके पीछे जनमानस के बीच फैली हताशा से भरी यह भावना है कि जीवन में अब कुछ भी सकारात्मक नहीं होने वाला है। और यह सही भी है। पूंजीवाद का संकट और हमला दोनों ही तेज होंगे। 2014 के पहले के दिन, जो जन साधारण के लिए बहुत ही खराब थे, अब ‘अच्छे’ लगने लगे हैं। लेकिन लोगों के बीच यह भावना व्याप्त है कि अब वे भी वापस नहीं आने वाले हैं।
गौर से देखा जाए, तो 2014 के बाद आए बुरे दिन 1991 के उपरांत आए बुरे दिन (जिसमें उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण तथा अर्थव्यवस्था को क्रमश: वित्तीयकरण के अधीन ले जाने वाली नीतियों की एक बड़ी भूमिका थी) के चरम बिंदु तक चले जाने का परिणाम थे, जिसके बाद ही इजारेदार पूंजीपतियों के गिरोह ने आरएसएस नामक एक फासिस्ट गिरोह के एक सदस्य नरेंद्र मोदी को बड़ी चालांकि से कांग्रेस के चमकदार विकल्प के रूप में जनता के बीच ला खड़ा किया। इसके और पीछे लौटें तो हम पाते हैं कि 1991 की नींव 1973 में पड़ चुकी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत उदित पूंजीवाद के स्वर्णिम युग (1945-73) के अवसान के बाद जो पूंजीवादी संकट फूट पड़ा उसकी शुरूआत 1973 में हुई थी। इसकी निरंतरता गिरते ग्रोथ और कभी-कभार उठते विकास दर के साथ सदैव बनी रही जो 1991 के आर्थिक नवउदारवाद के युग से गुजरते हुए आज के असमाधेय विश्वव्यापी पूंजीवादी संकट के रूप में आदमकद हुई है। स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम (SAP) के नाम से आर्थिक नवउदारवाद की यही नीति भारत के बाहर कई देशों में पहले से ही लागू थी। 1973 के संकट के बाद का दौर ब्रेटेनवुड्स संस्थायें (जैसे आइएमएफ, वर्ल्ड बैंक आदि) के अवसान का भी दौर था। इसी दौर में यूरो-डॉलर जैसी वाष्पशील अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी, जिसको ब्रेटेनवुड्स संस्थाओं ने ही उसकी बढ़ती ताकत से फायदा उठाने के लिए आगे बढ़ाया था, के बढ़ते प्रभुत्व ने अंतत: इन संस्थाओं के अंत का रास्ता प्रशस्त किया। यूरो-डॉलर के प्रभुत्व के आगे शीश नवाती ये संस्थाएं अंततः उसके रास्ते से पूरी तरह हट गईं। इसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विचरण के रास्ते की सारी बाधाएं एक-एक कर के हटा दी गईं जिसमें एक नियत विनिमय दर (fixed exchange rate) की व्यवस्था भी थी। आज की वित्तीय इजारेदारी के प्रभुत्व के भीमकाय स्वरूप को, जिसने दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं को अपने अधीन कर एक चिरस्थाई संकट में धकेल दिया है, पिछले चार से पांच दशक में वित्तीय इजारेदार पूंजी के पक्ष में हुए उपरोक्त युगांतरकारी लेकिन चरम प्रतिक्रियावादी परिवर्तनों के अटूट सिलसिले के रूप में देखे बिना समझना असंभव है। बहुत लोग हैं जो मानते हैं कि पूंजीवादी विकास के स्वर्णिम युग (1945-73) के दौरान विकसित यूरोपीय देशों व खासकर अमेरिका में वित्तीय इजारेदार पूंजी पर लगाम लगाया गया था, लेकिन यह सच नहीं है। तब भी यह वित्तीय पूंजी ही थी जिसने जर्मन नीति की जगह अमेरिका की नई नीति का फायदा उठाया, अन्यथा यह संभव नहीं था कि वित्तीय इजारेदार पूंजी 1980 के बाद एकाएक, मानो शून्य से निकलकर, पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित करने में सफल हो गई। उसकी विशद चर्चा करने की यह उचित जगह नहीं है। आज उसकी ही निरंतरता में गहराते घने पूंजीवादी संकट ने आम जन साधारण पर बढ़ते हमले को बहुत ज्यादा तेज कर दिया है। इसलिए ही जन साधारण की बेचैनी कभी-कभी आग की भट्ठी से निकली चिंगारियों के रूप में फूट पड़ती हैं, परंतु यह भी सही है कि ये जंगल में आग लगाये बिना ही बूझ जाती हैं। सवाल उठता है, क्यों? उनमें यथोचित मात्रा में गर्मी या ताप के अभाव की वजह क्या है? अगर एक साल से भी अधिक समय तक चले किसान आंदोलन को भी हम ऐसी ही चिंगारियों का विस्फोट मान लें, तो यह सवाल और भी तीखे रूप में उठ खड़ा होता है कि आखिर इतने लंबे समय तक चले शहादतपूर्ण आंदोलन की आग भी क्यों मद्धिम पड़ गई? जबकि कॉर्पोरेटपक्षी कृषि कानूनों के हटने के बाद भी किसानों की उनके द्वारा लूट नित नए-नए तरीके से बढ़ती ही जा रही है। एक बार पीछे हटने के बाद यह आंदोलन खुद की छाया भी नहीं रह गया है। दूसरी तरफ, किसानों की बहुसंख्या की पुरानी दीन-हीन अवस्था में रत्ती भर परिवर्तन नहीं आया है। तो यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है ; आखिर जंगल में आग क्यों नहीं लग रही? क्या आगे भी चिंगारियां फूटेंगी और जंगल में आग लगाए बिना ही बुझती रहेंगी? अगर हां तो क्यों? अगर नहीं, तो कब और क्यों? इस ‘हां’ से ‘ना’ के बीच के सफर की मुख्य कड़ी क्या है, जो हमारी आंखों से ओझल है? ‘हां’ से ‘ना’ के बीच के सफर की कड़ी और कुछ नहीं, हमारे द्वारा सर्वहारा क्रांति संपन्न नहीं होने के पीछे की दर्जनों कड़ियों में वह मुख्य कड़ी है जिसे साधे बिना अन्य कड़ियों को साधना, यानी जंगल में आग का लगना असंभव है।
उदाहरण के लिए, किसान आंदोलन क्यों एक ठौर के आगे नहीं जा सका, इसका जवाब यह है कि किसान आंदोलन को स्वयं सर्वहारा मजदूर वर्ग की विचारधारा की ताप की जरूरत थी जो उसे पूर्णता तक ले जाती; यानी, वह ताप जो व्यापक किसानों को उनके दुख-तकलीफों के पीछे की मुख्य वजह – पूंजीवादी व्यवस्था – को समूल रूप से खत्म करने की लड़ाई के एक अहम हिस्से व किरदार के रूप में ढाल सकती थी। क्रांतिकारी किसान आंदोलन की पूर्णता का मतलब सत्ता के लिए संघर्षरत सर्वहारा वर्ग (कुछ लोग इस पर हंस सकते हैं, लेकिन तब वे मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी अगुआ शक्ति के बतौर स्वयं अपने पर सवाल खड़ा कर रहे होंगे) की कोतल शक्ति बनने से है। लेकिन यह नहीं हो सका, क्योंकि किसानों की शक्ति को मजदूरों की कोतल शक्ति में बदलना स्वयं एवं एकमात्र किसानों पर निर्भर नहीं था। इसकी मुख्य कड़ी था – मजदूर वर्ग और इसकी अगुआ क्रांतिकारी शक्ति द्वारा इसमें सही से हस्तक्षेप, जो अलग-अलग समय में अलग-अलग रूप व रंग ले सकता था। क्रांतिकारी हस्तक्षेप, जो कि नहीं हुआ, के बिना आज इसके रूप व रंग की बात करना यहां बेकार है।
किसान आंदोलन का समर्थन करने वाली मजदूर वर्गीय ताकतों के उन दिनों के व्यवहार पर एक विहंगम नजर डालते ही यह साफ हो जाएगा कि किसान आंदोलन क्यों नहीं अपनी पूर्णता तक या उसके नजदीक भी जा सका। दरअसल किसान आंदोलन की चमक से जब आंखें अंधी हो जाती हैं तो यह तक भूला दिया जाता है कि अनगिनत दुख-तकलीफों से परेशान किसानों की मुक्ति एकमात्र मजदूर के द्वारा और उसके सत्ता कायम होने के बाद ही हो सकती है। एकमात्र किसानों को समर्थन देना मजदूर ताकतों का काम नहीं होता है। उनके समक्ष जिस बात को कहना जरूरी था उसे कहने से हमारा आंदोलन चूक गया। हालांकि जो इस मुख्य कड़ी को समझते थे, वे भी चूक गए, क्योंकि वे सांगठनिक कमजोरियों की अपनी सीमाओं से बुरी तरह बंधे थे।
यथार्थ के पन्नों में जहां तक संभव है हमने इस बात पर हमेशा जोर दिया है कि जब तक समाज के विभिन्न वर्गों के बीच पैदा ले रही स्वत:स्फूर्त सरगर्मियों के शीर्ष पर सवार होने वाली क्रांतिकारी शक्ति का उदय नहीं होता है, जो ठीक इन्हीं सरगर्मियों से रक्त-मांस का संबंध बनाते हुए एक सम्पूर्ण आदमकद आकार लेगी, तब तक पनपते जनाक्रोश को क्रांतिकारी विस्फोट में तब्दील करना असंभव है, बाह्य परिस्थितियां चाहे जितनी भी शानदार और अनुकूल हों। इस बात से दुखी हो आंसू बहाना या महज क्रांतिकारी भावना से लबरेज हो यहां-वहां गुस्सा निकालना बेकार है, क्योंकि इस सत्य का मुकाबला कोई और दूसरी चीज नहीं कर सकती है। आइए, इस विमर्श को और आगे बढ़ाएं।
II
यह सच है कि एक सच्चे सर्वहारा सदर मुकाम (पेशेवर क्रांतिकारियों का संगठन जिसका मुख्य कार्य क्रांति की संभावनाओं पर नजर बनाये रखना, उसका मूल्यांकन करना और उसके अनुरूप उसे संगठित करने हेतु कदम उठाना होता) के निर्माण के बिना स्वत:स्फूर्त सरगर्मियों के शीर्ष पर सवार होते हुए उसे सर्वहारा क्रांति की दहलीज पर ले जाना असंभव है। इसलिए क्रांतिकारी संगठन बनाने के लेनिनवादी उसूलों की डटकर रक्षा करना एवं जमीं पर उतारना आज सबसे जरूरी है।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद के आम क्रांतिकारी उसूलों एवं विचाराधारा पर आधारित एकता ही वह बुनियाद है जो पार्टी-संगठन की फौलादी एवं अनुशासनबद्ध एकजुटता व एकनिष्ठता, यानी दूसरे शब्दों में, लेनिनवादी उसूलों की भी बुनियाद है। इसलिए एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी, जिसकी जड़ें मेहनतकश जनता के बीच गहराई से पैठी हों, और जो पूरी तरह अनुशासनबद्ध एवं एकमुश्तरका कार्यवाही करने में सक्षम हो; अर्थात एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी जो पूरी तरह एकनिष्ठ एवं केंद्रीकृत हो, उसके गठन का सवाल सर्वहारा क्रांति का एक अहम सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक सवाल है। हम अक्सर भूल जाते हैं कि यह लेनिनवाद के मूलाधारों में से एक प्रमुख मूलाधार है।
इसे महज व्यवहारिक सवाल के रूप में देखना सही नहीं है, जिसका अर्थ होगा – किसी तरह एकता स्थापित कर लेना, यानी क्रांति करने की लक्ष्यभेदी तथा वास्तविक एकजुटता एवं एकनष्ठिता हासिल किए बिना ही पार्टी संगठन का एक ढीला-ढाला एवं विश्रृंखलित ढांचा तैयार कर लेना। क्रांति के मार्ग पर चलते हुए हर नुकीले मोड़ पर सर्वहारा वर्ग की समस्त ताकतों को एक लक्ष्यबिंदु पर अधिकतम प्रहार के लिए केंद्रीकृत करने और उचित समय पर उसे कार्यान्वित करने का कार्यभार – जो तूफानी समय में अपने अंतिम लक्ष्य को मंजिल तक ले जाने के लिए अत्यंत जरूरी होता है – यह कार्यभार पार्टी संगठन के एक ढीले-ढाले स्वरूप के साथ मेल नहीं खाता है। इसके लिए सबसे पहली जरूरी चीज है – शुरुआत से ही एकमुश्त तथा केंद्रीकृत कार्रवाइयों की नीतिगत अधीनता पर आधारित अनुशासन, जिसके बिना सदा बदलती और नाना प्रकार की परिस्थितियों में कार्यनीतिक लचीलेपन की क्षमता हासिल करना असंभव है, और इसलिए किसी तूफानी दौर को उसके वास्तविक ठौर तक ले जाना भी असंभव है। अक्सर देखा जाता है कि नुकीला मोड़ आते ही और कार्यनीतिक लचीलेपन को जमीन पर उतारते ही पार्टी या तो टूट कर बिखर जाती है या फिर एकता बचाने के चक्कर में लक्ष्य और अधिकतम प्रहार क्षमता दोनों का परित्याग करने के लिए मजबूर हो जाती है। इस तरह एक बिंदु की ओर लक्षित एकमुश्तरका एवं केंद्रीकृत कार्रवाई की लेनिनवादी नीति की अकाल मृत्यु हो जाती है। जाहिर है, इसकी कीमत क्रांति न कर पाने के रूप में अदा की जाती है। विश्रृंखलित तथा अलग-अलग दिशा में की जाने वाली कार्रवाइयों के बल पर तात्कालिक मुद्दों पर रस्मी हस्तक्षेप करने की शक्ति कुछ दिनों के लिए जुटाई जा सकती है, लेकिन लेनिनवादी नीति से अवहेलना की बीमारी से ग्रस्त पार्टी क्रांति कतई नहीं कर सकती है। इस विमर्श से यही अर्थ निकलता है कि मुख्य सवाल वैचारिक केंद्रीकरण का है जो सांगठनिक केंद्रीकरण के लिए आधार और शक्ति दोनों प्रदान करता है।
लेनिन ही नहीं मार्क्स और एंगेल्स भी बताते हैं कि मजदूर-मेहनतकश वर्ग द्वारा पूंजीपति वर्ग को सत्ता से उतार फेंकने वाली सर्वहारा क्रांति की कार्रवाई पूरी तरह एक केंद्रीकृत और एकमुश्तरका कार्रवाई होती है जिसमें भले ही क्रांतिकारी ताकतें अलग-अलग प्रस्थान-बिंदुओं से शुरू करके टेढ़े-मेढ़े एवं उबड़-खाबड़ रास्तों से होती हुईं अग्रसर होती हैं, लेकिन जहां तक उनके गंतव्य-बिंदु का सवाल है, वे सभी ”एकमात्र लक्ष्य बिंदु” की ओर अधिकतम प्रहार क्षमता के साथ अग्रसर होती हैं, अन्यथा वर्ग-युद्ध में सर्वहारा की जीत असंभव होगी।
पूर्व की सभी (गैर-सर्वहारा) क्रांतियों में तत्कालीन क्रांतिकारी वर्ग ने (जैसे कि कभी सामंतवाद को उखाड़ फेंकने वाले पूंजीपति वर्ग ने) क्रांति के पूर्व ही पुराने समाज के गर्भ में अपने उत्पादन संबंधों को विकसित कर शक्ति प्राप्त कर ली थी, जबकि सर्वहारा वर्ग के लिए स्थितियां ठीक इसके विपरीत हैं। जीतने के बाद भी, यानी समाजवाद में भी उसे एक लंबे काल तक पूंजीवादी संबंधों के अवगुणों और उनकी छाप से लड़ना पड़ता है। इसलिए भी सर्वहारा क्रांति को संपन्न करने तथा समाजवाद के निर्माण के लिए एकमुश्तरका कार्यक्रम के आधार पर सर्वहारा केंद्रीकरण की नीति की आवश्यकता होती है। इसलिए ही कहा जाता है कि मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए समर्पित पार्टी लुंज-पुंज नहीं हो सकती है। यह सर्वहारा वर्ग की सेनाओं (मजदूर वर्ग की पार्टी के निर्देशन में चलने वाले सभी संगठन और उनकी कतारें) का सदर मुकाम, यानी जेनरल हेडक्वार्टर होती है,जो एकमात्र वर्ग-युद्ध को संचालित करने के लक्ष्य को पूरा करने के उद्देश्य से पेशेवर क्रांतिकारियों के द्वारा गठित होती है।
बहुत लोग हैं जो मजदूर वर्गीय लौह अनुशासन से खफा रहते हैं और उससे घृणा करते हैं। जाहिर है, ऐसे लोग मजदूर वर्ग की पार्टी में वैचारिक एवं सांगठिनक केंद्रीकरण की नीति लागू करने की कोशिश को नौकरशाही और केंद्रीय कमिटी की तानाशाही मानते हैं या उसका आतंक बताते हैं। एक अखिल भारतीय स्तर की पार्टी का न होना और क्रांतिकारी शक्तियों का गुटों में बंटा रहना ऐसे गैर-लेनिनिवादी आरोपों के लिए स्पेस प्रदान करता है। सर्वहारा वर्ग की पार्टी या पूर्व पार्टी संगठन द्वारा लौह अनुशासन की मांग से बिदकने वाले लोग अक्सर इसे बहाना बना यह फरमाते हैं कि अगर किसी क्रांतिकारी ग्रुप के पास व्यापक मेहनतकश जनता को समेटने की शक्ति व क्षमता ही नहीं है, तो सर्वहारा केंद्रीकरण की बात करना उपहासास्पद है। अगर किसी क्रांतिकारी ग्रुप द्वारा लेनिनवादी उसूलों को लागू करने की कोशिश की जाती है, तो इसी आधार पर वे इसकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। इसे हम वर्तमान समय का जनवादी फैशनपरस्ती भी कह सकते हैं।
इन बातों का संक्षिप्त और समयानुकूल जवाब यही हो सकता है कि ऐसे लोग प्रायः इससे अनभिज्ञ होते हैं कि क्रांतिकारी रणनीति की तिलांजलि दिए बिना ही अल्पमत से बहुमत बनने (व्यापक जनता को समेटने में सक्षम होने) की सफल प्रक्रिया (जिसे अक्टूबर क्रांति की सफलता में देखा जा सकता है) और दूसरी तरफ इसके विपरीत बहुमत से क्रांतिकारी रणनीति के तहत पूरी दुनिया में किए गए प्रयोगों, यानी तथाकथित ‘जनवादी’ प्रयोगों की असफलता (जिसे हम जर्मनों की असफलता में देख सकते हैं) का इतिहास क्या है। ये यह नहीं जानते हैं कि किसी भी तरह से अखिल भारतीय पार्टी बनाने में सफल होने के बाद नहीं, अपितु शुरूआत से ही सर्वहारा केंद्रीकरण की नीति पर चलकर ही सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी बनाई जा सकती है, यानी अल्पमत से बहुमत बनने की लेनिनवादी नीति को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है।
ऐसा संभव है कि एक ऐसी क्रांतिकारी (लेनिनवादी) पार्टी, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है, एक लंबे काल तक, जो अक्सर शांति काल होता है, क्रांतिकारी सिद्धांतों और उसूलों की डटकर रक्षा करने के कारण कुर्बानियों से भरी लड़ाई लड़ते हुए भी अल्पमत में रह सकती है, लेकिन ठीक यही चीज उसे क्रांति काल में बहुत तेजी से अल्पमत से बहुमत में परिणत होने में काफी मददगार होती है, जबकि शांतिकाल में क्रांतिकारी सिद्धांतों और उसूलों की बलि देकर प्राप्त बहुमत क्रांति काल में न सिर्फ बेकार साबित होता है अपितु अक्सर पैरों की बेड़ी बन जाता है। यही नहीं, पार्टी के पतन का कारण भी बन जाता है। इन दोनों बातों के उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं और हम चाहें तो आसानी से सीख सकते हैं। क्रांति वही पार्टी कर सकती है जो सर्वहारा केंद्रीकरण की नीति का कड़ाई से अनुसरण करते हुए शांति काल में और क्रांति काल में एकसमान रूप से क्रांतिकारी व्यवहार करती है। जो पार्टी शांति काल में ऐसा क्रांतिकारी व्यवहार नहीं कर सकती है, वह क्रांति काल में एकदम अचानक से, मानो आसमान से उतरते हुए क्रांतिकारी व्यवहार नहीं कर सकती, उसमें पारंगत होने की तो बात कोसों दूर है, और इसीलिए तूफानी समय में क्रांतिकारी जनता का निर्देशन नहीं कर सकती है। मौजूदा परिस्थिति शांति काल वाली परिस्थिति है। जनता की स्वत:स्फूर्त सरगर्मियां न तो यथोचित रूप से प्रकट हुई हैं और न ही तेज हुई हैं। लेकिन हमारे सामने सवाल यह है कि अगर सरगर्मियां तेज होती हैं, परिस्थितियों को देखते हुए जिसके होने की पूरी संभावना है, तो क्या उस समय के लिए जिस प्रकार का क्रांतिकारी व्यवहार आवश्यक है, उसमें हम पारंगत हैं? अगर नहीं हैं, और पारंगत होने की चिंता और बेचैनी या तड़प भी नहीं है, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि जब सरगर्मियां सच में तेज होंगी, तो उसके पीछे-पीछे घिसटने के अतिरिक्त हम किसी भी सूरत में उसका नेतृत्व नहीं कर पाएंगे।
सर्वहारा अनुशासन से भागने वाले अंततः जनता की शरण में जाते हुए अक्सर कहते हैं कि क्रांति तो मेहनतकश जनता करेगी, ना कि पार्टी जो आकार में जनता से काफी छोटी होती है! यह पूरी तरह सच है कि क्रांति करने की शक्ति एकमात्र जनता में ही निहित है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि क्रांति का पहले से तय कोई राजपथ नहीं है जिस पर चलते हुए जनता क्रांति कर लेगी। इसलिए जनता की शक्ति के साथ उस शक्ति का आ मिलना (योग या मिलन) जरूरी है जिसको इस बात का सैद्धांतिक ही नहीं व्यवहारिक अनुभव और ज्ञान भी होता है कि बेइंतहां उबड़-खाबड़ रास्तों, जिसमें नुकीले मोड़ों तथा अक्समात प्रकट हुई नई परिस्थितियों की भरमार होगी (खासकर क्रांति काल में जब सरगर्मियां अत्यंत तेज हो जाएंगी) से गुजरते हुए क्रांति कैसे सफलतापूर्वक संपन्न की जाती है। हम यह भी जानते हैं कि क्रांतिकारी विस्फोटों का काल अलग से किसी पार्टी के प्रयासों के द्वारा नहीं लाया जा सकता है। क्रांति कोई षडयंत्र नहीं, मेहनतकश जनता का ऐलानिया तौर पर खुला वर्ग-संघर्ष है, जो स्वयं पूंजीवादी लूट-खसोट से अवश्य ही पैदा होता है। यानी, इसके होने की मुख्य वजह विश्व पूंजीवाद का गहरा और तीखा होता असमाधेय आर्थिक संकट है, जिससे आज जनता की तबाही उस सीमा के पार चली गई है, जिसके बाद जनता के पास क्रांति (पूंजीवादी समाज के पुनर्गठन) के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं बच जाता है। शायद यही कारण है कि क्रांति की प्रथम पदचाप सबसे पहले पूंजीपति वर्ग को ही सुनाई देती है।
जन उभार के शीर्ष पर विराजमान होने वाली पार्टी कैसे बनेगी? यह एकमात्र जन-संघर्षों से ही निकले, तपे-तपाये और अनुभव तथा सैद्धांतिक ज्ञान के मामले में भीं सर्वोत्तम क्रांतिकारियों से बनी हुई होती है जिसको क्रांति के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले अनुशासनबद्ध समूह के रूप में जनता के बीच काफी प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। लोगों का भरोसा और क्रांतिकारी व्यवहार का विशाल अनुभव ही वह चीज होती है जो नुकीले मोड़ों से भरे उबड़-खाबड़ रास्ते से होकर जनता को मंजिल तक ले जाने तथा उसके बाद भी, नया समाज बनाने तक, पहले की तुलना में और भी अधिक अनजानी राहों को प्रकाशमान करते हुए, आगे बढ़ने की मुख्य कड़ी होती है। इसलिए क्रांति एक विज्ञान के साथ-साथ कला भी है जिसमें पार्टी और जनता दोनों को ही पारंगत होना होता है। जो लोग भी इसे नहीं मानते हैं वे महज बातें बनाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते हैं। लेकिन आइए, लेनिन की सर्वहारा केंद्रीकरण की शिक्षा पर आते हैं।
III
पार्टी के अंदर के सर्वहारा केंद्रीकरण की लेनिन की शिक्षा को हम किस तरह से आत्मसात कर सकते हैं? यह एक और कठिन प्रश्न है। सर्वहारा केंद्रीकरण सच्चे जनवाद पर आधारित होता है, जबकि नौकरशाही औपचारिक जनवाद पर। इसकी एक विस्तृत तथा अकाट्य छवि हम पूंजीवादी जनवाद और सर्वहारा जनवाद की जमीनी मिसालों के द्वारा तुलना करके देख सकते हैं। दोनों में ”जनवाद” शब्द लगा है, लेकिन पहले (पूंजीवादी जनवाद) का वास्तविक अर्थ पूंजीवादी तानाशाही है जिसके अंतर्गत पूजीपति वर्ग और उसके सहयोगियों की एक अत्यंत छोटी आबादी के लिए जनवाद होता है और बाकी के लिए नौकरशाही से भरी तानाशाही। वहीं, दूसरे (सर्वहारा जनवाद) का अर्थ सर्वहारा की तानाशाही होता है जिसमें सर्वहारा-मेहतनकश वर्ग के लिए, अर्थात अत्यंत विशाल आबादी के लिए जनवाद होता है और पुराने शासकों एवं शोषकों के ऊपर मेहनतकश आबादी की तानाशाही – एक ऐसी तानाशाही जिसका लक्ष्य जनवाद को रोकने वाली पूंजी की बादशाहत पर रोक लगाने के लिए होती है और इसलिए पहले की तमाम तानाशाहियों से यह बिलकुल अलग होती है, बाह्य रूप में और अंतर्वस्तु में भी। सर्वहारा तानाशाही में शासन के हथियार या औजार के बतौर नौकरशाही का मौजूद होना गैरजरूरी हो जाता है, क्योंकि उसकी जगह एक ऊंचे स्तर की चीज – अधिकतम जनवाद के पक्ष में और इसे बाधित करने वाली शक्तियों के विरुद्ध मेहनतकश जनता की पहलकदमी और निगरानी – ले लेती है। इसलिए जो लोग सर्वहारा केंद्रीकरण का विरोध करते हैं वे दरअसल जाने-अनजाने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ही नहीं, उसके ऐतिहासिक मिशन का भी विरोध करते हैं।
सर्वहारा केंद्रीकरण सच्चे जनवाद के बिना असंभव है, ठीक वैसे ही जैसे औपचारिक जनवाद अवश्यंभावी रूप से नौकरशाही पैदा करता है और फिर दोनों मिलकर एक दूसरे को सींचने का काम करते रहते हैं। इसके विपरीत, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सच्चे जनवाद पर आधारित होता है। इसलिए इसका दूसरा नाम सर्वहारा जनवाद है, जिसका उपयोग सभी के लिए, उसके लिए भी जो कल तक शोषक थे, संभव है। जो कल तक दूसरे के जनवाद का हनन करते थे या मजदूर वर्ग का शोषण करते थे, वे भी इस सच्चे जनवाद का मजा ले सकते हैं, बशर्ते वे भी अपनी मिहनत पर जीना सीख लें और दूसरे के जनवाद का हनन करने की प्रवृत्ति से पूरी तरह मुक्त हो जाएं, और सर्वहारा जनवाद को पलटने की कोशिश नहीं करें। इस अर्थ में, यह पूरी मानवजाति का एकमात्र भविष्य है, क्योंकि अगर पूंजी अथवा पूंजीपति वर्ग का बना रहता है, तो मानवजाति के सौ में से निन्यानवे हिस्से का जनवाद पहले ही खत्म हो गया है, जिसे एकमात्र सर्वहारा वर्ग की तानाशाही और उसके केन्द्रीकरण के द्वारा ही वापस प्राप्त किया जा सकता है।
हम पूंजीवादी जनवाद यानी औपचारिक जनवाद में क्या देखते हैं? यही कि जनता के अपार हिस्से के लिए पत्थरदिल नौकरशाही का साम्राज्य व्याप्त है जो उन्हें लूटते-खसोटते हैं, जबकि कानून के समक्ष औपचारिक तौर पर एक गरीब रिक्शे वाला भी अडानी के बराबर माना जाता है। इसलिए औपचारिक जनवाद और नौकरशाही के बीच के घनिष्ठ संबंध को हम हर जगह देख सकते हैं। यह कानून के समक्ष बराबरी की लुभावनी बात करता है, लेकिन बराबरी की गारंटी करना अपना काम नहीं मानता है। वास्तविक बराबरी का गला घोंट देने वाली पूंजी की बादशाहत (सर्वशक्तिमत्ता) को ध्वस्त करने के बजाय वह इसे और मजबूत करता है। इसलिए जनवाद शब्द अपने आप में भ्रामक शब्द है, जब तक कि हम इसे वर्गों के संदर्भ में, यानी ऐतिहासिक रूप से और व्यापक अर्थ में नहीं समझते हैं। उदहारण के लिये, पूर्ण जनवाद की गारंटी की बात एकमात्र वर्गों के विलोप से जुड़ी हुई बात है। इसका अर्थ क्या है? इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जैसे ही वर्गों का विलोप होगा, वैसे ही जनवाद भी खत्म हो जाएगा, क्योंकि जिस अर्थ में हम जनवाद की बात करते हैं उसका आधार ही खत्म हो जाएगा। जब शोषण और वर्ग मिट जाएंगे, तो किसी वर्ग को दबाने या उसके अधिकार के हनन की जरूरत खत्म हो जाएगी और इसलिए न तो जनवाद रह जाएगा और न ही जनवादी अधिकार।
हम यहां पूरी स्पष्टता से देख सकते हैं कि क्रांतिकारियों की सजीव एकता सर्वहारा केंद्रीकरण के बिना असंभव है, और सर्वहारा केंद्रीकरण की अनुपस्थिति में क्रांतिकारियों के बीच की एकता निर्जीव होती है।
IV
यह प्रश्न भी खड़ा किया जाता है कि मजदूर वर्ग की पार्टी में सर्वहारा केंद्रीकरण की स्थापना कैसे की जाती है? लेनिन कहते हैं – ”कम्युनिस्ट संगठन के अंदर सजीव एकता सिर्फ जनवादी केंद्रीयता (यानी सर्वहारा केंद्रीकरण) के जरिए ही हासिल की जानी चाहिए।” (लेनिन द्वारा लिखित एवं तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के तीसरे कांग्रेस द्वारा पारित दस्तावेज ”कम्युनिस्ट पार्टी का संगठनात्मक स्वरूप और उसका ढांचा” से उद्धृत)
लेनिन जनवादी केंद्रीयता की ब्योरेवार व्याख्या करते हुए इसके सामान्य सिद्धांत की एक रूपरेखा प्रतिपादित करते हैं और उसे पेश करते हैं। वे जनवाद और केंद्रीयता के एक विषमांगी मिश्रण की नहीं, सर्वहारा जनवाद, यानी जनवाद और केंद्रीयता के वास्तविक संश्लेषण या संलयन (fusion) की बात करते हैं, जिसे ‘‘लगातार मुश्तरका कार्यवाही और समूचे पार्टी संगठन के द्वारा लगातार मुश्तरका संघर्ष के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है।” (वही)
लेनिन दरअसल इसी मुश्तरका कार्यवाही और संघर्ष को कम्युनिस्ट पार्टी संगठन के अंदर का केंद्रीकरण कहते हैं। वे आगे लिखते हैं – ”कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर के केंद्रीकरण का मतलब है कम्युनिस्ट कार्यवाहियों का केंद्रीकरण, यानी युद्ध के लिए तैयार एक ऐसे शक्तिशाली केंद्र का निर्माण, जो साथ ही बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपने को बदल ले सके। औपचारिक या मशीनी ढंग की केंद्रीयता एक औद्योगिक नौकरशाही के हाथों सत्ता के केंद्रीकरण के समान है, जो बाकी सदस्यों पर या संगठन के दायरे से बाहर के क्रांतिकारी जनसमुदाय पर हावी होती है। केवल कम्युनिस्टों के दुश्मन ही यह कह सकते हैं कि सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष का संचालन करने वाली और उन पर कम्युनिस्ट नेतृत्व को केंद्रित करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी क्रांतिकारी सर्वहारा पर शासन करने का प्रयत्न कर रही है। इस प्रकार की बात झूठी है। पार्टी के अंदर सत्ता के लिए होड़ या प्रभुत्व के लिए टकराव, कम्युनिस्ट इंटरनेशलन द्वारा स्वीकृत जनवादी केंद्रीयता के बुनियादी उसूलों से एकदम मेल नहीं खाता है।” (वही)
हमारा मत है कि पार्टी निर्माण के वास्तविक कार्यभार को आत्मसात करने के लिए लेनिन द्वारा सुझाए गए कार्यभारों को उन वैचारिक-राजनीतिक संघर्षों की रौशनी में देखना चाहिए, हम नकल करने की बात नहीं कर रहे हैं, जिन्हें लेनिन ने अपने समय में, रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के निर्माण के दौरान और उसके बाद में चलाए थे। उन्हीं संघर्षों का सार संकलन करके कम्युनिस्ट इंटरनेशलन के 1921 के तीसरे कांग्रेस में प्रस्तुत किया गया था जिसे विश्व भर के कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए जारी किया गया था।
यह कहा जा सकता है, या बहुधा यह कहा जाता है कि वर्ग-संघर्ष की बदलती परिस्थितियों के कारण तथा हर देश एवं वहां के काल के अनुसार कि कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन में फेर-बदल की आवश्यकता होती है। और यह बात सही भी है। हम मार्क्सवादी-लेनिनवादी लकीर के फकीर नहीं होते हैं। परंतु लेनिन कहते हैं – ”किंतु इस किस्म के फर्क की निश्चित सीमा होती है। अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने बुनियादी महत्व की चीज यह होती है कि भिन्न-भिन्न देशों में सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष की परिस्थितियों में समानताएं क्या हैं। ये समानताएं ही तमाम देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन के लिए सामान्य आधार बनती हैं।” (वही)
यहां लेनिन भिन्न-भिन्न देशों में सर्वहारा वर्ग के वर्ग-संघर्ष की परिस्थितियों में जिन समानताओं की बात करते हैं, उन्हें वे इस तरह पेश करते हैं – ”अधिकांश कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने, और इसलिए दुनिया के क्रांतिकारी सर्वहारा की एकताबद्ध पार्टी यानी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सामने मौजूद संघर्ष की परिस्थितियों में यह सामान्य विशेषता दिखाई पड़ती है कि उन सभी को अभी तक हावी पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष चलाना पड़ रहा है। पूंजीपति वर्ग को शिकस्त देना और उससे सत्ता छीन लेना ही उन सबका लक्ष्य बना हुआ है; और जब तक परिस्थिति नहीं बदल जाती है, यही लक्ष्य निर्णायक और निर्देशक बना रहेगा। इसलिए पूंजीवादी देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों की संगठनात्मक कार्यवाहियों का निर्णायक तत्व एक ऐसा संगठन बनाना है, जो सत्तारूढ़ वर्गों पर सर्वहारा क्रांति की जीत को मुमकिन बनाए तथा इस जीत की हिफाजत करे।” (वही)
नेतृत्व के सवाल का भी लेनिन अपनी उसी चिरपरिचित साफगोई के साथ जवाब देते हैं – ”किसी भी सामान्य कार्यवाही के लिए नेतृत्व का रहना आवश्यक शर्त है, और इस संघर्ष में, जो दुनिया के इतिहास में सबसे महान संघर्ष है, नेतृत्व का रहना अनिवार्य है। कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन सर्वहारा क्रांति में कम्युनिस्ट नेतृत्व के लिए संगठन है। अगर पार्टी इस क्रांति का अच्छा नेता बनना चाहती है, तो खुद उसके पास एक अच्छा नेतृत्व रहना चाहिए। इसलिए हमारे संगठनात्मक कार्य का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए सक्षम नेतृत्वकारी संस्थाओं के अंतर्गत दक्ष कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को शिक्षित करना, उन्हें संगठित करना और प्रशिक्षित करना ताकि वे सर्वहारा के क्रांतिकारी आंदोलन में नेतृत्व दे सकें।” (वही)
कम्युनिस्ट पार्टी क्रांतिकारी आंदोलन में नेतृत्व दे सके, इसके लिए सबसे जरूरी शर्त क्या है, इसके बारे में लेनिन कहते हैं कि – ”अधिक से अधिक समय प्रहार शक्ति और संघर्ष की सदैव बदलती परिस्थितियों के अनुकूल कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी नेतृत्वकारी संस्थाओं में खुद को ढालने की क्षमता हो, इन दोनों का सजीव मेल हो। इसके अलावा सफल नेतृत्व देने के लिए चाहिए कि वह सर्वहारा जन समुदाय के साथ काफी घनिष्ठ संबंध कायम करे। ऐसा संबंध किए बगैर नेतृत्व जनसमुदाय की अगुआई नहीं कर सकता, वह केवल जन समुदाय के पीछे-पीछे चल सकता है।” (वही)
आज भारत के कम्युनिस्ट तथा सर्वहारा आंदोलन में जिस प्रकार की सैद्धांतिक अव्यवस्था कायम है उसकी जड़ें अत्यंत गहरी हैं और उन सबके बारे में, यहां और अभी, समग्रता में बात करना संभव नहीं है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि हमारे आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन को लेकर लेनिनवादी उसूलों की काफी लंबे अरसे से अनदेखी हुई है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। हम अब और इसकी अवहेलना नहीं कर सकते हैं, क्योंकि विश्वव्यापी क्रांतिकारी विस्फोटों का काल आने वाला है और पूंजीपति वर्ग को सत्ता से बाहर निकालने का ही नहीं, उनकी सत्ता और स्वयं उन्हें भी इतिहास के कूड़ेदान में स्थानांतरित करने का सवाल जल्द ही मजदूर वर्ग के तात्कालिक एजेंडे पर आने वाला है, जिसका सामना करने की तरकीब सिर्फ इस बात में निहित है कि अगर पूंजीपति वर्ग को हराना है, तो क्रांतिकारियों की लेनिनवादी एकता कायम करने के उसूलों को न सिर्फ पुनर्जीवित करना होगा, अपितु उनका कड़ाई से पालन भी करना होगा। हम यहां फिर से दुहराना चाहते हैं कि सर्वहारा केंद्रीकरण (वास्तविक जनवाद) ही, न कि औपचारिक जनवाद, मजदूर वर्ग की ताकतों की प्रहार क्षमता को बढ़ा सकता है। ये ही उसका मुख्य आधार है। हम अगर इन पर अमल नहीं करते हैं तो सर्वहारा की महान शक्तियों की वास्तविक एकजुटता नहीं प्राप्त की जा सकती है। और तब जाहिर है, सर्वहारा की जीत भी नहीं हो सकेगी, भले ही उसके लिए वस्तुगत परिस्थितियां परिपक्व हो चुकी हों।