महान अक्टूबर क्रांति की 105वीं वर्षगांठ (25 अक्टूबर) के अवसर पर

October 19, 2022 0 By Yatharth

इसके कुछ अहम सबकों पर संक्षिप्त चर्चा

अजय सिन्हा

महान रूसी अक्टूबर क्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसने पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था से पूरी तरह अलग एक नयी व्यवस्था – समाजवादी अर्थव्यवस्था – के निर्माण की आधारशिला रखी थी। समाजवादी अर्थव्यवस्था कैसी थी इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी (great depression) में सोवियत यूनियन ही एकमात्र ऐसा देश था जहां की अर्थव्यवस्था ऊंचे दर से विकास करती रही। महामंदी उसे छू भी न सकी। लेकिन यह चीज अपने विशुद्ध रूप में समाजवादी व्यवस्था के एकमात्र आर्थिक पहलू की बात है, जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के ऊपर समाजवाद की अर्थव्यवस्था की वरीयता साबित करती है। इसका असली महत्व तब नजर आता है जब हम मजदूर वर्ग के जीवन के सामाजिक व राजनीतिक पहलू पर होने वाले प्रभाव को देखते हैं।

जब पूरा पूंजीवादी विश्व सामाजिक विघटन और उत्पादक शक्तियों (मनुष्य और मशीन दोनों) के एक बहुत बड़े हिस्से का महाविनाश झेल रहा था, तब उसी दौर में सोवियत यूनियन में वह कालखंड भी आता है जब काम करने वाले दक्ष हाथ ही कम पड़ गये। यानी, बेरोजगारी शत-प्रतिशत खत्म हो गई थी। पूंजीवाद के इतिहास में कहीं भी और कभी भी ऐसा नहीं हुआ है। पूंजीवादी मुल्कों के विपरीत सोवियत यूनियन में मशीनीकरण से लोगों की नौकरियों पर कोई असर नहीं पड़ा, कहीं कोई बरोजगारी नहीं पैदा हुई। उल्टे, कई ऐसे क्षेत्र थे जहां काम करने वाले दक्ष हाथों की कमी के बावजूद काम के घंटे कम किये गये। कृषि क्षेत्र में तेजी से मशीनीकरण हुआ, फिर भी बेरोजगारों की कहीं कोई फौज खड़ी नहीं हुई। इतनी तीव्र मशीनीकरण से किसी पूंजीवादी मुल्क में देहाती आबादी का बड़ा हिस्सा पूरी तरह तबाह हो गई होती। कृषि से मुक्त हुए करोड़ों लोगों को शहरों में ठोकर नहीं खानी पड़ी, जैसा कि भारत सहित तमाम पूंजीवादी मुल्कों में कृषि से उजड़े लोग के साथ अवश्यंभावी रूप से होता है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नयी सोवियत सभ्यता के गौरवपूर्ण निर्माण में सबने हाथ बंटाए और जो उन्नति हुई उसके बराबर के हकदार बने। देहात से आये अप्रशिक्षित लोगों को पहले योग्यता के आधार पर भर्ती किया गया और फिर उन्हें सर्वहारा राज्य के खर्च पर द्रुत गति से प्रशिक्षित किया गया। जहां पूंजीवादी मुल्कों में संकट की वजह से लाखों-करोड़ों लोगों के रोजगार छीन गये, लोग बेघर हो गये, और दक्ष मजदूरों को भी भीख मांग कर गुजारा करना पड़ा, वहीं सोवियत यूनियन में मजदूरों का जीवन स्तर उन्नति के एक उंचे पायदान से दूसरे उंचे पायदान पर कदम बढ़ाता गया। आज कल बेरोजगारी और महंगाई की जैसी तीव्रता है उसकी समाजवाद में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आज जब 1929 की  महांमदी से भी बड़ी आर्थिक मंदी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था और दुनिया को पूरी तरह घेरे खड़ी है; भूख, बेरोजगारी, विनाश, अवनति और पश्चगमन से मानवजाति कराह रही है; यहां तक कि फासीवाद का आतंक फिर से आ खड़ा हुआ है; तो ऐसे वक्त में उस सोवियत समाजवाद की याद आना स्वभाविक ही है जिसने एक नये तरह की आधुनिक, और शोषण व उत्पीड़न से मुक्त, सभ्यता का निर्माण किया था।

1953 में स्टालिन के मरने के बाद से लेकर अब तक उस समय की सबसे बड़ी वैश्विक महामंदी को मात देने वाले उस सोवियत समाजवाद के बारे में न जाने कैसे-कैसे दुष्प्रचार किये गये! परंतु सच्चाई है कि हर धुंध को चीरकर सामने आ ही जाती है!!

ये सारे चमत्कार कैसे हुए? किसने किए? एक पंक्ति में कहना हो तो ये सारे चमत्कार मजदूर वर्ग ने किए जिसमें सर्वहारा वर्ग की पार्टी ने हर कदम पर उनका साथ दिया, नेतृत्व किया और उसके प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखते हुए उसका मार्गदर्शन किया। इतिहास का यह एक अमिट तथ्य है कि पहले लेनिन और फिर स्टालिन के नेतृत्व में मजदूर वर्ग ने यह सब कर दिखाया। स्तालिन की मृत्यु के पश्चात सत्ता और पार्टी   के गद्दारों ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।

क्रांति के पूर्व, मजदूरों के बीच लम्बे समय तक ‘अल्पमत’ में रहने वाली बोल्शेविक पार्टी ने क्रांति काल में मजदूरों और किसानों की विशाल संख्या को मुक्ति की उम्मीद से भरते हुए क्रांति की राह दिखाई और फिर क्रांति के उपरांत नये समाज के गठन में भी उनकी अगुआई की। सबसे बड़ी ताकत थी मजदूर वर्ग और उसकी सच्ची पार्टी (बोल्शेविक पार्टी) के बीच के आपसी विश्वास का एक दूसरे में असीमित विस्तार एवं दोनों का एकाकार हो जाना। दोनों की एकजुट शक्ति, जो समाजवाद के ध्येय के प्रति गहरी एवं सच्ची निष्ठा पर आधारित थी, अचूक क्रांतिकारी रणनीति का अनुसरण करते हुए मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश अवाम को ऐन वक्त पर गोलबंद करने में अविश्वसनीय सफलता पायी। मानव सभ्यता के असली निर्माताओं ने अपने हाथों से एक ऐसी नई सभ्यता रच दी जिसमें शोषण को खत्म करने के लिए मौजूद भौतिक परिस्थितियों का सटीक उपयोग किया।  

भारत के मजदूर वर्गीय आंदोलन को आज महान रूसी सर्वहारा क्रांति की न सिर्फ प्रेरणा की, अपितु  उसके सबकों की भी जरूरत है, खासकर बोल्शेविकों द्वारा विकसित क्रांतियों के द्वंद्वात्मक विकास के नियमों की, जिसके बिना आगे बढ़ना हमारे लिए मुश्किल होगा। आज के हताशा भरे माहौल में जो सवाल सबसे अधिक खड़ा होता है वह यह है कि मुट्ठी भर लोग, जिन्हें मजदूर वर्ग के बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं है, वे आखिर क्रांति कैसे करेंगे? ऐसे में अनेकों किस्म के नीमहकीमी नुस्खे चल पड़ते हैं। विचारधारा में रियायत देते हुए पहले बहुमत में आने का नुस्खा, पहले कुछ लोगों को किसी भी तरह से जुटाने का नुस्खा, आदि उनसें से कुछ आम नुस्खे हैं जो काफी प्रचलित हो गए हैं।

सैद्धांतिक रूप से कहें तो यह ”क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर” की लेनिनवादी रणनीति के बदले ”बहुमत से क्रांतिकारी रणनीति की ओर” की घोर अवसरवादी लाइन का द्वंद्व है। इसके केंद्र में क्रांतिकारी रणनीति को ‘अस्थाई’ तौर पर मुल्तवी करने की बात है। चालू भाषा में कहें, तो यह रणनीति ”जब लोग ही नहीं है तो क्रांति क्या खाक करेंगे” की घोर अवसरवादी, पलायनवादी और पराजयवादी दिशा व रणनीति है जो वास्तव में किसी भी तरह की क्रांतिकारी रणनीति से पूर्ण इनकार की वकालत करती है। इसी पर आधारित तरह-तरह के लोक लुभावन नुस्खों की एक लंबी फेहरिस्त है, लेकिन उन सबमें उपरोक्त नुस्खे ही प्रमुखता से मौजूद हैं।

रूसी समाजवादी क्रांति के अनुभव और सबक क्या हैं और वे क्या कहते हैं? अक्टूबर क्रांति की लेनिनवादी रणनीति ”क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर” जाने की रणनीति है। ”बहुमत से क्रांतिकारी रणनीति” का रास्ता मेंशेविकों और जर्मन काउत्सकीवादियों का रास्ता था।

भारत के मजदूर आंदोलन में लम्बे काल तक सुविधावादी और अवसरवादी वाम राजनीति हावी रही है और आज भी हावी है। मजदूर वर्ग पर इसका गहरा असर पड़ा है। अवसरवादियों ने मजदूर वर्ग को ”बहुमत” के सवाल को एकमात्र ”संसदीय बहुमत” के चश्में से देखना सीखा दिेया है जिसका असर सच्चे क्रांतिकारियों पर भी पड़ा है। संसदीय बहुमत को सबसे पवित्र चीज बना दिया गया। संसदीय बहुमत नहीं है, तो मजदूर वर्ग के पास कुछ भी नहीं है – कुछ ऐसी ही बात मजदूर वर्ग के बीच फैला दी गई है। इसी का परिणाम है कि मजदूर आंदोलन में संसदीय मूढ़मतिवाद आज सर्वत्र फैला है। धीरे-धीरे संसदीय बहुमत बनाने की तरफ पूरा आंदोलन मुड़ता चला गया। मजदूर वर्ग की सारी लड़ाई संसद की देहरी तक पहुंचने में दम तोड़ती रही। संशोधनवादियों ने इस तरह का भयंकर पाप मजदूर और कम्युनिस्ट आंदोलन में किया है। अक्टूबर क्रांति को बस कुछ दिखावटी नारों तक सिमटा दिया गया।  

वामपंथी भटकाव ने भी आंदोलन को कम बर्बाद नहीं किया है। अवसरवाद तो अवसरवाद है, चाहे वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। इसकी कीमत चुकानी होती है। भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन इन दोनों भटकावों के चरम रूपों का अखाड़ा रहा है। यही कारण है कि लेनिनवादी रणनीति हमेशा न सिर्फ अल्पमत में रही, लगभग वजूद में ही नहीं रही।

संसदीय कार्रवाई से पूर्ण बहिष्कार की वामपंथी अवसरवादी दिशा ने किसी भी तरह की संसदीय कार्यवाही से मुंह मोड़ लिया और इस तरह अक्टूबर क्रांति की सफलता में क्रांतिकारी संसदीय व्यवहार, यानी संसद के अंदर की क्रांतिकारी कार्रवाईयों की सफल नीति के अनुभवों के खजाने को लात मार कर दूर फेंक दिया। अतिवाम और दक्षिणपंथ के बीच हमारा कम्युनिेस्ट व मजदूर आंदोलन झूलता रहा।

सच पूछा जाए तो भारत में भी लेनिनवादी रणनीति की सफलता के लिए अपार संभावनायें थीं, लेकिन हमारा आंदोलन भटकते और गिरते-पड़ते भी इस लेनिनवादी रणनीति तक नहीं पहुंच सका। अतिवाम और दक्षिणपंथ दोनों ने बोल्शेविकों की क्रांतिकारी संसदीय कार्रवाईयों के अनुभवों को खारिज कर दिया, इसे कहीं पाताल लोक में दफन कर दिया। आज तो एक आश्चर्यजनक घालमेल की स्थिति मौजूद है। जो अतिवाम है वही दक्षिणपंथी भी है, और जो दक्षिणपंथी है वही मिलिटेंट संसदीय राजनीति कर रहा है। एनजीओवाद और उत्तरआधुनिकतावादी सोच-विचार तो दोनों कैंपों में मौजूद है ही। ऊपर से सक्रियतावाद का सिद्धांत सबसे उंचे आसन पर बैठा है। अतिवाम और दक्षिणपंथ के बीच की साझा कड़ी यही सक्रियतावाद का सिद्धांत है। इन सबके बीच मार्क्सवाद-लेनिनवाद से हमारे आंदोलन का अलगाव दिनोंदिन गहराता गया।

ऐसी त्रासद स्थिति में तरह-तरह के गैर-मजदूर वर्गीय और पराये विचारों का हमला होना लाजिमी है। आंदोलन में व्यक्ति स्वतंत्रता और जनवाद के अतिरंजित चित्र खींचे जाने लगे, जो आज फैशन के स्तर पर जा पहुंचा है। बहुमत में आने के लिए इन्हें जरूरी हथियार बताया जाता है। अनुशासनबद्धता,एकमुश्तरका कार्यवाही तथा केंद्रीकरण को नौकरशाही का पर्याय मानने वाली प्रवृत्तियां  इसी तरह खूब मजे से फूलीं-फलीं।

जब स्वतंत्रता और जनवाद की अतिरंजित तस्वीर खींचने की बात आई ही है तो हमें बकुनिनपंथ और मार्क्स-एंगेल्स के द्वारा उसके किये गए विरोध पर चंद  बातें करनी जरूरी है। जिस बकुनिनपंथ से मार्क्स-एंगेल्स को भिड़ना पड़ा था, वह भी जनवाद और व्यक्ति की स्वतंत्रता के अतिरंजना पर आधारित एक खास किस्म का निरंकुशतावादी सिद्धांत – व्यक्तिवादी निरंकुशता का सिद्धांत – ही था। बकुनिन जब जनवाद और स्वतंत्रता का अतिरंजित उपयोग करते थे, तो वे दरअसल व्यक्तिगत निरंकुशता को ही लागू करते थे। इस तरह अतिरंजित व्यक्ति स्वतंत्रता तथा जनवाद और कुछ नहीं ”मेरी मर्जी” का सिद्धांत है। इसमें ”व्यक्तिगत निरंकुशतावाद” के अतिरिक्त भला और क्या हो सकता है?

”क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर” बनाम ”बहुमत से क्रांतिकारी रणनीति की ओर” का द्वंद्व और उसको लेकर दुविधा की बात करें, तो बोल्शेविकों को छोड़कर उस समय की सभी सामाजिक जनवादी धाराओं के बीच यह दुविधा व्याप्त थी। जहां वास्तविकता मजदूर वर्गीय शक्तियों के केंद्रीकरण और लौह अनुशासन की मांग कर रहा था, वहां आंदोलन में ”वृहद” जनवाद के गीत गाने की परंपरा थी, जिसे तोड़ने में एकमात्र लेनिन ही सफल रहे। जनवाद और स्वतंत्रता ही सब कुछ है क्रांति का ध्येय कुछ भी नहीं है, या क्रांति के ध्येय को बहुमत के लिए ”थोड़ी देर के लिए” भुलाया जा सकता है – ऐसे विचार बहुतायत में और भिन्न-भिन्न  रूपों में व्याप्त थे। एकमात्र अक्टूबर क्रांति की सफलता और जर्मन कम्युनिस्टों के नक्कारेपन की वजह से ही अंतत: यह साबित हो पाया कि ”क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत” की ओर का तरीका ही सही क्रांतिकारी रणनीति है जो क्रांतियों के विकास के द्वंद्ववादी नियमों के अनुकूल ठहरती है। अक्टूबर क्रांति ने दिखाया कि मजदूर वर्ग की सच्ची पार्टी को किस तरह बहुमत में आना चाहिए। इसे गहराई से समझने की जरूरत है और इस दृष्टि से रूसी समाजवादी क्रांति के इतिहास का सटीक अध्ययन करना जरूरी है।

अक्टूबर क्रांति की इस रणनीति को बाद में एकमात्र जर्मन नेता रोजा लक्जेमबर्ग ने समझा। उन्होंने लिखा – ”इस तरह बोल्शेविकों ने ‘जनता का बहुमत जीतने’ की विख्यात समस्या को हल कर दिया जो दुःस्वप्न के बोझ की तरह जर्मन सामाजिक-जनवाद पर चढ़ी रहती थी। ये जर्मन सामाजिक जनवादी, जिनकी रग-रग में संसदीय मूढ़मतिवाद समाया हुआ है, क्रांतियों पर संसदीय नर्सरी की उस घरेलू विद्वता को लागू करते हैं जिसके अनुसार कुछ भी करने के पहले हमें एक बहुमत की जरूरत होती है। यही बात, वे कहते हैं, क्रांतियों पर भी लागू होती है; पहले हमें एक बहुमत बनाना होगा। लेकिन क्रांतियों का सही द्वंद्ववाद संसदीय छछूंदरों की इस विद्वता को सिर के बल खड़ा कर देता हैः बहुमत से चलकर क्रांतिकारी रणनीति नहीं, बल्कि क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर – रास्ता इस तरफ जाता है।’’

आगे रोजा कहती हैं – ”केवल एक ऐसी पार्टी, जो जानती है कि किस तरह नेतृत्व प्रदान किया जाता है, जो चीजों को आगे बढ़ाना जानती है, एक ऐसी पार्टी ही तूफान के दिनों मे (जनता या मजदूर वर्ग का)  समर्थन हासिल कर पाती है। जिस दृढ़ निश्चय के साथ, एकदम ऐन मौके पर, लेनिन व उनके कॉमरेडों ने ही केवल वह रास्ता या हल बताया जो घटनाओं को आगे बढ़ा सकता था, जिसने रातों रात उन्हें एक उत्पीड़ित, लांछित, गैरकानूनी अल्पमत से परिस्थितियों के सम्पूर्ण नियंता में बदल दिया।” (रोजा के ”रूसी क्रांति” लेख से)

प्रथम विश्व युद्ध के समय जर्मन मजदूर आंदोलन की शक्ति और उसके विस्तार के समक्ष रूसी मजदूर आंदोलन कुछ भी नहीं था। फिर भी रूसी समाजवादी आंदोलन के बोल्शेविक धड़े में समाजवाद के प्रति वैचारिक निष्ठा की जैसी गहराई थी, वैसी गहराई जर्मन आंदोलन में नहीं थी। इसलिए ऐन मौके पर जर्मन आंदोलन के अधिकांश बड़े नेता गद्दार साबित हुए। कारण वही, उन्होंने ”क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर” के बजाए संसदीय तरीके से बहुमत बनाने की नीति को आगे रख कर व्यवहार किया और विशाल जर्मन मजदूर आंदोलन ऐन मौके पर अपने को शासक वर्ग के साथ खड़ा पाया,जबकि गैरकानूनी और अल्पमत बोल्शेविकों ने सर्वहारा क्रांति की अगुआई की। जर्मन कम्युनिस्टों के लिए ”कारवां गुजर गया, गुब्बार देखते रहे” वाली कहावत चरितार्थ हुई। शुरूआत से ही क्रांतिकारी रणनीति को कमान में रखने और उसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण की जरूरत को समझने के लिए इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है?

अक्टूबार क्रांति का एक ऐतिहासिक परिपेक्ष्य या पक्ष भी है, जो हमें बताता है कि महज कुछ विशिष्ट प्रतिभावान नेताओं और संगठन के योगफल के आधार पर क्रांतियों के द्वंद्वात्मक विकास को नहीं समझा जा सकता है। स्वयं इतिहास महामानवों को पैदा करता है। रूसी क्रांति को और उसकी परिस्थितियों तथा इसके नायकों को स्वयं इतिहास की द्वंद्वात्मक गति ने जन्म दिया था, इसे कदापि नहीं भूलना चाहिए।

सर्वहारा क्रांति महज किसी की चाहत या प्रतिभावान दिमाग की उपज नहीं होती है। उल्टे, उसकी नींव स्वयं पूंजीवादी विकास ने ही रखी, ठीक वैसे ही जैसे सामंती समाज में हुए विकास के अंतर्विरोधी स्वरूप ने पूंजीवादी क्रांति के लिए भौतिक परिस्थिति पैदा की थी। इसी तरह विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के विकास का अवश्यंभावी परिणाम है समाजवाद और समाजवादी क्रांति। आज पूंजीवादी विकास का अंतर्विरोधी स्वरूप इतना अधिक बढ़ चुका है कि पूंजीवाद को इतिहास के अजायब घर में रखने की निर्णायक लड़ाई का वक्त आ चुका है। इसलिए द्वंद्वात्मक रूप से सतत विकासमान इतिहास के अगले कदम, यानी समाजवाद के लिए सर्वहारा क्रांति के लिए कदम का उठना तय है। पूंजीवादी विकास के अंतर्गत होने वाले केंद्रीकरण और संचय ने पूरी उत्पादन व्यवस्था को समाजीकृत कर दिया है जो समाजवाद की मूल आत्मा है। यह वर्तमान दशक में जो घटनाएं आर्थिक संकट के कारण हो रही हैं, वे हमें यह बता रही हैं कि पूंजीवादी समाज के गर्भ में समाजवाद न सिर्फ पल रहा है, अपितु इसका गर्भ काल भी पूरा हो चुका है। लेकिन, जैसा कि महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा ने कहा था, क्रांति का फल भले ही पक चुका हो लेकिन यह यूं ही नीचे नहीं गिरने वाला है। उसके लिए हमें प्रयास करना होगा।  

एंगेल्स लिखते हैं – ”…… सभी सभ्य कौमों के यहां शुरू में भूमि पर सामूहिक स्वामित्व था। जितनी कौमें एक खास आदिम अवस्था के बाहर निकल आयी हैं, उन सबके यहां यह सामूहिक स्वामित्व खेती के विकास के दौरान में उत्पादन के लिए एक बंधन बन जाता है। वह मिटा दिया जाता है; उसका निषेध हो जाता है, और कुछ मध्यवर्ती अवस्थाओं के एक अपेक्षाकृत लम्बे या छोटे क्रम के बीतने के बाद वह निजी स्वामित्व में रूपांतरित हो जाता है। किंतु जब खुद भूमि के निजी स्वामित्व के फलस्वरूप खेती का विकास एक और भी ऊंची अवस्था में पहुंचता है, तो अबकी बार उल्टी बात होती है और निजी स्वामित्व उत्पादन के लिए बंधन बन जाता है। आजकल छोटे तथा बड़े दोनों प्रकार का भूस्वामित्व उत्पादन के लिए बंधन बना हुआ है। तब लाजिमी तौर पर यह मांग उठती है कि इस निजी स्वामित्व का भी निषेध होना चाहिए और एक बार फिर उसे सामूहिक स्वामित्व में रूपांतरित कर देना चाहिए। लेकिन इस मांग का यह अर्थ नहीं है कि आदिम ढंग के सामूहिक स्वामित्व की पुनः स्थापना कर दी जाए; बल्कि इसका अर्थ यह है कि सामूहिक स्वामित्व के एक कहीं अधिक ऊंचे तथा विकसित रूप की स्थापना की जाए, जो उत्पादन के रास्ते में रोड़े का काम नहीं करेगा, बल्कि जो इसके विपरीत पहली बार उत्पादन को तमाम बंधनों से मुक्त कर देगा,और उसे आधुनिक रासायनिक खोजों तथा यांत्रिक आविष्कारों का पूर्ण उपयोग करने के योग्य बना देगा।” (ड्यूहरिंग मत खंडन,पेज-221) रूसी क्रांति और सोवियत समाजवाद समाज में अब तक हुए विकास के इन्हीं  नियमों का प्रतिफलन मात्र था।

पूंजीवादी विकास के अंतर्विरोध आज अत्यधिक तीखे हो चुके हैं। निजी स्वामित्व मानवजाति की सामाजिक-आर्थिक प्रगति की राह की आज सबसे बड़ी रूकावट है। मुट्ठी भर लोगों के हाथों में तमाम साधन व सामाजिक धन जमा होते जा रहे हैं, तो विशाल आबादी सभी तरह के साधनों से वंचित होता जा रही है। एक तरफ पूंजी का रेला (पूंजी आधिक्य) है, तो दूसरी तरफ दो जून की रोटी के लाले पड़े हुए हैं। नयी उत्पादन क्षमता को हासिल करने की तो बात करना ही बेकार है, वस्तुतः वर्तमान उत्पादन क्षमता ही पूंजीवाद के गले का फांस बन गई है। सामाजिक प्रगति, विज्ञान और तकनीक, सभी चीजों का विकास अवरूद्ध है। पूंजीवादी सम्बंधों के विस्तार ने सभी पुराने आदर्शों का गला घोंट दिया है। चिरस्थाई पूंजीवादी संकट ने मानवजाति की गरिमा के हर पहलू को कुचल कर रख दिया है। हर दिन पूंजी और उत्पादक शक्तियों के भयानक विनाश का नया मंजर उपस्थित हो रहा है। मुनाफे की बलिवेदी पर हर मानवजाति की कुर्बानी दी जा रही है। अंतर्य में समाजीकृत हो चुके उत्पादन को अब पूंजीवादी निजी सम्बंधों में कैद रखना मानवजाति को मौत के मुंह में धकेलना जैसा है।

आज उपरोक्त सैद्धांतिक बातों की रौशनी में ही मजदूर वर्ग को पूंजीवाद के विरुद्ध निर्णायक मोर्चा लेना होगा, अन्यथा महाविनाश निश्चित है। सर्वहारा क्रांति ही अब मानवजाति का उद्धार कर सकती है, मगर इसके पहले भारत के मजदूर व कम्युनिस्ट आंदोलन का बोल्शेविकीकरण (अंतर्य में) जरूरी है। इसकी मुख्य कड़ी निस्संदेह बोल्शेविक पार्टी जैसी लेनिनवादी उसूलों पर खड़ी कम्यनिस्ट पार्टी का गठन है जो वर्ग-संघर्ष का सर्वोच्च संगठन हो। हमें सभी तरह के गैर-मजदूर वर्गीय विचारों से मुक्त होना होगा। बकुनिनपंथी अराजकतावाद पर टिप्पणी करते हुए एंगेल्स का यह कथन याद करने योग्य है – ‘’..सर्वहारा वर्ग को कहा जाता है कि वह हर दिन हर घंटे जिस संघर्ष को चलाने के लिए मजबूर होता है उसकी जरूरतों के मुताबिक नहीं वरण भविष्य के समाज के बारे में कुछ स्वप्नदर्शियों की अस्पष्ट धारणाओं के मुताबिक संगठित हों।” इसी तरह एंगेल्स पार्टी अनुशासन और मजदूर वर्ग की शक्तियों के केंद्रीकरण के बारे में बकुनिनपंथियों की आलोचना करते हुए लिखते हैं – ”जब कोई पार्टी अनुशासन नहीं होगा, तो किसी बिंदु पर शक्तियों का केंद्रीकरण नहीं होगा और इस तरह संघर्ष का कोई हथियार नहीं होगा।”

हमें आज के हालात में एक निर्मम आत्मनिरीक्षण करणा होगा, ताकि रूसी अक्टूबार क्रांति के अनुभवों व सबकों को दरकिनार करने वाली प्रवृत्ति खत्म हो। आंदोलन में व्याप्त हताशा का भी तभी अंत होगा। वैसे जहां तक जनता के बीच व्याप्त निराशा और हताशा की बात है, तो निराशा जब हद से आगे बढ़ जाती है, तब ही जाकर इतिहास करवटें बदलता है। तब जो चीज दशकों में नहीं हुई, वह मिनटों में हो सकती है। क्या हम इसकी आहट सुन सकते हैं?