मोदी सरकार की नेशनल लॉजिस्टिक्स पॉलिसी

October 19, 2022 0 By Yatharth

नौकरियों की और कमी होगी; श्रम की और अधिक लूट होगी; मजदूरों व कर्मचारियों की जिंदगी ज्यादा तबाह होगी; कॉर्पोरेट कंपनियों के मुनाफे का पहाड़ और ज्यादा बड़ा हो जाएगा

अजय सिन्हा

मोदी सरकार और इसके इजारेदार पूंजीपति मित्र, तथा उनके बौद्धिक थिंकटैंक के भाड़े के ‘विद्वान’ इस नीति को खेल बदलने वाली नीति (game changer policy) के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। बात सही भी है। यह वास्तव में देशी एवं विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियों के गिरते मुनाफे दर को बढ़ाने वाली एक और बड़ी नीति साबित होने वाली है। दूसरे शब्दों में, यह मजदूरों व कामगारों और कर्मचारियों की जिंदगी के साथ पूंजीपति वर्ग, खासकर बड़े और कॉर्पोरेट पूंजीपति वर्ग द्वारा किए जाने वाले आदमखोर खेल का ही एक और रूप है।

सीधे उत्पादन में लगे मजदूरों के खून-पसीने को चूस कर भी जब मुनाफा नहीं बढ़ पा रहा है, तो मोदी सरकार अब लॉजिस्टिक्स के क्षेत्र को पूंजीपतियों के निर्मम आखेटस्थल बना रही है, जो यह भी साबित करता है कि भारत सरकार तेजी से विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तरह ही लॉजिस्टिक्स क्षेत्र के बड़े पैमाने पर आधुनिकीकरण की ओर डग भरने जा रही है। यूरोप और अमेरिका की अतिविकसित अर्थव्यवस्थाओं की तर्ज पर भारत का बड़ा पूंजीपति वर्ग विश्रृंखलित लॉजिस्टिक्स चेन को आधुनिकृत करते हुए एकीकृत करने की नीति ले चुकी है। अमेरिका में यह काम वर्षों पहले पूरा हो चुका है। वहां के बारे में हमें पता है कि इस क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों और कर्मचारियों, कंडक्टरों और इंजीनियरों की क्या और कितनी दुर्गति हुई है, जिसके बारे में हम एक संक्षिप्त चर्चा पिछले अंक में प्रकाशित अमेरिकी मालवाहक रेल रोड हड़ताल के ऊपर संपादकीय टिप्पणी के माध्यम से पहले  ही कर चुके हैं। भारत में लॉजिस्टिक्स के क्षेत्र में होने जा रहे इस नए बदलावों के आलोक में अमेरिकी मालवाहक रेल रोड कर्मचारियों की हड़ताल पर की गई टिप्पणी पर फिर से गौर फरमाना महत्वपूर्ण हो गया है। आइए, भारत में होने वाले बदलावों की चर्चा अमेरिका, आदि विकसित देशों में वर्षों पहले हो चुके बदलावों के आलोक में समझने की कोशिश करें।

लॉजिस्टिक्स क्या होता है और इसके क्या कार्य हैं? हम इसे संक्षेप में रसद कह सकते हैं जिसमें परिवहन, वितरण, भंडारण, पैकेजिंग, कार्गों हैंडलिंग, वितरण प्रसंस्करण, सूचना प्रसंस्करण, आदि सहित कई अन्य तरह की कार्य प्रणालियों को रखा जाता है जिसके द्वारा उत्पादन के लिए जरूरी सामनों को उत्पादन स्थान यानी कारखाने तक ले जाना, फिर कारखाने के उत्पादित मालों को बाजार तथा उपभोक्ताओं तक जल्दी-जल्दी पहुंचाना आदि का काम किया जाता है। इन कामों के आधार पर इस क्षेत्र का वर्गीकरण किया जाता है, जैसे कि प्रोक्योरमेंट लॉजिस्टिक्स, प्रोडक्शन लॉजिस्टिक्स, सेल्स लॉजिस्टिक्स, रिकवरी लॉजिस्टिक्स, रीसाइक्लिंग लॉजिस्टिक्स, आदि। इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा सेवा क्षेत्र में शामिल है जिस पर इस पॉलिसी से गाज गिरेगी।

पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के साथ-साथ इस क्षेत्र का भी तीव्र विकास होता है। एक समय था जब भारत जैसे देश में इस क्षेत्र में काफी नौकरियां निर्मित हुईं और आम लोग लाभांवित भी हुए। पूरी दुनिया में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में लगातार छाये घने संकट ने पूंजीपति वर्ग को इसमें भी इजारेदारी कायम कर लॉजिस्टिक्स के बिखरे चेन्स को एक एकीकृत व्यवस्था में लाने का अवसर दिया जिसका मतलब यह होगा कि इसमें तीव्र गति से आधुनिकीकरण व निजीकरण होगा, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में नौकरियों के अवसर का हृास होगा, कम आदमियों को बहाल कर उनसे ज्यादा काम लिया जाएगा। ठेके पर बहाली की प्रथा पहले से लागू है, उससे पुरानी वेतन-व्यवस्था टूटेगी। बेरोजगारी से मजदूरी और नीचे आएगी। श्रम कोड में काम के घंटे को पहले ही बढ़ाये जाने की व्यवस्था की जा चुकी है। इस तरह एक तरफ, इनमें कार्यरत श्रमशक्ति की दुगर्ति बढ़ेगी और उनका विनाश होगा, तो दूसरी तरफ, इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रवेश पाये कॉर्पोरेट पूंजीपति, जिनके लिए ही इस क्षेत्र में ये नीति लाई जा रही है, अकूत मुनाफा कमाएंगे, या कमा रहे हैं।

सरकार की नई नीति इस क्षेत्र को पूरी तरह से एकीकृत करने की है जिसके बिना न तो बड़े पैमाने पर आधुनिकीकरण संभव है और न ही इसे कॉर्पोरेट की इजारेदारी के लिए ही मुफीद बनाया जा सकता है। आज उत्पादन, बिक्री और खपत लगभग एक ही साथ होने वाली चीजें हैं। इसलिए विश्रृंखलित लॉजिस्टिक्स के बिखरे चेन से उत्पादों की तुरंत डिलीवरी और इसलिए खपत नहीं होने में दिक्कत आती है। इससे उत्पादों की बर्बादी तथा अनबिके इनवेंटरी के रूप में पूंजीपति वर्ग को नुकसान और घाटा उठाना पड़ता है। पूरे लॉजिस्टिक्स क्षेत्र के एकीकरण और आधुनिकीकरण से इस क्षेत्र में आवश्यक मैन पावर को कम करना संभव होगा और फिर इसी के माध्यम से लागत में कमी करने, बिक्री योग्य जरूरी मात्रा में उत्पादन करने तथा इस तरह अनबिके इनवेंटरी की समस्या से भी एक हद तक छुटकारा पाने की उम्मीद है। कुल मिलाकर, इससे इस क्षेत्र को कॉर्पोरेट के हाथों सौंपने तथा इस क्षेत्र को उनके लिए अधिकाधिक मुनाफा कमाने वाले क्षेत्र में तब्दील करना आसान होगा, जो मोदी सरकार की इस नीति का मुख्य उद्देश्य है।

जब यह क्षेत्र पूरी तरह एकीकृत हो जाएगा, तो इसका मतलब यह है कि इसका आकार बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा। इससे इजारेदारी के लिए रास्ता खुलेगा तथा आधुनिकीकरण आधारित पूंजी के केंद्रीकरण के माध्यम से लागत को कम और मुनाफा की राशि को अधिकतम किया जाएगा, जैसा कि इजारेदारी का मुख्य उद्देश्य होता है। लागत को कम करने की बात इस नीति को घोषित करते समय ही बोली गई, जिससे यह साफ हो गया कि इसमें जो प्राविधिक (तकनीकी) विकास और पूंजी का अतिसंचय होगा, उसका लाभ इसमें काम करने वाले कामगारों एवं कर्मचारियों, आदि को नहीं होने वाला है। उल्टे, वर्क लोड में अत्यधिक वृद्धि के साथ इसके अनुपात में वेतन वृद्धि नहीं होने से वेतन में हृास होगा। इसका एकीकृत एवं आधुनिकृत स्वरूप और बड़ा आकार चंद कॉर्पोरेटों की इजारेदारी के लिए अत्यंत मुफीद होगा और इसकी वजह से लाभ की ज्यादा से ज्यादा मात्रा ये इजारेदार ही हड़प लेंगे। लागत कम करने और मुनाफा बढ़ाने की नीतिगत घोषणा का अर्थ ही यह है कि काम करने वालों की संख्या घटाई जाएगी (जो पूंजीपति वर्ग के लिए लागत में कमी लाने का एक सर्वप्रमुख साधन है), जिसका परिणाम यह होगा कि घटी संख्या में इसके कार्यरत कामगारों एवं कर्मचारियों को 24X7 ऑन ड्यूटी करना होगा।

अगर हम अतिविकसित देशों, जैसे अमेरिका में इससे पैदा हुए हालात को देखें, तो हम कह सकते हैं कि उनके लिए सिक लीव (बीमार होने वाली मिलने वाली सवैतनिक छुट्टी) की मांग करना भी मुश्किल हो जाएगा। इसके लिए दवाब बनाने वालों पर छंटनी और बर्खास्तगी की तलवार लटकने लगेगी। आधिकारिक छुट्टियों के दौरान भी उन्हें काम पर बलपूर्वक तथा डराकर लगाया जाएगा। 16 सितंबर 2022 से होने वाली अमेरिकी मालवाहक रेल रोड हड़ताल की घोषणा मात्र से मचे हाहाकार1 के बीच द न्यूयार्क टाइम्स और द गार्जियन जैसे अखबारों में इस संबंध में छपी सामग्रियों की मुख्य सुर्खियां ठीक ये ही बातें थीं। अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लॉजिस्टिक क्षेत्र में लगे कमर्चारियों व मजदूरों तथा इंजीनियरों, आदि की जीवन-स्थिति इतनी नारकीय होगी यह समझ से परे लगने वाली बात है। लेकिन यह सच है। भारत जैसे देश में, जहां पहले ही एक फासीवादी सरकार जनंतत्र के निकायों को तहस-नहस करते हुए मजदूरों सहित अन्य वर्गों के जनवादी अधिकारों का हनन करने में सफल हो चुकी हो, इस नीति के तहत इस तरह के शोषण का पैमाना कितना व्यापक और गहरा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।

ठीक इसके पिछले अंक में प्रस्तावित मालवाहक रेल रोड हड़ताल पर मचे हाहाकर के ऊपर प्रकाशित संपादकीय त्वरित टिप्पणी करते हुए हमने जो लिखी था उसका सार यह है – ”अमेरिकी समाज में, जिसके बारे में वहां के आम लोगों के उन्नत और गरिमामय जीवन के बारे में कई तरह की किंवदंतिया मशहूर हैं, मानो वह धरती का स्वर्ग हो, अमेरिकी मालवाहक रेल रोड हड़ताल ने मजदूर वर्ग की अत्यंत विकट जीवन-स्थिति की पोल खोलकर रख दी है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि मालवाहक रेल रोड कर्मचारियों के ऊपर वर्क लोड इतना अधिक और उसकी तुलना में (तथा महंगाई आदि को देखते हुए) वेतन व अन्य सुविधाएं इतनी कम हैं कि अधिकांश कार्यरत लोग काम की स्थिति में सुधार नहीं होने पर नौकरी छोड़ने के लिए भी तैयार दिखते हैं। वहीं दूसरी तरफ, अखबारों में छपे तथ्यों से यह साफ हो जाता है कि रेल रोड कंपनियां (इसमें भी मुख्यत: तीन कंपनियों का बोलबाला है) और उसके ठेकेदार, कर्मचारियों और मजदूरों की पीठ पर सवारी करते हुए, अकूत मुनाफा कमा रहे हैं। हड़तालकर्मियों की मांगें क्या हैं? यही कि वर्क लोड कम किया जाए और वर्क लोड के अनुपात में वेतन में वृद्धि की जाए, ताकि वे भी कुछ वक्त अपने परिवार के साथ सुकून और सम्मान के साथ बिता सकें, और अगर बीमार हों तो आराम कर सकें। इंजीनियरों एवं कंडक्टरों की हालत यह है कि वे 24X7 ऑन कॉल ड्यूटी करने के लिए विवश और मजबूर हैं। यहां तक कि जब वे छुट्टियों पर रहते हैं, तब भी यही स्थिति बनी रहती है। देखा जाए, तो इसका मुख्य कारण स्टाफ की संख्या में कमी है जिसकी भरपाई मौजूदा कार्यरत कर्मचारियों से बहुत ज्यादा और तेज गति से काम कराके की जाती है।”

नरेंद्र मोदी कहते हैं कि –

”हमें लाजिस्टिक पर हो रहे खर्च, जो अभी जीडीपी का 16 फीसदी है, में कटौती करना और उसे 8 फीसदी के लक्ष्य तक नीचे ले आना है जो अमेरिका और यूरोप में एक जाना-माना औसत और स्टैंडर्ड लागत है।”2

इसका क्या मतलब है? मतलब साफ है कि जब वास्तव में यह नीति जमीन पर उतरेगी तो लॉजिस्टिक्स क्षेत्र, जिसके अधिकांश को शुरुआत में ही और फिर कुछ दिनों बाद इस पूरे क्षेत्र को निजी कंपनियों के हाथों में सौंप दिया जाएगा। यानी, इस क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों-कर्मचारियों की हालत नारकीय बनाने की कोशिश होगी। यानी, काम का बोझ ज्यादा से ज्यादा, वेतन एवं सुविधाएं आदि कम से कम, तथा शिकायत एवं विरोध करने का अधिकार नगण्य – यही है मोदी सरकार की नीति।

भारत में तो श्रम करने वालों को पहले से ही चार लेबर कोड नामक गुलामी की लौह-जंजीरों से जकड़ देने की तैयारी कर दी गई है। स्थिति की भयावहता मौजूदा अत्यंत बुरे हालातों को देखकर भी समझी जा सकती है। स्वयं बिजनेस पत्रिकाओं और अखबारों, जो पूंजीपतियों के मुखपत्र के समान काम करते हैं, का साफ-साफ कहना है कि ”इसे मैनुफैक्चरों (उद्योग के मालिकों) के समय, खर्च व लागत को कम करने के लिए लाया गया है।”3 इसमें काम करने वाले लोगों के हित का कहीं कोई जिक्र नहीं है।  

क्या लॉजिस्टिक्स क्षेत्र के मजदूर और कर्मचारी अपने ऊपर ढाये जा रहे इस नये जुल्म को यूं ही सह लेंगे या इसका प्रतिकार करेंगे? इसका वास्तिवक उत्तर तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि मोदी सरकार द्वारा पुराने 44 श्रम कानूनों को हटाकर चार श्रम कोड लागू करने का जो प्रयास हो रहा है, उसकी सफलता के बाद पूरे औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों का जीवन लद्दू जानवरों जैसा हो जाएगा और अंतर्य में वे उजरती गुलाम से दास मजदूर में तब्दील हो जाएंगे।

जहां तक पूंजीवाद को शिकस्त देने की बात है, तो शायद वह समय जल्द ही आने वाला है, और इसके लिए स्वयं मोदी सरकार और पूंजीपति वर्ग जिम्मेवार है, जब मजदूर वर्ग के पास अपने ऊपर हो रहे हमलों का सामना करने के लिए जन संघर्षों के तूफान खड़ा करने के अतिरिक्त और कोई भी रास्ता नहीं बचा रह जाएगा। 13 नवंबर 2022 को दिल्ली में भारत के मजदूर श्रम कोड को रद्द करने की मांग लेकर राष्ट्रपति भवन के लिए कूच करेंगे। हम उम्मीद करते हैं कि अगर इसके बाद भी  राहत का कोई उपाय नहीं निकलता है, तो मजदूर पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध देश के पैमाने पर वर्ग-संघर्ष का शंखनाद अवश्य करेंगे।

नोट –

  1यह हड़ताल मालवाहक रेल रोड के कर्मचारी यूनियनों और कंपनियों के बीच एक हुए एक समझौते, जिसमें कर्मचारियों की कुछ मांगें मानने का करार किया गया था, के माध्यम से स्थगित की गई थी, लेकिन इसमें यूनियनों के द्वारा ये शर्त लगाई गई थी कि यह समझौता अंतिम तौर पर तभी मान्य होगा एवं लागू होगा जब आम मजदूर व कर्मचारी सदस्य इसके पक्ष में वोट देकर इसे पारित करेंगे। इसके ऊपर वोटिंग के लिए यूनियनों ने कुछ समय की मोहलत मांगी थी जो पूरी हो चुकी है। वोटिंग हो चुकी है जिसमें मजदूरों ने इस समझौते के तहत किए गए करार को मानने से इनकार कर दिया है। इसका यह मतलब है कि एक बार फिर से हड़ताल की रणभेरी बजने वाली है और अमेरिका के इजारेदार पूंजीपति एवं सरकार एक बार फिर से छाती पीटना शुरू करते हुए संभावित हड़ताल पर अभी से रोक लगाने की मांग अमेरिकी कांग्रेस से करना शुरू करेंगे। यह भी हो सकता है कि इससे निपटने के लिए हर कुकर्म की नजीर पेश करते हुए बाइडेन साहिब सीधे सुरक्षा बलों के द्वारा इसे दबाने की कोशिश करेंगे।

   2A business magazine writes about its key targets as ”reduce the cost of logistics from 14-18 percent of GDP to global best practices of 8 percent by 2030. Countries like the US, South Korea, Singapore, and certain European nations have such a low logistics cost-to-GDP ratio.”

  3The same business magazine writes – ”India finally has a National Logistics Policy (NLP). The policy aims to achieve, among others, ‘quick last-mile delivery, end transport-related challenges, save time and money of manufacturers, and prevent wastage of agro-products. The end result is significant time and the cost reduction.”