‘भारत जोड़ो यात्रा‘ – राहुल गांधी भारत को किससे जोड़ रहे हैं?
October 19, 2022एम असीम
प्रमुख विपक्षी कांग्रेस पार्टी के अनाधिकारिक सर्वोच्च नेता राहुल गांधी इन दीनों कन्याकुमारी से कश्मीर तक अपनी ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा पर हैं। यह यात्रा 7 सितंबर 2022 को तमिलनाडु से शुरू होकर केरल पार कर कर्नाटक पहुंच चुकी है। 5 महीने तक चलने वाली 3,570 किलोमीटर की यह यात्रा 12 राज्यों से गुजरेगी। यात्रा में वे 20-25 किलोमीटर रोज चल रहे हैं और उनकी इस शारीरिक फिटनेस की बहुत तारीफ की जा रही है। उधर सत्ताधारी बीजेपी यात्रा में उनके द्वारा इस्तेमाल किये गए कपड़ों, जूतों, आदि के दामों पर टिप्पणियां कर रही है। इस दौरान कांग्रेस कार्यकर्ताओं व उनके समर्थकों द्वारा विभिन्न लोगों – आम शहरी-ग्रामीण लोगों, बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों, आदि – से करीब से मिलते, प्रेम से हाथ मिलाते व गले लगते हुए भावपूर्ण फोटो खूब प्रचारित किये गए हैं। सत्ताधारी पार्टी इसके जवाब में अपनी जानी-पहचानी फासिस्ट गोयबेलसी शैली में स्त्रियों के साथ उनके फोटो दिखाकर उनके यौन चरित्र पर प्रश्न उठा रही है। इसी तरह राहुल गांधी द्वारा यात्रा में शामिल होने गईं अपनी मां श्रीमती सोनिया गांधी के जूते का फीता बांधने का फोटो भी कांग्रेस समर्थकों द्वारा जोरों से प्रचारित किया गया।
कांग्रेस नेता, कार्यकर्ता व समर्थक राहुल गांधी के इन लोगों के साथ विभिन्न मुद्राओं वाले फोटो के आधार पर उन्हें एक शरीफ, उदात्त, नेकनीयत, उच्च मानवीय चरित्र वाला नेता होने का दावा कर रहे हैं। वे इस जरिए बड़े सुरक्षा घेरे में रहने वाले, जनता से संवाद के बजाय सिर्फ अपने ‘मन की बात’ सुनाने वाले नरेंद्र मोदी के बरअक्स जनता के बीच में घुलने-मिलने वाले, आम लोगों से संवाद करने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी की अलग छवि को स्थापित करना चाहते हैं। उनके अनुसार आज देश में जैसी सांप्रदायिक विभाजन-वैमनस्य की स्थिति है उसमें ऐसा मानवीय चरित्र वाला नेता ही मरहम लगा कर देश को एकजुट रख आगामी संकट से बचा सकता है।
यात्रा में राहुल गांधी खुद बीजेपी की मोदी सरकार की सांप्रदायिक, विभाजनकारी व अन्यायपूर्ण नीतियों की आलोचना करते हुए इसे एक वैचारिक लड़ाई की संज्ञा दे रहे हैं। 2 अक्टूबर को कर्नाटक के मैसुरू जिले में उन्होंने कहा, “जैसे गांधीजी ब्रिटिश राज से लड़े, वैसे ही आज हम गांधीजी की हत्या करने वाली विचारधारा से लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले 8 सालों में इस विचारधारा का नतीजा असमानता, विभाजन व कष्ट साध्य संघर्ष से जीती गई आजादी में कटौतियां ही रही हैं।” राहुल गांधी के अनुसार यह यात्रा बीजेपी की ‘हिंसा व असत्य’ की राजनीति के बजाय ‘अहिंसा व स्वराज्य का संदेश फैलाएगी।’ राहुल गांधी के मुताबिक “मौजूदा संदर्भ में, स्वराज का अर्थ भय से आजादी और हमारे किसानों, नौजवानों व लघु-मध्यम व्यवसायियों की इच्छाओं की पूर्ति है। यह हमारे प्रदेशों द्वारा संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं का पालन करना है।”
10 सितंबर को राहुल गांधी ने पूछा, “हमारे 42% नौजवान बेरोजगार हैं। अगर वे असुरक्षित हैं तो भारत का भविष्य कैसे सुरक्षित है?” पहले भी अपने भाषणों में मौजूदा मोदी सरकार को अदानी-अंबानी की सरकार या सूट-बूट की सरकार कहने वाले राहुल गांधी ने ऐसे ही 26 सितंबर को केरल के कोप्पम में कहा, “आज बड़े उद्योगपतियों का अरबों का कर्ज माफ किया जा रहा है। लेकिन, अगर एक किसान या छोटा व्यापारी, छोटा सा भी कर्ज न लौटा पाए तो उसे ‘Defaulter’ बता कर जेल में डाल देते हैं। भारत जोड़ो यात्रा, हर अन्याय के खिलाफ है। राजा के ये ‘दो हिंदुस्तान’ भारत स्वीकार नहीं करेगा।” उन्होंने आगे कहा कि “बीजेपी-आरएसएस इस नदी (जनता) को दोफाड़ करना चाहते हैं। वे जनता को आपस में लड़ाना-भिड़ाना चाहते हैं। वे ऐसी नदी चाहते हैं जिसमें कोई गिरे तो कोई उसे निकाले नहीं, हर कोई अकेला रहे। वे देश को बांट और नफरत फैला कर राज करना चाहते हैं।”
निश्चित ही मोदी सरकार के चरित्र के बारे में राहुल गांधी की उपरोक्त बातें सच हैं। मोदी सरकार की नीतियां भारत की जनता को धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, राष्ट्रीयता, आदि पर बांटने, उनमें मौजूद आपसी पूर्वाग्रहों को कम करने के बजाय उन्हें और गहरा कर जहरीला बनाने, जनता में परस्पर वैमनस्य पैदा करने, उनकी एकता को पूरी तरह समाप्त कर देने की नीतियां हैं। इनका मकसद समाज में अन्याय के खिलाफ उठने वाली हर आवाज, सत्ताधारी वर्ग के हित के खिलाफ उठने वाली हर असहमत विरोधी आवाज को कुचल देना है। समाज में आपसी वैमनस्य का जहरीला माहौल छा जाने पर इन आवाजों के साथ कोई खड़ा नहीं होगा और सत्ता के लिए इन्हें राष्ट्रविरोधी, धर्मविरोधी आदि कहकर मुंह बंद कर देना बहुत आसान हो जाएगा। इस अर्थ में राहुल गांधी की बात सही है कि बीजेपी सरकार जनता में विभिन्न प्रकार से परस्पर वैमनस्य व नफरत की स्थिति पैदा कर रही है और उसके बहाने जनता की ‘आजादियों’ अर्थात जनवादी अधिकारों में कटौती कर रही है।
राहुल गांधी की यह बात भी सच है कि आज एक नहीं ‘दो हिंदुस्तान’ हैं। वास्तव में पूंजीपतियों और मेहनतकशों के दो हिंदुस्तान हैं, और इन दोनों के बीच जोरदार टकराव है। इस टकराव की वजह है कि पूंजीपतियों और मेहनतकशों के हित परस्पर विरोधी हैं। पूंजीपतियों के मुनाफे का एकमात्र स्रोत मजदूरों के श्रम का शोषण है। साथ ही पूंजीपति, खास तौर पर सबसे बड़े इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपति, सभी छोटे मालिकों व मेहनतकशों को भी बरबाद कर उन की संपत्ति को भी हथियाना चाहते हैं। इस वक्त इन पूंजीपतियों का भारत मजदूर वर्ग के भारत पर जबर्दस्त हमला बोले हुए है। और पूंजीपति वर्ग की प्रबंध समिति होने के नाते इस हमले का संचालन मोदी सरकार के हाथ में है।
यह भी सच है कि मोदी सरकार की पूंजीपरस्त नीतियों, खास तौर पर इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के सुपर मुनाफे की चाहत वाली नीतियों, की वजह से आज देश में महंगाई व बेरोजगारी की स्थिति और भी भयावह बन गई है। इससे अधिकांश मेहनतकश जनता के जीवन में भारी आफत व विपत्ति की स्थिति पैदा हो गई है। अतः निश्चय ही ‘42% नौजवान बेरोजगार हैं। अगर वे असुरक्षित हैं तो भारत का भविष्य कैसे सुरक्षित है?’ राहुल गांधी का यह सवाल पूरी तरह सही है।
यह भी निश्चित है कि आज देश में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो कुछ साल पहले ‘अच्छे दिनों’ के झांसे में आए थे। मगर अब वे इस स्थिति से हताश-निराश महसूस कर रहे हैं और सकारात्मक बदलाव चाहते हैं। देश में अभी तक संघ व मोदी सरकार के संचालन में जारी प्रतिगामी फासिस्ट मुहिम का कोई ठोस प्रतिरोध नहीं उभर पाया है। चुनांचे ऐसी चाहत रखने वाले बहुतेरे लोग राहुल गांधी की इस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की ओर आशा की नजर से भी देख रहे हैं कि शायद यह ही बदलाव की कोई बयार पैदा करे, शायद यह ही मोदी सरकार की सरमायेदारपरस्त नीतियों व फासिस्ट राजनीति के खिलाफ किसी प्रतिरोध को दिशा दे। देश में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या मौजूद है जो बीजेपी-संघ के फासिस्ट शासन को पलट सकने वाली किसी भी मुहिम की हिमायत करने को तैयार हैं। हम भी समझते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही सही, मगर फासिस्ट मुहिम की कोई तात्कालिक व अस्थाई पराजय भी शोषित जनता, अल्पसंख्यकों व वंचित समुदायों के लिए कम से कम एक राहत की सांस होगी। अतः फासिस्टों की ऐसी तात्कालिक पराजय भी निश्चय ही स्वागत योग्य है।
किंतु राहुल गांधी की इतनी सारी सही बातों के बाद सवाल उठता है कि मौजूदा सरकार के बजाय राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार बन जाए तो वे इस स्थिति में बदलाव के लिए क्या करेंगे? संघ-बीजेपी के खिलाफ उनकी इस ‘वैचारिक लड़ाई’ का आधार क्या है और यह कहां तक जाती है? मौजूदा ‘दो हिंदुस्तान’ की स्थिति में, अदानी-अंबानी की सरकार, सूट बूट की सरकार वाली नीतियों में वे क्या परिवर्तन करेंगे? जवाब में 4 सितंबर को उन्होंने कहा, “कांग्रेस पार्टी देश को जोड़ती है। कांग्रेस के कार्यकर्ता ही देश को बचा सकते हैं। कांग्रेस की विचारधारा ही देश को प्रगति के पथ पर ला सकती है। हम सीधा जनता के बीच जा कर उनको सच्चाई बताएंगे, जो भी उनके दिल में है, वो समझेंगे। अब होगी भारत जोड़ो यात्रा।” ऐसे ही 10 सितंबर को उन्होंने केरल के समाज सुधारक नारायण गुरु को याद करते हुए फिर कहा, “शिक्षा के जरिए आजादी, संगठन के जरिए शक्ति, उद्योग के जरिए संपन्नता।”
किंतु क्या इन सब बातों से हमें यह जवाब मिलता है कि खुद द्वारा ही बताई गई, और काफी हद तक सच बताई गईं, इन विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए राहुल गांधी व उनकी पार्टी की सरकार क्या करेगी? वह इस स्थिति में बदलाव लाने के लिए कौन सी नीति अपनाएगी? हमारा मानना है कि, हालांकि राहुल गांधी मोदी सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए अपनी पार्टी की नीतियों को स्पष्ट नहीं कर रहे हैं, पर उनकी ये अस्पष्ट बातें भी उनकी नीति के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट कर देती हैं, क्योंकि जो कहा गया है उसका अर्थ समझने के लिए बहुत बार जो नहीं कहा जाता, वह कही गई बात से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है।
हम उनकी उपरोक्त अंतिम बात – ‘शिक्षा के जरिए आजादी’ – के उदाहरण से शुरू करते हैं। निश्चित रूप से ही आज शिक्षा के क्षेत्र में ‘दो हिंदुस्तान’ की बात स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। एक ओर, पूंजीपतियों का भारत, उच्च मध्यम वर्ग का भारत, अमीरों का भारत, अफसरशाहों का भारत है जिनके लिए प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक समस्त सभी सुविधाओं से संपन्न शिक्षा है जो उनके खरीदने की क्षमता के अनुसार उनके लिए पूर्ण रूप से आरक्षित है। दूसरी ओर, मजदूरों, मेहनतकश किसानों, अन्य गरीब-वंचित जनता का भारत है जिन के लिए पूरी तरह निजी व व्यवसायिक मुनाफा आधारित बनी उनकी पहुंच से बहुत दूर धकेली जा चुकी ‘शिक्षा’ व्यवस्था है जो सिर्फ उन्हें पूंजीपतियों की आवश्यकतानुसार अपनी श्रम शक्ति विक्रय करने की क्षमता से लैस करती है।
आजादी के समय कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में संविधान बनाए जाते वक्त शिक्षा व्यवस्था के क्षेत्र में 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा की बात को नीति निर्देशक सिद्धांतों में डाल और वंचित समुदायों के लिए बस थोड़ा सा आरक्षण देकर सबके लिए समान सार्वजनिक शिक्षा की बात को रद्दी की टोकरी में डाल भारत की जनता से एक बड़ी वादा खिलाफी की गई थी। अब उस नीति को पलट कर सबके लिए समान अनिवार्य सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था ‘दो भारत’ के बंटवारे को समाप्त कर ‘शिक्षा के जरिए आजादी’ का सबसे बड़ा कदम होगा। क्या हम उम्मीद करें कि अपनी पार्टी की पुरानी नीति को पलट कर अब राहुल गांधी ऐसी शिक्षा नीति लागू करने का वादा करेंगे? ऐसी ही बातें स्वास्थ्य, आदि कई क्षेत्रों के बारे में कही जा सकती है। पर बात को संक्षिप्त रखने हेतु अभी हम इस एक उदाहरण तक ही सीमित रहेंगे।
राहुल गांधी ने बिल्कुल सही कहा है कि जब तक भारत के 42% नौजवान बेरोजगार व असुरक्षित हैं तब तक भारत का भविष्य असुरक्षित है। ऐसे में क्या हम उम्मीद करें कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार आए तो वह रोजगार को मूल अधिकार घोषित करेगी, सभी खाली पदों पर तुरंत नियुक्तियां चालू करेगी, बेरोजगारों को समुचित बेरोजगारी भत्ता देगी? साथ ही क्या वह सरकार श्रम अधिकारों जैसे 8 घंटे काम का दिन, यूनियन बनाने का अधिकार, आदि को भी सुनिश्चित करेगी? क्या वह सरकार इस मकसद को पूरा करने के लिए मोदी सरकार द्वारा लाए गए 4 नए लेबर कोड रद्द कर देगी?
पर सवाल फिर भी रह गया कि मौजूदा ‘दो हिंदुस्तान’ में बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, आर्थिक अन्याय पर वे क्या करेंगे? तब उन्होंने 9 सितंबर को कहा, “देश का भविष्य कैसा हो इस नजरिए पर भारत अभी दिवालियापन का सामना कर रहा है।” मगर इस दिवालिएपन को दूर करने का राहुल गांधी का उपाय क्या है? “हम कॉर्पोरेट इंडिया के पक्ष में हैं। हम बड़े इजारेदारों के विचार के खिलाफ हैं। हम अन्याय के खिलाफ हैं, चाहे वह किसानों के खिलाफ हो या लघु-मध्यम कारोबारियों के। हम न्याय कायम करने के लिए कदम उठायेंगे।” 8 अक्टूबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनसे सीधा सवाल पूछा गया कि उनकी पार्टी की राजस्थान व छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारें भी तो उसी गौतम अदानी के पक्ष की नीतियों को लागू कर रही हैं, जिसके खिलाफ खुद राहुल गांधी बोलते आए हैं। तब राहुल गांधी ने दोहराया कि वे किसी कॉर्पोरेट के खिलाफ नहीं हैं। वे तो बस एकाधिकारवाद के खिलाफ हैं। हां, उन्होंने नहीं बताया कि अंबानी, अदानी, टाटा, मित्तल, जिंदल, आदि एकाधिकारवादी नहीं हैं तो वे कौन से एकाधिकारवादी हैं जिनके वे खिलाफ हैं। जो वास्तविक एकाधिकारवादी हैं उनका विरोध किये बगैर एकाधिकारवाद के किसी अमूर्त विचार के विरोध का क्या मतलब है?
परंतु जिस ‘कॉर्पोरेट इंडिया’ के पक्ष में राहुल गांधी हैं, वह क्या है? जब बहुत सी छोटी-बड़ी पूंजियां परस्पर विलय के जरिए एक बड़ी पूंजी में केंद्रित हो जाती हैं जिस पर एकाधिक बड़े पूंजीपतियों का नियंत्रण होता है तब एक कॉर्पोरेट पूंजी का गठन होता है। लेकिन राजनीतिक अर्थशास्त्र का क ख ग जानने वाला कोई भी व्यक्ति जानता है कि इस तरह बहुत सी छोटी-बड़ी पूंजियों के विलय से बनी बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी ही तो इजारेदार या एकाधिकार या मोनोपॉली पूंजी की बुनियाद है। यह इजारेदार पूंजी संकेंद्रण की प्रक्रिया को तेज कर बहुत से लघु-मध्यम पूंजीपतियों को दिवालिया कर उन्हें बाजार से बाहर कर देती है। यही पूंजीवाद की स्वाभाविक गति है। इस तरह बनी इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी बाजार में होड़ के जरिए अधिकतम मुनाफे के बजाय बाजार पर एकाधिकार के जरिए सुपर मुनाफे के मकसद से संचालित होती है। इस इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी का सुपर मुनाफा आज महंगाई के इतनी तेजी से बढ़ने के लिए एक मुख्य कारण है। यह कॉर्पोरेट पूंजी ही आज किसानों से लघु-मध्यम कारोबारियों के दिवालिया होने के लिए मुख्य जिम्मेदार है। दूसरी ओर, इसी कॉर्पोरेट पूंजी के मुनाफे के लिए पहले कांग्रेस व अब मोदी सरकार निजीकरण तथा जनकल्याणकारी कार्यों के बजट में कटौती की नवउदारवादी नीति पर अमल कर रही है। इसी कॉर्पोरेट पूंजी के हित में कृषि कानून लाए गए। इसी कॉर्पोरेट पूंजी के हित में श्रम कानूनों को समाप्त कर 4 नए लेबर कोड लाए गए हैं। इसी कॉर्पोरेट पूंजी के हित में अप्रत्यक्ष कर बढ़ाए जा रहे हैं और अमीरों को प्रत्यक्ष करों में रियायत दी जा रही है। ऐसी स्थिति में कॉर्पोरेट पूंजी के पक्ष में किंतु बड़े इजारेदारों के विचार के खिलाफ होने की बात ऐसी ही है जैसे कोई मांसाहार के पक्ष में किंतु बूचड़खानों के विचार के खिलाफ हो!
आज यह बात सुविदित है कि ये अदानी अंबानी टाटा जिंदल बिड़ला बजाज मित्तल अग्रवाल रामदेव प्रेमजी मूर्ति निलेकणी जैसे कॉर्पोरेट ही हैं जिनके हित में यह सूट-बूट की सरकार चल रही है और जिनके हित में बनी नीतियों के विरोध को कुचलने हेतु ही जनता की आजादियों में कटौती की जा रही है। राहुल गांधी इन आजादियों की हिफाजत करना चाहते हैं। लेकिन वे इस ‘कॉर्पोरेट इंडिया’ के पक्ष में भी हैं! अर्थात वे पूंजीपतियों व मेहनतकशों के ‘दो हिंदुस्तान’ में से ‘कॉर्पोरेट इंडिया’ का पक्ष चुन चुके हैं। मगर वे मजदूरों, किसानों, आदि के साथ अन्याय ना होने देने का दावा भी कर रहे हैं! जिन राज्यों में उनकी कांग्रेस पार्टी की सरकार है वे भी अदानी-अंबानी के कॉर्पोरेट इंडिया के लिए ही पलक-पांवड़े बिछाती हैं। खुद राहुल गांधी जनतंत्र के पक्ष में पदयात्रा कर रहे हैं, मगर छत्तीसगढ़ में उनकी पार्टी की सरकार अदानी के लाभ के लिए जंगल कटवाने के विरोध में विपक्षी दलों की पदयात्रा पर पाबंदी लगा रही है! क्या ऐसे ही जनतंत्र व आजादियों की सुरक्षा होगी?
इसी का नतीजा है कि वे जनता की आजादियों में कटौती रोकना चाहते हैं, किंतु वे यूएपीए जैसे आजादी छीनने वाले कानून के पक्ष में भी हैं! इसी का नतीजा है कि उनकी पार्टी की सरकारें नए लेबर कोड में 12 घंटे के काम के दिन के पक्ष में भी हैं! इसी का नतीजा है कि वे ‘दो हिंदुस्तान’ के खिलाफ हैं किंतु वे गरीब लोगों के उपभोग की खाद्य वस्तुओं पर जीएसटी लगाने के पक्ष में भी हैं! इसी का नतीजा है कि जनता को धर्म के आधार पर परस्पर लड़ाने-भिड़ाने के विरोधी हैं किंतु वे सावरकर को ‘वीर’ मानते हुए उसके फोटो भी लगाते हैं! असल में वे बिल्कुल सही ही कहते हैं कि “जैसे गांधीजी ब्रिटिश राज से लड़े, वैसे ही आज हम गांधीजी की हत्या करने वाली विचारधारा से लड़ाई लड़ रहे हैं।” गांधीजी की ब्रिटिश राज से लड़ाई के तरीके के बारे में भगत सिंह ने कहा था कि वे रुपये में सोलह आने के बजाय एक आने के लिए लड़ते हैं और बिना एक पैसा मिले समझौता कर लेते हैं। राहुल गांधी भी सही कह रहे हैं कि वे भी गांधीजी की हत्या करने वाली फासिस्ट ताकतों से वैसे ही लड़ते हैं!
फिर ये ‘भारत जोड़ो यात्रा’ क्या है? और इसमें किये जा रहे प्रचार का वास्तविक अर्थ क्या है? इसके लिए पहले हम प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई द्वारा वास्तविक सवालों पर तार्किक पोजीशन लेने और उसे स्पष्ट कहने के बजाय गोल मोल ‘अच्छी’ बातों वाली भारतीय बुर्जुआ राजनीति की शैली पर चोट करते 1957 में लिखे एक लेख से कुछ पंक्तियां उद्धृत करेंगे,
“तुम्हारे प्रधानमन्त्री में यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी है। जिस दिन यह अदा नहीं है या अदाकार नहीं है, उस दिन वर्तमान सरकार एकदम गिर जायेगी। जब तक यह अदा है, तब तक तुम शोषण सहोगे, अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे – क्योंकि तुम क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा प्रधानमन्त्री एक अदा से तुम्हे ठंडा कर देगा। तुम जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था एक अदा पर टिकी है। – अरस्तू की चिट्ठी 1
(परिवर्तन, 01 जून 1957)
असल में आजादी के बाद से भारत में जो पूंजीवादी सत्ता व्यवस्था है उसकी नीतियों में एक निरंतरता है। फिर नीतियों में इस निरंतरता के बावजूद राजनीतिक दलों एवं नेताओं में चुनावी होड़ का आधार क्या है? परसाई के शब्दों में कहें तो बुर्जुआ चुनावी नेताओं की ‘अदा’ ही यह आधार है। नेहरू, इंदिरा, राजीव, वाजपेयी, मोदी सब पूंजीवादपरस्त नीतियों के साथ अपनी अदाओं के आधार पर ही जनता को रिझाते आ रहे हैं। अब राहुल गांधी भी मोदी की अदाओं के मुकाबले खुद को बेहतर अदाकार के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि नीतियों पर किसी भी ठोस बात के बगैर ही वे अपनी अलग अदाओं के आधार पर खुद के मोदी से बेहतर नेता होने की होड़ कर सकें। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के पूरे राजनीतिक प्रचार की शैली इन्हीं अदाओं के प्रदर्शन की शैली है।
राजनीतिक प्रचार की इस शैली की वजह क्या है? ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस पार्टी सौ साल से भी अधिक तक भारत के पूंजीपति वर्ग की सबसे विश्वस्त पार्टी रही है। उसने पूंजीपति वर्ग के हित में, और मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के शोषण वाली, नवउदारवादी आर्थिक नीतियां बना समस्त सार्वजनिक उपक्रमों व संसाधनों का निजीकरण, सार्वजनिक सेवाओं का व्यवसायीकरण तथा श्रमिक अधिकारों का हनन करते हुए उन नीतियों को लागू किया जिनका नतीजा आज की ‘दो हिंदुस्तान’ की स्थिति है। साथ ही पूंजीवादी शोषक सत्ता के बचाव में धर्म, जाति, पितृसत्ता के समस्त प्रतिगामी सामंती मूल्यों व परंपराओं से समझौता कर उन्हें बनाए रखने में सत्ता की समस्त शक्ति व संसाधनों का प्रयोग किया है। सेकुलरिज्म के वास्तविक अर्थ में राजसत्ता को धर्म से विच्छिन्न कर धर्म को नागरिकों का निजी विश्वास का विषय बना देने के बजाय कांग्रेस शासन में ही सेकुलरिज्म को सर्व धर्म समभाव बना कर भारत को बहुधर्मतांत्रिक राज्य में बदल दिया गया जिसमें स्वाभाविक था कि बहुसंख्यक धर्म और उसके रस्म-ओ-रिवाज ही प्रभावी स्थान पर स्थापित हो गए। साथ ही कांग्रेस ने बुर्जुआ संवैधानिक मूल्यों के भी विपरीत सभी संवैधानिक संस्थाओं की नियुक्ति व कार्यपद्धति में गैर जनवादी प्रणाली को स्थापित किया; संसद, कोर्ट से लेकर मीडिया तक में जनवादी परंपराओं व कार्य प्रणाली को खोखला किया; और, सभी जनवादी अधिकारों का निरंतर हनन करते हुए एक पुलिस राज्य का कानूनी व संस्थानिक ढांचा निर्मित किया। यही वह आधार था जिसके बल पर संघ-बीजेपी की फासिस्ट सत्ता को भारत के बुर्जुआ जनतंत्र के अंदर से किसी विशेष प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
आज भी कांग्रेस की नीति इस फासिस्ट मुहिम के खिलाफ कोई स्पष्ट दृढ़ अवस्थिति लेने के बजाय यही है कि वह किसी प्रकार से भारत के पूंजीपति वर्ग की नजर में बीजेपी के बजाय अपनी पुरानी सबसे भरोसेमंद प्रबंधक की स्थिति को दोबारा हासिल कर ले। इसलिए राहुल गांधी को मौजूदा बीजेपी सरकार की आलोचना में जनसमर्थन प्राप्त करने के लिए निश्चय ही कुछ सही बातें कहनी जरूरी हैं। किंतु जब उनकी अपनी पार्टी की नीतियों का सवाल आता है तब या तो उन्हें चुप रहना पड़ता है, या कॉर्पोरेट पूंजी के प्रति उनका प्रेम बाहर आ जाता है। अतः इन दोनों स्थितियों से बचने के लिए उन्हें अदाओं वाले राजनीतिक प्रचार की शैली को अपनाना ही एकमात्र विकल्प शेष रह जाता है। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ यही कर रही है।
जैसा हमने ऊपर कहा, जो फासिस्ट विरोधी हैं उन्हें निश्चय ही बुर्जुआ जनतांत्रिक दायरे के अंदर भी किसी फासिस्ट सरकार की तुलना में एक बुर्जुआ वर्गीय पार्टी, मगर गैर फासिस्ट वैचारिकी व संगठन वाली, के नेतृत्व वाली सरकार में निश्चय ही अंतर करना चाहिए। ऐसी गैर फासिस्ट सरकार मजदूर वर्ग को अपने अधिकारों के लिए जनवादी संघर्षों को संगठित करने का बेहतर मौका व स्थान देती है। अतः इसकी कोई भी संभावना फासिस्ट सरकार की तुलना में बेहतर है, और हमारे हमले का मुख्य निशाना फासिस्ट शक्तियां ही होनी चाहियें। मगर वहीं यह भी याद रखना चाहिए कि इसके लिए मजदूर वर्ग को अपनी राजनीति व सिद्धांत के साथ समझौता करते हुए किसी चुनावी बुर्जुआ दल की दुम बन जाने के अवसरवाद से बचना भी जरूरी है। अंततः हर बुर्जुआ दल पूंजीपति वर्ग के हितों की ही हिफाजत करता है और हर बुर्जुआ सरकार पूंजीपति वर्ग की ही प्रबंधकारिणी समिति होती है – राहुल गांधी खुद मोदी के विरोध के बावजूद बेहिचक-बेझिझक पूंजीपति वर्ग के लिए अपनी वफादारी की बात को स्पष्ट करते हैं। मजदूर वर्ग की हर राजनीतिक जत्थेबंदी को भी इससे सबक लेना चाहिए और अपने वर्ग के प्रति अपनी वफादारी व मजदूर वर्ग-मेहनतकश जनता के हितों व जनवादी अधिकारों के सवालों पर अपनी स्वतंत्र पोजीशन को बेहिचक-बेझिझक स्पष्ट करते हुए ही किसी गैर फासिस्ट सरकार की संभावना पर अपना विचार रखना चाहिए, क्योंकि फासीवाद की अंतिम पराजय मात्र मजदूर वर्ग के पूंजीवाद विरोधी संघर्ष से ही सुनिश्चित की जा सकती है। इससे पीछे हटने पर फासीवाद की तात्कालिक पराजय भी असल में कुछ समय पश्चात उसकी और अधिक ताकत के साथ वापसी की राह ही तैयार करती है।