द्वंद्ववाद : निषेध का निषेध

October 19, 2022 0 By Yatharth

(ड्यूहरिंग मत-खण्डन से)

फ्रेडेरिक एंगेल्स

“(इंगलैण्ड में पूंजी के तथाकथित आदिम संचय की उत्पत्ति की) यह ऐतिहासिक रूपरेखा मार्क्स की पुस्तक का अपेक्षाकृत सर्वोत्तम भाग है, और यदि इस भाग की पाण्डित्य सम्बंधी बैसाखी की सहायता के लिये द्वंद्ववादी बैसाखी का सहारा न लिया गया होता, तो वह और भी अच्छा होता। अन्य किसी अधिक अच्छे और स्पष्ट उपाय के अभाव में यहां अतीत के गर्भ में से भविष्य को जनवाने के लिये असल में हेगेलीय निषेध के निषेध को दाई का काम करना पड़ता है। ‘व्यक्तिगत स्वामित्व’ का उन्मूलन, जो सोलहवीं शताब्दी के बाद से ऊपर बताये गये ढंग से सम्पन्न हो चुका है, पहला निषेध है। इसके बाद दूसरा निषेध आयेगा, जिसका स्वरूप निषेध के निषेध का होगा और इसलिये जिसके द्वारा ‘व्यक्तिगत स्वामित्व’ की पुनर्स्थापना हो जायेगी; परंतु इसका रूप पहले से उच्चतर होगा। वह भूमि तथा श्रम के औजारों के सामूहिक स्वामित्व पर आधारित होगा। श्री मार्क्स ने इस नये ‘व्यक्तिगत स्वामित्व’ को ‘सामाजिक स्वामित्व’ भी कहा है; और इसमें वह हेगेलीय उच्चतर एकता सामने आती है, जिसमें समझा जाता है कि विरोध का ऊर्ध्वपातन हो जाता है, यानी हेगेलीय शाब्दिक बाजीगरी के अनुसार अंतर्विरोध पर काबू पा लिया जाता है और साथ ही वह कायम भी रहता है… इसके अनुसार अपहरणकर्त्ताओं का सम्पत्तिहरण ऐतिहासिक वास्तविकता का, जहां तक उसके भौतिक दृष्टि से बाह्य सम्बंधों का ताल्लुक है, मानो स्वतः उत्पन्न फल होता है… निषेध का निषेध जैसी हेगेलीय शाब्दिक बाजीगरी में आस्था रखने के आधार पर किसी भी विवेकवान मनुष्य को भूमि और पूंजी के सामूहिक स्वामित्व की आवश्यकता के बारे में विश्वास दिलाना कठिन होगा… लेकिन जो कोई यह जानता है कि हेगेलीय द्वंद्ववाद को वैज्ञानिक आधार मानकर कैसी-कैसी निरर्थक बातें गढ़ी जा सकती हैं, या शायद कहना चाहिये कि जो कोई यह जानता है कि हेगेलीय द्वंद्ववाद से कैसी-कैसी निरर्थक बातों का उत्पन्न हो जाना अनिवार्य होता है, उसे मार्क्स की अवधारणाओं के नीहारिकावत् प्रसंकर कोई खास विचित्र नहीं लगेंगे। जो पाठक इन हथकण्डों से परिचित नहीं है, उसके लाभार्थ यह बता देना आवश्यक है कि हेगेल का पहला निषेध मनुष्य के नैतिक पतन का विचार है, जो धार्मिक पुस्तक से लिया गया है; और उसका दूसरा निषेध एक उच्चतर एकता का विचार है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य का प्रायश्चित हो जाता है। धार्मिक क्षेत्र से उधार लिये गये इस निरर्थक सादृश्य को, निश्चय ही, तथ्यों के तर्क का आधार नहीं बनाया जा सकता… पर श्री मार्क्स अपने उस स्वामित्व के नीहारिकावत् संसार में बहुत प्रसन्न हैं, जो एक ही समय में व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी और इस गूढ़ द्वंद्ववादी पहेली को बूझने का काम उन्होंने अपने शिष्यों के लिये छोड़ दिया है।”

यहां तक हमने भी इयूहरिंग की बात सुनी।

चुनांचे सामाजिक क्रांति करने और भूमि तथा श्रम द्वारा उत्पादित उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व की स्थापना करने की आवश्यकता को प्रमाणित करने का मार्क्स के सामने इसके सिवा और कोई तरीका नहीं है कि हेगेलीय निषेध के निषेध का हवाला दे दें। और चूंकि मार्क्स ने धर्म से उधार लिये गये निरर्थक सादृश्यों को अपने समाजवादी सिद्धांत का आधार बनाया है, इसीलिये वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि भावी समाज में उस स्वामित्व का बोलबाला होगा, जो ऊर्ध्वपातित अंतर्विरोध की हेगेलीय उच्चतर एकता के अनुसार व्यक्तिगत भी होगा और सामाजिक भी।

लेकिन क्षण भर के लिये निषेध के निषेध को छोड़कर उस “स्वामित्व” पर विचार कीजिये, जो “एक ही समय में व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी”। श्री ड्यूहरिंग ने इसे एक “नीहारिकावत् संसार” कहा है, और पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी बात सचमुच सही है। किंतु दुर्भाग्य से इस नीहारिकावत् संसार में मार्क्स नहीं, बल्कि श्री ड्यूहरिंग खुद निवास करते हैं। जिस प्रकार श्री ड्यूहरिंग को “भ्रांतचित्त प्रलाप” की हेगेलीय पद्धति का प्रयोग करने में सिद्धहस्त होने के कारण यह पता लगाने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी कि ‘पूंजी’ के जो खंड अभी तक पूरे तैयार नहीं हुए हैं, उनमें कौनसी सामग्री होगी, उसी प्रकार यहां भी वह बिना किसी खास कष्ट के एक ऐसे स्वामित्व की उच्चतर एकता की बात मार्क्स के मुंह में रखकर, जिसके बारे में मार्क्स की रचना में एक शब्द भी नहीं है, उनको हेगेल के रास्ते पर ले आते हैं।

मार्क्स ने लिखा है : “यह निषेध का निषेध होता है। इससे उत्पादक के लिये निजी स्वामित्व की पुनर्स्थापना नहीं होती, किंतु उसे पूंजीवादी युग की उपलब्धियों पर आधारित, अर्थात् सहकारिता और भूमि तथा उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व पर आधारित व्यक्तिगत स्वामित्व मिल जाता है। व्यक्तिगत श्रम से उत्पन्न होनेवाले बिखरे हुए निजी स्वामित्व के पूंजीवादी निजी स्वामित्व में रूपांतरित हो जाने की क्रिया स्वभावतया पूंजीवादी निजी स्वामित्व के समाजीकृत स्वामित्व में रूपांतरित हो जाने की क्रिया की तुलना में कहीं अधिक लंबी, कठिन और हिंसात्मक होती है, क्योंकि पूंजीवादी निजी स्वामित्व तो व्यवहार में पहले से ही समाजीकृत उत्पादन पर आधारित होता है”।1 और बस। यहां अपहरणकर्त्ताओं के सम्पत्तिहरण से उत्पन्न होनेवाली परिस्थिति को व्यक्तिगत स्वामित्व की पुनर्स्थापना कहा गया है, लेकिन उसका आधार होता है भूमि का तथा स्वयं श्रम द्वारा उत्पादित उत्पादन के साधनों का सामूहिक स्वामित्व। जो कोई भी सीधी और साफ बात समझने की सामर्थ्य रखता है, उसको यह समझने में कोई कठिनाई न होगी कि इसका अर्थ यह है कि सामूहिक स्वामित्व भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधनों पर होगा और व्यक्तिगत स्वामित्व बाकी वस्तुओं पर, अर्थात् उपभोग की वस्तुओं पर होगा। और अपनी बात को इतनी सरल बना देने के लिये कि उसे छः वर्ष के बच्चे भी समझ सकें, मार्क्स ने पृष्ठ 56 पर एक ऐसे “स्वतंत्र व्यक्तियों के समुदाय” की कल्पना की है, “जिसके सदस्य सामूहिक उत्पादन साधनों से काम करते हैं और जिसमें तमाम अलग-अलग व्यक्तियों की श्रम शक्ति को सचेतन ढंग से समुदाय की संयुक्त श्रम शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।” अर्थात् उन्होंने एक समाजवादी आधार पर संगठित समाज की कल्पना की है। मार्क्स ने आगे लिखा है: “हमारे इस समाज की कुल पैदावार सामाजिक होती है। उसका एक हिस्सा उत्पादन के नये साधनों के रूप में काम में जाता है और इसलिये सामाजिक ही रहता है। लेकिन एक दूसरे हिस्से का समाज के सदस्य जीवन निर्वाह के साधनों के रूप में उपभोग करते हैं। चुनांचे इस हिस्से का उनके बीच बंटवारा आवश्यक होता है।”2 निश्चय ही इस बात को समझने में तो श्री ड्यूहरिंग को भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये, हालांकि उनके दिमाग पर हेगेल का भूत सवार है।

वह स्वामित्व, जो एक ही समय में सामाजिक भी है और व्यक्तिगत भी, यह भ्रांतिजनक प्रसंकर, यह बकवास, जो हेगेलीय द्वंद्ववाद की अनिवार्य उपज है, यह नीहारिकावत् संसार, यह गूढ़ द्वंद्ववादी पहेली, जिसे बूझने का काम मार्क्स ने अपने शिष्यों के लिये छोड़ दिया है- यह भी श्री ड्यूहरिंग की ही एक नयी स्वतंत्र सृष्टि एवं कल्पना है। मार्क्स चूंकि एक तथाकथित हेगेलवादी हैं, इसलिये उनके वास्ते आवश्यक है कि निषेध के निषेध के फलस्वरूप एक वास्तविक उच्चतर एकता उत्पन्न कर दें, और चूंकि मार्क्स यह काम श्री ड्यूहरिंग की रुचि के अनुसार नहीं करते, इसलिये श्री ड्यूहरिंग को फिर अपनी उच्चतर एवं महानतर शैली का सहारा लेना पड़ता है और पूर्ण सत्य के हित में मार्क्स के मुंह में खुद अपनी गढ़ी हुई बातें रख देनी पड़ती हैं। जो आदमी दूसरों की रचनाओं को सही उद्धृत करने में सर्वथा असमर्थ है, जो यहां तक कि अपवाद के रूप में भी कभी सही उद्धरण नहीं दे सकता, उसको निश्चय ही उन लोगों के “चीनी पाण्डित्य” पर अपना नैतिक क्रोध व्यक्त करने का अधिकार है, जो दूसरों की रचनाओं को सदा सही-सही उद्धृत करते हैं, लेकिन जो ऐसा करके भी इस बात को पूरी तरह नहीं छिपा पाते कि “जिन विभिन्न लेखकों को उन्होंने उद्धृत किया है, उनके विचारों की समग्रता को वे नहीं समझ पाये हैं”। सत्य वचन, श्री ड्यूहरिंग! अतिभव्य शैली का ऐतिहासिक वर्णन चिरंजीवी हो!

इस स्थल तक हमारी यह मान्यता रही है कि गलत उद्धरण देने की श्री ड्यूहरिंग की स्थायी आदत के पीछे भी सद्भवाना काम करती है, और वह या तो चीजों को समझने की पूर्ण असमर्थता से उत्पन्न होती है और या केवल स्मृति के बल पर उद्धरण देने की आदत से – जो अतिभव्य शैली के ऐतिहासिक वर्णन की एक खास विशेषता प्रतीत होती है, हालांकि आम तौर पर इस आदत को फूहड़पन समझा जाता है। लेकिन मालूम होता है कि अब हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गये हैं, जहां श्री ड्यूहरिंग के लेखन में भी परिमाण गुण में रूपांतरित हो जाता है। कारण कि पहले हमें इस बात की ओर ध्यान देना चाहिये कि मार्क्स द्वारा लिखित अंश बिल्कुल स्पष्ट है और इसके अतिरिक्त उसी पुस्तक में एक अन्य स्थान पर इसी विचार को और भी विशद रूप में व्यक्त किया गया है, जिससे गलतफहमी की जरा भी गुंजाइश नहीं रहती। दूसरे, जो स्वामित्व “एक ही समय में सामाजिक भी है और व्यक्तिगत भी” उसकी भयानकता का आविष्कार श्री ड्यूहरिंग ने न तो परिशिष्ट (Ergänzungsblätter) मे ‘पूंजी’ में की अपनी समीक्षा में किया था और न ही ‘आलोचनात्मक इतिहास’ के पहले संस्करण में। इसकी चर्चा इस पुस्तक के केवल दूसरे संस्करण में मिलती है। मतलब यह कि ‘पूंजी’ को तीसरी बार पढ़ने पर ही श्री ड्यूहरिंग यह आविष्कार कर पाये हैं। इसके अलावा ‘आलोचनात्मक इतिहास’ के दूसरे संस्करण में, समाजवादी भावना में पुनः लिखा गया था, श्री ड्यूहरिंग ने यह जरूरी समझा कि समाज के भावी संगठन के बारे में अधिक से अधिक निरर्थक बातें मार्क्स के मुंह में रख दी जायें, ताकि उनके मुकाबले में उस “आर्थिक कम्यून” को और भी शानदार ढंग से सामने लाया जा सके, “जिसकी आर्थिक तथा वैधिक रूपरेखा का मैंने अपने ‘पाठ्यक्रम’ में वर्णन किया है”। जब हम इन तमाम बातों पर विचार करते हैं, तब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये लगभग विवश हो जाते हैं कि श्री ड्यूहरिंग ने यहां पर जानबूझकर मार्क्स के विचार का “हितकारी ढंग से” – श्री ड्यूहरिंग के लिये हितकारी ढंग से – “विस्तार” कर दिया है।

लेकिन मार्क्स की रचना में निषेध के निषेध ने क्या भूमिका अदा की है? पचास पृष्ठ तक पूंजी के तथाकथित आदिम संचय की आर्थिक तथा ऐतिहासिक छानबीन करने के बाद मार्क्स ने पृष्ठ 791 और इसके अगले पृष्ठों पर अंतिम निष्कर्ष दिये हैं।3 पूंजीवादी युग के पहले कम से कम इंग्लैंड में लघु उद्योग पाया जाता था, जिसका आधार यह था कि उत्पादन के साधन मजदूर की निजी सम्पत्ति होते थे। वहां पूंजी का तथाकथित आदिम संचय इस तरह हुआ कि जो लोग स्वयं उत्पादन करते थे, उनकी सम्पत्ति का अपहरण कर लिया गया; अर्थात् उस निजी स्वामित्व का अंत हो गया, जो स्वयं अपने स्वामी के श्रम पर आधारित था। यह इसलिये मुमकिन हुआ कि ऊपर जिस लघु उद्योग का जिक्र किया गया है, वह उत्पादन और समाज की केवल सकुंचित और आदिम सीमाओं के साथ ही मेल खाता है, और एक खास अवस्था में पहुंचने पर वह खुद अपने विनाश के भौतिक अभिकर्त्ताओं को जन्म दे देता है। यह विनाश उत्पादन के बिखरे हुए तथा व्यक्तिगत साधनों का सामाजिक रूप से संकेंद्रित साधनों में रूपांतरित हो जाना – यह पूंजी का प्राक्-इतिहास है। जैसे ही श्रमिक, सर्वहाराओं में बदल जाते हैं और उनके श्रम के साधन पूंजी में रूपांतरित हो जाते हैं, जैसे ही उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है – वैसे ही श्रम का और अधिक समाजीकरण, भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधनों का पूंजी में और अधिक रूपांतरण, और इसलिये निजी सम्पत्ति के मालिकों का और अधिक सम्पत्तिहरण एक नया रूप धारण कर लेते हैं। “अब जिसका सम्पत्ति – अपहरण करना आवश्यक हो जाता है, वह खुद अपने लिये काम करनेवाला मजदूर नहीं है, बल्कि वह है बहुत से मजदूरों का शोषण करनेवाला पूंजीपति। यह सम्पत्ति अपहरण स्वयं पूंजीवादी उत्पादन के अंतर्भूत नियमों के अमल में आने के फलस्वरूप पूंजी के केंद्रीयकरण के द्वारा सम्पन्न होता है। एक पूंजीपति हमेशा बहुत-से पूंजीपतियों की हत्या करता है। इस केंद्रीयकरण के साथ-साथ, या यूं कहिये कि कुछ पूंजीपतियों द्वारा बहुत-से पूंजीपतियों के इस सम्पत्ति-अपहरण के साथ-साथ, अधिकाधिक बढ़ते हुए पैमाने पर श्रम क्रिया का सहकारी स्वरूप विकसित होता जाता है, प्राविधिक विकास के लिये सचेतन ढंग से विज्ञान का अधिकाधिक उपयोग किया जाता है, भूमि को उत्तरोत्तर अधिक सुनियोजित ढंग से जोता-बोया जाता है, श्रम के औजार ऐसे औजारों में बदलते जाते हैं, जिनका केवल सामूहिक ढंग से ही उपयोग किया जा सकता है, उत्पादन के साधनों का संयुक्त, समाजीकृत श्रम के साधनों के रूप में उपयोग करके हर प्रकार के उत्पादन के साधनों का मितव्ययिता के साथ इस्तेमाल किया जाता है। रूपांतरण की इस क्रिया से उत्पन्न होनेवाली समस्त सुविधाओं पर जो लोग जबर्दस्ती अपना एकाधिकार कायम कर लेते हैं, पूंजी के उन बड़े-बड़े स्वामियों की संख्या यदि एक ओर बराबर घटती जाती है, तो दूसरी ओर गरीबी, अत्याचार, गुलामी, पतन और शोषण में लगातार वृद्धि होती जाती है। लेकिन इसके साथ-साथ मजदूर वर्ग का विद्रोह भी अधिकाधिक तीव्र होता जाता है। यह वर्ग संख्या में बराबर बढ़ता जाता है और स्वयं पूंजीवादी उत्पादन क्रिया का यंत्र ही उसे अधिकाधिक अनुशासनबद्ध, एकजुट और संगठित करता जाता है। पूंजी का एकाधिकार उत्पादन की उस प्रणाली के लिये एक बंधन बन जाता है, जो इस एकाधिकार के साथ-साथ और उसके अंतर्गत जन्मी है और फूली-फली है। उत्पादन के साधनों का केंद्रीयकरण और श्रम का समाजीकरण अंत में एक ऐसे बिंदु पर पहुंच जाते हैं, जहां वे अपने पूंजीवादी खोल के भीतर नहीं रह सकते। खोल फाड़ दिया जाता है। पूंजीवादी निजी स्वामित्व की मौत की घंटी बज उठती है। सम्पत्ति-अपहरण करनेवालों की सम्पत्ति का अपहरण हो जाता है।”4

और अब मैं पाठक से पूछता हूं कि वे द्वंद्ववादी झालरें और भूल-भुलैयाएं और धारणात्मक बेल-बूटे कहां हैं; वे मिश्रित एवं मिथ्याकल्पित विचार कहां हैं, जिनके अनुसार सब कुछ अंत में एक ही चीज में परिणत हो जाता है; वे द्वंद्ववादी चमत्कार कहां हैं, जो मार्क्स ने अपने अनुयायियों के लाभार्थ किये हैं; वह रहस्यमयी द्वंद्ववादी बकवास और हेगेल के लोगोस सिद्धांत की समनुरूप वह भूलभुलैया कहां है, जिसके बिना श्री ड्यूहरिंग के मतानुसार मार्क्स अपने विवेचन को आकार देने में असमर्थ हैं? मार्क्स ने तो केवल इतिहास के आधार पर यह प्रमाणित किया है और यहां संक्षेप में यह बताया है कि जिस प्रकार पहले लघु उद्योग ने अपने विकास के द्वारा अनिवार्य रूप से खुद अपने विनाश की, अर्थात् छोटे मालिकों के सम्पत्तिहरण की परिस्थितियां तैयार कर दी थीं, उसी प्रकार अब उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली ने स्वयं उन भौतिक परिस्थितियों को तैयार कर दिया है, जिनके कारण उसका नष्ट हो जाना लाजिमी है। यह प्रक्रिया एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, और यदि उसके साथ-साथ वह एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया भी है, तो यह बात श्री ड्यूहरिंग को चाहे जितनी बुरी लगे, पर उसमें मार्क्स का कोई दोष नहीं है।

इस बिंदु पर पहुंचकर ही ऐतिहासिक तथा आर्थिक तथ्यों के आधार पर पूरा प्रमाण देने के बाद ही मार्क्स ने यह लिखा है: “हस्तगतकरण की पूंजीवादी प्रणाली, जो कि उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का फल होती है, पूंजीवादी निजी स्वामित्व को जन्म देती है। खुद मालिक के श्रम पर आधारित निजी स्वामित्व का इस प्रकार पहला निषेध होता है। परंतु पूंजीवादी उत्पादन प्रकृति के नियमों की निर्ममता के साथ खुद अपने निषेध को जन्म देता है। यह निषेध का निषेध होता है” इत्यादि, इत्यादि जैसा कि ऊपर उद्धृत किया जा चुका है )।5

अतएव इस प्रक्रिया को निषेध का निषेध कहकर मार्क्स यह प्रमाणित करना नहीं चाहते कि यह प्रक्रिया ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यक थी। बात इसकी उल्टी है। वह तो इतिहास के आधार पर यह प्रमाणित करते हैं कि वस्तुतः इस प्रकार की प्रक्रिया आंशिक रूप में सम्पन्न हो चुकी है, और आंशिक रूप में भविष्य में सम्पन्न होनेवाली है और यह प्रमाणित करने के बाद ही वह उसकी विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो एक निश्चित द्वंद्वात्मक नियम के अनुसार विकसित होती है। बस इतनी सी बात है। इसलिये, जब श्री ड्यूहरिंग यह घोषणा करते हैं कि यहां निषेध के निषेध को अतीत के गर्भ में से भविष्य को जनवाने के लिये दाई का काम करना पड़ता है, या जब वह यह फरमाते हैं कि मार्क्स निषेध के निषेध में श्रद्धा रखने के आधार पर लोगों को भूमि तथा पूंजी के सामूहिक स्वामित्व की आवश्यकता (यह खुद एक ठोस ड्यूहरिंग-मार्का विरोध है) का विश्वास दिलाना चाहते हैं, तब एक बार फिर श्री ड्यूहरिंग महज तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ही पेश कर रहे हैं।

श्री ड्यूहरिंग को द्वंद्ववाद के स्वरूप की तनिक भी समझ नहीं है, यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि वह उसे महज प्रमाण पैदा करने का अस्त्र समझते हैं। सीमित मस्तिष्कवाले मनुष्य सम्भवतया आकारपरक तर्क या प्रारम्भिक गणित को भी यही समझते हैं। परंतु आकारपरक तर्क भी मूलतया नये परिणामों पर पहुंचने की, ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ने की पद्धति है; और द्वंद्ववाद भी यही है, अंतर केवल यह है कि वह एक अधिक महत्वपूर्ण अर्थ में इस प्रकार की पद्धति है, इसके अतिरिक्त क्योंकि वह आकारपरक तर्क के संकुचित क्षितिज से आगे बढ़ जाती है, उसमें संसार की एक अधिक व्यापक समझ का बीज निहित है। गणित में भी हमें इसी प्रकार का सह-सम्बंध मिलता है। प्रारम्भिक गणित, अथवा अचर मात्राओं का गणित कम से कम अपने समग्र रूप में आकारपरक तर्क की सीमाओं के भीतर घूमता है। चर मात्राओं का गणित जिसका सबसे महत्वपूर्ण भाग अत्यणु कलन है, मूलतया इसके सिवा और कुछ नहीं है कि गणितीय सम्बंधों पर द्वंद्ववाद को लागू कर दिया जाता है। उसमें अन्वेषण के नये क्षेत्रों में इस पद्धति के बहुविध प्रयोग के मुकाबले में प्रमाण का सीधा-सादा प्रश्न पृष्ठभूमि में धकेल दिया जाता है। परंतु अवकलन गणित के प्रथम प्रमाणों से प्रारंभ करते हुए उच्चतर गणित के लगभग सभी प्रमाण विशुद्ध प्रारम्भिक गणित के दृष्टिकोण से वस्तुतः असत्य हैं। और जैसा कि आम तौर पर देखने में आता है, जब द्वंद्ववाद के क्षेत्र में प्राप्त परिणामों को आकारपरक तर्क के द्वारा प्रमाणित करने का प्रयत्न किया जाता है, तब ऐसा होना अनिवार्य होता है। जिस तरह लाइबनिट्ज और उनके शिष्यों का अपने काल के गणितज्ञों के सामने अत्यणु कलन के सिद्धांतों को प्रमाणित करने का प्रयत्न केवल वक्त जाया करना था, उसी तरह श्री ड्यूहरिंग जैसे एक घोर अधिभूतवादी के सामने किसी बात को केवल द्वंद्ववाद के द्वारा सिद्ध करने की कोशिश भी फिजूल माथा खपाना है। उस काल के गणितज्ञों को अवकलन का नाम सुनकर उसी तरह की जूड़ी चढ़ जाती थी, जिस तरह की जूड़ी श्री ड्यूहरिंग को निषेध के निषेध का नाम सुनकर चढ़ जाती है; और जैसा कि हम आगे देखेंगे, निषेध के निषेध में अवकलन भी एक खास भूमिका अदा करता है। अंत में उस काल के गणितज्ञ – या उनमें से वे लोग जो इस बीच मर नहीं गये थे – यदि न चाहते हुए भी चुप हो गये, तो इस कारण नहीं कि उनको अवकलन में विश्वास हो गया था, बल्कि इसलिये कि उससे परिणाम हमेशा सही निकलता था। जैसा कि श्री ड्यूहरिंग ने खुद हमें बताया है, उनकी आयु अभी केवल कोई चालीस की है, और यदि वह, जैसी कि हमारी आशा है, वृद्धत्व को प्राप्त हुए, तो सम्भवतः उनको भी उसी तरह का अनुभव होगा।

परंतु तब वह भयानक निषेध का निषेध क्या है, जिसने श्री ड्यूहरिंग के जीवन को इतना कटु बना दिया है, और जो उनकी दृष्टि में अक्षम्य पाप की उसी प्रकार की भूमिका अदा करता है, जिस प्रकार की भूमिका ईसाई धर्म में पवित्र आत्मा के विरुद्ध किया जानेवाला पाप अदा करता है? वास्तव में यह एक बहुत ही सरल सी प्रक्रिया है, जो हर स्थान पर और प्रति दिन होती रहती है। यदि उसपर पड़े हुए रहस्य के उस आवरण को हटा दिया जाये, जिसके द्वारा पुराने भाववादी दर्शन ने उसे ढांक रखा था और जिसको उसपर डाले रखना श्री ड्यूहरिंग जैसी योग्यता रखनेवाले असहाय अधिभूतवादियों के हित में है, तो कोई भी बच्चा उसे समझ सकता है। जौ का एक दाना लीजिये। इस तरह के अरबों दाने पीसकर उबालकर और उनकी बियर बनाकर इस्तेमाल किये जाते हैं। लेकिन यदि इस तरह के एक दाने को उस तरह की परिस्थितियां मिल जायें, जो उसके लिये सामान्य हैं, यदि वह उपयुक्त ढंग की मिट्टी पर जा पड़े, तो गरमी और नमी के असर से उसमें एक विशिष्ट प्रकार का परिवर्तन हो जायेगा। अर्थात् उसमें अंकुर निकल पायेगा। तब खुद उस दाने का अस्तित्व नहीं रहता, उसका निषेध हो जाता है, और उसके स्थान पर वह पौधा नजर आता है, जो इस दाने से पैदा हुआ है, और जो इस दाने का निषेध है। किंतु इस पौधे की सामान्य जीवन क्रिया कैसे चलती है? वह बढ़ता है, उसपर फूल पाते हैं, उसका निषेचन होता है, और अंत में एक बार फिर वह जौ के दानों को जन्म देता है और जैसे ही ये दाने पककर तैयार होते हैं, वैसे ही पौधे का धड़ सूखकर मर जाता है; अर्थात् पौधे की बारी आने पर उसका भी निषेध हो जाता है। निषेध के इस निषेध के फलस्वरूप एक बार फिर हमें वह जौ का दाना मिल जाता है, लेकिन इस बार एक दाना नहीं, बल्कि पहले के दसगुने, बीसगुने या तीसगुने दाने हमारे हाथ में होते हैं। दानों की जाति बहुत ही धीरे-धीरे बदलती है। इसलिये आजकल की जौ लगभग उसी तरह की है, जैसी सौ बरस पहले की जौ थी। लेकिन यदि हम कोई लचीला सजावटी पौधा लें, मिसाल के लिये यदि हम डेहलिया या और्किड का पौधा लें और उसके बीज तथा बीज से पैदा होनेवाले पौधे का माली की कला के अनुसार उपचार करें, तो निषेध के इस निषेध के फलस्वरूप हमें न केवल पहले से अधिक बीज मिल जाते हैं, बल्कि इन बीजों की किस्म भी पहले से बेहतर होती है, और उनसे अधिक सुंदर फूल तैयार होते हैं, और इस क्रिया को जब-जब दोहराया जाता है, तब-तब हर बार निषेध के प्रत्येक नये निषेध के फलस्वरूप पूर्णता तक पहुंचने की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है।

अधिकतर कीड़ों में भी यह प्रक्रिया उसी मार्ग का अनुसरण करती है, जिस मार्ग का वह जौ के दाने के सम्बंध में अनुसरण करती है। उदाहरण के लिये, तितलियां अंडे के निषेध के द्वारा पैदा होती हैं, कुछ खास ढंग के रूपांतरणों में से गुजरती है, और अंत में लैंगिक परिपक्वता प्राप्त होकर युग्मन करती हैं तथा फिर उनका निषेध हो जाता है। जैसे ही युग्मन क्रिया पूरी हो जाती है और मादा अनेक अंडे दे चुकती है, वैसे ही तितलियां मर जाती है। फिलहाल इस तथ्य से हमारा कोई सम्बंध नहीं है कि अन्य पौधों तथा जीव जंतुओं में इस प्रक्रिया का इतना सरल रूप नहीं होता, और मरने के पहले वे एक बार नहीं, बल्कि अनेक बार बीज, अंडे या संतान पैदा करती हैं। हमारा उद्देश्य तो यहां पर केवल यह प्रमाणित कर देना है कि जीव जगत के दोनों क्षेत्रों में निषेध का निषेध सचमुच होता है। इसके अलावा पूरा भूगर्भ विज्ञान निषेधित निषेधों का एक क्रम है, जिसमें बार-बार पुरानी शैल संरचनाओं का ध्वंस और नयी शैल संरचनाओं का निक्षेप होता रहता है। द्रव पिंड के ठंडा पड़ने पर पृथ्वी की जो मूल पपड़ी बनी थी, वह महासागरीय क्रियाओं, ऋतु क्रियाओं तथा वायुमण्डलीय रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप टूट-फूट जाती है, और इन टूटे हुए पिंडों का महासागर के तल पर स्तरण हो जाता है। महासागर के तल में होनेवाली स्थानीय उथल-पुथल से समुद्र की सतह के ऊपरवाले कुछ हिस्सों पर वर्षा का, अलग-अलग ऋतुओं के बदलते हुए ताप का और वायुमंडल की आक्सीजन तथा कार्बनिक एसिड का असर पड़ता है। उन पिघले हुए शैल पुंजों पर भी इन्हीं क्रियाओं का असर पड़ता है, जो पृथ्वी के गर्भ में से स्तरों को तोड़कर बाहर निकलते हैं और बाद में ठंडे पड़ जाते हैं। इस तरह दसियों लाख शताब्दियों तक नित नये स्तरों का निर्माण होता रहता है और फिर उनमें से भी अधिकांश नष्ट हो जाते हैं और हर बार नये स्तरों के निर्माण की सामग्री का काम करते हैं। परंतु इस पूरी प्रक्रिया का एक बहुत धनात्मक परिणाम हुआ है। वह यह कि इस तरह अत्यंत विविध प्रकार के रासायनिक तत्वों से मिलकर बनी और यांत्रिक ढंग से अपखंडित मिट्टी तैयार हुई है, जिसके कारण नाना प्रकार की वनस्पति का बहुत प्रचुरता के साथ पैदा होना सम्भव हो गया है।

गणित में भी यही हालत है। बीजगणित की किसी भी मात्रा को ले लीजिये। उदाहरण के लिये a को लीजिये। यदि उसका निषेध कर दिया जाये, तो हमारे हाथ में भा जायेगा – a (ऋण a)। यदि हम -a को -a से गुणा करके इस निषेध का भी निषेध कर दें, तो हमारे पास होगा +a2, अर्थात् हमारे पास फिर वही मूल धनात्मक मात्रा होगी, ‘लेकिन इस बार उसका घात पहले से ऊंचा होगा; वह मात्रा अब अपने द्वितीय घात पर पहुंच गयी होगी। यहां पर भी इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि a को खुद a से गुणा करके भी हम इसी a2 को प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उसका परिणाम भी वही a2 होता है। इसका कारण तो यह है कि a2 में निषेधित निषेध इतनी मजबूती से जमा हुआ है कि a की सदा दो वर्ग मूल होती हैं : +a और -a। और जैसे ही हम वर्ग समीकरणों पर पहुंचते हैं, वैसे ही यह तथ्य बहुत स्पष्ट महत्व प्राप्त कर लेता है कि निषेधित निषेध से वर्ग की ऋणात्मक मूल से छुटकारा पाना असंभव है।

अधिक ऊंचे विश्लेषण में, “अनिश्चित रूप से लघु परिमाणों के उन संकलनों” में, जो खुद श्री ड्यूहरिंग के कथनानुसार गणित की उच्चतम क्रियाएं हैं और जो साधारण भाषा में अवकलन गणित तथा अनुकूलन गणित कहलाते हैं, निषेध का निषेध और भी अधिक स्पष्ट रूप में सामने आता है। कलन के इन रूपों को किस तरह व्यवहार में लाया जाता है? उदाहरण के लिये मान लीजिये कि किसी खास प्रश्न में मेरे पास दो चर मात्राएं हैं: x और y, जिनमें से कोई भी उस समय तक बदलती नहीं, जब तक कि दूसरी मात्रा भी परिस्थिति विशेष के तथ्यों से निर्धारित अनुपात में बदल नहीं जाती। मैं x और y का अवकलन करता हूं, अर्थात् मैं x और y को इतना अधिक छोटा मानकर चलता हूं कि किसी भी वास्तविक मात्रा के मुकाबले में वह चाहे कितनी भी छोटी मात्रा क्यों न हो, ये दोनों मात्राएं गायब हो जाती हैं और उनके पारस्परिक सम्बंध के अतिरिक्त x और y में से कुछ नहीं बचता, और इस सम्बंध का भी मानो भौतिक आधार कुछ नहीं रहता, वह एक ऐसा परिमाणात्मक अनुपात होता है, जिसमें तनिक भी परिमाण नहीं होता। इसलिये dy/dx अर्थात् x औौर y के अवकलों का अनुपात 0/0 के बराबर होता है, लेकिन यह 0/0 y/x की अभिव्यक्ति होता है। यहां केवल प्रसंगवश मैं यह भी कह दूं कि जो गायब हो गयी हैं, ऐसी दो मात्राओं का गायब होने के क्षण का यह अनुपात एक विरोध है। लेकिन हमें उससे कोई परेशानी नहीं होती, जिस तरह लगभग दो सौ वर्ष से सम्पूर्ण गणित को उससे कोई परेशानी नहीं हुई है। और अब यह बताइये कि यहां मैंने x और y का निषेध करने के सिवा और क्या किया है, हालांकि यह सही है कि उनका निषेध इस ढंग से नहीं है कि उसके बाद हम इन मात्राओं की सारी चिंता से छूट जायें। यानी हमने उनका इस ढंग से निषेध नहीं किया है, जिस ढंग से अधिभूतवाद निषेध करता है, बल्कि हमने परिस्थिति विशेष के तथ्यों के समनुरूप ढंग से उनका निषेध किया है। इसलिये अब मेरे पास जो सूत्र या समीकरण मौजूद होते हैं, उनमें x और y के स्थान पर उनके निषेध dx और dy होते है। तब भी मैं इन सूत्रों का उपयोग करता रहता हूं, और dx तथा dy को वास्तविक, किंतु अपवाद स्वरूप नियमों के अधीन मात्राएं मानकर चलता हूं; और फिर एक खास बिंदु पर पहुंचकर मैं निषेध का निषेध कर देता हूं, अर्थात् मैं अवकल सूत्र का अनुकूलन कर देता हूं, और dx तथा dy के स्थान पर फिर वास्तविक मात्राएं x तथा y मेरे हाथ में आ जाती हैं लेकिन तब मैं फिर उसी स्थान पर नहीं पहुंच जाता, जिस स्थान से मैंने आरंभ किया था, बल्कि इस पद्धति का उपयोग करके मैं उस समस्या को हल कर देता हूं, जिसको यदि साधारण रेखागणित तथा साधारण बीजगणित हल करने की कोशिश करते तो शायद उनके जबड़े टूट जाते, पर समस्या टस से मस न होती।

इतिहास में भी यही चीज देखने को मिलती है। सभी सभ्य कौमों के यहां शुरू में भूमि पर सामूहिक स्वामित्व था जितनी कौमें एक खास आदिम अवस्था के बाहर निकल आयी है, उन सबके यहां यह सामूहिक स्वामित्व खेती के विकास के दौरान में उत्पादन के लिये एक बंधन बन जाता है। वह मिटा दिया जाता है; उसका निषेध हो जाता है, और कुछ मध्यवर्ती अवस्थाओं के एक अपेक्षाकृत लम्बे या छोटे क्रम के बीतने के बाद वह निजी स्वामित्व में रूपांतरित हो जाता है। किंतु, जब खुद भूमि के निजी स्वामित्व के फलस्वरूप खेती का विकास एक और भी ऊंची अवस्था में पहुंचता है, तो अब की बार उल्टी बात होती है और निजी स्वामित्व उत्पादन के लिये बंधन बन जाता है। आजकल छोटे तथा बड़े दोनों प्रकार का भू-स्वामित्व उत्पादन के लिये बंधन बना हुआ है। तब लाजिमी तौर पर यह मांग उठती है कि इस निजी स्वामित्व का भी निषेध होना चाहिये और एक बार फिर उसे सामूहिक स्वामित्व में रूपांतरित कर देना चाहिये। लेकिन इस मांग का अर्थ यह नहीं है कि आादिम ढंग के सामूहिक स्वामित्व की पुनः स्थापना कर दी जाये बल्कि इसका अर्थ यह है कि सामूहिक स्वामित्व के एक कहीं अधिक ऊंचे तथा विकसित रूप की स्थापना की जाये, जो उत्पादन के रास्ते में रोड़े का काम नहीं करेगा, बल्कि जो इसके विपरीत पहली बार उत्पादन को तमाम बंधनों से मुक्त कर देगा और उसे आधुनिक रासायनिक खोजों तथा यांत्रिक आविष्कारों का पूर्ण उपयोग करने के योग्य बना देगा।

या एक और मिसाल लीजिये: प्राचीन काल का दर्शनशास्त्र या आदिम ढंग का प्राकृतिक भौतिकवाद। उस रूप में उसमें मन और पदार्थ के सम्बंध को स्पष्ट करने की सामर्थ्य नहीं थी। लेकिन इस प्रश्न के बारे में एक साफ समझ प्राप्त करने के उद्देश्य से पहले एक ऐसी आत्मा की कल्पना की गयी, जिसे देह से अलग किया जा सकता है; फिर इस आत्मा की अनश्वरता की घोषणा की गयी; और अंत में एकेश्वरवाद की स्थापना हो गयी। अतः पुराने भौतिकवाद का भाववाद के द्वारा निषेध हो गया। लेकिन जब दर्शनशास्त्र का और विकास हुआ तो भाववाद भी निराधार बन गया, और उसका आधुनिक भाववाद के द्वारा निषेध हो गया। आधुनिक भौतिकवाद, निषेध का निषेध, केवल पुराने भाववाद को पुनर्स्थापना नहीं है, बल्कि वह पुराने भौतिकवाद की स्थायी एवं मूल स्थापनाओं में दर्शनशास्त्र तथा प्राकृतिक विज्ञान के दो हजार वर्ष के विकास के और साथ ही इन दो हजार वर्षों के इतिहास के सम्पूर्ण विचार तत्व को जोड़ देता है। अब वह दर्शनशास्त्र हरगिज नहीं रह जाता है, बल्कि अब तो वह एक विचारधारा हो जाती है, जिसे सब विज्ञानों से अलग खड़े हुए एक विज्ञानों के विज्ञान के रूप में अपनी मान्यता को स्थापित नहीं करना है, बल्कि जो सकारात्मक विज्ञानों के रूप में अपनी मान्यता को स्थापित करती है और उन्हीं में प्रयुक्त होती है। अतः यहां पर दर्शनशास्त्र का “ऊर्ध्वपातन” हो जाता है, अर्थात् “उसपर काबू पा लिया जाता है और साथ ही वह कायम भी रहता है”। जहां तक उसके रूप का सम्बंध है, उसपर काबू पा लिया जाता है और जहां तक उसके वास्तविक सार का सम्बंध है, वह कायम रहता है। इस प्रकार, जहां श्री ड्यूहरिंग को केवल “शाब्दिक बाजीगरी” दिखाई देती है,वहां अधिक नजदीक से अध्ययन करने पर वास्तविक सार दिखाई देने लगता है।

अंत में रूसो का समानता का वह सिद्धांत भी -जिसकी ड्यूहरिंग का सिद्धांत एक क्षीण तथा विकृत प्रतिध्वनि मात्र है – कभी प्रकाश में न आ पाता, यदि हेगेलीय निषेध का निषेध दाई के रूप में उसको जनवाने में मदद न देता, हालांकि यह खुद हेगेल के जन्म के बीस वर्ष से अधिक पहले की बात है।6 लज्जित होना तो दूर रहा, बल्कि जिस रूप में उस सिद्धांत का पहले पहल प्रतिपादन किया गया था उसपर तो उसकी द्वंद्ववादी उत्पत्ति की ऐसी गहरी छाप है कि लगता है, जैसे उसे इसकी घोषणा करने में गर्व अनुभव होता हो। प्राकृतिक अवस्था अथवा वन्य अवस्था में सब मनुष्य समान थे; और रूसो तो चूंकि भाषा को भी प्राकृतिक अवस्था की विकृति समझते है, इसलिये एक ही जाति की सीमाओं के भीतर जंतुओं के बीच जो समानता पायी जाती है, उसका यदि रूसो उन पशु मानवों तक विस्तार कर देते हैं, जिनको हैकेल ने हाल में एक परिकल्पना के तौर पर Alali, अथवा मूक वर्ग में रखा है, तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं है।7 लेकिन इन समान पशु मानवों में एक गुण था, जिससे अन्य जंतुओं के मुकाबले में उनकी स्थिति मजबूत हो जाती थी। वह था परिपक्वशीलता, अर्थात् और विकास करने की क्षमता। और यह गुण असमानता का कारण बन गया। इसलिये रूसो असमानता के उद्भव को प्रगति का सूचक समझते हैं। लेकिन इस प्रगति में एक अंतर्विरोध निहित था, वह उन्नति होने के साथ-साथ अवनति भी थी।

(आदिम अवस्था के आगे) “समस्त प्रगति का अर्थ बहुत-से ऐसे कदम उठाना था, जो ऊपर से देखने में मनुष्य की व्यक्तिगत सिद्धि की ओर उठाये गये कदम प्रतीत होते थे, पर वास्तव में वे कदम जाति के पतन की ओर उठाये गये थे। धातु का काम और खेती- ये दो कलाएं थीं, जिनके आविष्कार ने यह महान क्रांति पैदा की थी” (जिसके द्वारा आदिम वन जोती-बोयी भूमि में रूपान्तरित हो गया, हालांकि उसके साथ-साथ सम्पत्ति की स्थापना के जरिये गरीबी और दासता भी प्रारम्भ हो गयी)। “कवि के दृष्टिकोण से सोने और चांदी ने मनुष्यों को सभ्य बनाया है और मनुष्य जाति का सत्यानाश कर दिया है, लेकिन दार्शनिक के दृष्टिकोण से लोहे और अनाज ने यह काम किया है।”

सभ्यता की प्रगति का प्रत्येक नया कदम साथ ही असमानता की प्रगति का कदम होता है। सभ्यता के साथ-साथ जिस समाज का उद्भव हुआ है, वह जितनी संस्थाओं को कायम करता है, वे सब जिस उद्देश्य से कायम की जाती हैं, उसका उल्टा काम करने लगती हैं।

“यह एक निर्विवाद तथ्य तथा समस्त सार्वजनिक कानून का मूल सिद्धांत है कि लोग अपने मुखियाओं को इसलिये गद्दी पर बिठाते हैं कि वे उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करें, न कि इसलिये कि वे उनको गुलाम बना लें।”

लेकिन फिर भी ये मुखिया लाजिमी तौर पर लोगों के उत्पीड़क बन जाते हैं और उत्पीड़न को इस हद तक बढ़ा देते हैं कि असमानता अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर पुनः अपनी विरोधावस्था में आ जाती है और समानता का कारण बन जाती है। निरंकुश शासक के सामने सब समान होते हैं – सबकी स्थिति समान रूप से शून्य की स्थिति होती है।

“यहां पर असमानता अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है। यह वह अंतिम बिंदु है, जो वृत्त को सम्पूर्ण कर देता है और उस बिंदु से मिल जाता है, जिससे हमने आरंभ किया था। यहां एक बार फिर सारे व्यक्ति केवल इसलिये एक दूसरे के समान हो जाते हैं कि वे सब शून्य के समान हैं और प्रजा के लिये उसके मालिक की इच्छा के सिवा और कोई कानून नहीं है।” लेकिन निरंकुश शासक केवल उसी समय तक मालिक रहता है, जब तक कि वह बल प्रयोग कर सकता है, और इसलिये, “जब उसे निकाल बाहर किया जाता है”, तब वह “बल प्रयोग की शिकायत नहीं कर सकता …. उसकी शक्ति का आधार केवल बल था, और केवल बल ही उसका तख्ता उलट देता है; इसलिये हर चीज अपने स्वाभाविक क्रम के अनुसार होती है”।

और इस तरह असमानता एक बार फिर समानता में बदल जाती है, लेकिन वह आदिकालीन मूक मनुष्यों की पहलेवाली प्राकृतिक समानता में नहीं बदलती, बल्कि सामाजिक संविदा की उच्चतर समानता में रूपान्तरित हो जाती है। तब उत्पीड़कों का उत्पीड़न होता है। निषेध का निषेध हो जाता है।

इसलिये हमें रूसो में भी न केवल एक ऐसी चिंतनधारा मिलती है, जो हूबहू मार्क्स की ‘पूंजी’ में विकसित चिंतनधारा के समनुरूप है, बल्कि ब्यौरे की बातों में भी रूसो ठीक उन्हीं द्वंद्ववादी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, जिनका मार्क्स ने प्रयोग किया था : प्रक्रियायों में जो स्वभावतः विरोधात्मक हैं, विरोध पाया जाता है; एक चरम पद का उसके विपरीत पद में रूपान्तरण; और अंत में पूरी चीज के असली सार के रूप में निषेध का निषेध। और यद्यपि 1754 में रूसो “हेगेलीय पिशाच भाषा” का प्रयोग नहीं कर सकते थे, तब भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि हेगेल के जन्म के सोलह वर्ष पहले उन्हें उस हेगेलीय महामारी ने, विरोध के द्वंद्ववाद ने, लोगोस सिद्धांत ने, अध्यात्मवाद ने, और इसी प्रकार की अन्य चीजों ने बुरी तरह ग्रस लिया था। और जब श्री ड्यूहरिंग रूसो के समानता के सिद्धांत के अपने तुच्छ संस्करण का प्रतिपादन करते हुए अपने दो सर्वविजयी पुरुषों का प्रयोग आरम्भ करते हैं, तो वह खुद उस ढालू समतल पर खड़े होते हैं, जहां से फिसलकर उनका निषेध के निषेध की गोद में पहुंच जाना अवश्यम्भावी होता है। वह परिस्थिति, जिसमें दो पुरुषों की समानता अक्षुण्ण थी और जिसका एक आदर्श परिस्थिति के रूप में भी वर्णन किया गया है, उसको श्री ड्यूहरिंग ने अपनी रचना ‘दर्शनशास्त्र के पाठ्यक्रम’ के पृष्ठ 271 पर “आदिम अवस्था” का नाम दिया है। किंतु पृष्ठ 279 पर लिखा है कि इस आदिम अवस्था का “दस्यु व्यवस्था” द्वारा अनिवार्यतः अंत हो गया – यह हुआ पहला निषेध। लेकिन अब वास्तविकता के दर्शनशास्त्र के प्रताप से, हम इस हद तक प्रगति कर गये है कि हमने दस्यु व्यवस्था का अंत कर दिया है और उसके स्थान पर श्री ड्यूहरिंग द्वारा आविष्कृत, समानता पर आधारित, आर्थिक कम्यून स्थापित कर दी है- यह हुआ निषेध का निषेध, जिसके द्वारा एक उच्चतर स्तर की समानता स्थापित हो गयी है। कितना मनोहर दृश्य है, और यह दृश्य कितने हितकारी ढंग से हमारे दृष्टि क्षेत्र का विस्तार कर देता है : जरा देखिये तो, श्री ड्यूहरिंग का सुविख्यात व्यक्तित्व भी निषेध के निषेध का महापाप कर रहा है!

अस्तु यह निषेध का निषेध क्या है? यह प्रकृति, इतिहास तथा चिंतन के विकास का एक अत्यंत सामान्य – और इस कारण अत्यंत प्रभावशाली एवं – महत्वपूर्ण नियम है। यह एक ऐसा नियम है जो, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, जंतु जगत तथा वनस्पति जगत पर, भूगर्भ विज्ञान पर, गणित पर, इतिहास पर और दर्शनशास्त्र पर लागू है। यह एक ऐसा नियम है, जिसका यहां तक कि श्री ड्यूहरिंग को भी अपने तमाम जिद्दी विरोध के बावजूद अनजाने में और अपने विशिष्ट ढंग से अनुसरण करना पड़ा है। स्पष्ट है कि जब मैं उदाहरण के लिये यह कहता हूं कि अंकुरण से लेकर फलोत्पादक पौध की मृत्यु तक जौ का एक दाना जिस प्रक्रिया से गुजरता है, वह निषेध के निषेध की क्रिया होती है, तब मैं विकास की इस विशिष्ट प्रक्रिया के बारे में कुछ नहीं कहता। कारण कि अनुकूलन गणित भी निषेध के निषेध की क्रिया होती है; और यदि मैं ऐसा कहूंगा तो मैं यह निरर्थक-सी बात कह रहा हूंगा कि मेरे विचार से जौ के पौध की जीवन प्रक्रिया अनुकलन गणित है, या यूं कहें समाजवाद है। किंतु अधिभूतवादी लोग द्वंद्ववाद पर सदा ठीक यही आरोप लगाते आये हैं। जब मैं यह कहता हूं कि ये सारी प्रक्रियाएं निषेध के निषेध की क्रियाएं हैं, तब मैं इन सारी प्रक्रियाओं को गति के इस एक नियम के अंतर्गत ले आता हूं, और इसी कारण मैं हर अलग-अलग प्रक्रिया की विशिष्ट विशेषताओं की ओर ध्यान नहीं देता। किंतु द्वंद्ववाद, प्रकृति, मानव समाज तथा चिंतन की गति एवं विकास के सामान्य नियमों के विज्ञान के सिवा और कुछ नहीं है।

लेकिन इसपर कोई यह आपत्ति कर सकता है कि यहां पर जो निषेध हुआ है, वह वास्तविक निषेध नहीं है। जब मैं जौ के एक दाने को पीस डालता हूं, या किसी कीड़े को पैर तले मसल देता हूं, या धनात्मक मात्रा a को काट देता हूं, तब भी मैं जौ के दाने, कीड़े या धनात्मक मात्रा a का निषेध कर देता हूं; और इसी तरह की और भी मिसाले ली जा सकती हैं। या इस वाक्य को लीजिये कि गुलाब गुलाब है। जब मैं यह कहता हूं कि गुलाब गुलाब नहीं है, तब पहले वाक्य का निषेध कर देता हूं। और यदि उसके बाद में इस निषेध का निषेध कर देता हूं और कहता हूं कि आखिर गुलाब गुलाब ही है – तब मुझे क्या मिलता है?

सच पूछिये तो ये आपत्तियां ही द्वंद्ववाद के विरुद्ध अधिभूतवादियों की मुख्य युक्तियां हैं; वे इस चिंतन प्रणाली की संकुचित मनोवृत्ति के सर्वथा उपयुक्त हैं। द्वंद्ववाद में निषेध का अर्थ केवल इंकार कर देना, या यह घोषणा कर देना नहीं है कि अमुक वस्तु नहीं है; या किसी वस्तु को मनचाहे ढंग से नष्ट कर देना भी निषेध नहीं है। बहुत दिन पहले स्पिनोजा ने कहा था : Omnis determinatio est negatio – प्रत्येक सीमांकन अथवा निर्धारण साथ ही निषेध भी होता है।8 और इसके अलावा यहां जिस प्रकार के निषेध की चर्चा है, वह प्रथमतः प्रक्रिया विशेष के सामान्य स्वरूप से और द्वितीयतः उसके विशिष्ट स्वरूप से निर्धारित होता है। मुझे न केवल निषेध करना पड़ता है, बल्कि निषेध का ऊर्ध्वपातन भी करना पड़ता है। इसलिये मुझे पहले निषेध की ऐसी व्यवस्था करनी पड़ती है, जिससे दूसरे निषेध की भी सम्भावना बनी रहे, या जिससे दूसरा निषेध भी सम्पन्न हो जाये। यह कैसे होता है? वह प्रत्येक स्थिति के विशिष्ट स्वरूप पर निर्भर करता है। यदि मैं जौ के दाने को पीस डालता हूं या कीड़े को मसल डालता हूं, तो मैं क्रिया के पहले भाग को तो पूरा कर देता हूं, पर उसके दूसरे भाग को असम्भव बना देता हूं। इसलिये प्रत्येक अलग-अलग वस्तु का इस प्रकार निषेध करने का, जिससे उसका और विकास हो सके, एक खास ढंग होता है; और हर प्रकार की अवधारणा या विचार के लिये भी यही बात सच है। अत्यणु कलन में एक ऐसे निषेध का प्रयोग किया जाता है, जो उस निषेध से भिन्न होता है, जिसका ऋणात्मक मूलों से धनात्मक धातुओं का निर्माण करने में उपयोग किया जाता है। अन्य तमाम कलाओं की तरह इस कला को भी सीखना पड़ता है। यदि मुझे केवल इतना ही ज्ञान हो कि जौ का पौधा और अत्यणु कलन इन दोनों पर निषेध का निषेध लागू होता है, तो यह ज्ञान सफलतापूर्वक जो पैदा करने अथवा अवकलन और अनुकूलन करने में मेरी मदद नहीं करेगा। यह ठीक उसी तरह की बात है, जैसे केवल डोरियों के प्रायामों के द्वारा ध्वनि के निर्धारण के नियमों का ज्ञान होने पर में वायोलिन नहीं बजा पाऊंगा।

लेकिन यह बात स्पष्ट है कि निषेध के जिस निषेध में a को बारी-बारी से लिखने और काट देने की खिलवाड़ की जाती है या जिसमें एक बार यह कहा जाता है कि गुलाब गुलाब है और दूसरी बार यह कहा जाता है कि गुलाब गुलाब नहीं है, उसका इसके सिवा और कोई परिणाम नहीं होता कि जो व्यक्ति इस क्लान्तिकर कार्यविधि का प्रयोग करता है, उसकी मूर्खता स्पष्ट हो जाती है। परंतु फिर भी अधिभूतवादी हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि यदि हम कभी निषेध का निषेध करना चाहें, तो उसका यही एक सही तरीका है।

इसलिये जब श्री ड्यूहरिंग यह फरमाते हैं कि निषेध का निषेध हेगेल द्वारा आविष्कृत एक मूर्खतापूर्ण उपमा है, जो धर्म के क्षेत्र से उधार ली गयी है और जो मनुष्य के नैतिक पतन तथा उसके प्रायश्चित की कथा पर आधारित है, तब एक बार फिर खुद वही हमें रहस्यमयी बातों की भूलभुलैया में डाल देते हैं, और कोई नहीं। जिस प्रकार “गद्य” शब्द का आविष्कार होने के बहुत पहले से लोग गद्य में बोलते जा रहे थे, उसी प्रकार द्वंद्ववाद क्या है, इसका मनुष्यों को ज्ञान होने के बहुत पहले से वे द्वंद्ववादी ढंग से सोचते आ रहे थे। निषेध के निषेध का नियम प्रकृति तथा इतिहास में और जब तक उसका ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हमारे दिमागों में भी अचेतन ढंग से अमल में आता है। हेगेल ने केवल उसको पहली बार स्पष्ट रूप में सूत्रबद्ध किया था और यदि श्री ड्यूहरिंग खुद उसका चुपचाप प्रयोग करना चाहते हैं और वह केवल इस नाम को सहन नहीं कर सकते तो उनको चाहिये कि कोई बेहतर नाम ढूंढ निकालें। किंतु यदि उनका उद्देश्य इस प्रक्रिया को ही चिंतन के क्षेत्र से निकाल बाहर करना है, तो हमें उनसे कहना पड़ेगा कि कृपा करके पहले प्रकृति और इतिहास से इस प्रक्रिया का निष्कासन कीजिये और गणित की किसी ऐसी प्रणाली का आविष्कार करके दिखाइये, जिसमें -a x -a = +a2 न होता हो और जिसमें अवकलन तथा अनुकलन पर कठोर दंड की धमकी के साथ प्रतिबंध लगा दिया गया हो।

नोट –

1 ‘पूंजी’, हिंदी संस्करण, मास्को, 1965, खंड 1, पृष्ठ 855-856 – सं०

2 वही, पृष्ठ 93। शब्दों पर जोर एंगेल्स का है। -सं०

3 ‘पूंजी’, हिंदी संस्करण, मास्को, 1965, खंड 1, पृष्ठ 853-856 – सं०

4 ‘पूंजी’, हिंदी संस्करण, मास्को, 1965, खंड 1, पृष्ठ 855 – सं०

5 वही, पृष्ठ 855 – सं०

6 यहां उल्लेख रूसो की रचना ‘लोगों में असमानता की उत्पत्ति तथा उसके आधार के विषय में एक प्रवचन’ का है (देखिये टिप्पणी 21), जो 1754 में लिखी गयी थी। बाद के पृष्ठों पर एंगेल्स ने इस रचना के दूसरे भाग, 1755 के संस्करण, पृष्ठ 116, 118, 146, 175-176 और 176-177 से उद्धरण दिये हैं।

7 E. Haeckel, Natürliche Schöpfungsgeschichte, चौथा संस्करण, बर्लिन, 1873, पृष्ठ 590-591 । हैकेल के वर्गीकरण के अनुसार Alali एक ऐसी अवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो मनुष्य के ठीक पहले की अवस्था थी; वे “मूक आदिकालीन आदमी” अथवा अधिक सम्यक् रूप से कहें, तो वानर मानव (pithecanthropi) हैं। हैकेल की यह परिकल्पना कि मानवाभ वानरों और समकालीन मनुष्यों के बीच एक संक्रमणकालीन रूप पाया जाता है, 1891 में साबित हो गयी, जब डच मानव विज्ञानी यूजीन दुब्बा को जावा द्वीप पर आदिकालीन मानव के अश्मीभूत अवशेष मिले, जिसे pithecanthropus का नाम दिया गया।