फैज अहमद ‘फैज’

November 15, 2022 0 By Yatharth

इंकलाबी शायर की 38वीं मृत्यु वार्षिकी पर उनकी नज्म

मुलाकात

ये रात उस दर्द का शजर है

जो मुझ से तुझ से अजीम-तर है

अजीम-तर है कि इस की शाखों

में लाख मिशअल-ब-कफ सितारों

के कारवां घर के खो गए हैं

हजार महताब इस के साए

में अपना सब नूर रो गए हैं

ये रात उस दर्द का शजर है

जो मुझ से तुझ से अजीम-तर है

मगर इसी रात के शजर से

ये चंद लम्हों के जर्द पत्ते

गिरे हैं और तेरे गेसुओं में

उलझ के गुलनार हो गए हैं

इसी की शबनम से खामुशी के

ये चंद कतरे तिरी जबीं पर

बरस के हीरे पिरो गए हैं

बहुत सियह है ये रात लेकिन

इसी सियाही में रूनुमा है

वो नहर-ए-खूं जो मिरी सदा है

इसी के साए में नूर गर है

वो मौज-ए-जर जो तिरी नजर है

वो गम जो इस वक्त तेरी बांहों

के गुलसितां में सुलग रहा है

वो गम जो इस रात का समर है

कुछ और तप जाए अपनी आहों

की आंच में तो यही शरर है

हर इक सियह शाख की कमां से

जिगर में टूटे हैं तीर जितने

जिगर से नोचे हैं और हर इक

का हम ने तेशा बना लिया है

अलम-नसीबों जिगर-फिगारों

की सुब्ह अफ्लाक पर नहीं है

जहां पे हम तुम खड़े हैं दोनों

सहर का रौशन उफुक यहीं है

यहीं पे गम के शरार खिल कर

शफक का गुलजार बन गए हैं

यहीं पे कातिल दुखों के तेशे

कतार अंदर कतार किरनों

के आतिशीं हार बन गए हैं

ये गम जो इस रात ने दिया है

ये गम सहर का यकीं बना है

यकीं जो गम से करीम-तर है

सहर जो शब से अजीम-तर है