एक हौव्वा जो विश्व पूंजीवाद को डरा रहा है

November 15, 2022 0 By Yatharth

आधी सदी के अंधकार को चीरती मजदूर आंदोलनों की नई लहर

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन

एम असीम

पिछले एक साल से दुनिया के विभिन्न कोनों से मजदूर आंदोलनों के नए उभार की खबरें एक के बाद एक आ रही हैं। इनमें औद्योगिक विवादों/हड़तालों की बढ़ती तादाद, अब तक ट्रेड यूनियन विहीन रहे उद्योगों में नई यूनियनों का गठन ही नहीं, अपने विशिष्ट औद्योगिक मुद्दों के साथ ही आम राजनीतिक सवालों पर मजदूर आंदोलन तक की बढ़ती घटनाएं शामिल हैं। इसमें भी उल्लेखनीय बात है एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमरीका, आदि के कम विकसित देशों में ही नहीं, अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, आदि विकसित पूंजीवादी देशों में भी न सिर्फ मजदूर आंदोलनों का बढ़ना, बल्कि सुधारवादी-समझौतावादी यूनियन नेतृत्व पर नीचे से मजदूर वर्ग की कतारों के बढ़ते दबाव के कारण उनमें जुझारू स्वरों का भी उभरना।

ब्रिटेन, अमरीका, जर्मनी, कनाडा, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, आदि सभी जगह मजदूर वर्ग अपनी स्थित से असंतुष्ट है। कई दशकों के रिकॉर्ड तोड़ती महंगाई उनकी जीवन स्थिति को बदतर बना रही है। अमरीका, ब्रिटेन व फ्रांस के मजदूर उभार की चर्चा हम नीचे कुछ विस्तार से करेंगे।

कनाडाई मजदूर अपनी मजदूरी दर को जीवन की लागत (अर्थात महंगाई) से जोड़ने की मांग कर रहे हैं। लेकिन जवाब में वहां ओंटारिओ राज्य की सरकार 7% महंगाई के मुकाबले शिक्षा कर्मियों को मात्र 2% वेतन वृद्धि के साथ ही सिक लीव वेतन में कटौती का भी प्रस्ताव लाई। कर्मियों की हड़ताल के नोटिस के जवाब में सरकार हड़ताल के संवैधानिक अधिकार को रद्द करने का कानून ले आई है।

दक्षिण कोरिया में आधिकारिक यूनियन से स्वतंत्र राष्ट्रीय यूनियन KCTU सख्त दमन व उसके नेता को कोविड दौर की छंटनी के खिलाफ पिछले साल ही आम हड़ताल कर चुकी है। इसके लिए उसके नेता यांग क्यूंग सू को गिरफ्तार कर जेल की सजा सुनाई जा चुकी है।

म्यांमार में पिछले वर्ष से ही मजदूर यूनियनें फौजी तख्तापलट के विरोध में न सिर्फ संघर्षरत हैं बल्कि इस प्रतिरोध की मुख्य ताकत बनी हुई हैं। इस विरोध पर हुए दमन चक्र में बहुत से मजदूर कैद में हैं और गोलीबारी में बहुत से मजदूरों की जान गई है।

श्रीलंका में चार दशक पहले फौजी जुल्म द्वारा कुचले जाने के बाद से मजदूर आंदोलन बिखराव का शिकार बना था। मगर हालिया आर्थिक संकट के दौरान अगस्त में दो बार ट्रेड यूनियनों ने संयुक्त रूप से आम हड़ताल की है। इन हड़तालों में बागान व बंदरगाह मजदूरों से लेकर शिक्षक संघ तक शामिल हुए।

इरान में हिजाब से आजादी के स्त्रियों के आंदोलन में वहां का मजदूर वर्ग मजबूती से साथ खड़ा है और अबादान के कांट्रैक्ट ऑइल वर्कर्स से लेकर स्कूल कॉलेज शिक्षक तक हड़ताल कर चुके हैं।

यूरोप में बढ़ती महंगाई के खिलाफ पश्चिम से पूर्व तक फ्रांस, इटली, जर्मनी, बुल्गारिया, चेक रिपब्लिक, आदि देशों में बड़े विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। मंगोलिया व कजाखस्तान में इस साल पहले ही विशाल विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं। कंबोडिया, थाइलैंड, होंगकोंग, दक्षिण कोरिया सभी में इस साल बड़ी हड़तालें हुई हैं। उधर चीन में सख्त लॉकडाउन के बीच कारखानों में उन्हें एक तरह से कैद कर काम कराने के विरोध में मजदूर जगह-जगह स्वतःस्फूर्त विद्रोह में काम से वॉक आउट कर रहे हैं (देखें अलग बॉक्स)।

सिर्फ तीन दशक पहले ही पूंजीपति शासक वर्ग खास तौर पर साम्राज्यवादी देशों के पूंजीपति ‘इतिहास का अंत’ अर्थात पूंजीवाद की अंतिम विजय के दंभ में चूर थे। उन्हें गुमान था कि मजदूर वर्ग प्रतिरोध को हमेशा के लिए कुचल दिया गया है। पर अब उन्हें न सिर्फ मजदूर वर्ग के इस नवीन उभार का नोटिस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है बल्कि इस मजबूरी में उन्होंने अभिव्यक्ति, असहमति व विरोध की आजादी के दावे वाले अपने तथाकथित ‘उदार लोकतंत्र’ का बाहरी दिखावटी भरमाने वाला पर्दा उठा दिया है। पूंजीवादी उत्पीड़न की बदसूरत सच्चाई सबके सामने जाहिर है और मजदूर वर्ग पर दमनचक्र तेज करने के नए-नए उपाय भी अपनाये जा रहे हैं। यह मजदूर वर्ग के सामने इस बात को भी तेजी से साफ कर रहा है कि पूंजीपतियों के ‘उच्च विकसित उदार जनतंत्र’ में भी राज्य कोई वर्ग निरपेक्ष न्याय व कानून का शासन चलाने वाली संस्था नहीं, पूंजीपति वर्ग के शोषण चक्र को चलाने वाली दमनकारी अधिनायकवादी संस्था ही है। अर्थात यह ‘उदार लोकतंत्र’ भी उजरती मजदूरों पर पूंजीपति वर्ग का अधिनायकत्व या तानाशाही ही है जो पूंजीपतियों के मुनाफे बढ़ाने के हित में काम करती है। इसके उलट समाजवाद में सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व होता है जो सामूहिक सामाजिक आवश्यकताओं के हित में काम करता है। इसीलिए पूंजीपतियों का मीडिया पहले का महिमामंडन करता है और दूसरे के प्रति नफरती दुष्प्रचार चलाता है। 

फासिस्ट विरोधी विश्वयुद्ध के महाविनाश पश्चात पुनर्निर्माण की विराट जरूरत व दुनिया भर में पूंजीवादी बाजार के विस्तार के तात्कालिक कारणों ने एक तीव्र वृद्धि वाले लघु ‘पूंजीवादी स्वर्णिम काल’ को जन्म दिया था। निश्चय ही ऐसे संक्षिप्त तीव्र पूंजीवादी वृद्धि कालों में कुछ वक्त के लिए रोजगार व मजदूरी दर में इजाफा होता है। उस दौर में भी हुआ। परंतु यह सीमित अवधि के लिए ही होता है। किंतु उस दौरान विश्व मजदूर आंदोलन में हावी हुए संशोधनवादी रुझान के चलते यह भ्रम सवार हो गया कि यह पूंजीवादी संकटों की समाप्ति है। संशोधनवादी नेतृत्व मुताबिक नए दौर में यह नया पूंजीवाद इसी तरह तेज वृद्धि करता रहेगा, मजदूरों पर शोषण का चक्र ऐसे ही ढीला होता जाएगा व उनका जीवन स्तर निरंतर उठता रहेगा। तब यह विचार जोरों से फैलाया गया कि एक जुझारू क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन की आवश्यकता क्या है? इस पूंजीवादी जनतंत्र में ही जनवादी पद्धति से मजदूर अपने अधिकारों को विस्तृत कराते चले जाएंगे और सर्वहारा अधिनायकत्व वाले समाजवाद के बजाय चुनावी राजनीति के माध्यम से ही एक ‘जनतांत्रिक समाजवाद’ में संक्रमण में सफल होंगे। इस भ्रमपूर्ण विचार के प्रभाव में कम्युनिस्ट व ट्रेड यूनियन आंदोलन की वर्ग चेतना भोथरी हो गई और वह वैचारिक तौर पर निहत्था हो गया। इससे मजदूर आंदोलन अपना जुझारूपन खो समय-समय पर कुछ वेतन वृद्धि व बोनस आदि की मांगों तक सीमित रह गया।

पर 1960 के दशक का अंत आते-आते ही विश्व पूंजीवाद फिर से संकट का सामना करने लगा। यह संकट 1973 में अपने शिखर पर जा पहुंचा। तब 1970-80 के दशक में पूंजीपति शासक वर्ग ने नवउदारवाद के रूप में वैचारिक रूप से निहत्थे किए जा चुके मजदूर वर्ग पर अपना दमनकारी प्रत्याक्रमण आरंभ किया। इसका मकसद मजदूर वर्ग की शक्ति को पूरी तरह कुचल देना था। अपने ही संशोधनवादी नेतृत्व द्वारा दिग्भ्रमित कर अर्थवाद-सुधारवाद की अंधी गली में धकेल दिया गया मजदूर आंदोलन इस हमले के मुकाबले दिग्भ्रमित व लाचार सिद्ध हुआ। नतीजे में तत्पश्चात उसने एक लंबा पराभव व उतार का काल देखा। इस दौर में मजदूर आंदोलन निरंतर बिखराव का शिकार हुआ, ट्रेड यूनियनें अधिकाधिक संकीर्ण दायरों में सीमित होती गईं और अपनी वर्गीय जनवादी मांगों से निरंतर पीछे हटते हुए आंदोलन मात्र कुछ वेतन वृद्धि या बोनस जैसी सौदेबाजी तक महदूद होने की कोशिश करता रहा। पर यह उतने तक भी अपना अस्तित्व बचाने में नाकाम हुआ और बहुत से उद्योग यूनियन विहीन हो गए या उनमें यूनियनों की उपस्थिति नाम मात्र की ही रह गई। हालांकि इनके बीच ही कुछ दिखावटी जुझारूपन के प्रदर्शन हेतु साल में एक-दो मौकों पर रस्मी विरोध या एक-दो दिनी हड़तालें भी की जाती रहीं। पर इनका मकसद सदस्यता शुल्क वसूली के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराना ही रह गया। बहुत से देशों, खास तौर पर विकसित पूंजीवादी देशों, में तो इतना भी किया जाना लगभग रुक गया क्योंकि यूनियनें प्रबंधन का ही एक और अंग बन गईं।

नतीजा यह हुआ है कि पिछले लगभग चार दशकों में प्रभावी मजदूरी दर (महंगाई के साथ जोड़ देखने पर) स्थिर है या गिरी है। उदाहरण के तौर पर जापान में मजदूरी की मौजूदा दर 1989 से भी कम होकर तब की 95% मात्र ही रह गई है। ऐसा ही अधिकांश देशों में हुआ है। उधर पूंजीपतियों के मुनाफे आसमान छू रहे हैं और उन्होंने बेहिसाब पूंजी संचय किया है। अधिकांश मजदूर रोजगार सुरक्षा से वंचित हो गए हैं और अब ठेके, कैजुअल, ऐडहॉक, अस्थाई, ट्रेनी, अप्रेंटिस, आदि के तौर पर नियमित मजदूरी से भी बहुत कम पर अपनी श्रमशक्ति बेचने को विवश किए जा रहे हैं। अधिकांश नए मजदूर तो गिग वर्कर्स के तौर पर अत्यंत गहन शोषण की स्थितियों में काम कर रहे हैं। सिर्फ फैक्टरी, खेत, डिलीवरी आदि ब्लू कॉलर रोजगारों में ही नहीं, स्कूल-कॉलेज शिक्षक, वकील, पत्रकार, आईटी, बैंक-बीमा जैसे इज्जतदार समझे जाने वाले ‘बौद्धिक’ श्रमिकों की भी यही हालत है और पूर्णतः असंगठित होने के कारण उनका भी बुरी तरह शोषण किया जाता है। अधिकांश काम घंटों या पीस के आधार पर है। अतः रोजाना की मजदूरी दर का भी यहां कोई अर्थ नहीं रह जाता क्योंकि दिन में कुछ ही वक्त व सप्ताह-महीने में कितने दिन काम मिलेगा यह पता नहीं होता। अतः लेबर चौक के दिहाड़ी मजदूरों और इन ‘बौद्धिक मजदूरों’ के बीच शोषण के तरीकों में अंतर बहुत कम हो गया है।

इस स्थिति में पहले संगठित रोजगार के साथ उपलब्ध अन्य सुविधाएं जैसे पेंशन, बोनस, पेड लीव, स्वास्थ्य सुविधा, आवास, आदि समाप्त हो जाने से प्रभावी मजदूरी दर बहुत अधिक गिर गई है। काम के घंटे 8 से बढ़कर 10-12 या उससे भी ज्यादा हो गए हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत बढ़ते अप्रत्यक्ष करों के रूप में इस गिरी मजदूरी का भी एक हिस्सा सरकार जबरदस्ती मजदूरों की जेब से निकाल ले रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, यातायात, सफाई, खेल-कूद, मनोरंजन, आदि की थोड़ी-बहुत सार्वजनिक सुविधाओं के निजी, व्यवसायिक व मुनाफा आधारित हो जाने से जिंदा रहने का खर्च पहले से कई गुणा बढ़ गया है। थोड़े बेहतर मजदूरी पाने वाले मजदूरों के पास विपदकाल के लिए जो कुछ बचत होती भी थी, वह भी 2007-08 के वित्तीय संकट में डूब गई है या सरकारों ने जब्त कर वित्तीय पूंजीपतियों के हाथों सौंप दी है। बैंकों में जमा राशि की ब्याज दर महंगाई दर से भी कम व लगभग शून्य हो गई है। मुख्तसर में कहें तो दुनिया के हर कोने में उजरती मजदूरों की जीवन स्थितियां बदतर होती गईं हैं।

ऐसे में करेला और नीम चढ़ा के तौर पर आई कोविड महामारी और पुलिसिया डंडों-बूटों के जोर पर कर्फ्यू से भी सख्त लॉक डाउन, बंद काम-धंधे, ऊंची बेरोजगारी, भुखमरी, अस्पतालों में खून चूसने की हद तक की लूट के बावजूद भी डॉक्टर-नर्स, बिस्तर, दवा, ऑक्सीजन, आदि से महरूम मरीजों की पूंजीपतियों के मुनाफों की बलिवेदी पर हुई मौतें। इस महामारी के एक ही झटके में पूंजीवादी व्यवस्था ने खुद को पूरी तरह दिवालिया व मानवता के लिए विध्वंसकारी प्रदर्शित कर खुद को कालातीत सिद्ध कर दिया। दुनिया भर के सामने स्पष्ट तौर पर आया कि पूंजीवाद तो कोविड से भी कई गुना अधिक सर्वनाशी है।

कोविड के बाद कॉर्पोरेट इजारेदार पूंजी की सुपर प्रॉफिट की हवस ने चार दशकों की सबसे ऊंची महंगाई व हर तरह की जरूरी चीजों का अभाव पैदा किया। उधर यूक्रेन में शुरू कर दुनिया में फैलते साम्राज्यवादी गिरोहों की लूट-खसोट की विध्वंसकारी जंग ने पूरी मानवता के सामने ही सम्पूर्ण बर्बादी का संकट खड़ा कर दिया है। उजरती मजदूरों व मेहनतकश जनता का जीवन तो असह्य ही हो चुका है। भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार जैसे देश ही नहीं अमरीका, चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे ‘उन्नत’ समझे जाने वाले देशों में श्रमिक वर्ग की अत्यंत दुर्दशा है। काम के अमानवीय हद तक असह्य बोझ के बाद भी जिंदा रहने लायक न्यूनतम वेतन न मिलने की वजह से बड़े पैमाने पर कामगार काम छोड़ने जैसा फैसला तक कर रहे हैं – दिन-रात काम कर जिंदगी नहीं चलती, तो काम करना ही क्यों! स्त्रियां तो बड़े पैमाने पर रोजगार के बाजार से ही बाहर धकेली जा रही हैं जिससे उन्हें कुछ हद हासिल हुई मुक्ति पर भी नये सिरे से जोखिम खड़ा हो गया है। नतीजा एक ओर ऊंची बेरोजगारी, दूसरी ओर वक्त पर काम के लिए जरूरी श्रमिक अनुपलब्ध – पूंजीवादी व्यवस्था की अराजकता (anarchy of capitalist production) का यही परिणाम है जिससे उसकी समूची ग्लोबल सप्लाई चेन तक बाधित हो रही है।   

पूंजीवाद के लगभग अंतहीन व असाध्य बन चुके आर्थिक संकट की ठीक यही परिस्थिति है जिसमें पिछले वर्ष से मजदूर आंदोलन का यह नूतन उभार पिछली आधी सदी के अंधकार को चीर मानवता के लिए आशा की एक नई किरण को जन्म दे रहा है।

कुछ लोग इसे आशा की नई किरण कहने के लिए हम पर ‘अति-आशावादी’ होने के इल्जाम में हंस सकते हैं और वे इन आंदोलनों के स्वतःस्फूर्त चरित्र व इनकी वैचारिक, राजनीतिक व सांगठनिक सीमाओं-कमजोरियों की ओर इंगित कर सकते हैं। निश्चित ही इनमें ऐसी सीमाएं व कमजोरियां हैं भी, और हम भी उनकी चर्चा आगे करेंगे। पर यह कहना भी जरूरी है कि मजदूर वर्ग का स्वतःस्फूर्त उभार अपनी सीमाओं के बावजूद भी हरेक क्रांतिकारी बदलाव की बुनियादी जमीन है। स्वतःस्फूर्त विद्रोह की इस जमीन के बिना सिर्फ किसी क्रांतिकारी पार्टी के कार्यक्रम के आधार पर क्रांतिकारी परिवर्तन मुमकिन नहीं। बल्कि यह स्वतःस्फूर्त उभार ही उस ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक आवश्यकता की बुनियाद है जिसका उत्तर इतिहास क्रांतिकारी कार्यक्रम व मजदूर वर्ग के अगुआ दस्ते के रूप में देता आया है।

अगर हम अमरीका का उदाहरण लें तो कई यूनियन विहीन कंपनियों में सफल/असफल प्रयासों के बाद अल्फाबेट (गूगल), एमेजॉन, स्टारबक्स, चिपोटले, होम डेपो, गिको, ट्रेडर जोस जैसी जगहों पर यूनियन गठन की खबरें आईं जिसने मजदूर वर्ग में एक नए उत्साह का संचार किया। इसी के साथ रिटेल स्टोर्स, कारखानों, स्कूलों, यातायात कंपनियों से हड़तालों या हड़तालों की कोशिशों की खबरें आने लगीं। अक्टूबर 2021 को तो हड़ताल महीना ही कहा गया और तब से पिछला पूरा साल ही लंबे समय के बाद सर्वाधिक संख्या में श्रमिकों की हड़तालों में भागीदारी वाला साल बन गया है। पर जिस एक हड़ताल की योजना ने ही अमरीकी शासक वर्ग को हिला दिया वह थी रेलरोड कर्मियों द्वारा हड़ताल का फैसला।      

यह रेलरोड हड़ताल 16 सितंबर से होनी थी। स्वयं राष्ट्रपति बाइडेन और अमेरिकी कांग्रेस के चौतरफा हस्तक्षेप से इसे टालने में सफलता मिल गई। 15 सितंबर को हड़ताल आरंभ के चंद घंटे पहले ही श्रम सचिव मार्टी वाल्श ने प्रबंधन और यूनियनों के बीच एक तात्कालिक तदर्थ समझौता करवा दिया। इसके तहत ऐलान किया गया कि कर्मचारियों की 14% वेतन बढ़ोतरी होगी और सिक लीव (बीमार होने पर छुट्टी मांगने), जो वैसे तो उनका अधिकार है, पर दंड देने का प्रावधान हटा दिया जाएगा। पर जब इस समझौते की शर्तें ठीक से सामने आनी शुरू हुईं तो श्रमिकों की आशाओं पर पानी फिर गया। उन्हें वास्तव में अधिक कुछ हासिल हुए बगैर ही उनके सुधारवादी-अर्थवादी यूनियन नेताओं ने समझौता कर लिया। अब विभिन्न यूनियनों के सदस्यों में इस समझौते को स्वीकृति देने पर मत लिया जा रहा है। हड़ताल व समझौते में शामिल कुछ यूनियनों के सदस्य इसे मानने से इंकार का वोट दे चुके हैं। ट्रैक व पुल निर्माण व रखरखाव के 24 हजार कर्मियों की यूनियन ने 56% वोट से समझौता नामंजूर कर दिया है। आगे स्थिति क्या रुख लेगी, अभी स्पष्ट नहीं है।

यह हड़ताल कितनी गंभीर स्थितियों को जन्म देने वाली थी यह इसी से पता चलता है कि हड़ताल को टालने के लिए सीधे राष्ट्रपति बाइडेन को हस्तक्षेप करना पड़ा। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पुराने हड़ताल रोकने वाले कानून को अमल में लाने और सेना तक को उतार दमन की घोषणा भी करनी पड़ी। समझौते के वक्त वाल्श ने कहा था, “शुक्र है भगवान का! क्या हुआ होता, उसकी विशालता हम कभी नहीं समझ पाएंगे।” किंतु इसने अमेरिकी समाज में, जिसके बारे में वहां के आम लोगों के उन्नत और गरिमामय जीवन के बारे में कई तरह की किंवदंतिया मशहूर हैं मानो वह धरती का स्वर्ग हो, मजदूर वर्ग की अत्यंत विकट जीवन-स्थिति की पोल खोलकर रख दी है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि माल वाहक रेलरोड कर्मचारियों के ऊपर वर्क लोड इतना अधिक और उसकी तुलना में महंगाई आदि को देखते हुए वेतन आदि इतना कम है कि वे नौकरी तक का परित्याग करने को तैयार हैं। दूसरी ओर सच्चाई यह है, जिसके बारे में सारे तथ्य अखबारों में आ रहे हैं, कि रेल रोड कंपनियां (इसमें भी मुख्यतः तीन कंपनियों का बोल बाला है) और उसके ठेकेदार कर्मचारियों और मजदूरों की पीठ पर सवारी करते हुए अकूत मुनाफा कमा रहे हैं। उनकी मांगें क्या हैं? यही कि वर्क लोड की तुलना में वेतन बढ़ाए जाने और काम के बोझ को कम करने की मांग ताकि वे भी कुछ वक्त अपने परिवार के साथ बिता सकें और बीमार होने पर आराम कर सकें। इंजीनियरों (लोको ड्राइवरों) एवं कंडक्टरों की हालत यह है कि वे चौबीसों घंटे ऑन कॉल ड्यूटी पर रहते हैं। जब वे छुट्टियों पर रहते हैं तब भी। इसका मुख्य कारण स्टाफ की संख्या में कमी है जिसकी पूर्ति मौजूदा कर्मचारियों से बहुत ज्यादा और तेजी गति से काम करा के की जाती है। यह गौरतलब है कि इंजीनियरों और कंडक्टरों के बिना माल वाहक रेल रोड पूरी तरह ठप्प हो जाएगा। अंतिम कांट्रैक्ट 2017 में किया गया था, तब से जो भी बड़े रेलरोड कंपनियां हैं उनमें पहले से ही 20 से 25 प्रतिशत कर्मचारी कम कर दिए गए हैं।

इंजीनियरों और कंडक्टरों की यूनियन के सदस्य यह मानते हैं कि महंगाई और वर्क लोड के अनुसार अभी उनकी मजदूरी या वेतन में बढ़ोतरी नहीं की जा रही है। अगर यूनियनें मान भी जाएंगी तो कर्मचारी मान जाएंगे इसमें शक है (जैसा ऊपर ही जिक्र हो चुका है) और ऐसे में यूनियनों का भी सफाया हो जा सकता है।

यूनियन के नेता सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि उनके कर्मचारी अब और अधिक बोझ सहने की सीमा के पार (are now at a breaking point) जा चुके हैं। एक यूनियन के अध्यक्ष ने यहां तक कहा कि यह उसकी अपनी पसंद या नापसंद का सवाल नहीं है; हमारे सदस्यों ने यह साफ और ऊंची आवाज में बता दिया है कि जो वर्तमान समझौता पत्र है, उसे वे पारित नहीं करेंगे। ऐसे में जिस समझौते की बात हो रही है उसका अंतिम तौर पर क्या होगा कहना मुश्किल है। फिर भी इसने एक बात साफ कर दी है कि अमेरिकी समाज में विद्रोह पल रहा है।

ऐसी राष्ट्रीय स्तर की हड़ताल अगर होगी तो पिछले तीस सालों के बाद होगी। अमेरिकी सरकार, व्यापारी, रेल रोड कंपनियां, और उसके भाड़े के अर्थशास्त्री इस बात से चिंतित हो उठे हैं कि अर्थव्यवस्था जो पहले से रसातल थी और भी गहरे रसातल में चली जाएगी। लेकिन जरा सोचिए, यह एक सेक्टर की बात है। अगर देश के सारे सेक्टर के मजदूर हड़ताल पर चले जाएं तो क्या होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। यानी देश मजदूरों-कर्मचारियों के बल पर ही चल रहा है। लेकिन इन्हीं मजदूरों-कर्मचारियों पर हमला किया जाता है। अखबार लिख रहे हैं कि अगर हड़ताल एक सप्ताह के लिए भी खिंच जाती है तो गैस उत्पादन की बड़े पैमाने पर क्षति होगी, फसलें बर्बाद हो जाएंगी, नई कारों की सप्लाई रुक जाएगी, छुट्टियों में दुकानों की दराजें खाली पड़ी रहेंगी, और पता नहीं क्या-क्या हो जाएगा। तो फिर वे मजदूरों-कर्मचारियों की मांगें क्यों नहीं मान लेते हैं! उलटे वे लगे हाथ यह भी कहते हैं कि इस हड़ताल से दूसरे फैक्टरी मजदूरों को भी ले ऑफ करने की नौबत आ सकती है, क्योंकि इनवेंटरी खाली हो जाएंगी और उत्पादन बंद हो जाएगा। यही तो बात है जो हर वर्ग सचेत मजदूर कर्मचारी को समझना जरूरी है। सच्चाई यह है कि तमाम अन्य फैक्टरियों के मजदूर भी इनकी ही तरह पूरी दुनिया के देशों में भयंकर शोषण के शिकार हैं। अगर वे चाहते हैं कि वे अपने शोषण में कुछ भी कमी हो तो उन्हें रेल रोड हड़ताल का खुलकर समर्थन करना चाहिए ताकि पूंजीपति वर्ग का हमला रुक सके। एकमात्र इसी तर्ज पर समूचे मजदूर वर्ग पर पूंजीपति वर्ग द्वारा किये जा रहे हमलों को रोका जा सकता है। पर केंद्रीय स्तर पर ट्रेड यूनियन नेतृत्व पहले ही शासक वर्ग का वफादार होने की वजह से ऐसा करने को तैयार नहीं।

अमेरिकी ट्रक एसोसिएशन के सीईओ क्रिस स्पीयर का कहना है कि अगर 7000 माल वाहक रेलगाड़ियां, जो प्रतिदिन लंबी दूरी का सफर तय करके सैंकड़ों तरह के सामान पहुंचाती हैं, अपना सफर रोक देती हैं तो इसकी पूर्ति लंबे माल वाहक ट्रक भी नहीं कर सकते, क्योंकि इसके लिए 460,000 ऐसे ट्रक प्रतिदिन चाहिए जो कि असंभव है। यानी, इनके हड़ताल से पूरे देश में हाहाकार मच जा सकता है, जबकि यह मात्र एक सेक्टर के एक हिस्से की हड़ताल होती। लेकिन सरकार या कंपनियां फिर भी इनकी मांगें क्यों नहीं मानती हैं? मजदूर वर्ग को इस प्रश्न का उत्तर जानना होगा। पूंजीवाद में सरकारें पूंजीपति वर्ग की प्रबंधन कमिटी होती हैं, न कि आम जनों के भले की कोई संस्था। जनतंत्र तो बस पर्दा है और वह भी पूरी तरह फट चुका है। जिस दिन मजदूर वर्ग इसे समझ लेगा और चाह लेगा, तो वह इन्हें झुका सकता है और निस्संदेह उखाड़ फेंक भी सकता है।

सबसे पुराने पूंजीवादी ‘उदार जनतंत्र’ ब्रिटेन में भी डॉक्टर-नर्सों, सफाई, डाक व एंबुलैन्स कर्मियों से लेकर कॉलेज शिक्षकों-कर्मचारियों तक की हड़तालें जारी हैं। यह हड़तालें इस बात का प्रमाण हैं कि बढ़ते पूंजीवादी आर्थिक संकट का सारा बोझ मजदूरों के ऊपर डालते जाने से ब्रिटिश मजदूरों व अन्य मेहनतकश जनता के जीवन में भारी आफत टूट पड़ी है। महंगाई 40 साल के उच्च स्तर पर 10% से अधिक है। खाद्य वस्तुएं बेहद महंगी हैं। बिजली व गैस की दरें इतनी ऊंची हो गई हैं कि सर्दी में बहुतों को तय करना पड़ रहा है कि पेट भरें या घर गर्म रखें। लाखों बच्चों को वास्तव में दिन भर में एक बार स्कूल के मिड डे मील में ही भर पेट खाना मिल पा रहा है। पर आय के आधार पर भोजन के सरकारी लालफीताशाही नियम अब उस में भी अड़चन डाल रहे हैं। स्कूलों में भोजन कराने वाली कामगार दर्दनाक इंटरव्यू दे रही हैं कि नियमों के कारण भूखे बच्चे को खाना न देने जैसा काम कैसे करें। बड़े पैमाने पर बेरोजगार मजदूर व बुजुर्ग लोग खैराती खाने के फूड बैंक्स पर निर्भर हैं। अब सर्दियों में भी ऐसे खैराती रैनबसेरे बनाने की बात हो रही है जहां बिजली का बिल चुका पाने में असमर्थ ठंड से सिकुड़ते लोग जाकर खुद को गर्म रख सकें। ठीक वैसे ही जैसे उत्तर भारत के शहरों में सर्दी में बेघरों के लिए खैराती अलाव और रैनबसेरे होते हैं।

इसी साल जून में ब्रिटेन में भी तीन दशक बाद रेलवे श्रमिकों द्वारा एक बड़ी हड़ताल हुई और तीन दिन में ही इस ‘महान’ जनतंत्र की कलई पूरी तरह खुल गई। जिस बीबीसी की मीडियाई स्वतंत्रता व निष्पक्षता की तारीफों के दम भरते लिबरल पत्रकार व कुछ अन्य लोग थकते तक नहीं, उसके स्टूडियों में चर्चा कराई जाने लगी कि क्या मजदूरों की हड़ताल कुचलने के लिए फौज बुला ली जाये। अभी फिर से स्कॉटलैंड के रेल मजदूरों ने 10 व 29 अक्तूबर को दो बार 24 घंटे की हड़ताल की है। इंग्लैंड के रेल श्रमिक भी फिर से हड़ताल पर जाने के लिए वोट कर रहे हैं। इसे रोकने के लिए 20 अक्तूबर को ब्रिटिश संसद में एक नया दमनकारी कानून यातायात हड़ताल (न्यूनतम सेवा स्तर) विधेयक पेश किया गया है। (विस्तार से जानने के लिए अलग से बॉक्स देखें)।

पर गौरतलब है कि ब्रिटिश यूनियनों के राष्ट्रीय संगठन ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने रेल श्रमिकों के साथ एकजुटता दिखाने व हड़ताल को विस्तार देने की रणनीति बना शासक वर्ग के लिए संकट पैदा करने के बजाय हड़ताल पर उपेक्षा व अप्रत्यक्ष रूप से विरोधी रूख ही अख्तियार किया। फिलहाल प्रमुख विपक्षी व आगामी चुनाव में सत्ता की आकांक्षी खुद को लेबर पार्टी कहने वाली पार्टी तो खुल कर हड़ताल के विरोध में ही है क्योंकि उसे लगता है कि हड़ताल से नाराज होकर उच्च व मध्य वर्ग अगले चुनाव में उसे वोट नहीं देगा। लेबर पार्टी के नेता देश पर आर्थिक संकट की दुहाई देते हुए मजदूरों से भी ‘बराबर’ बलिदान करने का आह्वान करते हुए पेट पर पट्टा कसने की अपीलें कर रहे हैं। पर एक सदी पहले ही मजदूर वर्ग से गद्दारी कर शासक वर्ग में शामिल हो चुकी पार्टी से और उम्मीद ही क्या हो सकती थी?

फ्रांस में भी ऊंची महंगाई से त्रस्त मजदूर अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में सितंबर-अक्टूबर में हड़तालें करते रहे और 18 अक्टूबर को कई उद्योगों में व्यापक हड़ताल हुई। रेल-बस यातायात, ऑइल रिफाइनरी, परमाणु रिएक्टर, स्कूल, खाद्य उद्योग, आदि बहुत से उद्योगों में व्यापक हड़तालें हुई हैं। जबकि पेरिस में हड़तालों के समर्थन में हुए मार्च में लगभग 70 हजार लोग शामिल हुए। फ्रांस में हुए सर्वेक्षणों के अनुसार देश के एक तिहाई लोग हड़ताल या विरोध में शामिल होने के लिए तैयार हैं। एक ओर, जीने की बढ़ती लागत, दूसरी ओर, ऊर्जा कंपनियों के छप्पर फाड़ मुनाफों की वजह से श्रमिकों में बहुत गुस्सा है और आम हड़ताल तक की नौबत आ सकती है। हड़ताल की वजह से पहले ही पेट्रोल-डीजल की कमी पड़ गई है और बहुत से इलाकों में राशनिंग लागू करनी पड़ी है। लेकिन तीन प्रमुख यूनियनों में से दो समझौते की राह पर हैं। सिर्फ एक सीजीटी ही कुछ हद तक हड़तालों के सभी क्षेत्रों-उद्योगों में विस्तार या आम हड़ताल की बात कर रही है।

मजदूर आंदोलन के जवाब में फ्रांस की ‘उदार जनतांत्रिक’ सरकार भी निजी कंपनियों के श्रमिकों को काम पर जबरदस्ती बुलाने के लिए फौजी इमरजेंसी कानूनों की मदद ले रही है। इनके अंतर्गत काम पर न आने पर जुर्माने और जेल की सजा की धमकी दी जा रही है। उधर फ्रांस की सरकार संवैधानिक चोर दरवाजे का प्रयोग कर 2023 का सालाना बजट भी संसद में चर्चा कराए बगैर पास करने के प्रयास कर रही है क्योंकि इसमें बहुत से जनविरोधी श्रमिक विरोधी पूंजीपतिपरस्त कदम लागू किये जाने हैं। यह तो पूरे ‘महान’ फ्रांसीसी जनतंत्र की ही कलई खोल देता है कि जनता द्वारा चुनी गई संसद मात्र दिखावे के लिए है। असली फैसले तो कहीं और ही लिए जाते हैं।  

इन देशों में मजदूर आंदोलनों के उपरोक्त उदाहरणों से हम निम्न कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं:

एक, हालांकि जीवन की परिस्थितियों से मजबूर होकर मजदूर वर्ग में नीचे से संघर्ष का दबाव बन रहा है, लेकिन यूनियनों का चरित्र व नेतृत्व पूरी तरह अर्थवादी-सुधारवादी ही है। मजदूर आंदोलनों का मौजूदा उभार आम मजदूरों व यूनियन सदस्यों के दबाव का परिणाम है। बल्कि यह स्थापित नेतृत्व मजदूरों को संगठित होने से हतोत्साहित करने में जुटा है क्योंकि मजदूर कतारों में संघर्ष का यह स्वतः स्फूर्त उभार उसे पूंजीपतियों से पहले खुद को खत्म कर देने वाले खतरे की घंटी के तौर पर सुनाई दे रहा है। जिस वक्त मजदूर व आम मेहनतकश जनता यूनियनों के प्रति आकर्षित हो रही है, स्थापित यूनियनें एवं उनका नेतृत्व यूनियनों के गठन में कतई उत्साह नहीं दिखा रहा। लैनसिंग, मिशिगन के चिपोटले में यूनियन बनाने के बाद मजदूरों ने पाया कि यूनियन बनाने से भी मुश्किल था किसी स्थापित यूनियन से संबद्ध होना। जिस समय 57 साल में पहली बार अमरीकी आबादी के 71% लोग यूनियनों की हिमायत में हैं उस समय चिपोटले यूनियन ने जिन दर्जन भर यूनियनों से संबद्धता के लिए संपर्क किया, उनमें से ज्यादातर ने उन्हें जवाब ही नहीं दिया या अपनी अरुचि जाहिर कर दी। (https://tinyurl.com/ 2eubftmw)  

दो, पूंजीवादी जनतंत्र में दावा किया जाता है कि सभी को समान अधिकार है और वे समान अधिकार व स्वतंत्रता से कान्ट्रैक्ट कर सकते हैं। पर अपने वेतन के कान्ट्रैक्ट के लिए जैसे ही मालिकों के खिलाफ मजदूर आंदोलन शुरू होता है, राज्यसत्ता मालिकों की हिफाजत में दमन चक्र छेड़ देती है। हड़ताल का अधिकार रद्द कर दिया जाता है या उसके रास्ते में ऊंची बाधाएं खड़ी की जाती हैं। मजदूरों को कुचलने हेतु फौज तक तैनात किये जाने की न सिर्फ धमकी दी जाती है, बल्कि फौजी दमन किया जाता रहा है। अतः स्पष्ट है कि मजदूरों के आंदोलन चाहे वे मजदूरी, सिक लीव या बोनस जैसी ‘विशुद्ध’ आर्थिक मांगों के लिए ही क्यों न हों, उनका एक राजनीतिक चरित्र होता ही है। पूंजीपति वर्ग की ओर से मजदूरों के सामने राज्यसत्ता ही खड़ी होती है। अतः लंबे अरसे तक बुर्जुआ जनतंत्र व ‘जनतांत्रिक समाजवादी’ भ्रामक प्रचार के असर में रहे इन विकसित पूंजीवादी देशों के मजदूरों को बहुत जल्दी ही समझ लेना जरूरी है कि मजदूर वर्ग के लिए राजनीतिक अधिकारों व सत्ता का सवाल प्रधान सवाल है, जैसा लेनिन रूसी मजदूरों को 1899 में ही बता चुके थे। यह समझे बगैर ये मजदूर वैचारिक रूप से शस्त्रहीन बने रहेंगे।

“पूंजीपति के विरुद्ध हर हड़ताल का नतीजा मजदूरों पर फौज व पुलिस का हमला होता है। प्रत्येक आर्थिक संघर्ष आवश्यक रूप से एक राजनीतिक संघर्ष होता है, और सामाजिक जनवादियों (1919 तक कम्युनिस्ट भी सामाजिक जनवादी ही कहे जाते थे- लेखक) को अनिवार्य रूप से दोनों को एक दूसरे से अलग न हो सकने वाले विलयन जैसे वर्ग संघर्ष में तब्दील कर देना चाहिए।” लेनिन, हमारा कार्यक्रम (https://tinyurl .com/5nswedue) (अनुवाद हमारा)

तीन, स्थापित सुधारवादी यूनियनें मजदूर आंदोलन में जान फूंकने व हड़तालों की तैयारी की नई रणनीति बनाने में दिलचस्पी नहीं रखतीं। अमरीकी यूनियनों के पास 2010 से 2020 में दोगुना बढ़कर 35 अरब डॉलर से अधिक का फंड इकट्ठा हो गया है। पर इन यूनियनों की मजदूर वर्ग को संगठित करने के अभियान में कोई रुचि नहीं है। वे इसके बजाय कुछ रस्मी विरोध या श्रम कानूनों-नियमों में सुधार-परिवर्तन के लिए लॉबीइंग करने में ही दिलचस्पी रखती हैं। अभिजात्य मजदूर वर्ग व मौकापरस्त श्रम आंदोलन के सबसे पुराने केंद्र ब्रिटेन की ट्रेड यूनियन कांग्रेस तो मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी कर शासक वर्ग की ही गोद में जा बैठी है। जिस समय ब्रिटिश श्रमिक अपने जीवन की परिस्थितियों से विक्षुब्ध होकर संघर्ष की हिमायत में आ रहे हैं, उस वक्त ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने इस संघर्ष को तेज करने की रणनीति बनाने के बजाय 19 अक्टूबर को अपने सम्मेलन में शासक पूंजीपति वर्ग के हित में रक्षा खर्च बढ़ाने के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया है। प्रस्ताव के पक्ष में तर्क दिया गया कि ‘यूरोप में पूर्ण रूपेण औद्योगिक युद्ध जारी है’ अतः हथियारों पर खर्च बढ़ाना होगा, तथा ऐसा न करने पर बहुत से मजदूरों का रोजगार चला जाएगा। स्पष्ट है कि यह ट्रेड यूनियन कांग्रेस मौजूदा स्वरूप में मजदूरों के हितों के बजाय शासक पूंजीपति वर्ग के हितों की एजेंट है। मजदूर वर्ग को अपने हितों की लड़ाई के लिए अपने नए औजार गढ़ने होंगे।

चार, मजदूर वर्ग को शीघ्रातिशीघ्र समझना होगा कि पूंजीवाद एक व्यवस्था के रूप में कालातीत हो चुका है। अब न यह मानव समाज को तरक्की की राह पर ले जा सकता है, न ही इसमें किसी ‘सुधार’ के जरिए उनका जीवन सुधर सकता है। अतः उन्हें राजनीतिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की लड़ाई में उतरना होगा। पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन की लड़ाई सिर्फ ट्रेड यूनियनों के बल पर ही नहीं लड़ी जा सकती। उसके लिए एक लेनिनवादी मजदूर वर्ग पार्टी की आवश्यकता है। चुनांचे उन्हें आज वह बात गांठ बांध लेनी होगी जो लेनिन रूस में 1899 में ही बता चुके थे,

‘एक क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी का असली काम – इसी समाज के पुनर्गठन की योजनाओं की रूपरेखा बनाना नहीं, पूंजीपतियों व उनके लग्गू-भग्गुओं को मजदूरों की दशा सुधारने के उपदेश देना नहीं, साजिशें रचना नहीं, बल्कि सर्वहारा को वर्ग संघर्ष में संगठित करना व उन्हें इस संघर्ष में नेतृत्व देना, जिसका अंतिम मकसद सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता पर विजय हासिल कर एक समाजवादी समाज की रचना करना है।’ (उपरोक्त)