निर्णायक संघर्ष की ओर मासा के बढ़ते कदम
November 15, 2022संपादकीय, नवंबर 2022
मासा देश भर में कार्यरत मजदूर संगठनों का एक साझा मंच है – एक ऐसा साझा मंच, जो वर्षों से संघर्ष के नाम पर संघर्ष की रस्मअदायगी में लगे केंद्रीय ट्रेड यूनियनों एवं महासंघों का विकल्प बनने, यानी सुस्त पड़े मजदूर वर्ग के आंदोलन के क्रांतिकारी उत्थान करने की घोषणा और इसे लागू करने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा है। हम अगर इन सेंट्रल ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व को गद्दार भगोड़ा कहते हैं, तो इसकी वजह है यह है कि मजदूर वर्ग पर मोदी सरकार के हो रहे सबसे बड़े हमले का एक लंबा दौर बीत जाने के बाद भी सरकार और उसके आका पूंजीपति वर्ग से लोहा लेने और आर-पार की निर्णायक लड़ाई लड़ने के बदले ये पीठ दिखा रहे हैं। मजदूर वर्ग की तरफ से ये किसी निर्णायक संघर्ष का नाद नहीं कर रहे हैं, अपितु सरकारों के समक्ष मिमियाने का काम करते हैं। इसलिए ”निर्णायक” शब्द का यहां बड़ा महत्व है। और सेंट्रल ट्रेड यूनियनों द्वारा समय-समय पर की जाने वाली सांकेतिक हड़तालें आखिर क्या हैं? वैसे तो सांकेतिक हड़तालें मजदूर वर्ग की तरफ से पूंजीपति वर्ग को हमले रोकने की चेतावनी देने हेतु किये जाने वाले सेना के फ्लैग मार्च की तरह की सीमित लड़ाइयां होती हैं, लेकिन वर्षों तक एकमात्र यही कर के इन सेंट्रल ट्रेड यूनियनों ने इसके ऐतिहासिक महत्व को भी नष्ट और भ्रष्ट कर दिया है। फ्लैग मार्च अब फ्लैग मार्च नहीं रह गया है, पूरी तरह संकेतवाद तथा रस्मअदायगी में बदल दिया है। आज ये यह कहते प्रतीत होते हैं – ”कहां की सेना, और कैसा फ्लैग मार्च!”
”भारत में नई श्रम संहिताएं मजदूर वर्ग पर फासीवादी हमलों का ही एक रूप बन कर आयी हैं, जिसके पीछे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का प्रत्यक्ष हाथ है। स्थापित केंद्रीय ट्रेड यूनियनें अपनी कमजोरी, समझौतापरस्त नीति और ‘आंदोलन’ की रस्म-अदायगी के चलते नई श्रम संहिताओं के खिलाफ देश भर में मजदूर वर्ग के एक निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष को दिशा देने में नाकाम साबित हुई हैं। किसान आंदोलन ने कॉर्पोरेट-पक्षीय कृषि कानूनों के खिलाफ निरंतर जुझारू आंदोलन चलाकर आज उदाहरण पेश किया है कि यदि मजदूर वर्ग भी पूंजीपति वर्ग की प्रबंधक सरकारों द्वारा बनाए गए मजदूर विरोधी नीतियों व मौजूदा शोषणमूलक दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ निरंतर जुझारू संघर्ष चलाए तो वह भी सफलता हासिल कर सकता है। नई श्रम संहिताओं के खिलाफ देश के पैमाने पर ऐसा मजदूर आंदोलन अभी तक नहीं बन पाया है। मगर देश भर में बीते कुछ समय में कई जुझारू मजदूर संघर्ष हमने देखे हैं जो हमारे अंदर उम्मीद जगाते है। मारुति-हौंडा-प्रिकोल-एलाइड निप्पन आदि सैंकड़ों कारखानों में मजदूरों का जुझारू संघर्ष, बेंगलुरु में गारमेंट मजदूरों का संघर्ष, केरल के चाय बागान मजदूरों का संघर्ष, आर्डिनेंस-खदान सहित कई सेक्टरगत संघर्ष, असंगठित क्षेत्र में आशा-आंगनवाड़ी महिला मजदूरों का संघर्ष, प्लेटफॉर्म और गिग मजदूरों का संघर्ष जारी रहा है। इन संघर्षों का दायरा स्थानीय या सेक्टरगत ही रहा, मगर नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ एक जुझारू संघर्ष की अंतर्वस्तु भी इन संघर्षों में हमें देखने को मिली। मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं को रद्द करके मजदूर-पक्षीय श्रम कानून बनाने, निजीकरण के जरिये देश बेचने की प्रक्रिया को रद्द करके सभी बुनियादी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने, व संगठित-असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों के सम्मानजनक स्थायी रोजगार और जायज अधिकारों के लिए संघर्ष को एक निरंतर, जुझारू और निर्णायक दिशा देना आज बेहद जरूरी बन गया है, जिसको असल में इस शोषण पर टिकी दमनकारी व्यवस्था को ही बदलने के संघर्ष में तब्दील करना पड़ेगा।”
ऊपर के शब्द मासा द्वारा 13 नवंबर ”राष्ट्रपति भवन चलो” के लिए पेश आह्वान पर्चा से लिये गये हैं। हम इसमें प्रयुक्त ”निर्णायक संघर्ष” के बारे में मुख्य रूप से कुछ बात करेंगे। जहां तक बीते साल हुए ऐतिहासिक किसान आंदोलन के संदर्भ में यहां कुछ कही गई बातों का सवाल है, तो हमें यह मालूम नहीं है कि उसे कौन सी ”निर्णायक” सफलता मिली है? क्या कृषि कानूनों की वापसी ”निर्णायक” सफलता थी? लेकिन ये तो किसान भी नहीं मानते हैं कि उसमें निर्णायक सफलता जैसी कोई चीज थी या है! तभी तो एक बार फिर से वे ”निर्णायक” संघर्ष की शुरूआत करने का आह्वान कर रहे हैं। उसी तरह किसान आंदोलन कितना ”निर्णायक” आंदोलन साबित हुआ इसके बारे में भी बहस हो सकती है, लेकिन क्या किसान ही इस बात से सहमत हैं? बाकी तो ऊपर के उद्धरण में पिछले दिनों हुए उन विश्रृंखलित लेकिन शानदार मजदूर आंदोलनों की एक फेहरिस्त है जो इस बात के गवाह हैं कि भारत में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन की जमीन मौजूद है। हालांकि इन आंदोलनों की फेहरिस्त बनाकर यहां उद्धृत करने की मजबूरी यह भी साबित करती है या साबित कर रही है कि उस क्रांतिकारी जमीन का तैयार होना या उस मुख्य कड़ी को जोड़ पाना अभी बाकी है, जो एक स्प्रिंग बोर्ड के माफिक कल फिर से होने वाली ठीक ऐसी ही लड़ाइयों को ”निर्णायक लड़ाई व संघर्ष” में तब्दील कर देगी। फिर भी इतना तो तय है कि पर्चा यह बता रहा है कि मासा सेंट्रल ट्रेड यूनियनों व उनके महासंघों की जगह लेना चाहता है और उसका टैग लाइन ”मजदूर वर्ग के निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष” है।
यहां कोई सिरफिरा ही कह सकता है कि ”मजदूर वर्ग के एक बड़े हिस्से का इसे जब समर्थन ही नहीं है, तो आह्वान करने से क्या फर्क होता है?” हम बड़ी विनम्रता से यह कहना चाहते हैं – ”जी हां, इससे फर्क पड़ता है।” यह वही फर्क है जो कुछ न करने से बेहतर कुछ करने की कोशिश में है; जो अच्छे भविष्य के सपने देखने और जो मौजूद है उसे ही अपना भाग्य मान कर यथास्थिति को स्वीकार कर लेने में है; जो घोर ना-उम्मीदी में भी उम्मीद से भरी कोशिश करने और चुपचाप चादर ओढ़ सोते रहने में है। कुल मिलाकर यह कहना बेहतर है कि, यहां वही फर्क है ”जो एक मरे हुए व्यक्ति और जिंदा व्यक्ति में है।”
मासा के घटक संगठनों में, इसके इतिहास में मौजूद कुछ अपवादपूर्ण स्थितियों को छोड़कर, वैसे संगठन हैं जो सिर्फ मजदूर वर्ग की अगुआ क्रांतिकारी ताकतों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते हैं, अपितु मजदूर वर्ग के साथ रचने-बसने वाले संगठन हैं और उनकी सीधी लड़ाइयों में शामिल और भागीदार हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अगुआ होने के अतिरिक्त ये मजदूर वर्ग की कुल वास्तविक शक्ति के एक हिस्से का भी वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं। इस तरह मासा मजदूर वर्ग का एक वास्तविक मंच है, भले ही यह अभी मजदूर वर्ग के एक हिस्से को ही समेटने में सक्षम है और उसका प्रतिनिधित्व करता है, हालांकि इसमें देश के अन्य क्षेत्रों से और नये संगठन इसके घटक के रूप में जुड़ने अभी बाकी हैं। लेकिन आज भी जो इसके घटक संगठन हैं, उनमें से अधिकांश के बारे में हम अपने प्रत्यक्ष अनुभव और ज्ञान के आधार पर यह दावे के साथ कह सकते हैं कि वे सरजमीं पर चल रहे उस वास्तविक वर्ग-संघर्ष के अगुआ तत्व व शक्ति हैं जो मजदूर वर्ग के एक हिससे द्वारा पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से के विरुद्ध चलाये जा रहे हैं, और कल निर्णायक दौर में पूरे मजदूर वर्ग के द्वारा पूरे पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध चलाये जाने वाले देशव्यापी वर्ग-संघर्ष का रूप लेंगे, जिसे ही आर-पार की और निर्णायक लड़ाई कहा जाएगा। जाहिर है, इसके अतिरिक्त मजदूर वर्ग के ”निर्णायक संघर्ष” का और कोई मतलब नहीं हो सकता है।
इसलिए मासा यूनियनों का मंच होते हुए भी भावी देशव्यापी वर्ग-संघर्ष के भ्रूण का एक वाहक मंच है। हां, भावी ”निर्णायक” संघर्ष को देखते हुए मासा को यह ध्यान रखना चाहिए कि महज साइज बढ़ाने या घटकों की गिनती बढ़ाने के अत्यंत सीमित उद्देश्य से वह निर्देशित न हो। एक आम नीति के रूप में, वैसे संगठनो को शामिल करने से परहेज करना चाहिए जो इसे अंदर से खोखला बनाते हैं, अराजकता की ओर धकेलते हैं, या जो किसी न किसी बहाने मजदूर वर्ग की शक्तियों के केंद्रीकरण के खुलेआम विरोधी हैं। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि अलग-अलग संगठनों की कार्यवाहियों एवं गतिविधियों के बीच न्यूनतम केंद्रीकरण स्थापित किये बिना मासा को ”निर्णायक संघर्ष” का एक वास्तविक मंच बनाना मुश्किल होगा।
हम यहां अपनी तरफ से कोई बात नहीं रख रहे हैं। हम बस मासा के बैनर और पर्चे के मस्तूल शिखर पर अंकित उसके ही केंद्रीय नारे व आह्वान को वास्तविक आंदोलन की जरूरतों के मद्देनजर तार्किक परिणति तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, जो हो सकता है कि घटक ठोस वस्तुगत हालातों के शिलाखंड से बुरी तरह टकराते हों, और इसलिए इस लिहाज से गलत भी हों। लेकिन तार्किक वैज्ञानिक पद्धति की तो यही मांग है कि वास्तविक मजदूर आंदोलन की जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जाए।
इतिहास इस बात का गवाह है कि बहुत तरह के मतावलंबी प्रतिनिधियों (जैसे कि प्रुधोंवादी, लासालपंथी, बकुनिनपंथी, ब्लांकीपंथी और निस्संदेह मार्क्सवादी, आदि) से बने मजदूरों के प्रथम इंटरनेशनल की सबसे बड़ी खासियत ही यही थी कि भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायिओं की उपस्थिति के बावजूद प्रथम इंटरनेशनल कार्यवाहियों और गतिविधियों के मामले में केंद्रीकरण के सिद्धांत का ही अनुसरण करने वाला संगठन था, क्योंकि यही मजदूर आंदोलन की वास्तविक जरूरत थी। इसकी सबसे बड़ी मिसाल हमें पेरिस के वीर और साहसी कम्युनार्डों की कार्रवाइयों में दिखती है, जो मुख्यत: केंद्रीकृत, एकमुश्तरका और सर्वसत्तावादी थीं। हम देखते हैं कि जहां तक मतों का संबंध है कम्युनार्ड ब्लांकीवादी तथा अन्य कई दूसरे तरह के मतों के अनुयायी थे (कुछ मार्क्स-एंगेल्स के अनुयायी भी थे), लेकिन जब उनके वास्तविक क्रांतिकारी व्यवहार के क्षेत्र का अवलोकन करते हैं तो वे मुख्यत: मार्क्स के विचारों से निर्देशित होते पाये गये। जहां कहीं भी उनके व्यवहार का मार्क्स-एंगेल्स के विचारों व सलाहों से विचलन हुआ या उनको दरकिनार किया गया, उनको करारी पराजय और हार का मुंह देखना पड़ा। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि मार्क्स के बाह्य व्यक्तित्व में कुछ खास चीज थी जो अन्यों में नहीं थी। बल्कि ये इसलिए हुआ क्योंकि मार्क्स के विचार मजदूर आंदोलन की ठोस एवं वास्तविक जरूरतों को प्रतिबिंबित करते थे, जबकि अन्यों के विचार उन जरूरतों से अलग कुछ सिद्धांतकारों की पूर्वकल्पित इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। मार्क्स-एंगेल्स के विज्ञानसम्मत विचारों और अन्य सिद्धांतकारों के मतों के बीच यही मुख्य अंतर था या है, और यही अंतर मार्क्स की लेखनी में मौजूद उस कलात्मक दक्षता का भी प्रमाण था या है, जिसकी बदौलत मार्क्स और एंगेल्स, अपने मतावलंबियों की संख्या के मामले में अल्पमत में होते हुए भी, अपने विज्ञानसम्मत ज्ञान, बुद्धि और व्यवहार के बल पर प्रथम इंटरनेशनल के एक-एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के जनक बने। अंतत: इसके जरिए वे प्रथम इंटरनेशनल पर अपनी हर तरह की अमिट छाप अंकित करने में भी सफल रहे, वो भी कुछ इस तरह कि उनके विरोधी भी अंततोगत्वा व्यवहार में ठीक वही सब करने के लिए मजबूर हुए जिसके लिए वे मार्क्स का हमेशा विरोध करते थे। वास्तविक मजदूर आंदोलन की जरूरतों को अपने सिद्धांत में व्यक्त करने और मनगढंत बातों को वास्तविक आंदोलन की जरूरतों पर थोपने के बीच का यह फर्क ही है जो मार्क्स-एंगेल्स को अपने तमाम समकालीनों की तुलना में अजेय और अमर बना दिया।
हम अगर मासा में प्रथम इंटरनेशनल की छवि देखना चाहें, तो कुछ असमानताओं को नोट करते हुए ऐसा कर सकते हैं। हम पाते हैं कि कम्युनिज्म की ही अलग-अलग तरह की वो वैध क्रांतिकारी धाराएं इसमें शामिल हैं जो अपनी वैचारिक व राजनैतिक परवरिश में एक दूसरे से काफी भिन्न हैं। लेकिन जो चीज सभी में साझा है, वह यह है कि वे सभी मजदूर वर्ग की वास्तविक शक्तियां हैं जिसकी जड़ें मजदूर वर्ग और इसकी लड़ाइयों व संघर्षों में गहरे पैठी हैं। और इसलिए प्रथम इंटरनेशनल की तरह इनकी शक्तियों का भी केंद्रीकरण संभव है और मासा को मजदूर वर्ग की ”निर्णायक लड़ाई” का साझा मंच बनाने में कोई खास दिक्कत नहीं है। इधर हाल की मासा कार्रवाइयों को देखें, तो मजदूर आंदोलन के क्रांतिकारी उत्थान की इसकी बातों और व्यवहार में कुछ खाई, या अन्य कमियां और कमजोरियां हैं, लेकिन ये तय है कि ये सभी गंभीर शक्तियां हैं और आंदोलन को महज क्रांतिकारी गप्पें हांकने का माध्यम नहीं मानती हैं। इसलिए ”मासा के बढ़ते कदम” का आने वाले समय में भारत के मजदूर वर्ग पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ने वाला है। इसे मानने में ”यथार्थ” को कोई अतिश्योक्ति दिखाई नहीं देती है। जरूरी है कि इस मंच को अन्य सभी तरीके से मजबूत व समृद्ध किया जाए ताकि यह मजदूर आंदोलन की वास्तविक जरूरतों को व्यक्त करने का माध्यम बन सके। हमारी नजर में, यह अत्यंत महत्व की बात है कि मासा ने अपनी शक्ति से ज्यादा शक्ति लगाकर ”श्रम कोड के विरोध” की केंद्रीय मांग से लेकर अन्य दर्जनों महत्वपूर्ण मांगों, जिनमें निर्माण क्षेत्र के असंगठित मजदूरों से लेकर ग्रामीण सर्वहाराओं व मजदूरों की सभी जायज दूरगामी तथा फौरी मांग भी शामिल है, के समर्थन में अपना झंडा और नारा पूरे देश में बुलंद किया हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसका आने वाले दिनों में, जब क्रांतिकारी परिस्थिति वास्तव में प्रस्फुटित होगी, मजदूर आंदोलनों को क्रांतिकारी कार्रवाई में तब्दील करने में इसका अवश्यंभावी तौर से बहुत अधिक असर होगा।