मोरबी – मुनाफे के लिए सामूहिक हत्या
November 15, 2022संपादकीय, नवंबर 2022
30 अक्तूबर को गुजरात के मोरबी में पुल गिरने से हुए दर्दनाक हादसे में करीब डेढ़ सौ लोग मारे गए, 180 घायल हुए और कई अभी भी लापता हैं। बिना जाति-धर्म देखे लोगों द्वारा एक-दूसरे की मदद करने की सुकून देने वाली तस्वीरें भी आ रही हैं। लेकिन भाजपा सरकार का निर्दयी चेहरा देखिए! इधर लोग अपनों को ढूंढ़ने के लिए तड़प रहे थे, सैकड़ों घरों में रातों-रात मातम छा गया था और उधर मोदी की न सिर्फ चुनावी रैलियां जारी थीं, बल्कि एक दिन में दो बार अपना सूट बदलकर एवं टोपी पहनकर फोटोशूट भी चल रहा था। उसी रात गुजरात का स्वास्थ्य मंत्री ऋषिकेश पटेल अपने जन्मदिन का केक काट रहा था और जमकर आतिशबाजी चल रही थी। सिर्फ इतना ही नहीं, जिस अस्पताल में घायलों का इलाज चल रहा है, उस अस्पताल की भी ‘मरम्मत’ की गई, ताकि मोदी के दौरे के दौरान की तस्वीरें खराब न आएं और उसमें कोई दाग-धब्बे न हों, ताकि अस्पताल की बदहाली देखकर 27 साल के ‘विकास’ की पोल ना खुल जाए! इंसानियत से दुश्मनी की भी कोई सीमा नहीं है।
मूलतः 19वीं सदी में बने मोरबी पुल का ढांचा इंजीनियरों ने 2007 में ही असुरक्षित घोषित कर पुल की मृत्यु की सनद जारी कर दी थी। इसीलिए नगर निगम ने पुल बंद भी कर दिया था। पर गुजरात सरकार ने इस मृत घोषित पुल को घड़ियां बनाने वाले एक पूंजीपति की ओरेवा नामक कंपनी को पिकनिक स्पॉट बनाकर मुनाफा कमाने के लिए सौंप दिया। कहा गया कि कंपनी पुल को रिपेयर करेगी। पर जब पुल का मूल ढांचा ही मृत हो गया, तो उसे ठोक पीट कर रिपेयर करने का सवाल ही नहीं उठता। उसे तोड़कर दोबारा ही बनाया जा सकता था।
लकड़ी के पटरों की जगह धातु की शीट तथा रंग रोगन वगैरह से चमकाकर इस मृत पुल से ये पूंजीपति 15 साल तक मुनाफा कमाता रहा।
दरअसल यह पुल झूलने के लिए ही बना था, इस पर जाने वाले इसे झुलाने के लिए ही जाते थे। लेकिन आज कहा जा रहा है कि ऐसा करने वाले आम लोग ही हादसे के दोषी हैं। हद है!
पुल की उम्र समाप्त थी, उसको गिरना ही था, उस पर जाने वालों को मरना ही था, एक दिन गिर गया, 140 मर गए। अनिश्चित बस इतना था कि ऐसा किस तारीख को कितने बजे होगा। पुल की उम्र समाप्त हो जाने के बाद विज्ञान के नियम के अनुरूप यह हादसा पहले से तय था। सरकार, अधिकारियों व निजी पूंजीपति को भी पहले से यह नतीजा निश्चित रूप से ज्ञात था। पर यह बात जानते हुए भी वे इससे मुनाफा कमाते रहे। इसलिए यह मुनाफे के लिए किये गये एक सामूहिक हत्याकांड के अलावा और कुछ नहीं है।
पर कंपनी का मैनेजर इसे ‘भगवान की इच्छा’ बता रहा है। साथ ही ये बातें कि पुल पर क्षमता से ज्यादा लोग थे; कि वे पुल को हिला रहे थे; कि कर्मचारी योग्य नहीं थे; कि जांच प्रक्रिया पूरी नहीं की गई थी; ये सब कानूनी नुक्तों वाली बातें साजिशन किये गए सामूहिक कत्ल के हत्यारों को सजा से बचाने हेतु उठाई जा रही हैं। लंबे मुकदमे में पूंजीपतियों से ऊंचा शुल्क लेकर वकील यह साबित कर देंगे कि यह सब प्रक्रिया पूरी थी और मालिक की कोई गलती नहीं, वास्तव में ही पुल भगवान की मर्जी से गिरा है!
पर सच्चाई? सच्चाई तो यही है कि ठेका देने वालों और लेने वालों दोनों को यह अच्छी तरह मालूम था कि पुल गिरेगा और लोग मरेंगे। उन सबको जघन्य सामूहिक हत्या के अपराध में सजा मिलनी चाहिए। यह अकेली बात कि मृत पुल को मुनाफे के लिए खोल रखा गया था इन हत्यारों का जुर्म सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। पर पूंजीवाद में मुनाफे के लिए ही तो कुछ भी करने का अघोषित नियम काम करता है न! तो फिर पूंजीपतियों और इनके नुमाइंदे फासिस्टों को आखिर शर्म भी किस बात के लिए आएगी या आनी चाहिए? शर्म तो इस बात के लिए आनी चाहिए कि आज के दौर में भी हम अच्छे और बुरे अथवा ईमानदार और क्रोनी पूंजीवाद की खोज में लगे हैं। जहां तक शर्म आने की बात है तो वह दौर कब का बीत चुका है जब पूंजीवादी शासकों को कुछ शर्म भी आती थी और इसलिए वे उदार शासक कहलाते थे। यह दौर खुली और नंगी पूंजीवादी तानाशाही के सबसे वीभत्स रूप वाले फासीवादी शासन का युग है। ये आया ही है इसलिए कि शर्म और हया को हिंदू-मुस्लिम के झगड़े की आग में पूरी तरह स्वाहा कर देना है। वैसे पूंजीवाद ने इतिहास में एक समय क्रांतिकारी भूमिका निभाई है, लेकिन आज के दौर के पूंजीवाद में पूंजीवाद को ईमानदार और बेईमान में बांटना और फिर यह उम्मीद पालना कि अच्छा पूंजीवाद भाजपा को हराकर लाया जा सकता है, एक पूर्णत: भ्रामक सोच है।
जहां तक पूंजीवादी उत्पादन पद्धति और मुनाफा के एक हिस्से का पूंजी में रूपांतरण की बात है, तो उसके क्रोनी (बेईमान) हुए बिना यह संभव ही नहीं है। इस अर्थ में बाल्य काल का पूंजीवाद हो या मुत्यु शैय्या पर लेटा पूंजीवाद हो, सब क्रोनी पूंजीवाद ही है। हम पूंजीवाद और क्रोनी पूंजीवाद को अलग नहीं कर सकते। गुजरात मॉडल ही क्यों, आज की वित्तीय पूंजी के आधिपत्य वाली पूंजीवादी व्यवस्था पूरे तौर पर क्रोनी ही क्रोनी है। यह सीधे डकैती करने का मॉडल है। अतः क्रोनी के नाम पर पूंजीवाद को बचा लेना ठीक नहीं। जब आज के पूंजीवादी कारोबार का मुख्य मकसद ही किसी मानवीय आवश्यकता की पूर्ति करके नहीं (जो माल उत्पादन की प्रधानता वाले प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद में एक हद तक होता था और उसने मानवजाति के परम क्रांतिकारी मित्र विज्ञान व टेक्नोलॉजी, जिसके बिना श्रम विभाजन को खत्म करना और साम्यवाद में पहुंचने के पहले उत्पादन की प्रचुरता वाले समाज की स्थापना करना असंभव है, को भी आगे बढ़ाया था), अपितु बेईमानी, झूठ-फरेब, जुएबाजी और सीधे मारकाट और युद्ध के जरिये सुपर मुनाफा या अधिकतम संभव मुनाफा कमाना हो गया है, तो उसमें भ्रष्टाचार, कदाचार, क्रोनीइज्म का न होना ही आश्चर्य की बात होगी।
इस ओरेवा नाम की कंपनी का एमडी जयसुखलाल पटेल के विचार भी इसी के अनुरूप हैं। वह वैचारिक रूप से ही हिटलर प्रेमी फासिस्ट है। 2019 में लिखी किताब ‘समस्या और समाधान’ में उसने लिखा है कि “चुनाव बंद कर योग्य व्यक्ति को 15-20 साल तक नेतृत्व दीजिए, जो हिटलर की तरह डंडा चलाए” एवं “हमारा देश ऐसे व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए जो लाठी के जोर पर राज करे।” ऐसे घिनौने विचारों वाले व्यक्ति से, वह भी उसके पसंद के शासन में, आखिर किस बात की उम्मीद की जा सकती है?
150 लोगों की असमय मृत्यु से देश में ही नहीं, विदेशों मे रहने वाले अपने भाइयों के बीच भी दुख, तकलीफ तथा आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा है। इस सैलाब से गुजरते हुए भी आज हमें यह कहने को विवश होना पड़ा रहा है कि दुख और रंजो-गम को बेशक भूलाइये नहीं, लेकिन बेकाबू हो (गम के) बादलों की तरह यूं ही बरसने भी मत दीजिये। यह समय इस बात के लिए है कि अपने गुस्से को संजोइये, उसे जमा होने दीजिए और फिर उसे आग की भट्ठी में पकाइये। मजलूमों की मजबूरी क्रांतिकारी शक्ति में तब्दील इसी तरह होगी। वह वक्त जल्द ही आने वाला है जब इस भट्ठी से निकली चिंगारियां इन आतताइयों के साम्राज्य को जला कर भस्म कर देगी। देर और अंधेर बहुत हो चुका, भरे-पूरे सूर्य की रोशनी में, इस दुनिया को बदलने की विश्वव्यापी मुहिम इन बेशर्म शासकों को जल्द ही अपने आगोश में ले लेगी। आइए, दुख और पीड़ा को सीने में भीतर दबाकर उस दिशा में बढ़ें जिधर नया सूर्य उगने वाला है!