बढ़ते आर्थिक संकट व राजकीय दमन से जूझती जनता और जनप्रतिरोध
December 20, 2022(11 दिसंबर 2022 को आई०एम०ए० हॉल, पटना में जन अभियान, बिहार द्वारा आयोजित कन्वेंशन में प्रस्तुत प्रपत्र)
हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब जनता की दुर्दशा ने एक सर्वथा नया आयाम ले लिया है तथा अभूतपूर्व तरीकों से और एकदम हेकड़ी के साथ राज्य की दमनकारी मशीनरी के कारनामे हो रहे हैं। ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे’ लिखते समय मुक्तिबोध ने राज्य के उस शिकंजे के बारे में शायद नहीं सोचा होगा जिसने लिंच मॉब और हिंदुत्व गुंडावाहिनी, गोदी मीडिया के एंकरों के कुत्साप्रचार से लेकर राज्य के खुले दमन तक विस्तार पाया है। यह दमनकारी मशीनरी अब समाज के पोर-पोर में विषाक्त संक्रमण की तरह ही नहीं काम कर रही है यह समाज को अंदर से खाये जा रही है जहां हर कुछ जो मानवोचित है, सुंदर है और प्रगतिशील है उसे खत्म किया जा रहा है। हर सच्चाई को या तो दबा दिया जाता है या उसे झूठ में बदल दिया जाता है। तभी तो जनता के मुद्दे तथाकथित मुख्यधारा में जगह नहीं पाते हैं और उस स्थान को साम्प्रदायिक राजनीति पूरी करती है। सभी विरोध को देशद्रोह की कोटि में डाल दिया जाता है। आज के दिन बेरोजगारी अभूतपूर्व है तो महंगाई के साथ-साथ मंद होती अर्थव्यवस्था है और यह सब कोरोना महामारी के भयंकर आर्थिक संकट के बाद। पर सरकार निश्चिंत है और इस स्थिति को कबूल करना तो दूर, इसका जिक्र तक करने से बाज आती है। उसके बजट में न तो बेरोजगारी की चर्चा है और न तो वह आर्थिक मंदी की हकीकत को ही कबूल कर रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ भारत में बढ़ती भूख की स्थिति को दिखाता है पर सरकार उसे दुष्प्रचार बताती है। हर असली समस्या को पीछे धकेल कर केवल हिंदुत्व की नफरत और विभाजन वाली राजनीति को वैधता प्रदान की जाती है। केवल साम्प्रदायिकता को ही बढ़वा नहीं मिल रहा है बल्कि जातीय वैमनस्य और जातीय उत्पीड़न को भी एक नई ऊर्जा मिली प्रतीत होती है। जातीय श्रेष्ठता की बातें तो आम तौर पर मंत्री से लेकर टीवी सीरियल तक पड़ोसते रहते हैं। राज्यों के बीच में घमासान होता दिखाई देता है जैसे – कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच व असम-मेघालय के बीच। इन सभी राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं लेकिन इनकी बंटवारे व नफरत की राजनीति सर चढ़ कर बोलती है। सरकार जनता को अंधेरे में रखकर बड़े पूंजीवादी घरानों को मालामाल करने के बारे में सोचती हैं, धड़ल्ले से सरकारी परिसम्पत्तियों को निजी पूंजी के हाथों सौंपती जा रही है और कानून बनाकर इस संकट को पूंजीपतियों के पक्ष में इस्तेमाल कर रही है। मजदूरों को मालिकों की मनमर्जी के हवाले कर देने के लिए उसने श्रम कानून लाये हैं। खेती को कॉर्पोरेट हाथों में कर देने के लिए कृषि कानून बनाये जिनके खिलाफ एक साल की लंबी जद्दोजहद करने के बाद किसानों ने उनकी वापसी करवाई। इसके पहले धार्मिक आधार पर नागरिकता कानून में संशोधन के खिलाफ संघर्ष हुए। केंद्र सरकार ने कोरोनाकाल को “आपदा में अवसर” का काल घोषित कर ऐसे कानून लाये और कई दीर्घकालीन परिणाम वाले कदम उठाये जो जनता की विषम परिस्थितियों को और नाजुक बनाते हैं। ऐसे में इन विकट परिस्थितियों पर विचार करने और उनके खिलाफ जनसंघर्ष को आगे बढ़ाने के मकसद से हम यहां जुटे हैं।
नाजुक होती आर्थिक स्थितियां – कोरोनाकाल के पहले से ही हमारा देश मंदी के दौर में प्रवेश कर चुका था और महामारी के दौरान हुए अविवेकी लॉकडाउन इत्यादि ने इस स्थिति को गंभीर बना दिया और देश की करीब एक तिहाई जी०डी०पी० खत्म हो गई। फिर भी अपने को शाबाशी देते हुए भारत सरकार देश को सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था की संज्ञा दे रही है जबकि यह छलावा ही है। बात तो यह है कि आर०बी०आई० की रिपोर्ट के अनुसार 2034-35 तक ही हमारी अर्थव्यवस्था कोविड काल के पूर्व की जी०डी०पी० के बराबर पहुंचेगी (RCF 2021-22)। विश्व आर्थिक संकट के गहराने के साथ यह भी दूर की बात लगती है। ऐसे में स्थिति और भी बुरी होने वाली है। आर्थिक गतिविधियों के कम होने से रोजगार में भी कमी आई है, इसके अलावा कि पूंजीवाद के अंतर्गत लगातार किसी भी खास राशि के निवेश से पैदा होने वाले रोजगार में कमी आती है क्योंकि मशीनीकरण होता रहता है। इसकी पुष्टि रिजर्व बैंक की रिपोर्ट भी करती है (Estimating Employment Elasticity of Growth for the Indian Economy – Working paper – 2019)। नीतिगत ढंग से ऑउटसोर्सिंग एवं डाउनसाईजिंग करने के चलते बड़े उद्योगों में रोजगार के अवसर घटे हैं तो स्वाभाविक रूप से काम का बोझ बढ़ गया है। ऊपर से सरकार का रवैया पूरी तरह से कॉर्पोरेटपक्षीय है और रोजगार के अवसर की बात को वह हल्के में लेती है जैसा कि खुद प्रधानमंत्री के पकौड़ा तलने वाले रोजगार की बात से जाहिर होता है। सरकार केवल प्रचार में ही विश्वास करती है और इसीलिए रोजगार देने के लिए ‘स्टार्ट अप’ की भूमिका पर जोर देती है और उसके पास इकट्ठा होने वाली निवेश की बड़ी धनराशि की बात करती है। परंतु पहले यदि देखा जा रहा था कि हर दस में से केवल एक स्टार्ट अप सफल हो पा रहा था तो आज वैसों की स्थिति खस्ता है और वे घाटे में चल रहे हैं। पेटीएम, ओला से लेकर जोमाटो तक की स्थिति खराब ही नहीं है, बहुत ही खराब स्थिति में लोग इनमें काम करते हैं। एक विशाल असंगठित क्षेत्र वाले देश भारत में जहां न तो काम की सुरक्षा है और न कोई सुविधा वहां रोजगार की ही बात नहीं है वहां रोजगार की गुणवत्ता का भी सवाल उठता है जिस पर आई०एल०ओ० ने भी टिप्पणी की है। लेकिन इस तरह के रोजगार के भी आज लाले पड़े हैं। सी०एम०आई०ई० के अनुसार भारत की वर्तमान बेरोजगारी दर 8.1 प्रतिशत है (3 दिसम्बर, 2022)। यह बहुत ही ऊंची है और यदि हम इस बात को लें कि रोजगार की खराब स्थिति से हताश होकर अब कम लोग रोजगार ढूंढ़ रहे हैं तो यह और भी ज्यादा प्रतीत होगी। इसके अलावा आंकड़ों को संग्रहित करने का तरीका भी ऐसा है कि बेरोजगारी की विषमता उससे छिप जाती है। संकट के अलावा कई कारक हैं जिससे बेरोजगारी बढ़ी है। सरकारी क्षेत्र का निजीकरण होने से रोजगार अवसरों में कमी आई है। सरकारी नौकरियों में लगातार भर्ती की प्रक्रिया येन केन प्रकारेण खिंचती चली जाती है जिससे पढ़े-लिखे युवाओं के रोजगार अवसरों में कमी आती है क्योंकि साल-दर-साल भर्ती नहीं हो पाती। संविदा या ठेके पर नौकरी का चलन हो गया है जो सरकारी क्षेत्र से लेकर हर क्षेत्र में असुरक्षित व कम गुणवत्ता वाली नौकरियों को बढ़ावा दे रहा है। कृषि संकट का एक बड़ा असर किसानों के उजड़ने या फिर मजदूरी कर आजीविका चलाने की मजबूरी में परिणत होता है। इससे भी बेरोजगारी बढ़ रही है। हम समझ सकते हैं कि इसका असर कितना व्यापक है जब हम देखते हैं कि हरियाणा जैसे अग्रणी कृषि वाले राज्य में बेरोजगारी दर 30 से 35 प्रतिशत के बीच है! सरकार के पास कृषि संकट का हल वही तीन कॉर्पोरेटपक्षीय कृषि कानून थे जो किसानों की सम्पत्तिहरण में और तेजी लाते। बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सरकार का दिवालियापन तब सामने आता है जब आज के दिन में महिलाएं हताश होकर रोजगार खोजना छोड़ रही हैं (पी०एल०एफ०एस० रिपोर्ट 2022)। युवाओं में भयंकर निराशा की स्थिति बनती जा रही है और अग्निपथ योजना की घोषणा के विरोध में हुए उग्र प्रदर्शन इसकी पूर्वसूचना दे रहे हैं कि स्थिति विस्फोटक बनी हुई है।
जिस देश की विशाल आबादी उजरती श्रम कर जीती हो (वेतनभोगी हो) उस देश में बेरोजगारी का यह आलम भयंकर है। कोरोनाकाल के आये बदलावों में एक यह भी देखा जा रहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार की मांग बढ़ गई है। पर सरकार ने रोजगार मुहैया कराने वाली योजना मनरेगा की राशि में इस साल के बजट में कटौती की है। सरकार का मेहनतकश विरोधी रवैया यहां भी स्पष्ट रूप से सामने आता है। रोजगार के अभाव ने जिस तरह को विपत्ति पैदा की है उसका इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त राशन पर रहने की मजबूरी हो गई है। सरकार इस शर्मनाक तथ्य पर अपनी पीठ ठोकती है और दूसरी ओर भूख के सूचकांक में 121 देशों में 107वें स्थान पर सवाल उठाते हुए उसे दुष्प्रचार कहती है। लेकिन हम देखते हैं कि आये दिन भूख से मौत की खबर आती रहती है। उदाहरण के लिए हाल में खबर छपी थी कि झारखंड के सिमडेगा जिला के एक गांव में सात दिनों तक भूख से तड़पते रहने के बाद एक बच्ची की मौत हो गयी। पड़ोसी देशों से भी भारत का बुरा हाल है और यह स्थिति मोदी सरकार पर सीधा उंगली उठाती है। यह रिपोर्ट दिखाती है कि किस तरह से गरीबी में रहनेवाले यानी मजदूरों व गरीब किसानों के नौनिहालों में कुपोषण से अपक्षय और बौनापन (wasting and stunting) होते हैं। भूख का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है यह हमारी भावी पीढों के कमजोर बनने का सवाल है। भारत जैसे देश में जहां गोदामों में अन्न सड़ रहे हैं यह वर्ग सम्बंधों को भी परिलक्षित करता है। यह बड़े पूंजीपति एवं भूस्वामी वर्ग के चरम वर्चस्व को दिखाता है। आज भारत के सबसे ज्यादा आय वाले 98 व्यक्तियों के पास उतना धन है जितना कि निचले पायदान के 55.2 करोड़ लोगों के पास लेकिन उन पर टैक्स बढ़ाना तो दूर सरकार उन्हें तरह-तरह की टैक्स छूट देती रहती है। यह एक वर्ग सवाल है जो अंततोगत्वा उस शासन की ओर उंगली उठाता है जो विपत्ति में पड़े लोगों को दबाने के लिए भयंकर फासीवादी कदम उठा रहा है और तमाम विरोध को कुचल रहा है। स्थिति इतनी बुरी है कि केवल बड़े पूंजीपति मालामाल ही नहीं हो रहे इस समाज के दूसरे छोर पर रहने वाले मजदूरों-किसानों सहित तमाम मेहनतकशों की जिंदगी इस कदर प्रभावित हुई है कि वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बता रहे हैं कि आज फिर से निरपेक्ष गरीबी में बढ़ोतरी हुई है और विभिन्न आकलनों के तरीकों के मुताबिक करीब 2.3 करोड़ से लेकर 5.6 करोड़ के बीच लोग अत्यंत निर्धनता में धकेल दिए गए हैं (Poverty and shared prosperity report, 2022)। इक्कीसवीं सदी के सारे विकास को ये आंकड़े मह चिढ़ाते हैं और इस विकास के, वास्तव में साम्राज्यवादी पूंजीवादी विकास के, भयंकर अंतर्विरोधी चरित्र को सामने लाते हैं। यह हमारे वर्ग संघर्ष के पीछे हटने की ओर भी इंगित करता है। यह इस कन्वेंशन को इस बात की सुध लेते हुए जद्दोजहद के मोर्चे पर आगे बढ़ते रहने की मजबूरी का पैगाम देता है।
निरपेक्ष गरीबी का बढ़ना, बेरोजगारी का आलम, 5 किलो मुफ्त राशन के होते हुए भी भूख के साम्राज्य का बढ़ना यदि विपत्ति को दिखाते हैं, तो चल रही बेतहाशा दामवृद्धि जले पर नमक का काम कर रही है और गरीबों को ही नहीं मध्यम आय वाले लोगों की स्थिति भी नाजुक बना रही है। रसोई गैस, पेट्रोल के दामों में लगातार वृद्धि से लेकर हर जीवनोपयोगी वस्तु का दाम बढ़ा है चाहे वह दवाई हो या फिर खाद्य वस्तु। यह जितना चिंताजनक विषय है उससे कम चिंता का विषय यह नहीं है कि दाम वृद्धि सापेक्ष रूप से मंद होती अर्थव्यवस्था में हो रही है। यह दिखाता है कि मांग दाम बढ़ाने का काम नहीं कर रहे हैं वरन् अन्य आर्थिक कारक काम कर रहे हैं जो आसन्न भीषण संकट की ओर इंगित करते हैं, भले ही सरकार के नीति आयोग के सी०ई०ओ० या आर्थिक सलाहकार इस तथ्य को नकारते हों। पूरा विश्व जिस आर्थिक संकट पर मुंह बाये हुए है उसका अंदेशा खुद बड़े पूंजीपतियों को भी है अभी हाल में ही सामान बेचनेवाली इजारेदाराना कंपनी एमेजॉन के सी०ई०ओ० ने अमरीकी लोगों से फ्रिज, टीवी जैसे उपकरण खरीदने के खिलाफ चेताते हुए कहा है कि पैसे बचाकर रखिए क्योंकि बहुत बुरा समय आनेवाला है। उन्होंने कहा कि इंतजार कीजिए इसके खत्म होने का और प्रार्थना कीजिए। हम जो मेहनतकशों के संगठन हैं हम प्रार्थना नहीं करते बल्कि ऐसे हालात से पार पाने के लिए संघर्ष को तेज करते हैं। यह विश्व पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है और जिसे और तीव्र होना है वह हमारे सचेतन संघर्ष की मांग करता है। सोचिए, ब्रिटेन जैसे अग्रणी पूंजीवादी व अमीर देश में 50 लाख लोग एक शाम खाना त्यागने को मजबूर हो गए हैं। यही है यह व्यवस्था जिसके खिलाफ हमारा संघर्ष है और जिसे हमें पूरी गंभीरता से संचालित करना चाहिए।
ब्रिटेन के ‘ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ ने मजदूरी की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि यदि मजदूरी की शर्तें बेहतर नहीं होतीं, सुविधाएं नहीं बढ़तीं तो ब्रिटेन विक्टोरियाकालीन गरीबी देखने को मजबूर होगा। मजदूरी की शर्तों की बात कहकर इस यूनियन ने एक महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर किया क्योंकि अधिकतर आबादी उजरती (वेतनभोगी) श्रम कर आजीविका चलाती है और ऐसे में काम की शर्तें उनके जीवन की शर्तें ही नहीं पूरे देश की परिस्थिति को भी निर्धारित करती हैं। भारत के लिए भी यह सही है। तब हमारा ध्यान निजीकरण, डाउनसाइजिंग और आउटसोर्सिंग तथा संविदा पर काम करने वाले कर्मचारियों व ठेका मजदूरी की बढ़ोतरी की ओर जाता है। ये सब संघर्ष के विषय हैं और हमारे संघर्षों की कमजोरी को भी रेखांकित करते हैं। हम श्रम कानूनों की बात करना चाहेंगे। श्रम कानूनों द्वारा मिले अधिकार वे हथियार थे जो कितने भी सीमित दायरे के क्यों न हो हमें पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष में मदद करते रहे हैं और संघर्ष के ही परिणाम हैं। इन्हें खत्म कर सरकार ने श्रम संहिताओं को बहाल किया है। 29 सबसे महत्वपूर्ण श्रम कानूनों को खत्म कर अब 4 लेबर कोड बनाये गए हैं जो मजदूरों को पूंजीपतियों के मनमाने पर छोड़ देते हैं, लंबे जुझारू संघर्षों से छीने गये सुरक्षा कवचों को खत्म कर देते हैं और ‘हायर एंड फायर’ के नियम लागू करते हैं। उसके पहले ही ‘फिक्स्ड टर्म इम्प्लायमेंट’ ने कैजुअल काम को मान्यता देते हुए उसे लागू कर दिया था जिसके तहत स्थायी मजदूर बनने की संभावना क्षीण हो गई। नीम (NEEM) के नाम से ऐसे लोगों से काम लिया जाता है जिन्हें न तनख्वाह मिलती है और न ही जिनको कोई अधिकार रहता है। चार श्रम कानून में मजदूरी पर बने कोड में बहुत गड़बड़झाला है, विशेषकर तब जब वह मुख्य नियोक्ता को स्पष्ट रूप से चिंहित नहीं करता। यह नियोक्ता के उत्तरदायित्व निर्धारित करने के लिए और मजदूरों के अधिकारों को बहाल कर पाने के लिए जरूरी है। जहां काम के दौरान जोखिम वाले नियम को कमजोर किया गया है वहीं किसी दुर्घटना की स्थिति में मालिकों के आपराधिक दायित्व को कम किया गया है। सरकार के श्रम विभाग के इंस्पेक्टरों को ‘फैसिलीटेटर’ कहकर उनके निगरानी के अधिकारों को कम किया गया है और उन्हें कानूनों के पालन में प्रबंधन को मदद करने वाले का दर्जा दे दिया गया है! उद्योगों में कानूनों के पालन पर श्रम विभाग की रिपोटों की व्यवस्था को खत्म कर स्वयं प्रमाणन (self-certification) का प्रावधान तो पहले ही कर दिया गया है। इससे सुरक्षा इंतजामों पर कटौती कर नियोक्ता मजदूरों को काल के मुंह में धकेलेंगे जैसा कि लगातार हो रहे अग्निकांड से लेकर अन्य दुर्घटनाओं से पता चलता है। जब ये कोड कायान्वित होंगे तो इस स्थिति को वैधानिकता मिल जायेगी और खर्च कटौती करने के लिए पूंजीपति सुरक्षा नियमों की अवहेलना करेंगे। मजदूरों के यूनियन बनाने के अधिकार व हड़ताल करने के महत्वपूर्ण अधिकारों पर भी कुठाराघात हुआ है। सम्पूर्णता में अब औद्योगिक व सेवा जगत में जंगल के नियम चलेंग। मजदूर वर्ग के हकों पर यह गहरी चोट है और इसके खिलाफ जोरदार ढंग से संघर्ष करना पड़ेगा। जब आपदा में अवसर देखते हुए कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेटों को सौंपने के लिए कानून लाया गया तो किसानों ने जमकर विरोध किया और वे साल भर तक दिल्ली की सीमा पर टिके रहे। हमने किसान आंदोलन के दौरान देखा कि कैसे-कैसे दुष्प्रचार किये गए। उन्हें खालिस्तानी, देशद्रोही, विदेशी ताकतों के प्यादे आदि बोल कर बदनाम करने की मुहिम चलाई गई। पुलिस और संघ की गुंडावाहिनी द्वारा गाजीपुर के बॉर्डर पर जमे किसानों पर हमला किया गया। सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं थी। फिर भी किसानों की जीत हुई और सरकार को तीनों कानून वापस लेना पड़ा। यह दिखाता है कि बड़े पूंजीपतियां के पक्ष में दृढ़ संकल्प से काम करने वाली इस फासीवादी पार्टी की सरकार से लोहा लेने के लिए जझारू और निरंतर संघर्ष करना जरूरी है।
जहां तक सरकार के दमन करने का सवाल है और उसके पूरे तंत्र के काम करने की बात है तो यह तो एक छोटी बानगी होगी। सरकार केवल दमन का ही सहारा नहीं ले रही है, एक बड़े आकार का दुष्प्रचार चलाकर, घटनाक्रमों का एक सिलसिला बनाकर विरोध का मुंह बंद करने का काम करती है। वह इतिहास का पुन:लेखन कर अपनी विषाक्त सांप्रदायिक व दक्षिणपंथी विचारधारा के लिए वर्चस्व का स्थान बना रही है। न्याय के लिए लड़नेवालों को झूठे मुकदमा में फंसाकर उनकी पूरी धारा तक को कटघरे में खड़ा करने के लिए यह प्रचार चलाती रहती है। आर.एस.एस. के विशाल तंत्र से लेकर दक्षिणपंथी थिंक टैंक और भारतीय राज्य का ‘डीप स्टेट’ दिन रात एक छद्म युद्ध की स्थिति बनाये रखते हैं जिसके लिए तरह-तरह के शब्दावली और नैरेटिव गढ़े जाते हैं। यही वह तरीका है जिससे न केवल जनता को गुमराह किया जाता है बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला किया जाता है। इस काम में बॉलीवुड को बाधा के रूप में देख फिल्म उद्योग पर भी हमला जारी है और धार्मिक भावनाओं पर आघात के नाम पर न्यायालय को भी इस पुनीत काम में लगा दिया गया है। देशप्रेम के नाम पर एक विशाल खेल खेला जा रहा है जिसके तहत किसी को भी देशद्रोही करार देकर उसको कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। लिंच मॉब हो या श्रीराम सेना इन सभी को राज्य का संरक्षण प्राप्त है। तभी तो कहीं मंत्री लिंच करने वालों का स्वागत करते हैं तो कहीं मुस्लिम विरोधी दंगों में गैंग रेप करने वालों की सजा कम कर दी जाती है (बिल्किस बानो केस)। कुकुरमुत्ते की तरह पनपे नरसिंहानंद से लेकर सभी बड़बोले धुर सांप्रदायिक नेता राज्य के संरक्षण के पात्र बन गए हैं। इस भयंकर मकड़जाल की कल्पना करते ही बनता है जो हर आजादी का स्थानीय स्तर पर गला घोंटने के लिए तत्पर बैठा दिखता है, जो बड़ी शिद्दत के साथ अपना काम करता रहता है। भारतीय राज्य के वफादार विपक्ष का गला घोंटने के लिए तो गोदी मीडिया से लेकर सी०बी०आई०, ई०डी० काफी है। इस तरह हर विरोध के स्वर को चाहे वह जिस स्तर का हो उसको दबाने की व्यवस्था है। अभी हाल में जिस तत्परता से न्यायालय ने भी ‘जी०एन० साईंबाबा एवं अन्य’ केस में उनकी रिहाई पर रोक लगाई और जिस तरह के तर्क पर मुहर लगाये गए वह वास्तव में चिंता का विषय बनता है। हम इस संदर्भ में उन विशेष कानूनों की चर्चा करना चाहेंगे जिनके तहत राजनीतिक बंदियों से लेकर आतंकवादियों और बहुधा आम लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। फिर भी ज्यादातर मामलों में न्यायालय ने ऐसे बंदियों को निर्दोष पाया है लेकिन तब तक लंबा समय बीत चुका होता है। यह भारतीय राज्य के कानून के दायरे में गैर-कानूनी दंड का तरीका है। कानून जिसे बरी कर देता है, जो निर्दोष है, वह पहले ही लंबा समय जेल में बिता लिया होता है। इसे “प्रक्रिया के रूप में सजा” कहा जाता है और आज के दिन में इसका खूब प्रयोग हो रहा है। हम जिन कानूनों की बात कर रहे हैं उन्हें निवारक नजरबंदी (preventive detention) कानून की श्रेणी में रखा जाता है। निवारक नजरबंदी के कानूनों के प्रावधान बहुत ही भयंकर होते हैं। वे न्याय के उसूलों की खुले तौर पर धज्जी उड़ाते हैं। इनके तहत राजनीतिक बंदियों को सजा होती है और ये राजनीतिक विरोधियों को साधने के काम में लगाये जाते हैं। इनका काम व्यवस्था पोषण होता है, ये वर्ग शासन को चलाये रखने का काम करते हैं। याद रहे कि इस कोटि के कानून ब्रिटिश राज के भी हथियार थे जिनके तहत वह अपने शासन को बनाये रखता था। हमें ऐसे कानूनों का विरोध करते हुए मांग करनी चाहिए कि संविधान से इस प्रावधान को हटा देना चाहिए क्योंकि यह जनतांत्रिक मूल्यों की और आजादी की शर्तों की घोर अवहेलना करते हैं। केवल खुले तौर पर राजनीतिक विरोधियों को ही नहीं विकास के नाम पर परियोजनाओं का विरोध करने वाले जनसमूहों पर भी यह लागू किया जाता रहा है। आखिर विकास को उच्चतम पवित्र स्थान दिया गया है जिसके नाम पर जनता के विस्थापन से लेकर हर तरह की हेराफेरी को जायज ठहराया जा रहा है (नियमागिरी हो या फिर हंसदेव अरण्य या विझिंजम समुद्री बंदरगाह हर जगह आदिवासियों से लेकर आम मेहनतकश जनता को बेरहमी से हटाया जाता है)। कॉर्पोरेट पक्षीय कृषि कानून हो या श्रम कानून सभी को विकास के नाम पर ठेला जाता है। पर्यावरण आकलन अधिनियम के प्रावधान आज इतने ढीले कर दिए गए हैं कि पर्यावरण की चिंता किये बिना पूंजीपति परियोजनाओं पर काम कर सकते हैं। और यह सब विकास के नाम पर निजीकरण हो या वित्त पूंजी का तुष्टिकरण सब इसी नाम पर हो रहा है। विकास के नाम पर पूंजीपतियों को कौड़ी के दाम पर मूल्यवान संसाधन सौंप दिये जा रहे हैं। विकास यानी पूंजीवादी विकास के जनविरोधी चरित्र को ढकने के लिए विरोधियों को विकास विरोधी और आगे बढ़कर राष्ट्रद्रोही तक घोषित कर दिया जाता है। आज का पूरा समां ऐसा है कि ऐसे आरोप आसानी से लगा दिये जाते हैं और जनता को दमन का शिकार बनाया जाता है। इस समां को आगे बढ़ाते हुए जो नैरेटिव व योजनाएं आ रहे हैं वे भयंकर दिनों का अंदेशा देते हैं।
आज आधारहीन बातों को भी तरजीह देते हुए उकसाऊ शब्दावली में बदला जा रहा है। इसमें से टुकड़े-टुकड़े गैंग और अरबन नक्सल का प्रयोग बार-बार होता है। विरोधियों को देशद्रोही की संज्ञा दी जाती है जिससे सच्चाई पर पर्दा डाला जा सके। मोदी सरकार और देश को पर्याय मानकर चला जा रहा है। पर खतरनाक बात तब होती है जब अरबन नक्सल जैसे उन्मत्त दिमाग की शब्दावली को वैधानिक स्वीकृति मिल जाती है। यह खतरनाक प्रवृत्ति को दिखाता है जो तमाम न्यायोचित जनपक्षीय विरोध को कटघरे में खड़ा कर खत्म कर देने का प्रयास प्रतीत होता है। इस संदर्भ में हम जनपक्षीय ताकतों को एक संगीन घड़ी का सामना करना पड़ रहा है। यह केवल हिमांशु कुमार या तीस्ता सीतलवाड़ के मामले में या अन्य न्यायिक फैसलों में ही नहीं दिखाई पड़ता वरन् यह राज्य की नीति बनता जा रहा है। इस संगीन घड़ी को और दमन के ऑक्टोपस जैसे फैलते बाहों को हमें समझना होगा और प्रतिरोध खड़ा करना होगा। नवंबर, 2021 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के आई०पी०एस० प्रशिक्षुओं को दीक्षांत समारोह में संबोधित करते हुए कहा कि अब युद्ध का मैदान बदल गया है और आज के युद्ध की नयी सरहद नागरिक समाज है और इसी में लड़ाई लड़ी जायेगी। रेगुलर युद्ध से बहुत कुछ हासिल नहीं होता इसीलिए यही नया मैदान चुना गया है। यानी पूरे समाज को न्यायोचित विरोध करने वालों के खिलाफ झोंक देने का इरादा है। यह जंग कैसा होगा, कितना भयानक दमन का सिलसिला चलेगा समझा जा सकता है। अजित डोभाल ने नागरिक समाज को जंग का नया मैदान कहा। यह एक वृहत योजना की ओर इंगित करता है। नागरिक समाज यदि युद्ध का मोर्चा है तो जाहिर तौर पर हर तरह का उपाय किया जायेगा जंग जीतने के लिए। इसकी लपटें हर न्यायपसंद, जनतंत्रपक्षीय व्यक्ति तक पहुंचेंगी तो कितना भयंकर आलम होगा! कितना फरेब है इसका इस बात से पता लगाया जा सकता है कि ‘स्टैंड विथ फामर्स’ के ट्वीट करने के लिए पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को देशद्रोही कहा गया और विस्तृत कहानी बनाई गई। अब भी मौका है कि हम समाज को बचा लें, अपने प्रयासों को बढ़ायें और एकजुटता दिखायें। विरोध के उदारवादी स्वरों को भी जिस कदर कुचला जा रहा है वह एन०डी०टी०वी के अदानी समूह द्वारा अधिग्रहण से पता चलता है। संपूर्ण वर्चस्व यही है फासीवादियों का नारा और यह नारा बड़े पूंजीपतियों के संपूर्ण वर्चस्व के लिए ही है। यह राजनीति धुर दक्षिणपंथी राजनीति है जो मेहनतकशों के किसी भी वाजिब मांग व आंदोलन को बर्दाश्त नहीं कर सकती। यह राजनीति केवल और केवल कॉर्पोरेट वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ही है। फासीवादी शक्तियां भले ही समाज पर अपना नागपाश कस रही हैं लेकिन हम भी प्रतिरोध खड़ा करने में कमी नहीं दिखायेंगे जैसा कि पूर्व में भी हमने दिखाया है।
हम बिहार की धरती से देश पर नजर डाल रहे हैं तो हमें यहां की हालत पर भी गौर करना चाहिए। कोरोनाकाल ने यहां की स्वास्थ्य सेवाओं की बदत्तर हालत को सामने लाया तो प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों की पढ़ाई बर्बाद हुई जो इसकी कमी को ही दिखाती है। कृषि क्षेत्र का संकट यहां भी है और यहां के गांवों में काम के अवसर बहुत कम हैं। रोजगार के क्षेत्र को लें तो एक तरफ स्कीम वर्कर अपने अत्यल्प वेतन के खिलाफ संघर्षरत हैं तो बी०पी०एस०सी० अभ्यार्थी भी धांधली के खिलाफ आंदोलन करने को मजबूर हैं। मनरेगा में यहां काम के अवसर कम हो रहे हैं जबकि मांग बनी हुई है। जनतांत्रिक अधिकारों की जहां तक बात है तो स्थिति कोई अच्छी नहीं है। पटना जैसे शहर में, जो राजधानी है और जहां विक्षुब्ध जनसमुदाय न्याय की गुहार लगाने आता है, विरोध प्रदर्शनों पर व्यवहारतः रोक लगी हुई है और उन पर पुलिसिया रोक लगती रहती है। जन अभियान, बिहार ने जनतंत्र में विरोध प्रदर्शनों को निर्वासित करने की इस गैर-जनतांत्रिक मुहिम के खिलाफ आवाज उठायी था और वामपंथ के लोगों ने भी इसमें भागीदारी की थी। आज जब महागठबंधन की सरकार है, जिसमें वामपंथ शामिल है तो स्थिति बदली नहीं है। हम इस कन्वेंशन के जरिये पुरजोर मांग करते हैं कि इस स्थिति को खत्म किया जाये और विरोध के स्वरों को पटना शहर में बुलंद करने की आजादी बहाल हो। आज बिहार के गांवों में लंबे समय से सरकारी जमीन पर बने गरीबों के घरों, जिनमें ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत बने मकान तक शामिल हैं, को उजाड़ने की अत्याचारी प्रक्रिया शुरू हो गई है। यह जल, जीवन, हरियाली के नाम पर हो या फिर अतिक्रमण हटाने के नाम पर लेकिन यह गरीबों को बेघर करने की ही मुहिम है। एक तरफ सरकार गरीबों को वासगत जमीन के लिए 5 डीसमिल देने की बात करती है तो दूसरी ओर उन्हें बेघर कर रही है। यह विडंबना ही नहीं है बल्कि सरकार के मेहनतकश-विरोधी चरित्र को उजागर करता है। यह कन्वेंशन इसका पुरजोर विरोध करते हुए ऐसे अभियानों को वापस लेने की मांग करता है।
साथियो, यह कन्वेंशन इस बात को रेखांकित करता है कि आर्थिक हालात बहुत नाजुक है, जनता गंभीर स्थिति में है, युवा रोजगार के लिए हाहाकार मचाये हुए हैं। दमनकारी और कॉर्पोरेट पक्षीय कानूनों जैसे मजदूर विरोधी लेबर कोड से लेकर जनविरोधी व पर्यावरणविरोधी कानूनों को पारित कर सरकार जनता के विभिन्न वर्गों व तबकों को अधिकारविहीन करने का काम कर रही है। आर्थिक संकट मुंह बाये खड़ी है तो इससे जनित जनता के विरोध को कुचलने के लिए भी फासीवादी ताकतें दम लगा रही है। इतिहास ने बताया है कि ऐसी हालतों में जनता को युद्धों में झोंका जाता है, देश में क्रूर दमन चलाया जाता है। आज यूक्रेन युद्ध इस बात को फिर साबित करता है कि साम्राज्यवाद का मतलब ही युद्ध होता है। ऐसे संकट की घड़ी में जनतंत्रविरोधी शक्तियां अंधराष्ट्रवाद का हवा फैलाकर अपना मकसद पूरी करती हैं। हिटलर का जर्मनी हो या मुसोलिनी का इटली दोनों देशों को फासीवादियों द्वारा लादी गयी भयंकर बर्बादी का सामना करना पड़ा। ऐसी स्थिति हम यहां नहीं आने दें और हर न्याय के स्वर को साथ लेकर चलें ताकि जनता को बांटने में, नफरत फैलाकर अपनी रोटी सेंकने में फासीवादी ताकतें असफल रहें।