वापस लिये गये कृषि कानूनों को चोर दरवाजे से लाने की हो रही है कोशिश
December 20, 2022निजी कंपनियां भी खरीदेंगी केंद्रीय बफर स्टॉक (सुरक्षित अनाज भंडार) के लिए खाद्यान्न
अजय सिन्हा
20 सितंबर 2022 को तमाम न्यूज एजेंसियों के द्वारा बड़े पैमाने पर यह सूचना प्रसारित की गई कि केंद्रीय खाद्य मंत्रालय के सचिव सुधांशु पांडेय ने बताया है कि केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने इस संबंध में, जैसा कि शीर्षक में कहा गया है, सभी राज्य सरकारों को पहले ही पत्र लिख भेजा है। यह एक महत्वपूर्ण सूचना है, परंतु दुर्भाग्य से हम सबकी नजरों से यह अब तक ओझल ही बनी रही। ”रोलर फ्लोर मिलर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया” की 82वीं वार्षिक आम बैठक को संबोधित करते हुए पांडेय ने कहा कि केंद्र ने खाद्यान्न की खरीद के संबंध में राज्य सरकारों को दो स्पष्ट संदेश भेज दिए हैं – ”एक यह कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों द्वारा की गई खरीद पर दो प्रतिशत तक का ही आकस्मिक खर्च प्रदान करेगी। दूसरा, केंद्र सरकार दक्षता में सुधार और खरीद की लागत को कम करने के उद्देश्य से केंद्रीय बफर स्टॉक के लिए खाद्यान्न की खरीद के काम में निजी कंपनियों को साथ लेना चाहती है।” लेकिन इस बात का कोई खुलासा नहीं किया गया है कि निजी कंपनियों ने किन आर्थिक शर्तों पर केंद्र सरकार के इस आमंत्रण या प्रस्ताव को स्वीकार किया है। आखिर निजी कंपनियां मुनाफे के लिए ही काम करती हैं, न कि दान (charity) के लिए! क्या केंद्र सरकार यह कहना चाहती है कि निजी कंपनियों ने बिना किसी मुनाफे या अन्य तरह के आर्थिक हित को ध्यान में रखे बिना ही सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार किया है? हम जानते हैं, ऐसा नहीं हो सकता है। तो वे किन आर्थिक शर्तों पर राजी हुईं हैं यह जानना जरूरी है। तभी वास्तव में यह ज्ञात होगा कि इसमें ”दक्षता में सुधार” या ”खरीद की लागत में कमी” का मसला कितना शामिल है या शामिल नहीं है। ज्यादा उम्मीद है कि निजी कपंनियां और सरकार ”लागत में कमी” के नाम पर किसी और ही उद्देश्य से ऐसा कर रही हैं। केंद्र सरकार को कुछ भी छुपाये बिना जनता को पूरी बात बतानी चाहिए।
सुधांशु पांडेय ने अपने संबोधन के क्रम में यह बताते हुए कि ”हम खरीद प्रक्रिया में निजी कंपनियों को भी शामिल करना चाहते हैं”, यह प्रश्न दागा कि ”केवल एफसीआई और राज्य एजेंसियां ही खरीद क्यों करें?” खुल्लमखुल्ला तथा बेरोकटोक निजीकरण और जो भी सरकारी है उसे बेच देने के बेशर्मी से भरे इस वर्तमान दौर में ऐसा प्रश्न करना वैसे अटपटा नहीं है, लेकिन यह इतना तो साफ कर ही देता है कि यह रद्द कर दिये गये और वापस ले लिये गये कानूनों को चोर दरवाजे से फिर से लाने की कवायद है। दरअसल यह अनाज की सरकारी खरीद में एफसीआई तथा अन्य सरकारी एजेंसियों को निजी कंपनियों (जिनमें कॉर्पोरेट घरानों की कपंनियां भी शामिल होंगी) के साथ एक ऐसी प्रतिस्पर्धा में धकेलने के बराबर है जिसमें मोदी सरकार का हाथ निजी कंपनियों के साथ होगा।
बीएसएनएल के साथ जो किया गया उसे हम सबको याद रखना चाहिए। हाल ही में हुए अंतर्राष्ट्रीय अनाज सम्मेलन की यात्रा में सुधांशु पांडेय ने जब यह कह ही दिया कि ”निजी कंपनियां अधिक कुशलता से खरीद का काम करती हैं” तो फिर इसके बाद सरकार की पक्षधरता किधर है इसे समझने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। सच्चाई यह है कि जब नये कॉर्पोरेटपक्षी फार्म कानूनों को मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा, तो कृषि क्षेत्र में पूंजीवादी (मूलत: कॉर्पोरेट की) लूट का एक नया दौर शुरू करने की मोदी की मंशा परवान नहीं चढ़ पायी। उसे ही नये-नये तरीकों से पूरा करने की कवायद इस रूप में शुरू है। यह याद रखने की जरूरत है कि फार्म कानूनों की वापसी के बाद कृषि मंत्री श्रीमान तोमर से लेकर अन्य केंद्रीय मंत्रियों एवं भाजपा नेताओं के द्वारा किस तरह फिर से और नये रूपों में उन्हीं फार्म कानूनों को लाने और लागू करने के बारे में खुलेआम बातें की गयी थीं। ”दक्षता में सुधार और कम लागत” की बात जनता को बेवकूफ बनाने वाला बस एक दिखावटी तर्क है। निजी कंपनियां कम लागत पर एकमात्र भविष्य में बड़ा मुनाफा कमाने के अवसर मिलने की शर्त पर ही काम करेंगी। जहां तक दक्षता की बात है, तो हम सभी जानते हैं कि सरकारी एजेंसियों की कुशलता व दक्षता को जानबूझ कर खत्म करके ही निजी कंपनियों की बनावटी दक्षता की कहानी खड़ी की गई है। हालांकि आज यह साफ हो गया है कि निजी कंपनियों की दक्षता और कुछ नहीं धोखा, झांसा और फरेब है। अभी तक दुनिया में कहीं भी यह साबित नहीं हो सका है कि निजी कंपनियां अपने लिए मुनाफा के अवसर की चोरी करने के अलावा किसी और चीज में दक्ष होती हैं। इसके सैंकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं। कहा जाता है कि सरकारी कंपनियों में भ्रष्टाचार होता है और इससे दक्षता गिरती है। लेकिन यह पूंजीवाद के अंतर्गत निजी मुनाफे तथा संपत्ति के एक आम वातावरण के बीच सरकारी कंपनियों के काम करने की वजह से होता है। नौकरशाही पूंजीवाद का ही अंग है जिसके जरिये सरकारी कंपनियों को आम जनता के हितों से दूर किया जाता है और इसमें निजी संपत्ति को बढ़ाने की प्रवृत्ति के तहत भ्रष्टाचार का बढ़ना लाजिमी है। इसके बावजूद सरकार के अपने आंकड़े ही दक्षता और कम लागत के तर्क को खारिज कर देते हैं। जैसे कि स्वयं सुधांशु पांडेय का ही कहना है कि एफसीआई और अन्य सरकारी एजेंसियां बफर स्टॉक के लिए सालाना लगभग नौ करोड़ टन अनाज की खरीद करती हैं, जबकि छह करोड़ टन की मांग होती है। क्या यह दक्षता की कमी को प्रमाणित करता है? जहां तक कम लागत की बात है, तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि मोदी सरकार एफसीआई तथा अन्य सरकारी एजेंसियों के कर्मचारियों के सरकारी वेतन का बोझ अब नहीं उठाना चाहती है। इसका अर्थ यह है कि अनाज की खरीद में लगी सरकारी एजेंसियों के कर्मचारियों की नौकरी खतरे में है और इसके बदले सरकार निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने का मन बना चुकी है। ठीक-ठीक यह कैसे होगा जानना मुश्किल है, क्योंकि सरकार पूरी बात बताने वाली नहीं है कि आखिर किन वास्तविक आर्थिक शर्तों पर निजी कंपनियां सरकारी अनाज खरीदने के लिए राजी हुई हैं।
यह ध्यान देने वाली बात है कि मुख्य रूप से चावल और गेहूं सीधे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदा जाता है और गरीबों को कल्याणकारी योजनाओं के तहत इसका वितरण किया जाता है। यह काम निजी कपंनियों को क्रमशः सौंपने का अर्थ ही है एफसीआई तथा इस जैसी अन्य सरकारी एजेंसियों के वजूद को धीरे-धीरे खत्म करना। इसका अंतिम परिणाम सरकारी मंडी का खात्मा ही होगा। क्या यह फार्म कानूनों को ही अन्य तरीके से लागू करना नहीं है? उसके तहत भी तो यही सब किया जाना था। सरकारी मंडी और सरकारी एजेंसियों को बनाये रखते हुए निजी कंपनियों को किसानों के खेत व दरवाजे से सीधे खरीद करने की इजाजत दी गयी थी। हां, फर्क यह है कि उसके तहत निजी कंपनियां बाजार भाव पर खरीदतीं जो शुरू में एमएसपी से ऊपर भी हो सकता था, जबकि इस नये प्रस्ताव में निजी कंपनियां एमएसपी पर खरीद करेंगी। लेकिन दोनों का अंतिम परिणाम एक ही है – सरकारी एजेंसियों का अंत तथा फिर अंतत: सरकारी मंडी का खात्मा। कुल मिलाकर चुपके से नये बोतल में पुरानी शराब ही तो डालने की यह कोशिश है।
इसके अतिरिक्त खरीद की लागत कम करने के बारे में केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को स्पष्ट रूप से बता दिया है कि केंद्र सरकार किसी भी हालत में दो प्रतिशत से अधिक का आकस्मिक खर्च वहन नहीं करेगी। केंद्रीय खाद्य सचिव के अनुसार ”हमने उन्हें (राज्यों को) संकेत दे दिया है कि भारत सरकार दो प्रतिशत से अधिक आकस्मिक खर्च वहन नहीं करेगी। यदि राज्य सरकारें अधिक देना चाहती हैं, तो (वे) अपने दम पर ऐसा कर सकती हैं। … इसके कारण खरीद की लागत कम हो जाएगी।” यह भी कहा गया है कि ”खरीद लागत बढ़ गई है क्योंकि कुछ राज्यों ने 6-8 प्रतिशत कर और अन्य शुल्क लगाए हैं जिसका भुगतान मौजूदा समय में केंद्र कर रहा है। …इससे न केवल खरीद की लागत बढ़ी है बल्कि उपभोक्ताओं और उद्योगों को भी नुकसान हो रहा है। यह संदेश राज्यों को दिया गया है और इसे जल्द ही लागू किया जाएगा।” हालांकि यह मामला अभी चर्चा के स्तर पर है, लेकिन इसकी दिशा स्पष्ट है। निजी कॉर्पोरेट कपंनियों को अनाज के उत्पादन और भंडारण पर कब्जा दिलाने का जो काम अधुरा रह गया है, उसे कॉर्पोरेटपक्षी कृषि कानूनों की अनुपस्थिति में कैसे किया जाये – यही इस नये प्रस्ताव का मुख्य उद्देश्य है। (खबर का स्रोत – बढ़ेगा केंद्र का बफर स्टॉक, निजी कंपनियां भी खरीदेंगी केंद्र के लिए खाद्यान्न – Center buffer stock will increase private companies will also buy food grains for the center | Moneycontrol Hindi)