पीएलआई आधारित औद्योगिक नीति – मैनुफैक्चरिंग हब का दिवास्वप्न

December 20, 2022 0 By Yatharth

एम असीम

पिछले दो साल में मोदी सरकार ने सार्वजनिक बजट में से उत्पादन संबंधी प्रोत्साहन के नाम पर तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक की पूंजी विभिन्न देशी-विदेशी पूंजीपतियों को दी है। इसका मकसद घरेलू मैनुफैक्चरिंग को वैश्विक होड़ में बराबरी के स्तर पर लाकर भारत में मैनुफैक्चरिंग करने वाली कुछ विश्व चैंपियन कंपनियां तैयार करना बताया गया है। कहा गया है कि इससे उच्च तकनीक के नवीनतम क्षेत्रों में पूंजी निवेश आकर्षित होगा, उत्पादन में कार्य कुशलता बढ़ेगी, उत्पादन में उच्च परिमाण से बचत हासिल होगी, निर्यात में तेजी से इजाफा होगा और भारत वैश्विक औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला की एक अहम कड़ी बन जाएगा।

देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होने वाले इस मकसद के नाम पर यह सार्वजनिक पूंजी इस तरह दी गई है कि इस पर कोई ब्याज चुकाना तो दूर इन पूंजीपतियों को इसका मूलधन भी नहीं चुकाना होगा। सरकारी बजट से प्रदत्त इस पूंजी के बदले उस उद्योग में सरकार को कोई शेयर भी नहीं मिलेंगे अर्थात उद्योग में पूंजी लगाने के बावजूद भी उसके मालिकाने में सार्वजनिक क्षेत्र का कोई हिस्सा नहीं होगा, न उसके संचालन में कोई सार्वजनिक हस्तक्षेप होगा, न ही उससे होने वाले मुनाफे में से सरकार को एक नया पैसा मिलेगा। अर्थात उद्योग में निवेश की गई पूंजी का एक बड़ा भाग तो सार्वजनिक होगा, किंतु पूरे उद्योग पर मालिकाना निजी पूंजीपतियों का ही होगा, और देश की आम मेहनतकश जनता को इससे कोई लाभ नहीं मिलेगा।

आगे बढ़ने के पहले हम बता देते हैं कि कुछ बड़े क्षेत्रों के उद्योग मालिकों को इसमें कितनी पूंजी ऐसे ही मुफ्त में सार्वजनिक बजट से दिए जाने का करार अब तक किया जा चुका है (कृपया दी गई सारणी देखें)। इसके अलावा ड्रोन, चमड़ा, खिलौने आदि बनाने वाले कई और उद्योग भी इस योजना में शामिल होने वाले हैं। इन क्षेत्रों के किन पूंजीपतियों को सरकार पूंजी देगी इस पर सौदेबाजी अभी जारी है।

उत्पादन प्रोत्साहन के बहाने सार्वजनिक पूंजी से निजी मुनाफा

गुजरात विधानसभा चुनाव के कुछ महीने पूर्व ही वहां सेमीकंडक्टर चिप बनाने का एक कारखाना लगाने की घोषणा का उदाहरण लेते हैं। यह कारखाना अनिल अग्रवाल के मालिकाने वाली वेदांता नामक कंपनी अपने ताईवानी भागीदारों के साथ मिलकर लगाएगी। इसमें कुल डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी का निवेश होगा। मगर इसमें से 75,000 करोड़ रुपए सरकार सार्वजनिक बजट से देगी और वेदांता व उसके पार्टनर सिर्फ बाकी 75,000 करोड़ की पूंजी लगाकर ही डेढ़ लाख करोड़ रुपए की कुल पूंजी के एकछत्र मालिक बन जाएंगे। सरकार औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन के नाम पर जमीन, पानी, टैक्स दरों, अन्य शुल्कों, आदि में जो अलहदा सुविधाएं देगी, वह सब इसके अतिरिक्त हैं। अगर हम बाकी सुविधाओं का हिसाब अभी छोड़ भी दें, तब भी साफ है कि डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी पर होने वाला लाभ सिर्फ 75,000 करोड़ रुपए की पूंजी लगाने वाले पूंजीपतियों को हासिल होगा अर्थात ऐसी स्थिति में सामान्य स्थिति की तुलना में उनकी मुनाफा दर सीधे दो गुना हो जाएगी।

मगर मीडिया, विश्वविद्यालयों, थिंक टैंकों में बैठे भाड़े के पूंजीवादी विद्वान भोंपू हमेशा कहते मिलेंगे कि सरकार या राज्य का काम उद्योग-व्यापार नहीं है, सरकार को कारोबार में हाथ नहीं डालना चाहिए, बिजनेस क्षेत्र को निजी पूंजी के लिए पूरी तरह खुला छोड़ देना चाहिए, और सरकार को सिर्फ कानून व्यवस्था संभालनी चाहिए। पर उनके कहने का वास्तविक अर्थ होता है कि सरकार को सभी के लिए भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, यातायात, सफाई, खेलकूद, मनोरंजन, आदि सार्वजनिक सुविधाओं की व्यवस्था के बिजनेस से दूर रह कर इन्हें निजी पूंजीपतियों द्वारा व्यवसायीकरण व सुपर मुनाफे लूटने के लिए न सिर्फ खुला छोड़ देना चाहिए, बल्कि उनके मुनाफे के रास्ते में आने वाली किसी भी बाधा को दूर करने में ही मुस्तैदी से जुटे रहना चाहिए, चाहे इसके लिए विरोध करने की जुर्रत करते पीड़ित लोगों पर कानून-व्यवस्था संभालने के नाम पर बेरहमी से लाठी-गोली ही क्यों न चलानी पड़े।

पूंजीपति वर्ग की खैरात पर बुद्धिजीवी बने इस नीति के हिमायती बुर्जुआ विद्वानों का कहना है कि इससे बहुत से बेरोजगारों को रोजगार मिलेंगे। अतः सार्वजनिक बजट से इन्हें यह सब्सिडी देना उचित है। सरकार ने भी इन उद्योगों से 60 लाख रोजगार मिलने का दावा किया है। बताया जा रहा है कि विश्व पूंजीवादी होड़ के चलते पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों में परस्पर गुटबाजी के बढ़ने से एकध्रुवीय दुनिया बहुध्रुवीय दुनिया में बदल रही है और युद्ध का खतरा बढ़ रहा है। अतः सभी देश, खास तौर पर अमरीकी-नाटो खेमे के देश, मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र में चीन पर अपनी निर्भरता घटाना चाहते हैं, और इसके विकल्प खोज रहे हैं। ऐसे में भारत को मैनुफैक्चरिंग हब बनाने हेतु उत्पादन प्रोत्साहन की इस नीति से भारतीय उद्योग कुशल बनेंगे। भारत में पहले ही एक विशाल बेरोजगार युवा कार्य बल मौजूद है जिसे प्रशिक्षित कर इन उद्योगों में सस्ती मजदूरी पर काम पर लगाया जा सकता है। अतः विश्व भर के पूंजीपति अपनी मैनुफैक्चरिंग को चीन से हटाकर भारत लाने के लिए राजी हो जाएंगे। ऐसे में भारत भविष्य में चीन की तरह एक निर्यात आधारित तीव्र आर्थिक वृद्धि वाला देश बन जाएगा।

उत्पादन प्रोत्साहन हेतु सार्वजनिक बजट से पूंजी देने के अतिरिक्त मोदी सरकार की दूसरी नीति आत्मनिर्भरता या आयात प्रतिस्थापन (Import substitution) की है। सरकार देशी-विदेशी पूंजीपतियों को पूंजी, टैक्स छूट, सस्ती जमीन, शुल्क रियायतें आदि देकर कह रही है कि वे अधिकाधिक कलपुर्जे विदेशों से आयात कर यहां सिर्फ अंतिम उत्पाद को असेंबल करने के बजाय उसका स्थानीयकरण करें अर्थात ज्यादा से ज्यादा अवयव-पुर्जे यहीं बनाएं। उसे लगता है कि इससे मैनुफैक्चरिंग की पूरी आपूर्ति श्रृंखला को ही देश में लाना मुमकिन होगा। इसके लिए विदेशी पूंजीपतियों को रियायतों के बदले तकनीक हस्तांतरण करने के लिए कहा जा रहा है। साथ ही इन कलपुर्जों पर ऊंचा आयात कर लगाकर महंगा किया जा रहा है ताकि इनके आयात के बजाय इन्हें देश में ही बनाने को प्रोत्साहन मिले। भारतीय पूंजीपति वर्ग का स्वदेशी का पुराना विचार भी इसमें एक भूमिका अदा करता है। पर इसकी अपनी समस्याएं भी हैं जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे।

इसी नीति का तीसरा एवं अपरिहार्य अंग मजदूर वर्ग द्वारा लंबे संघर्ष व बलिदान से हासिल मौजूदा श्रम अधिकारों पर तेज होता आक्रमण है। देशी-विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा दे उच्च तकनीक आधारित निर्यातोन्मुख औद्योगिक विकास के लिए पूंजी की एक बड़ी शर्त सस्ती मजदूरी दर के साथ ही फौजी अनुशासन में बिना किसी प्रतिरोध के लंबे घंटे तक काम करने वाले असंगठित आज्ञाकारी मजदूरों की अबाध आपूर्ति है। ये घर-परिवार से दूर पूंजीपति मालिकों के आठों पहर नियंत्रण में रहने वाले प्रवासी मजदूर हों तो और भी अच्छा, ताकि खुद मजदूरों को भी असेंबली लाइन की तरह एक नियंत्रित तीव्र गति से संचालित कर उच्च उत्पादकता हासिल की जा सके। कम मजदूरी व उच्च उत्पादकता – यही तो पूंजीपतियों के उच्च बेशी मूल्य या मुनाफे को सुनिश्चित करते हैं। इस मकसद के लिए ही यह सरकार कोरोना लॉकडाउन के दौरान काम के दिन को 12 घंटे तक बढ़ाने सहित श्रमिकों के बहुत से मौजूदा अधिकार छीनने वाले चार नए लेबर कोड लेकर आई। इस संबंध में हम आईफोन बनाने वाले फॉक्सकॉन व विस्ट्रोन के भारत में लगे दो कारखानों के मजदूरों के अनुभव के बारे में ‘यथार्थ’ में पहले भी लिख चुके हैं (जनवरी 2022, https://yatharthmag. com/2022/01/16/iphone/)।

कुछ आर्थिक पहलू

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पहले जापान फिर दक्षिण कोरिया और अंत में चीन के पूंजीपति शासक वर्ग इसी निर्यातोन्मुख आर्थिक विकास नीति को अपना कर तीव्र औद्योगिक विकास कर चुके हैं। फिर भारतीय पूंजीपति वर्ग यही सपना देख रहा है तो इसमें अतार्किक क्या है? किंतु इसके विस्तार में न जाते हुए यहां हम इसके राजनीतिक पहलू पर ही केंद्रित करते हुए इसकी आर्थिक संभावनाओं व बाधाओं पर एक अत्यंत संक्षिप्त टिप्पणी ही करेंगे।

एक, दुनिया के हर कोने में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की स्थापना के बाद विस्तार की किसी भी संभावना से रहित पूंजीवाद के मौजूदा लगभग अंतहीन व असमाधेय वैश्विक आर्थिक संकट ने भारतीय पूंजीवाद के लिए उपरोक्त देशों के समान निर्यातोन्मुखी आर्थिक विकास की गुंजाइश लगभग छोड़ी ही नहीं है। एक के बाद आता अगला संकट उसके इस संबंधी समस्त इरादों को नाकाम कर रहा है। अतः इन नीतियों से निर्यात में कोई वास्तविक वृद्धि तो होती नजर नहीं आ रही है, लेकिन निर्यात प्रोत्साहन के नाम पर हर साल सरकारें पूंजीपतियों को विशाल राशि नकद व रियायतों के रूप में हस्तांतरित कर रही हैं।

दो, भारतीय पूंजीपति वर्ग विभिन्न बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों में शामिल होने में खुद को असमर्थ पाता रहा है। स्पष्ट है कि भारतीय पूंजीवाद के अपने गहन आंतरिक अंतर्विरोध व कमजोरियां उसे भारतीय बाजार को उस निर्बाध रूप से मुक्त व्यापार हेतु खोलने से रोकते हैं जो वैश्विक औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला का अंग बनने के लिए आवश्यक है। आज पूंजीवादी औद्योगिक उत्पादन की जो प्रकृति है – एक मोबाइल फोन उत्पादन की आपूर्ति श्रृंखला 60-70 देशों से मिलकर बनती है और अकेले इंटेल नामक एक कंपनी की उत्पादन श्रृंखला में 16,000 इकाइयां शामिल हैं – उसमें हर एक अवयव की आपूर्ति विश्व में मौजूद सबसे सस्ते स्रोत से आयात द्वारा न करने पर बाजार होड़ में टिक पाना नामुमकिन है। 1950 के दशक से लेकर आज तक का इतिहास है कि आयात प्रतिस्थापन के लिए उच्च कस्टम ड्यूटी की नीति कई बार इस्तेमाल में लाई गई। पर हर बार उसका प्रयोग भारतीय पूंजीपतियों ने वैश्विक बाजार के लिए अपनी होड़ क्षमता व तकनीकी कुशलता बढ़ाने के बजाय घरेलू भारतीय बाजार में अपने उत्पादों के दाम बढ़ाकर ऊंचे मुनाफे कमाने का आसान रास्ता चुना। अभी भी सौर ऊर्जा से बैटरियों तक के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च कस्टम ड्यूटी के ऐसे ही नतीजे सामने आए हैं। अतः आयात प्रतिस्थापन द्वारा निर्यातोन्मुख विकास की नीति हर बार असफल सिद्ध हुई है।

तीन, भारत के पड़ोस में ही बांग्लादेश व वियतनाम से लेकर एशिया, अफ्रीका, अमरीका व पूर्व यूरोप के कई देश निर्यातोन्मुख विकास की ऐसी ही नीति लागू कर मैनुफैक्चरिंग में चीन का विकल्प बनने की इस होड़ में शामिल हैं। चिप निर्माण जैसे क्षेत्रों में तो खुद अमरीका 280 अरब डॉलर व चीन 700 अरब डॉलर की निवेश योजनाओं के साथ प्रतियोगिता में शामिल हैं। अतः अधिक संभावना यही है कि वैश्विक औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला में चीन की जगह लेने की यह वैश्विक होड़ पूंजीवादी व्यवस्था के अपने अनिवार्य नियम अनुसार अति-उत्पादन के रूप में एक नवीन तथा अधिक गंभीर औद्योगिक व वित्तीय संकट को ही जन्म देगी।

यह नीति फासीवादी हमला तेज करेगी

ऐसे निर्यातोन्मुखी विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय होड़ में टिकने हेतु हर देश को अपने उत्पादकता के स्तर की तुलना में मजदूर वर्ग के न्यूनतम उपभोग का स्तर अर्थात श्रम शक्ति का मूल्य नीचे रखना और काम के लंबे घंटे व तीव्र गति जरूरी शर्त है। इसमें सामान्य बुर्जुआ जनतंत्र के औपचारिक जनवादी व श्रम अधिकार भी बाधा बनते हैं। जापान में निर्यातोन्मुख औद्योगिक विकास की यह नीति ऐसे वक्त में कामयाब रही जब जापानी फासीवाद ने जापानी मजदूर आंदोलन को निर्ममता से कुचल दिया था, और उसके बाद वह खुद पराजित हो जापान अमरीकी फौजी शासन के अधीन था। एक ओर, शासक वर्ग बिना किसी प्रतिरोध के लिए चुने हुए पूंजीपतियों को आगे बढ़ाने के लिए हर नीति को लागू कर रहा था, तो दूसरी ओर एक निशस्त्र पराजित दमित मजदूर वर्ग पूर्ण आज्ञाकारी बन उत्पादकता की तुलना में निम्न मजदूरी पर लंबे घंटे काम के लिए प्रस्तुत था। दक्षिण कोरिया का औद्योगिक विकास भी इसी तरह अमरीकी फौजी आधिपत्य के अंतर्गत देश के विभाजन के बाद मजदूर आंदोलन के नृशंस दमन के दौर में हुआ। वहां भी राज्य ने चुने हुए पूंजीपति चेबोल (कंपनी/परिवार) की कामयाबी के रास्ते में से हर बाधा को दूर कर दिया और मजदूर वर्ग पूरी तरह कुचल दिया गया। इन दोनों देशों में ही मालिक पूंजीपति के लिए काम के सामने मजदूरों के लिए प्रेम, विवाह, परिवार तक सब कुछ द्वितीय बन गए। नतीजा यह है कि विकास की ऊपरी चकाचौंध के पीछे तथ्य यह है कि ये दोनों समाज आत्महत्याओं में अगुआ और हर सर्वेक्षण में सबसे दुखी समाजों में शामिल रहने वाले देश बन गए।

चीन में भी यह नीति उस परिस्थिति में लागू की गई जब कम्युनिस्ट पार्टी व ट्रेड यूनियन के नेतृत्व पर संशोधनवादी दखल के जरिए खुद मजदूर वर्ग के नेतृत्व का दावा करने वालों ने ही गद्दारी कर उसे निहत्था कर दिया और सर्वहारा अधिनायकत्व के मुखौटे के पीछे से ही पूंजीवादी अधिनायकत्व कायम हो गया। निवास पंजीकरण व्यवस्था या ‘हूकु’ के जरिए औद्योगिक क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं से वंचित प्रवासी मजदूरों के गहन शोषण पर आधारित औद्योगिक विकास की एक पूरी पद्धति अमल में आई। वैचारिक-सांगठनिक तौर पर निशस्त्र-लाचार मजदूर वर्ग इसके प्रतिरोध में नाकाम रहा। परंतु इस सबके बावजूद भी ये सभी देश आज पूंजीवादी आर्थिक संकट की चपेट से खुद को बचाने में सफल नहीं हो पाए हैं।

फिर भारत जैसे देशों में यह नीति किस प्रकार लागू की जा सकती है? साफ है कि बुर्जुआ जनवादी अधिकारों व श्रमिक अधिकारों के हनन व मजदूर वर्ग के प्रतिरोध को संपूर्ण तौर पर कुचल कर ही किसी भी देश में ऐसी नीतियां लागू करना संभव है। चुनांचे भारत और ऐसे अन्य देशों में शासक पूंजीपति वर्ग इसी दिशा में काम कर रहा है। भारत में इसी मकसद की पूर्ति हेतु फासिस्ट मुहिम को आगे बढ़ाने के क्रम में फासीवादी पार्टी को सत्तारूढ़ किया गया है। यह सरकार निरंतर एक के बाद एक कदमों के द्वारा समस्त श्रमिक व जनवादी अधिकारों का दमन करते हुए इस दिशा मे आगे बढ़ रही है। मजदूर आंदोलन को इन पूंजीवादी आर्थिक नीतियों व तीव्र होती फासिस्ट मुहिम के बीच इस संबंध को समझना जरूरी है। तभी इसके प्रतिरोध हेतु आवश्यक सटीक दिशा का निर्धारण संभव है।