एमएसपी गारंटी से खरीद गारंटी तक की यात्रा : इसके निहितार्थ पर एक और बहस की आवश्यकता

December 20, 2022 0 By Yatharth

ऐतिहासिक किसान आंदोलन की अब तक की यात्रा

अजय सिन्हा

एक साल से अधिक समय तक चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन के पहले दौर को खत्म हुए एक वर्ष से भी ज्यादा का समय पूरा हो चुका है। इसकी वर्षगांठ के मौके पर ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ने दूसरे दौर के ”निर्णायक” संघर्ष की घोषणा की है जिसमें एमएसपी पर फसलों की खरीद गारंटी के लिए कानूनी प्रावधान बनाने की मांग सबसे अहम मांग है। आज के बेलगाम एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के लगभग पूर्ण वर्चस्व के काल में किसी भी पूंजीवादी राज्य (या उसकी सरकार) के लिए इसे पूरा करना (मानना और सच्चाई से लागू करना) असंभव है। कार्पोरेटपक्षी कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की तुलना में यह ज्यादा कठिन मांग है, क्योंकि यह मांग पूंजीवाद की सीमा का अतिक्रमण करने की तरफ जाती है। इसके बारे में हमने इफ्टू (सर्वहारा) के पाक्षिक अखबार ‘सर्वहारा’ के अंक-38, (11 से 25 अगस्त 2021), वर्ष- 14  में ही साफ-साफ लिख दिया था कि – ”कृषि कानूनों का स्थगन तो फिर भी किन्हीं हालातों में कुछ समय के लिए संभव हो सकता है, लेकिन सभी फसलों के लिए कानूनशुदा एमएसपी की मांग के माने जाने का तो फिलहाल कोई सवाल ही नहीं उठता है।” इसलिए अगर इस पर किसान आंदोलन होता है, तो एक बार फिर से यह एक प्रेतछाया की तरह मोदी सरकार के सर पर मंडराने वाला है।

यह सही है कि आंदोलन की घोषणा के समय का निर्णय 2024 के लोक सभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए किया गया है जिससे यह पता चलता है कि किसान संगठन किस तरह सोचते हैं। किसान संगठनों को याद है कि मोदी सरकार उत्तरप्रदेश चुनाव के नाजुक वक्त पर ही झुकी थी और ‘माफी’ मांगते हुए कृषि कानूनों को वापस ली थी। एक बार फिर से मोदी सरकार के लिए एक नाजुक समय (2024 का आम चुनाव ) आने वाला है जिसमें किसानों से नाराजगी मोल लेना महंगा पड़ सकता है। किसान संगठन इस मौके का फायदा उठाते हुए मोदी सरकार को झुकाने की चाल चल रहे हैं। वैसे इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन यहां पर किसान नासमझी में गच्चा खाने को तैयार हैं। इसमें वे दोहरी गलती कर रहे हैं। पहली गलती यह कि किसान संगठन शायद सच में यह समझते हैं कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद बड़ी निजी कंपनियों को कृषि क्षेत्र से परे धकेल दिया गया है। दूसरी यह कि वे कृषि कानूनों की तर्ज पर ही फसलों की खरीद गारंटी कानून को ‘लागू’ करवा लेना चाहते हैं।

कृषि कानूनों की वापसी की सत्यता की बात करें, तो इसकी वापसी के दूसरे दिन से ही कृषि मंत्री से लेकर भाजपा के अलग-अगल नेता ही नहीं लगभग सभी अखबार अपने संपादकीय कॉलम में यह कहने लगे थे कि ये कानून दूसरी शक्ल में फिर से आएंगे। ‘यथार्थ’ के पन्नों में हम भी न जाने कितनी बार यह लिख चुके हैं। मोदी सरकार इस बीच जो करती रही है उसके बारे में भी हमने लगातार लिखा है। हमने फिर से इसी अंक में अलग से एक लेख प्रकाशित कर मोदी सरकार के एक अहम निर्णय पर टिप्पणी करते हुए यह दिखाने की कोशिश की है कि कृषि कानूनों की वापसी को निष्प्रभावी बनाने की कोशिश कैसे चली रही है।[1] हमने यह बताया है कि मोदी सरकार ने इसी साल सितंबर में केंद्रीय बफर स्टॉक के लिए खाद्यान्न खरीद के काम में अपनी आर्शीवाद प्राप्त व लाडली निजी कंपनियों को खरीद करने की इजाजत देकर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) एवं अन्य सरकारी एजेंसियों को उनके साथ प्रतिस्पर्धा में उतारने का फैसला कर लिया है ताकि कॉर्पोरेटपक्षी कृषि कानूनों को सरकार चोर दरवाजे से लागू कर सके। फर्क सिर्फ इतना है कि इसे इस बार केंद्रीय बफर स्टॉक के लिए होने वाली सरकारी खरीद की प्रक्रिया के तहत किया जा रहा है। इसलिए ही तो हम इसे चोर दरवाजा कह रहे हैं। कृषि कानूनों की वापसी वैसे तो एक बड़ी जीत का प्रतीक बनी, लेकिन जो मोदी सरकार के काम करने के तरीके को जानते हैं वे जानते हैं कि यह जीत कितनी वास्तविक है और कितनी फर्जी यह तय होना अभी बाकी है। हमने लिखा है – ”यह (निजी कंपनियों को केंद्रीय बफर स्टॉक के लिए अनाज खरीदने की मिली इजाजत) रद्द कर दिये गये और वापस ले लिये गये कानूनों को चोर दरवाजे से फिर से लाने की ही कवायद है। दरअसल यह अनाज की सरकारी खरीद में एफसीआई तथा अन्य सरकारी एजेंसियों को निजी कंपनियों (जिनमें कॉर्पोरेट घरानों की कपंनियां भी अवश्य ही शामिल होंगी) के साथ एक ऐसी प्रतिस्पर्धा में धकेलने के बराबर है जिसमें मोदी सरकार का हाथ निजी कंपनियों के साथ होगा। रिलायंस के जियो के साथ मिलकर बीएसएनएल को जिस तरह से बर्बाद किया गया उसे हम सबको याद रखना चाहिए। केंद्रीय खाद्य सचिव सुधांशु पांडेय ने हाल ही में हुए अंतर्राष्ट्रीय अनाज सम्मेलन की यात्रा के दौरान जब यह कह ही दिया है कि ”निजी कंपनियां अधिक कुशलता से खरीद का काम करती हैं” तो फिर इसके बाद सरकार की पक्षधरता किस ओर है इसको समझने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। सच्चाई यह है कि जब कृषि कानूनों को मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा, तो कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट की लूट का एक नया दौर शुरू करने और कॉर्पोरेट घरानों को अकूत फायदा पहुंचाने की मोदी सरकार की मंशा परवान नहीं चढ़ पाई, अधुरी रह गयी और उसे ही नये-नये तरीकों से पूरा करने की कवायद की जा रही है जो कृषि कानूनों की वापसी के बाद पहले ही दिन से शुरू है।”[2]

किसान संगठन अगर एमएसपी और फसलों की खरीद गारंटी की लड़ाई भी इसी तरह फर्जी तौर पर जीतना चाहते हैं, तो वे एकमात्र अपने को ही धोखे में रखने की नीति पर चल रहे हैं। लेकिन हम इस लेख में खास तौर से किसान संगठनों की नयी मांग, एमएसपी की कानूनी गारंटी से फसलों की खरीद गारंटी में हुए परिवर्तन तथा इसके निहितार्थ के बारे में बात करना चाहते हैं।

क्या यह परिवर्तन मामूली और महत्वहीन है? कुछ लोग ऐसा ही मानते हैं, लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न है। हम ऐसे लोगों के बारे में सही मौके पर, इस लेख में आंशिक तौर पर तथा किसी और लेख में संपूर्णता में, बात करेंगे। फिलहाल यह समझना अहम है कि उपरोक्त परिवर्तन में ”महत्वपूर्ण” क्या है और ”मामूली” क्या है। इसलिए हम यहां यह बात साफ-साफ दर्ज करा देना चाहते हैं कि फसलों की ”खरीद गारंटी” की मांग पूर्व की ”एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग” से ‘पूरी तरह’ भिन्न नहीं होते हुए भी यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन का द्योतक है। हम यह बात बहुत पहले से (8 दिसंबर 2020 से ही) कह रहे हैं कि ”एमएसपी की कानूनी गारंटी” की मांग की वैज्ञानिक व्याख्या ”फसलों की खरीद गारंटी” की मांग तक जाती है।[3] कैसे? इसे हमने आगे अपने पहले के लेखों से उद्धरण देते हुए बताया है। हम जिस समय ये पंक्तियां लिख रहे हैं, ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ने सभी राजनीतिक पार्टियों को अपनी मांगों की सूची, जिसमें एमएसपी के साथ-साथ फसलों की खरीद गारंटी के लिए कानूनी प्रावधान की मुख्य मांग भी शामिल है, भेजकर उन्हें संसद सत्र में उठाने का ”अल्टीमेटम” जारी कर दिया है।[4] इसलिए ”एमएसपी गारंटी” से ”खरीद गारंटी” की मांग में ऊपर से दिखने वाले ”मामूली” शिफ्ट का गैरमामूली महत्व, जिसे आंदोलन में लगातार ही अस्वीकार किया गया, यह है कि खरीद गारंटी और इसके अंदर के क्रांतिकारी निहितार्थ पर किसानों के बीच बहस करने और किसानों द्वारा पूंजीवाद की सीमा को पहचानते हुए उसका अतिक्रमण करने की जरूरत के बारे में अपनी बात रखने का खुला अवसर मजदूर वर्ग और इसकी अगुआ शक्तियों को मिलेगा, खासकर उन अगुआ क्रांतिकारी शक्तियों को जो आज नए रूप में प्रकट हो रहे किसान आंदोलन पर क्रांतिकारी तरीके से सोचने की क्षमता और हिम्मत रखते हैं। जहां तक हमारी बात है, हम बहुत पहले से ही यह बात समझ गये थे कि यह मांग किसानों को ”फसलों की खरीद गारंटी की मांग” तक ले जाएगी। और आज ठीक यही हो रहा है। इसमें हमारी कही और लिखी बातों ने कितनी भूमिका निभाई है, यह फिलहाल एक गौण विषय है। आज हमारे लिए ज्यादा महत्व की बात यह समझना है कि जैसे किसान आज एमएसपी गारंटी से खरीद गारंटी तक आये हैं, वैसे ही वे खरीद गारंटी से आगे इसे लागू करने वाले सर्वहारा राज्य की जरुरत को महसूस करने तक जायेंगे, बशर्ते हम किसानों के समक्ष उनकी मुक्ति की सही और जीवंत व्याख्या रख पाते हैं। वे यहां तक कितनी देरी से या जल्दी पहुंचेंगे, यह अन्य परिस्थितियों पर, खासकर मजदूर वर्ग की शक्तियों की क्रांतिकारी योग्यता पर, निर्भर करता है। हां, यह बात कहने में हम कतई नहीं शरमाएंगे या हिचकिचाएंगे कि आंदोलन में यह बात एकमात्र हमने ही उठायी और इसके लिए आलोचना के रूप में गांलियों की बौछार भी सही। लेकिन एक बात पक्की है कि इसका मूल महत्व हमारे द्वारा गर्व किये जाने में नहीं अपितु इस बात में है कि जब आज किसान संगठन ”खरीद गारंटी” की मांग तक आये हैं तो हमें यह बात अपने पूर्व के विश्लेषण पर विश्वास करने और आगे यह बात कहने की और ज्यादा हिम्मत देती है कि खरीद गारंटी की मांग पर केंद्रित किसान आंदोलन अवश्य ही क्रांतिकारी आंदोलन में तब्दील होने की संभावना से लैस है जो कि स्वयं मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक क्रांतिकारी मिशन के लिए बहुत महत्व की बात है। लेकिन इसके लिए मजदूर वर्ग को किसानों का पिछलग्गु नहीं अपितु अपने आप को उनकी मुक्ति के नेता और समाज के भावी शासक वर्ग के रूप में पेश करना होगा जिसके बारे में हम लगातार कहते आ रहे हैं। गौरतलब बात यह भी है कि यह बात किसान संगठनों की आत्मगत इच्छाओं व राजनीति से परे है, खासकर इस अर्थ में कि उनकी मांगों में इस गत्यात्मकता की वजह किसानों की उतरोत्तर हो रही बर्बादी है, जो बड़ी वित्तीय पूंजी के अधीन उस पूंजीवादी व्यवस्था के तहत रोज-ब-रोज तीव्र से तीव्रतर हो रही है जिसको इतिहास व समाज के रंगमंच से हटाना ही मजदूर वर्ग का मुख्य काम है। हमारे द्वारा इस पर गर्व करने की बात बस इतनी है कि हमने बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी की इस प्रतिक्रियावादी मुहिम, जो कि पूंजी की अब तक की विकास यात्रा का स्वाभाविक परिणाम है, को समझने में और उचित वक्त पर उचित नारे पेश करने में समर्थता दिखाई।

हमने सर्वप्रथम जारी किसान आंदोलन की हर रोज नाना रूपों में बदलती परिस्थितियों के बीच 8, 10 और 15 दिसंबर 2020 को तीन भागों में विभक्त अपना नया वक्तव्य जारी किया था जो किसान प्रश्न पर परंपरागत यांत्रिक व्याख्या से हटकर था, यानी भारत में कृषि क्षेत्र में हुए पूंजीवादी विकास के दूसरे दौर में प्रवेश करने के दौरान उत्पन्न परिस्थितियों के अनुरूप इस प्रश्न पर नये तरीके, यानी मार्क्सवाद-लेनिनवाद को ”गाइड टू ऐक्शन” के रूप में लेते हुए (वैज्ञानिक तरीके से) किये गये विश्लेषण पर आधारित था। निस्संदेह, समाजवादी क्रांति को भारत में क्रांति का स्टेज मानने वालों के बीच यह एक सर्वथा नयी कोशिश थी, जो कहा जाये तो मूल रूप से भारत के क्रांतिकारियों के बीच प्रचलित तथाकथित मार्क्सवादी चिंतन की पद्धति के बिल्कुल भिन्न थी। इसलिए यह स्वाभाविक था कि इसकी तीखी आलोचना की गई। हमने जब एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग की छानबीन की, तो हमारे समक्ष सर्वप्रथम यह बात स्पष्ट हुई कि यह प्रकारांतर में फसलों की खरीद गारंटी की मांग में स्वाभाविक रूप से तब्दील हो जाने वाली मांग है और इसे थोड़ी सी मानसिक कसरत करके, यानी आसानी से समझा जा सकता है। इसे और आगे, यानी इसकी पूर्ण तार्किक परिणति तक ले जाते हुए हमने यह भी लिखा कि किस तरह यह मांग आज के दौर के पूंजीवाद में किसी भी हाल में पूरी होने वाली मांग नहीं है, क्योंकि वित्तीय एकाधिकारी पूंजी को अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने और पूंजी (मुद्रा पूंजी तथा मालों सहित) के आधिक्य (पूंजीवादी अतिउत्पादन) के बोझ से लरजती-ढहती पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के आलोक में फसलों की खरीद गारंटी की मांग स्वाभाविक तौर पर एक नामुमकिन, अतार्किक तथा असंभव मांग है। इतना ही नहीं, हमने इसे और आगे बढ़ाते हुए यह भी लिखा कि यही वह मांग है जो किसानों को पूंजीवाद की सीमा को पहचानने व इसे लांघने के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ उस समाजवादी व्यवस्था को भी उनकी कल्पना में स्थापित करेगी जिसमें योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के तहत मेहतनकश किसानों के जीवन को सुखमय बनाने के लक्ष्य को केंद्र में रखते हुए फसलों के चयन, तमाम बाधाओं को दूर करते हुए उनके सफलतापूर्वक उत्पादन और फिर सर्वहारा राज्य (किसान समर्थित) द्वारा उनकी खरीद गारंटी की योजना बनायी जाती है। लेकिन हमने इसकी शर्तें भी बतायी थीं। जहां पहली शर्त यह है कि किसान खरीद गारंटी की मांग पर अपने आंदोलन को आर-पार की लड़ाई तक ले जाएं, वहीं दूसरी शर्त यह है कि इसके नेतृत्व की बागडोर धनी किसानों से निकल कर सर्वहारा वर्ग के समर्थन से गरीब मेहनतकश किसानों के हाथ में आ जाए। यानी, कुल मिलाकर किसान आंदोलन का नेतृत्व प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, या फिर दोनों तरीके से, मजदूर व सर्वहारा वर्ग के हाथ में होना चाहिए। आज पूंजीवाद में बाजार की अराजकता ही नहीं, चंद वित्तीय पूंजीपतियों के अधीनस्थ बड़ी कपंनियों का एकाधिकार भी है जो धरती ही नहीं आकाश और पाताल पर भी अपना एकाधिकार चाहती हैं और उसमें लगी हैं। इसके तहत किसानों की यह मांग वास्तव में कभी नहीं मानी जाएगी यह तय है। किसानों की यह मांग, जो विशाल संख्या वाले मेहनतकश किसानों के बीच मूलत: सुखमय जिंदगी की चाहत से प्रेरित है, एकमात्र सर्वहारा राज्य में योजनाबद्ध उत्पादन के अंतर्गत ही संभव है। लेकिन हम देखते हैं कि मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी आंदोलन में या तो किसानों को ही मजदूर वर्ग के मुक्तिदाता की छवि से लैस करने की आदत व्याप्त है, या फिर किसानों को पूंजीवाद से बाहर निकालने में इस मांग में निहित द्वंद्वात्मकता पर केंद्रित हो बात करने के विपरीत इस पर बात करने की चाहत ज्यादा है कि किस तरह यह मांग पूंजीवाद में धनी किसानों के हित में झुकी है (जो सर्वविदित है); कि किस तरह पूंजीवाद में इस मांग की पूर्ति सामाजिक अपशिष्ट (social waste) पैदा करेगी, जिसकी कीमत-वसूली फिर से घुमावादार रास्ते से होकर आम मेहनतकश जनता से ही की जाएगी। दुर्भाग्य से, ऐसी बात करने वाले शायद यह समझते भी नहीं है कि उनकी यह तर्क-पद्धति उन्हें पूंजीवादी एकाधिकार के पक्ष में खड़ा कर देती है। वे मानकर चल रहे हैं कि या तो पूंजीवादी राज्य बड़ी पूंजी के हितों को छोड़कर किसानों की मांग बस मानने ही वाली है, वह भी फर्जी रूप में नहीं वास्तविकता में। या फिर उनके लिए पूंजीवाद को पलटना इतनी दूर की कौड़ी है कि उसके बारे में किसानों के समक्ष खुल कर बात करना उनके दिमाग की कल्पना से बाहर है! पराजयवादी लाइन आखिर और किसे कहते हैं?

हमने यह साफ-साफ कहा था कि आंदोलन के एक सीमा के बाद तीखा हो जाने पर यह मांग मेहनतकश किसानों द्वारा समर्थित सर्वहारा राज्य (दरअसल यह उनका संयुक्त राज्य होगा) को आम किसानों की कल्पनाओं में ले आएगी। इस राज्य का हमसफर किसी भी तबके का किसान हो सकता है, बशर्ते वह अपनी मेहनत पर जिंदा रहने के लिए तैयार है। इसलिए ही, हमने उस समय शुरू हुए किसान आंदोलन, जो बाद में एक ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में विख्यात हुआ, के समर्थन और विरोध से इतर, उसमें मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी हस्तक्षेप की दिशा ली और यांत्रिकता से भरी तथाकथित मार्क्सवादी व्याख्या से बिल्कुल भिन्न तरीके से विचार करने व रणनीति-कार्यनीति अख्तियार करने की कोशिश की। इसी कोशिश में किसान आंदोलन के शुरू होने से लेकर इसके खत्म होने के दिन तक, शहीद कॉमरेड सुनील पाल के 11वीं एवं 12वीं शहादत वर्षगांठ (29 दिसंबर 2020 तथा 2021 में) के अवसर पर पटना के आईएमए हॉल में आयोजित दो महती सम्मेलनों में पेश आधार प्रपत्रों को लिखने तक तथा, इस पर लगभग एक साल तक चली तीखी बहसों के दौरान और उससे इतर ”यथार्थ” की संपादकीय टिप्पणियों को लिखने तक हम इस विषय पर एक रनिंग कमेंटरी के रूप में लगातार लेख लिखते रहे। यह अलग बात है कि पीआरसी इस रणनीति को दो कारणों से उस बड़े पैमाने पर जमीन पर उतारने में सफल नहीं हो पायी जितना की इसने सोचा था। पहला कारण यह कि हमारी सांगठनिक क्षमता इस कार्यभार के अनुरूप नहीं थी। और दूसरा तथा मुख्य कारण यह था कि अभी-अभी अख्तियार की गई इस नयी दिशा के बारे में, हमारे आंदोलन में ही नहीं अपितु हमारे अपने संगठन के साथियों के बीच में भी, इस विषय पर समझ की परिपक्वता हासिल करने में और फिर व्यवहार में उतारने में काफी वक्त लगा जो स्वाभाविक और लाजिमी था। हम जानते हैं कि हमारे आंदोलन का पेंडुलम सदा की तरह और न चाहते हुए भी एक छोर से दूसरे छोर की तरफ दोलन करने का आदि रहा है। यह नीति एक सर्वथा नयी नीति है जो एक पतली रस्सी पर संतुलन बनाते हुए चलने की मांग करती है, और जिसमें दायें और बायें दोनों तरफ गिरने की संभावना बनी रहती है। इसलिए भी इसे सरजमीं पर उतारना आसान नहीं था। फिर भी, हम यह दावे के साथ कहना चाहते हैं कि इस नीति को जमीनी तौर पर लागू करना चाहे जितना मुश्किल हो, इसके अतिरिक्त किसानों को सर्वहारा वर्गीय राजनीति की ओर खींचने और गरीब व मेहनतकश किसानों को धनी किसानों से अलग करने का फिलहाल और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। 

नयी सदी के इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के प्रति हमारी इस नयी पहुंच व रणनीति का इतिहास क्या है, इस पर इसलिए भी बात करना जरूरी है क्योंकि ”खरीद गारंटी” की नयी मांग के साथ शुरू होने वाले भावी किसान आंदोलन के प्रति हमारा भावी राजनीतिक व वैचारिक व्यवहार एकमात्र इस इतिहास की साफ-सफाई में निहित है। यह जानना जरूरी है कि इस किसान आंदोलन के पिछले दौर में मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी ताकतों ने इसकी मांगों के प्रति जो रूख अख्तियार किया था उसमें क्रांतिकारी तत्व कितना और ठीक-ठीक क्या था। आगे किसानों की अंतिम मुक्ति के संदर्भ में हमारे क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन को मौजूदा किसान आंदोलन के ठोस संदर्भ में क्या दिशा लेनी चाहिए, इसका सही-सही निर्णय पुराने दिनों चली बहस, जिसका एक अपना इतिहास है, की साफ-सफाई के बिना एक बार फिर से उठ खड़ी होने वाली इसी तरह की एक और बहस, जिसका अपना एक अलग भविष्य होगा, का निपटारा असंभव है । हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? खासकर इसलिए कि खरीद गारंटी की मांग में किसान आंदोलन को क्रांतिकारी दिशा देने की जो क्षमता मौजूद है उससे इनकार करने की एक प्रबल प्रवृत्ति आज भी उपस्थित है। यही नहीं, किसान आंदोलन में क्रांतिकारी ढंग से हस्तक्षेप करने की नीति से इतर पिछलग्गु की तरह समर्थन करने की दिशा या फिर अतिक्रांतिकारी होने के दंभ के साथ इसके महज विरोध की दिशा लेने की प्रवृत्ति मौजूद है, यानी भटकाव के दोनों छोर आज भी मजबूती से उपस्थिति हैं। इस तरह मौजूदा किसान आंदोलन के ठोस प्रश्न पर मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी कार्यभार के सही प्रस्तुतीकरण से पूरी तरह कन्नी काट लेने की प्रवृत्ति आज भी बनी हुई है। इस लेख का उद्देश्य इसी बात को समझा और समझाना है कि C2 + 50% की एमएसपी की साधारण मांग से एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग तक और फिर एमएसपी की कानूनी गारंटी से खरीद गारंटी की मांग तक किसान किस तरह और क्यों पहुंचे। इसके बाद ही हम यह ठीक-ठीक समझ पाएंगे कि खरीद गारंटी की यह मांग किसानों को सर्वहारा राज्य की जरूरत को महसूस कराने तक ले जा पायेगी या नहीं। अगर जवाब हां में है, तो ही फिर इसके लिए ठोस कार्यनीति व रणनीति तय करने का प्रश्न उपस्थित होता है। जाहिर है कि यह बहस हमें दो कैंपों – एक तरफ पिछलग्गु बन कर महज समर्थन देने और, दूसरी तरफ इसमें सर्वहारा-वर्गीय क्रांतिकारी हस्तक्षेप की सुस्पष्ट और साफ नीति के तहत समर्थन देने वालों – में बांट दे सकती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सही कार्यनीति व रणनीति को समझने तथा उस तक ठोस रूप से पहुंचने का अगर और कोई रास्ता नहीं है, तो आखिर हम कर भी क्या सकते हैं?

आज अगर हम इन दो कैंपों को इनकी ठोस राजनीतिक अभिव्यक्तियों में पहचानने की कोशिश करें, तो यह स्पष्ट दिखता है कि उनमें से एक किसानों की जीत को ”निर्णायक” जीत बताने वालों और इस आधार पर मजदूर वर्ग को किसानों से सीखने के लिए गुहार लगाने वालों का है, जबकि किसान स्वयं इससे इनकार करते हुए एक और ‘निर्णायक’ संघर्ष करने की घोषणा के साथ फिर से मैदान में उतरने को मजबूर हो रहे हैं। दूसरी ओर, एक कैंप वह है जो यह मानता है कि किसानों की तात्कालिक मांगों पर भी ”निर्णायक” जीत मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन के उसके साथ आ मिले बिना आज असंभव है। ऐसा इसलिए क्योंकि किसानों की तात्कालिक मांगें भी ऐसी हैं कि वे मजदूरों एवं मेहनतकश किसानों की पूंजीवाद पर अंतिम जीत दर्ज किये बिना पूरी नहीं हो सकती हैं। और इसीलिए यह बीच की अंतवर्ती जीतों के एक अटूट सिलसिले की मांग करती है जिसका ही अंतिम ठौर पूंजीवाद का अंत और मेहनतकश किसानों व सर्वहारा राज्य का उदय होगा जैसा कि हम किसान आंदोलन की शुरूआत से कहते आ रहे हैं। हमारा कहना है कि किसानों को यह बात साफ-साफ बतायी जानी चाहिए कि बड़ी वित्तीय पूंजी की बादशाहत में उनके बड़े हिस्से का जीवन सुरक्षित नहीं रहने वाला है। वे चाहे जितना लंबा और कड़ा संघर्ष कर लें, पूंजीवाद में उनके दुखों का आज कोई अंत नहीं होने वाला है। इसलिए मजदूर वर्ग को किसानों का पिछलग्गु बनाने की न तो प्रत्यक्ष और न ही कोई अप्रत्यक्ष कोशिश की इजाजत दी जानी चाहिए, चाहे ये किसान धनी हों या गरीब-मध्यम। यहां इस तरह का फर्क करने से कोई फायदा नहीं होने वाला है, क्योंकि मजदूर वर्ग अगर गरीब किसानों का भी पिछलग्गु बनता है, तो भी परिणाम वही आता है। वैचारिक व राजनीतिक तौर पर यह भी उतना ही खतरनाक है जितना कि धनी किसानों का पिछलग्गु बनना। जो किसान आंदोलन का ठूंठ (यानी बिना किसी क्रांतिकारी हस्तक्षेप की सुस्पष्ट नीति के) समर्थन करते हैं, वे दरअसल यही करते हैं और प्रकारांतर में मजदूर वर्ग को धनी किसानों के नेतृत्व वाले आंदोलन में क्रांतिकारी हस्तक्षेप करने के बदले उसकी गोद में जा बैठते हैं।

किसान आंदोलन के प्रति पीआरसी की नयी पहुंच: इतिहास और भविष्य पर चंत बातें

8, 10 और फिर 15 दिसंबर 2020 के पीआरसी के फेसबुक पेज पर तीन भागों में विभक्त हमारे वक्तव्य पर अगर कोई गौर फरमाएंगा तो वह पायेगा कि हमने किसानों की दो मुख्य मांगों पर (कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग) भारतीय कृषि के दूसरे दौर के पूंजीवादी विकास के अत्यंत प्रतिक्रियावादी स्वरूप को, यानी व्यापक किसानों को देहातों से उजाड़े जाने की शुरू होने वाली प्रक्रिया को केंद्र में रखते हुए अत्यंत सावधानी व गहराई से विचार करने की शुरूआत की थी। इसे लेकर जो बहस उठ खड़ी हुई उसका मैदान मुख्य रूप से ‘यथार्थ’ और ”द ट्रुथ” बनीं, और कभी-कभार ”सर्वहारा” अखबार बना। लेकिन इसकी शुरूआत पीआरसी के फेसबुक पेज पर हुई क्योंकि ‘यथार्थ’ व ‘द ट्रुथ’ के संपादक मंडल में शुरू में इसे लेकर मतैक्य नहीं था। पीआरसी के फेसबुक पेज पर दिया गया हमारा वक्तव्य ही जारी किसान आंदोलन में मजदूर वर्गीय हस्तक्षेप की नीति व दिशा को समेटे पीआरसी के उस प्रपत्र (”किसानों की मुक्ति और मजदूर वर्ग” नामक) का आधार बना जिसे 29 दिसंबर 2020 को (शहीद कामरेड सुनील पाल की 11वीं शहादत वर्षगांठ के अवसर पर) पटना के आईएमए हॉल में हुए एक महती सम्मेलन में पारित किया गया था और ”यथार्थ” के जनवरी 2021 अंक में प्रकाशित हुआ था। फिर इसे पुस्तिकाकार रूप में भी प्रकाशित किया गया। इसके चंद दिनों बाद ही इसके अंग्रेजी अनुवाद (जिसे झटपट तैयारे करने का श्रेय कॉमरेड मुकेश असीम को जाता है) को ”द ट्रुथ” में प्रकाशित किया गया। बाद में यह लेख मजदूर आंदोलन की एक कॉर्पोरटपक्षीय धारा के साथ लगभग एक साल तक चले एक अत्यंत तीखे वादानुवाद का कारण बना। इसलिए पीआरसी के फेसबुक पेज पर 8, 10 और फिर 15 दिसंबर को अपलोड हुआ हमारा यह वक्तव्य ही है जो उस समय जारी किसान आंदोलन के एक ठोस संदर्भ में किसानों की मुक्ति के प्रश्न पर ली गई क्रांतिकारी हस्तेक्ष की दिशा व रणनीति के उदय का एकमात्र स्रोत बना। फेसबुक पर यह लेख ”पीआरसी द्वारा किसान आंदोलन पर तीन किश्तों में जारी वक्तव्य” नाम से प्रकट हुआ जिसमें ”वर्तमान किसान आंदोलन के बाह्य स्वरूप और अंतर्य का अंतर्विरोध और मजदूर वर्ग की भूमिका” नाम से तीन किश्तों में जारी किया गया था। आइए, उसके कुछ उद्धरणों पर दृष्टिपात करें।  

हमने लिखा था – ”अपने वर्तमान स्वरूप में… जहां तक यह आंदोलन इसमें शरीक धनी किसानों के नेतृत्व में हो रहा है, …वहां तक स्वयं इस आंदोलन की सीमा और इसकी मांगों की अतार्किकता दोनों तुरंत प्रकट हो जाती हैं… इसका बाह्य प्रतिक्रियावादी स्वरूप सामने आता है ..लेकिन इसका अंतर्य.. स्वयं इसे पूंजीवाद के दायरे से बाहर खींच ले आने को आतुर है … मांगें तभी तक अतार्किक प्रतीत होती हैं जब तक इसका नेतृत्व धनी किसान कर रहे हैं। इसलिए यहां मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका इस आंदोलन के बाह्य स्वरूप और इसके अंतर्य के बीच के अंतर्विरोध को तेज करने में निहित है, न कि इसका मूर्खतापूर्ण समर्थन या विरोध करने में … मजदूर वर्गीय हस्तक्षेप करने के पहले यह समझना अत्यावश्यक है कि … इसका नतृत्व पूंजीवादी समर्थक है जबकि इसकी मांगें अपने अंतर्य में पूंजी के तर्कों के विरुद्ध हैं। आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण बात इसकी अभी तक की समझौताविहीन गति है जो बाह्य आवरण और अंतर्य के बीच के दिलचस्प अंतर्विरोध को एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ पर ले आया है। किसान और कॉर्पोरेट की चेरी मोदी सरकार दोनों ही पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। जो लोग भी इसका मूर्खतापूर्ण तरीके से, यानी इसके सार को समझे बिना ही समर्थन और विरोध में चीखे-चिल्लाये जा रहे हैं, वे अंतत: … ऐन मौके पर इधर-उधर भटकते पाये जाएंगे।” (देखें https://www.facebook.

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आगे हमने एमएसपी की गारंटी और कृषि कानूनों के विरोध का विश्लेषण रखते हुए यह लिखा कि – ”हम जैसे ही एक क्षण के लिए यह मान लेते हैं कि इसके शीर्ष पर मजदूर वर्ग है, वैसे ही यह किसान आंदोलन की ”तुच्छ सीमा” पूंजीवाद की परिसीमा से बाहर लगी ‘सीमा’ में तब्दील हो जाती है, मांगों में दिखाई देने वाली अतार्किकता पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध लक्षित हो जाती है। कैसे? उदाहरण के लिए, किसान चाहते हैं कि कृषि उत्पादों के निजी खरीददार भी एमएसपी पर खरीदें न कि एमएसपी से नीचे दाम पर, खासकर जब बाजार भाव नीचे हो। लेकिन अगर कानूनी प्रावधान बन जाने के बाद अनाजों के निजी व्यापारी खरीददारी ही नहीं करें, तो क्या होगा? वे अवश्य ही इनकार करेंगे खासकर तब जब बाजार मूल्य एमएसपी से नीचे गिरा हुआ हो। तब तो किसानों को एक और कानून बनाने की मांग करनी होगी जो हर हाल में समस्त उत्पादित फसलों व अनाज को खरीदने के लिए सरकार या निजी व्यापारी कानूनी रूप से बाध्य हो सकें। … सवाल है, बुर्जुआ राज्य ऐसा कानून कैसे बना सकता है? आखिरी विकल्प यह बचता है कि किसान सरकार को हर हाल में मंडी में आने वाले सारे उत्पाद खरीदने के लिए बाध्य करें, यानी इसके लिए कानूनी प्रावधान किये जाएं। इस तरह एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग किसानों की सारी फसलों की खरीद गारंटी की मांग बन जाती है।” (वही, बोल्ड हमारा)

लेकिन उस समय हमारे मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी आंदोलन में बहस कहीं और ही चल रही थी। या तो एमएसपी की कानूनी गारंटी को लागू करने के लिए फंड की जरूरत कैसे पूरी होगी इसके आंकड़े मोदी सरकार को प्रेषित किये जा रहे थे (और यह बात कोई टिकैत नहीं क्रांतिकारी संगठन कह रहे थे, उनकी पत्रिकाओं व पुस्तकों व पुस्तिकाओं में आज भी देखी जा सकती है), या फिर अतिक्रांतिकारी बनते हुए कुछ लोग लिख रहे थे (आज भी लिख रहे हैं) कि इससे धनी किसानों को फायदा होगा और गरीब किसानों का अहित होगा, इसलिए इसका समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। दोनों तरह के विचारों का स्रोत एक ही है – सुधार की दृष्टि से तथा एमएसपी के अर्थशास्त्र से बोझिल हो किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन को देखने की प्रवृत्ति। इसके विपरीत हमारा यह मानना था और है कि आज यह जानना जरूरी है कि यह मांग पूंजी के तर्कों के अनुरूप लागू होने योग्य है या नहीं। ”इसलिए फिर से वही सवाल उठ जाता है कि आज के दौर की कोई बुर्जआ सरकार और व्यवस्था इसे कैसे मान सकती है? अगर मान भी ले, तो पूरा कैसे कर सकती है? ..इन मांगों को मानने का अर्थ सरकार के द्वारा अभी तक कृषि क्षेत्र में उठाये गए पूंजीवादी नीतियों, कदमों और कॉरपोरेटोन्मुखी मेकेनिज्म को पूरी तरह निष्प्रभावी (undo) बना देना – जिसे मोदी सरकार जैसी फासिस्ट-पूंजीवादी सरकार तो क्या, आज के दौर की कोई ‘सामान्य’ पूंजीवादी सरकार भी नहीं मान सकती है। ये काम एकमात्र सर्वहारा राज्य ही कर सकता है। इस तरह यह मांग किसानों के समक्ष पूंजीवाद की कैद से आजाद होने का कार्यभार प्रस्तुत कर देती है।” (वही) हम आगे और उद्धरण देकर इस लेख को ज्यादा बोझिल नहीं बनाना चाहते हैं। पाठक लिंक खोलकर तीनों भाग में जारी किये गये वक्तव्य को पढ़ सकते हैं।

ये बातें हमने 8 दिसंबर 2020 को लिखी थीं। आज हम क्या देख रहे हैं? हम देख रहे हैं कि 5 दिसंबर 2022 को ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ठीक इसी मांग पर आ खड़ा हो एक बार फिर से ”निर्णायक” संघर्ष का बिगुल बजा रहा है। ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ 5 दिसंबर 2022 को जारी चेतावनी पत्र में कहता है कि ”सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीद की गारंटी देने वाला कानून बनाया जाए।”  कोई भी देख सकता है कि हम 8 दिसंबर 2020 को ही यह लिख चुके थे कि एमएसपी की कानूनी गारंटी वाली मांग खरीद गारंटी की मांग में परिवर्तन होने वाली मांग है। साथ में, हमने यह भी दिखाने की कोशिश की थी कि आंदोलन की मांगों का बाह्य रूप और उसका अंतर्य एक दूसरे के अंतर्विरोधी हैं और जैसे ही आंदोलन पूंजीवादी शासकों के समक्ष एक आर-पार की लड़ाई में तब्दील हो जाएगा, वैसे ही इस मांग में मौजूद अंतर्विरोध का हल या तो धनी किसानों के पक्ष (मुख्यत: इस मांग से पीछे हट जाना जैसा कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद दिसंबर 2021 में हुआ) या गरीब किसानों के पक्ष में होकर रहेगा, जिसका अर्थ एकमात्र यही हो सकता है कि इस मांग पर आंदोलन का आर-पार की लड़ाई में बदल जाना और धनी किसानों के पीछे हट जाने की स्थिति में मजदूर वर्ग के समर्थन में मेहनतकश किसानों के आंदोलन में उसका बदल जाना। हम यह मानते हैं कि मौजूदा चिरस्थाई आर्थिक संकट का दौर और अर्थव्यवस्था पर वित्त पूंजी की बादशाहत का कायम हो जाना (जिसका ही परिणाम फासीवाद का उदय है) उपरोक्त अंतर्विरोध का हल धनी किसानों के पक्ष में करने से रोक रहा है या इसकी संभावना को क्षीण बना रहा है, जो इसकी आंतरिक द्वंद्वात्मक गति का हिस्सा है, यानी धनी किसानों के लिए भी इस मांग से पीछे हटना शायद मुश्किल हो रहा है। लेकिन अगर इस आंदोलन में निहित अंतर्विरोध का हल गरीब किसानों के पक्ष में होना है, तो इसके लिए कुछ और जरूरी कारकों की अनुपस्थिति सब कुछ के बावजूद धनी किसानों और गरीब व मेहतनकश किसानों के बीच की इस मुद्दे पर बाह्य आभासी एकता को बनाये रखने का कारण है। तभी तो किसान संगठनों ने एमएसपी की गारंटी के साथ अब फसलों की खरीद गारंटी की मांग भी नत्थी कर दी है। इसकी मुख्य वजह है – कृषि उत्पादों के खुले अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर वित्तपतियों का हो चुका पूर्ण कब्जा, जिसका ही परिणाम है अनाज व खाद्य पदार्थों की महंगाई (चाहे मांग कम ही क्यों न हो), और दूसरी तरफ, निजी कंपनियों की खरीद के समय अनाज और अन्य फसलों का सस्ता होना, चाहे दुनिया में फसलों की मांग ज्यादा ही क्यों न हो, कुछ परिस्थितिजन्य अपवादों को छोड़कर। परिणामस्वरूप सभी तबके के किसानों की फसलों से होने वाली आय में लगातार गिरावट, कुछ अपवादों को छोड़कर, की प्रवृत्ति देखी जा रही है। स्थिति यह है कि उत्पादकता में वृद्धि से, या सिंचाई के साधनों की संपन्नता से किसानों की आय का सीधा व समानुपाती रिश्ता आज खत्म हो चुका है। जो किसान गलती से ज्यादा उत्पादन कर लेने और भारी मुनाफा के लिए भारी निवेश में फंसते हैं, वे उलटे जरूरत से ज्यादा जोखिम मोल लेने का काम करते हैं और गले में फांसी का फंदा लगा अपनी मौत को दावत देने के लिए अभिशप्त होते हैं।

आगे 8 दिसंबर को हमारे द्वारा जारी वक्तव्य कहता है – ”इसी तरह तीन कानूनों को एकमुश्त ढंग से पूरे किसान समुदाय द्वारा, यहां तक कि बड़े किसानों द्वारा भी, रद्द करने की मांग करना आंदोलन के क्रांतिकारी अंतर्य को प्रदर्शित करता है” जबकि बाह्य स्वरूप से इसका विरोध साफ दिखता है। यह दिखाता है कि खुले बाजार में ऊंचे दामों की पहले वाली सतत उत्प्रेरणा अब खत्म हो चुकी है। इसी के साथ खुले बाजार में देश से विदेश तक कृषि उत्पादों के ऊंचे से ऊंचे दाम पाने के लिए विचरण करने की आजादी का आकर्षण भी धीरे-धीरे कर के बीते दिनों की बात हो गई। स्थिति ऐसी हो चुकी है कि अगर किसानों को एक तरफ खुले बाजार में कभी-कभी मिलने वाले ऊंचे दाम पर बेचने की आजादी और दूसरी तरफ सरकार द्वारा तय दाम पर खरीद की गारंटी के आधार पर सारी फसल बेचने की बाध्यता या मजबूरी – दोनों में से किसी एक को चुनना पड़े, तो यह उम्मीद करना फिजुल की बात करना नहीं होगा कि किसान की व्यापक आबादी सरकार द्वारा खरीद गारंटी के पक्ष में खड़ी होगी। हालांकि तब भी प्राइस सिगनल का इन पर प्रभाव होगा, क्योंकि किसान पूंजीवाद के अंतर्गत माल उत्पादक होते हैं और इस रूप में प्राइस सिग्नल मन के मुताबिक होने पर खुले बाजार के प्रति किसानों की दिलचस्पी और इसलिए सरकारी खरीद के पक्ष में अपने निर्णय से डगमगाने की इनकी प्रवृत्ति हमेशा कायम रहेगी, जब तक कि पूंजीवाद का पूरी तरह खात्मा नहीं कर दिया जाता है। देखा गया है कि सामूहिक खेती के शुरू होने के बाद भी यह प्रवृत्ति सोवियत यूनियन में, जहां कुलक खेती का जड़मूल से खात्मा कर दिया गया था, यदाकदा जोर मारती थी। मुख्य बात यह है कि चूंकि किसान खुले बाजार की दगाबाजी देख चुके हैं, इसलिए अगर उन्हें उपरोक्त दोनों विकल्पों में से किसी एक को चुनने के लिए बाध्य किया जाएगा तो ज्यादा संभावना है कि वे खुले बाजार के पक्ष में नहीं खड़े होंगे, बशर्ते उन्हें यह भरोसा हो कि खरीद की गारंटी और उचित दाम उन्हें वास्तव में और हमेशा मिलते रहेंगे, ताकि वे पूंजीवादी मुनाफे के द्वारा उन्नति करने की संभावना पूरी तरह नष्ट कर दिये जाने के बाद भी, अपने सुखमय जीवन के सपने को पूरा कर सकें और इस पर उन्हें भरोसा हो। अमीरी के सपने देखने की कीमत कर्ज के दलदल में फंस कर मौत के रूप में अदा करने वाले गरीब किसानों ने ही नहीं, अपितु पूंजीवादी खेती में लिप्त अपेक्षाकृत धनी किसान भी बाजार भाव की दगाबाजी से आजिज हो चुके प्रतीत होते हैं। खरीद गारंटी की मांग इसी का परिणाम है जो कि पहले की स्थिति के विपरीत है जब किसान स्वयं बाजार में बेचने की छूट की मांग सरकार से करते थे। गरीब और मंझोले किसानों की स्थिति तो ऐसी है कि वे कृषि मे टिके रहें यही उनके लिए बड़ी बात है। गरीब किसानों का अधिकांश तो पहले ही उजड़ चुका है। खरीद गारंटी की मांग किसानों को जहां ले जाती है या ले जाएगी, यह पूंजीवाद के विरुद्ध और पूंजीवाद से मुक्ति पाने की वैचारिक व राजनीतिक चेतना से कोसों दूर है। इसमें जीवन की स्वयंस्फूर्तता है, चेतना नहीं। अर्थात यह मांग जीवन की सुरक्षा से ज्यादा जुड़ा प्रश्न है जो जाने अनजाने उन्हें इस मांग तक ले गई है या आगे उन्हें सर्वहारा राज्य तक ले जाएगी। यहां मजदूर वर्ग की अगुआ शक्तियों की भूमिका शून्य दिखाई देती है। इस तरह की उन्नत चेतना का प्रकट होना सीधे तौर पर मजदूर वर्ग के राजनीतिक व वैचारिक आंदोलनों के उभार और पूंजीवाद के खिलाफ नयी दुनिया बनाने के उनके प्रयासों के कारण उत्पन्न वातावरण पर निर्भर करता है। यह उस एक चिंगारी पर निर्भर करता है जिसमें दावानल बन पूरे जंगल में आग लगाने लायक गर्मी होगी। किसान अपने आप से, यानी स्वयंस्फूर्त तरीके से, बस इस मांग तक ही आ सकते थे और वे आ चुके हैं। आगे की मंजिल मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी विचाराधारा व दुनिया को बदलने की मजदूर वर्गीय लड़ाई से ही तय होगी। जाहिर है ”मजदूर वर्ग को अपने को किसानों की मुक्ति दिलाने वाले भावी शासक वर्ग के बतौर पेश करना होगा।” मजदूर आंदोलन के ठहराव के काल में यह काम फिलहाल उसकी अगुआ ताकतों के द्वारा किया जाना है जिससे भागना उन्हें अगुआ शक्ति के पद से उतार देगा।

किसान आंदोलन के पहले दौर की वापसी और नये आंदोलन की घोषणा पर चंद बातें

जो लोग मोदी सरकार द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद ”यथार्थ” के संपादक मंडल की ओर से जारी हमारी तीन फौरी संपादकीय टिप्पणियों को पढ़े हैं, उन्हें याद होगा कि किसान आंदोलन की वापसी जिन हालातों में और जिस तरह से हुई थी उसके बारे में हमने कई तरह की दुश्चिंतायें जाहिर की थीं। क्या वे दुश्चिंतायें गलत थी? और क्या शुरू होने वाला किसान आंदोलन उन दुश्चिंताओं व आशंकाओं से पूरी तरह से मुक्त होगा? आज जब किसान आंदोलन दूसरे दौर में प्रवेश कर रहा है, तो क्या आज इस मौके पर यह विचार करना जरूरी नहीं है कि हमारे द्वारा व्यक्त दुश्चिंताएं सही साबित हुईं या निर्मूल?[5]

यह सच है, किसानों ने सड़क की लड़ाई से निरंकुश और बेलगाम हो चुकी सरकार और संसद को झुकाया था। इस जीत को निर्णायक जीत मान उसकी मिसालें दी जाती हैं। लेकिन आज वह जीत कहां है, और क्यों है? मजदूर वर्ग को कहा जाता है कि वह किसानों से सीखे और उनका अनुसरण करे! ऐसा कहने वालों में मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी अगुवा दस्ते भी शामिल हैं। ”बड़ी से बड़ी जीत का भी सही में कुछ मायना तभी होता है जब इसे आगे ले जाया जा सके” – हमने संपादकीय टिप्पणी में कहा था। ”अर्थात, इसे आगे ले जाने वाले तत्व या कारक इसके भीतर मौजूद हों।”[6] हमने नेतृत्व का सवाल उठाते हुए कहा था कि किसान आंदोलन का नेतृत्व अगर मजदूर वर्ग के हाथ में या मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी दस्ते के हाथ में नहीं है तो ”निर्णायक” जीत भी हार में बदल जाएगी; कि वित्तीय पूंजी की तरफ निर्णायक रूप से झुकी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उलटे बिना इसके सिवा कुछ और परिणाम हो भी नहीं सकता है। सही नेतृत्व के अभाव में इस जीत ने अपना कौन सा ठौर पाया? क्या यह स्पष्ट नहीं है? एमएसपी और खरीद गारंटी की मांग पर विचार करते वक्त इसी दृष्टि से विचार करते हुए हमने कहा था कि किसानों की कृषि कानूनों के विरुद्ध लड़ाई में मिली जीत के बाद यही वह मांग है जो इसे आगे, यानी पूंजीवादी व्यवस्था की सीमा के उस पार ले जा सकती है।[7] लेकिन इसे छोड़ कर जीत को निर्णायक घोषित कर दिया गया और लोग जश्न में डूब गये।

खरीद गारंटी की मांग से निश्चित ही किसान आंदोलन का एक क्रांतिकारी क्षितिज खुलता है, क्योंकि यह मांग जनांदोलन के दबाव में युद्धनीति के तहत भले ही मान ली जायें, लेकिन इसे लागू करना सर्वथा असंभव होगा, ठीक वैसे ही जैसे वित्तीय पूंजी की इजारेदारी के युग वाले पूंजीवाद को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा के युग में ले जाना या उसमें बदलना है; यह ठीक उतना ही नामुमकिन है जितना नवउदारवाद के युग की आर्थिक नीतियों को नेहरू के युग की आर्थिक नीतियों से प्रतिस्थापित करना है। यह मांग चंद छोटे-मोटे सुधारों द्वारा निपटने वाली मांग नहीं है। एमएसपी के अर्थशास्त्र के आधार पर तर्क करने से आज ज्यादा जरूरी किसानों को यह बताना है कि पूंजीवादी राज्य के अंतर्गत इसे वास्तव में लागू करना बुरी तरह संकटग्रस्त पूंजीवाद की उखड़ती सांसों को तत्काल और अतार्किकता के खतरे में डालने जैसी बात है और इसलिए लागू होने योग्य ही नहीं है। इसलिए इस पर किसी और दृष्टि से विचार करना बेकार ही नहीं हानिकारक है।

मोदी सरकार की नग्न कॉर्पोरेटपक्षीय नीतियों से जनता का आक्रोश बारूद की एक ढेर में तब्दील हो रहा है। खरीद गारंटी के सवाल पर किसान आंदोलन के साथ राज्यसत्ता का पुन: टकराव एक चिंगारी की तरह इसमें आग लगा सकता है। इसलिए किसान संगठनों से यह पूछना जरूरी है कि क्या वे एक बार फिर से शासकों के युद्धविराम की नीति के शिकार तो नहीं होंगे? क्या इसके लिए कोई सुरक्षा घेरा तैयार किया गया है? यकीनन नहीं किया गया है। किसान स्वंतत्र रूप से ऐसा कोई सुरक्षा घेरा बना भी नहीं सकते हैं। इसके लिए मजदूर वर्ग के आंदोलन के उभार की जरूरत है जो दुर्भाग्य से अनुपस्थित है। लेकिन इस दुर्भाग्य का इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है कि मजदूर आंदोलन के फूट पड़ने के लिए आवश्यक सारे कारकों के परिपक्व होने का इंतजार किया जाए। लेकिन इस बीच मजदूर वर्ग की अगुआ ताकतों की लामबंदी की जाए और किसान आंदोलन को संघर्ष की भट्ठी में और तपने दिया जाये।

पिछले साल इसी दिसंबर में किसान नेताओं के बीच गफलत का आलम यह था कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को सरकारी कमिटी के रहमोकरम पर छोड़ देने की बात को भी जीत मान लिया गया, जबकि प्रस्तावित कमिटी एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विचार या निर्णय करने के लिये अधिकृत ही नहीं थी! आज ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ इसी का रोना रो रहा है। यह दुख की बात है या आश्चर्य की या दोनों की? मोदी सरकार जब किसानों के विरुद्ध युद्ध जीतने के लिए (फासीवाद जनता पर एक युद्ध ही है) एक अहम मोड़ पर एक जरूरी युद्धनीति का पालन कर रही थी, तो ये नेता समझ रहे थे कि मोदी सरकार वास्तव में हार मान चुकी है। ये नेता आज 2024 को सामने रख कर एक और निर्णायक आंदोलन की घोषणा कर रहे हैं, लेकिन क्या किसान नेताओं को इसका इल्म है कि जहां तक युद्ध की बात है तो मोदी सरकार का यह युद्ध तब से एक पल के लिए भी बंद नहीं हुआ? आज जब किसान खरीद गारंटी की मांग को लेकर फिर से मोर्चे पर आ रहे हैं, तो सबसे पहले पुरानी जीत पर एकतरफा ढंग से बात करना उन्हें छोड़ देना चाहिए और बदले में उसका मूल्यांकन करना चाहिए। नहीं तो गफलत की खाई आगे पड़ी हुई है और किसान इसमें फिर से गिरेंगे या गिराये जाएंगे। आज इस पर बात करना जरूरी है कि जो नयी मांग पेश की जा रही है वह वास्तव में क्या है, और किस तरह उसे हासिल करने के लिए किसानों को यह समझना जरूरी है कि वे पूंजीवादी व्यवस्था की सीमा को लांघने की तैयारी करें। अन्यथा, जैसे पुरानी जीत किसी काम की नहीं रह गई है, वैसे ही अगर 2024 के नाजुक समय को देखते हुए मोदी सरकार पीछे हटकर मांग मान भी लेती है, यानी किसान जीत भी जाते हैं, तो इस तथाकथित जीत का फिर से कोई मतलब नहीं रह जाएगा; किसानों को फिर एक बार मोर्चे पर आना होगा। किसानों के लिए यह अंतत: खराब बात नहीं है। यही वह भट्ठी है जो इन्हें पका कर इस बात के लिए परिपक्व करेगी कि पूंजीवाद इनका और मजदूर वर्ग का साझा दुश्मन है और तब ही इन्हें मालुम होगा कि वित्तीय पूंजी के नागफाश में बंधी दुनिया की सरकारों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष एकमात्र एक ही तरीके से लड़ा जा सकता है – पूंजीवाद को अजायबघर में पहुंचाने की लड़ाई लड़कर और इसमें मुकम्मल जीत हासिल करके। इसके अतिरिक्त कोई भी निर्णायक लड़ाई अत्यंत संकुचित से संकुचित अर्थ में भी निर्णायक नहीं साबित होने वाली है।

कुछ लोग महाराष्ट्र में 2018 में बने ठीक ऐसे ही एक कानून का उदाहरण देकर यह साबित करना चाहते हैं कि सरकार इस मांग को मान सकती है। लेकिन इनकी उम्मीदों के विपरीत वह अनुभव भी हमें यही बताता है कि बार-बार के संघर्ष से ज्यादा जरूरी है, पूंजीवाद को पलटना। इस कानून को सरकार ने तुरंत हटा लिया था, क्योंकि एक तो सरकार ने यह समझ लिया कि यह लागू होने लायक नहीं था। दूसरे, सरकार इसे हटाने में इसलिए भी सक्षम हो गई, क्योंकि किसानों ने आगे इसे लागू कराने के लिये लड़ाई नहीं लड़ी। लेकिन मूल बात यह है कि “कभी लागू नहीं होने लायक कानून” को लागू करवाने की लड़ाई का अर्थ क्या है, उसे जैसे आज लोग नहीं समझ रहे हैं वैसे ही बीते इतिहास में भी समझना कठिन था। जब आज किसी को इसकी समझ नहीं है, तो भला कल कैसे होती! इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि निर्णायक जीत जीतों के एक मुकम्मल सिलसिले के बाद आती है और वह दिन पूंजीवाद के अंत का दिन होगा। तभी अंतिम जीत या निर्णायक जीत होगी। इसलिए ही हम मानते हैं कि आज के दौर की अधिकांश मांगों के लिए दूरगामी और तात्कालिक लक्ष्यों का और उनकी लड़ाई का एकीकरण हो चुका है। इसलिए भी पूंजीवाद को हटाये बिना खरीद गारंटी को लागू किये जाने का अर्थ अतार्किक परिणाम पर पहुंचना होगा। इसका परिणाम आज की स्थिति से भी बुरा हो सकता है। लेकिन कुछ लोग इस अहम बात से भी दुर्भाग्यपूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं। आइए, देखें कैसे?

मार्क्सवाद के ज्ञान का यह अनोखा उपयोग क्या सही है?

यह बात सही है कि अगर सच में पूंजीवाद के तहत खरीद गारंटी का कानून लागू किया जाता है, तो इसका परिणाम पूंजीपति वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए हानिकारक होगा। जैसे हर चीज का, महान से महान उपलब्धियों का भी, पूंजीवाद में परिणामी प्रभाव इच्छित प्रभाव के विपरीत होता है, वैसे ही खरीद गारंटी के साथ भी होगा, जैसा कि एमएसपी के अर्थशास्त्र में भी निहित है। पूंजीवादी सीमा की कैद में रह कर खरीद गारंटी को लागू करने के बुरे परिणाम के बारे में मार्क्सवाद के साधारण अध्येताओं को भी पता है। लेकिन अत्यधिक ज्ञान बघारने वाले लोग इस मामूली प्रश्न का जवाब देने से कतराते दिखते हैं कि क्या समाजवाद में भी इसका यही परिणाम होगा? अगर नहीं, तो फिर इस मांग पर आंदोलित किसानों को क्या कहा जाना चाहिए?

पूंजीवाद के तहत एमएसपी लागू करने की असली मंशा सभी किसानों में से ज्यादा संपन्न किसानों को प्रोत्साहित करने की ही होती है ताकि वे ज्यादा से ज्यादा उत्पादकता हासिल (to augment productivity) करने के लिए खेती के आधुनिकतम साधनों की ओर उन्मुख हो सकें। जाहिर है, छोटे व गरीब किसान, जो आर्थिक रूप से कम संपन्न हैं, इसका फायदा नहीं उठा पाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि जब एमएसपी के द्वारा बाजार भाव से ज्यादा दाम मुहैया कराया जाता है तो यह सभी तबके के किसानों को, छोटे तथा गरीब किसानों को भी लुभाता है। लेकिन छोटे और गरीब किसान माल उत्पादक होते हुए भी इसका फायदा नहीं उठा सकते हैं, क्योंकि वे जमीन के एक छोटे टुकड़े पर खेती करते हैं और ज्यादातर अपने तथा अपने परिवार के श्रम पर निर्भर रहते हैं। अगर छोटे व गरीब किसान भी एमएसपी का फायदा उठाने के लिए उत्पादकता बढ़ाना और उत्पादन के आधुनिक साधनों का उपयोग करना चाहते हैं, तो वे एकमात्र बाजार में उपलब्ध ऊंचे ब्याज दरों पर मिलने वाले कर्ज की सहायता से ही ऐसा कर सकते हैं। इस तरह पूंजीवादी उत्पादन और एमएसपी का फायदा उठाने के लिए उन्हें शुरू से ही कर्ज में डूबना पड़ता है। लेकिन तब भी हकीकत यही है कि वे जमीन के एक छोटे रकबे पर निर्भर होने के कारण आधुनिक उत्पादन साधनों के उपयोग के बावजूद उनका कुल उत्पादन अत्यंत कम होता है और इसलिए एमएसपी का फायदा उठाने में वे हमेशा ही धनी तबके के किसानों, जो ज्यादा बड़े रकबे पर तकनीक आधारित खेती करते हैं, की तुलना में पीछे रह जाते हैं। इसी तरह सिंचित और असिंचित इलाके के बीच के किसानों की आय में एक खाई बन जाती है, क्योंकि उत्पादकता का संबंध सिंचाई के साधनों की उपलब्धता से है। इसलिए एमएसपी के बावजूद किसानों के बीच वर्ग-भेद की खाई घटने के बजाय और बढ़ती ही जाती है। इस तरह छोटे व गरीब किसानों के हित में कृषि संकट का कोई हल ”दाम के मोर्चे पर” की लड़ाई में नहीं है। गरीब किसान और गरीब होता जाता है तथा धनी किसान और धनी। लेकिन एक मार्क्सवादी के लिए यह सब प्रारंभिक ज्ञान की बातें ही हैं।

लेकिन क्या यह बात सही है कि आज के पूंजी आधिक्य, अतिउत्पादन और वित्तीय पूंजी के निर्णायक वर्चस्व के दौर में भी उत्पादकता बढ़ाकर आय में वृद्धि ठीक वैसे ही की जा सकती है जैसे कि पूंजीवादी खेती के प्रारंभिक दौर के समय में की जाती थी? हम किसी अन्य लेख में पूरे विस्तार से इस पर बात करेंगे, लेकिन अभी इतना कहना जरूरी है कि यह नये आंकड़ों की रोशनी में सही नहीं है। इसी तरह से, एमएसपी और फसलों की खरीद गारंटी के बाद पैदा हुए सामाजिक अपशिष्ट (social waste) से उत्पन्न समस्या की बात भी व्यवहारत: सही नहीं है। कुल मिलाकर एमएसपी एवं खरीद गारंटी का खंडन जिस मुख्य तर्क के आधार पर किया जाता है, वही आज संदेह के घेरे में है। कृषि में उत्पादकता से आय का पुराना रिश्ता नहीं रह गया है। इसके लिए नारायण मूर्ति की नवीनतम पुस्तक ‘फार्म इनकम इन इंडिया’ को पढ़ा जाना चाहिए।

इसी तरह आज बड़ा पूंजीपति वर्ग पूंजीवादी खेती को पहले के दौर से आगे के दौर में ले जाना चाहता है, न कि तीन दशक पीछे की पूंजीवादी खेती के दौर में। इसलिए उसका लक्ष्य एमएसपी के पुराने तर्क को आगे बढ़ाना नहीं, अपितु उसे खत्म करने के उपायों को आगे बढ़ाना है ताकि बड़ी वित्तीय पूंजी का कृषि क्षेत्र में प्रवेश हो सके। इसका मूल उद्देश्य कॉर्पोरेट खेती को कई चरणों में आगे बढ़ाना है जिसकी शुरूआत यूपीए-1 की सरकार ने 2004-05 में ही कर दी थी। बाजार दाम भी इसके अनुरूप ज्यादातर एमएसपी के नीचे ही रहने लगे हैं। यह बात पूंजीवादी खेती के प्रारंभिक काल में, कुछ अपवादों को छोड़कर, अनुपस्थित थी। इसी तरह आज एमएसपी को प्रोमोट करने की बाध्यता एकमात्र राजनीतिक मजबूरी ही है, जबकि एमएसपी को खत्म करने हेतु एवं कॉर्पोरेट पूंजी के खेती में प्रवेश के लिए इसके मुफीद औजारों, जैसे फसलों का विविधीकरण, जीरो बजट खेती, उचित दाम की खोज के लिए ‘फ्यूचर’ की अवधारणा, आदि को किसानों के समक्ष लुभावने रूप में पेश किया जाता रहा है। यह अलग बात है कि बाजार की हमलावर शक्तियों ने किसानों को इससे फायदा उठाने लायक रहने ही नहीं दिया। जब किसानों ने उत्पादकता के फ्रंट पर भारी निवेश करने की कोशिश की, तो वित्तीय सट्टेबाज पूंजी के नियंत्रण में बाजार द्वारा किसानों को लगातार दगा दिये जाने से वे कर्ज की अदायगी में विफल हो कर्ज संकट में फंस गये। इस तरह उत्पादकता बढ़ाकर आय बढ़ाने का पुराना तरीका आज के पश्चगामी दौर में असफल साबित हो चुका है। यहां तक कि सिंचित और असिंचित क्षेत्र का भेद भी मिटता चला गया है। इससे जुड़े आंकड़ों के लिए हमें एक बार फिर से नारायण मूर्ति की नवीनतम पुस्तक ‘फार्म इनकम इन इंडिया’ को पढ़ना चाहिए जिसमें इस पर भरपूर सामग्री उपलब्ध है।

अंत में …

अगर किसी क्रांतिकारी संगठन की सैद्धांतिक पत्रिका का लेखक यह लिखता है कि ‘Under capitalism where there is no planning how can we have government guaranteed pricing and procurement which is rational?’ तो फिर उसे अगली ही सांस में किसानों से यह कहना चाहिए था कि किसानों को अगर पूंजीवाद के अंतर्गत एक-एक कर उजड़ने की वर्षों से चल रही और हाल में बलपूर्वक चलायी जा रही प्रक्रिया, जिससे मुक्ति का उपाय किसान फिलहाल फसलों की एमएसपी पर खरीद गारंटी में देखते है, से मुक्ति चाहिए तो वे पूंजीवाद को खत्म करने में शक्ति लगायें। लेकिन इसके बजाय लेखक इस पर चुप्पी साध लेता है। अगर लेखक वक्त और परिस्थिति के अनुरूप नारा न देकर अपनी पूरी शक्ति महज एमएसपी और खरीद गारंटी का विरोध करने में लगाता है तो इसे क्या कहा जाए? एक क्रांतिकारी संगठन के नेता के लिए यह सच में अत्यंत बुरी बात है!

अगले अंक में – ‘एमएसपी की शुरूआती व्यवस्था से लेकर फसलों की खरीद गारंटी की मांग तक के सफर की द्वंद्वात्मक गति का पूंजीवाद में परिणाम और इसका अंतिम निदान’…


[1] लेख का नाम ”निजी कंपनियां भी खरीदेंगी केंद्र के अनाज भंडार के लिए खाद्यान्न” है; पृष्ठ 17 पर देखें।

[2] पूरा लेख पढ़ने के लिए इसी अंक के पृष्ठ संख्या 17 पर छपे लेख ”निजी कंपनियां भी खरीदेंगी केंद्र के अनाज भंडार के लिए खाद्यान्न” को पढ़ें।    

[3] वैसे तो ‘यथार्थ’ और ‘द ट्रुथ’ में इस विषय पर चली बहस के दौरान इसके प्रत्येक लेख में कुछ न कुछ लिखा गया है, लेकिन इसकी स्पष्ट समझदारी के लिए पाठकों को हम निम्नलिखित दो लेखों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं – कॉमरेड मुकेश द्वारा लिखित ”किसान आंदोलन : एमएसपी से खरीद गारंटी तक” ( देखें ‘यथार्थ’ का अप्रैल 2021 अंक ), तथा दूसरा हमारे द्वारा लिखित पीआरसी का 30 दिसंबर को हुए सम्मेलन में पेश एवं पारित प्रपत्र दस्तावेज ”कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग और किसानों की मुक्ति के संदर्भ में क्रांतिकारी रणनीति” जो ‘यथार्थ’ के जनवरी 2022 अंक में प्रकाशित हुआ था।)

[4] देखें ”चेतावनी पत्र के साथ भारतीय किसानों की मांगों की सूची” जिसे ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ने पिछले 5 दिसंबर को यह कहते हुए जारी किया है कि संसद में मौजूद सभी राजनीतिक पार्टी इसे संसद के पटल पर उठाने के साथ-साथ अपने मंचों से भी उठायें। इस सूची में पहली मांग खरीद गारंटी की मांग है। ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ कहता है – ” स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर C2+50% फार्मूले के अनुसार सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीद की गारंटी देने वाला कानून बनाया जाए। केंद्र सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए बनाई कमेटी और उसकी बताई शर्तें एसकेएम की शर्तों के अनुसार नहीं हैं। केंद्र सरकार द्वारा एमएसपी की वैधानिक गारंटी और सभी फसलों की खरीद की गारंटी के लिए कानून बनाने के लिए, इस समिति को भंग कर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक नई समिति के साथ पुनर्गठित किया जाना चाहिए, जैसा कि किसानों और एसकेएम के प्रतिनिधियों को शामिल करके, सरकार ने वादा किया था।”

[5] हमने तब किसान आंदोलन की वापसी और किसान नेताओं के इसके लिए राजी होने पर यह लिखा था – ”यह माना जा सकता है कि किसान रूपी फौज के शीर्षस्थ संचालकों ने सच में कुछ आराम का वक्त मांगा हो, ताकि वे थोड़ी लंबी सांस ले सकें। हो सकता है कि आराम करने की चाह में कोई खोट नहीं हो। लेकिन यह देखना बाकी है कि आराम के लिये ऐसे नाजुक वक्त का चुनाव कितना सही है और इससे किसकी, ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ व किसानों की या फिर किसान आंदोलन से हलकान परेशान मोदी सरकार की, उखड़ती सांसों को सहारा मिलने वाला है!”

[6] 29-30 दिसंबर 2021 को शहीद मजदूर नेता कॉमरेड सुनील पाल के शहादत दिवस के अवसर पर पटना में हुए कार्यक्रम (रैली एवं आइएमए हॉल में हुए सम्मलेन) में पीआरसी सीपीआई एमएल द्वारा जारी प्रपत्र से,  जो ”यथार्थ” के जनवरी 2022 अंक में प्रकाशित हुआ था।

[7] ”कम्युनिस्ट वॉइस” का अगस्त 2022 अंक एमएसपी और फसलों की खरीद गारंटी की मांग पर लिखता है – ”Under capitalism where there is no planning how can we have government guaranteed pricing and procurement which is rational?” बिल्कुल सही। हम भी इसीलिए एमएसपी की कानूनी गारंटी, जो प्रकारांतर में सभी फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी की मांग बन जाती है, का समर्थन और विरोध करने से इतर यह बात कहते रहे हैं कि अगर किसानों की इस मांग पर निर्णायक लड़ाई होती है तो किसानों की कल्पना में एक नये समाज, जिसमें सिर्फ योजनाबद्ध उत्पादन व्यवस्था ही नहीं होगी अपितु मजदूर वर्ग के नेतृत्व में एक समग्र समाजवादी योजनाबद्ध उत्पादन व्यवस्था कार्यरत होगी, को अवश्य लायेगी। और ठीक यही बात इस मांग पर होने वाली आर-पार की लड़ाई को सर्वहारा-मेहनतकश किसान की राज्यसत्ता की ओर निर्दिष्ट क्रांतिकारी आंदोलन में तब्दील करने की संभावनाओं से युक्त करती है। यह अलग बात है कि Communist Voice का लेखक अपनी बात को इस तार्किक परिणती तक ले जाने में हिचकिचा जाता है, और अपने को बस यही बात कहने तक सीमित कर लेता है कि यह मांग धनी किसानों के हितों के अनुरूप है। यह एक सही बात होते हुए भी एक अत्यंत सीमित प्रस्तुतिकरण है जो इस मांग पर आंदोलित विशाल किसान आबादी को आगे तक सोंचने के लिए बिल्कुल ही प्रेरित नहीं करता है, और इसलिए किसानों के आंदोलन के क्रांतिकारीकरण की दिशा में, गरीब तथा मेहनतकश किसानों को धनी किसानों के नेतृत्व से अलग कर मजदूर वर्ग के साथ आ मिलने के लिए प्रेरित करने की दृष्टि से बेकार ही नहीं हानिकारक भी है। हम इस पर अलग से भी एक बहस शुरू करेंगे।