भारत जोड़ो यात्रा
January 24, 2023क्या राहुल गांधी कांग्रेस को सच में बदल देना चाहते हैं?
संपादकीय, जनवरी 2023
क्या राहुल गांधी खुद को और कांग्रेस को सच में इतना बदल दे सकते हैं कि आम लोग यह उम्मीद करने लगें कि वे उनका जीवन बदल देंगे? यह प्रश्न इसलिए उठता है या उठ रहा है कि ”भारत जोड़ों यात्रा” के दौरान वे लोगों के जीवन को और देश को बदलने की बात बारंबार और पूरे जोश से कर रहे हैं। वे विचारधारा के लिए संघर्ष की बात भी खूब कर रहे हैं। इस पर वे बस नफरत की विचारधार से लड़ने की बात करते हैं।
सबसे गौरतलब बात यह है कि देश के जनमानस का एक अच्छा-खासा हिस्सा उनकी बातों पर अब विश्वास भी करने लगा है। हताश, निराश और मजबूर लोगों को अब यह लगना शुरू हो चुका है कि अत्यंत बुरे हो चले दिनों के इस दौर से निपटने के लिए जन क्रांति, यानी शोषकों व उत्पीड़कों से सीधी टक्कर, के अलावा बीच का कोई रास्ता अभी भी बचा हुआ है। कांग्रेस को भी लगने लगा है कि आम जनता राहुल की नेकदिली, नेकनियति और भद्रता के नाम पर एक और दांव लगा सकती है। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान हर वर्ग के लोगों, गरीब व मजदूर वर्ग तथा मध्यम-निम्न मध्यम वर्ग से आये लोगों के प्रति उनका खुला व्यवहार और निसंकोच सबसे घुलना-मिलना उन पर बढ़े विश्वास की एक बड़ी वजह है। साढ़े तीन हजार किलोमीटर बिना थके और बीमार हुए यात्रा करने से भी उनकी छवि सुधरी है।
तो क्या राहुल गांधी सच में लोगों की जिंदगी में खास फर्क ला सकते हैं? समाज को बदल सकते हैं या वह जिधर निकल चला है उधर जाने से रोक सकते हैं? लेकिन समाज को तो इससे आगे कहीं न कहीं और किसी न किसी दिशा में बढ़ना यानी जाना ही होगा। इतिहास और समाज भला एक ही जगह पर कदमताल कैसे करता रह सकता है? इसलिए यह बताना होगा कि समाज को वे किधर और कहां ले जाना चाहते हैं। मोदी पीछे ले जा रहे हैं, यह सर्वविदित है। झूठ का एक अंश तक इसमें नहीं है। वे शायद उस मध्य युग में ले जा रहे हैं, जहां कोई जनवादी अधिकार नहीं था, जनतंत्र नहीं था, नागरिकता नहीं थी और इसलिए कोई नागरिक अधिकार भी नहीं था। लेकिन आज मोदी की बात क्यों करें, हमें तो राहुल गांधी से पूछना पड़ेगा कि वे समाज को किधर और कहां ले जाना चाहते हैं।
कोई कह सकता है, वे आगे ले जाना चाहते हैं। लेकिन आगे कहां? पूंजीवाद से आगे क्या है? आज एकाधिकारी वित्तीय पूंजी का युग है। इस दिशा में पूंजीवाद काफी आगे बढ़ चुका है। इतना आगे कि पूंजीवाद की पुरानी जमीन ही नहीं बची है। यह मालों के उत्पादन से ज्यादा जुआबाजी में लिप्त हो चुका है। परिणामस्वरूप, यह एक स्थाई आर्थिक संकट में जा फंसा है। इस संकट से बचने के लिए वह सारे समाज और प्रकृति को अस्तित्व के संकट में डाले हुए है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, 10 में से 9 का संपत्तिहरण और आतंक का राज … सब इसी का परिणाम है। ये फासीवाद भी उसी का परिणाम है। फिर पूंजीवाद की रहा पर चलते हुए राहुल समाज को आगे और कहां ले जाना चाहते हैं? जनता मोदी को हटा देगी, लेकिन उसके बाद जनता को क्या मिलेगा? और जब कुछ नहीं मिलेगा तो फिर से वही फासीवाद। अगर नहीं, तो फिर एक जनक्रांति ही बचती है जिसकी शक्ति से लोग समाज को उलट-पलट कर सकते हैं और फिर इसका पुनर्गठन कर सकते हैं। फासीवाद और नफरत से लड़ते हुए हम अगर राहुल का हाथ पकड़ते हैं तो यह जानना तो पड़ेगा कि वे हमें कहां ले जाएंगे। अगर कोल्हू के बैल की तरह हम फिर से घुमफिर कर वहीं पहुंच जाते हैं, तो फिर क्या फायदा होगा। अगर जनक्रांति, जिससे हम दामन छुड़ाते हुए राहुल का हाथ थामने की सोच रहे हैं, ही एकमात्र रास्ता बचता है तो फिर में भटकने से फायदा क्या?
विचारधारा पर भी वे खूब बोल रहे हैं। वे यह दावा कर रहे हैं कि वे ”नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलने” निकले हैं। वे यह कहते हैं कि नफरत और अमीरी-गरीबी की खाई भारत को तोड़ने वाले तत्व हैं, उसके मुख्य कारक हैं। तो क्या राहुल गांधी देश से नफरत और अमीरी-गरीबी की खाई मिटा देंगे? लेकिन वे तो कहते उन्हें अमीर और गरीब सबसे मुहब्बत है। तो फिर इस खाई को मिटायेंगे कैसे? इसे ”नजर के सहारे हाथ की सफाई” करना कहते हैं।
इसी तरह वे मुख्यत: नीति और नियम की नहीं नियत की बात करते हैं। जैसे ही नीति से जुड़ा कोई ठोस सवाल आता है वे नियत पर चले जाते हैं। वे बेरोजगारी के हल का मूलमंत्र लघु एवं मध्यम उद्योगों के विकास से जोड़ते हैं। लेकिन मोनोपोली या एकाधिकारी वित्तीय पूंजीवाद के दौर में उनका ग्रोथ क्या संभव है? उनकी बर्बादी क्या नई बात है? मोनोपोली पूंजी के होने का मतलब ही यही होता है कि छोटी व मंझोली पूंजी टुकड़ों में रहेंगी, लेकिन उनका और ह्रास ही मुख्य प्रवृत्ति रहेगी। तब लघु और मध्यम पूंजी वाले उद्योगों के सहारे बेरोजगारी दूर करने के सिद्धांत का क्या होगा, यह समझा जा सकता है। बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को नहीं निगलेगी तो फिर पूंजी के विकास के नियम का क्या होगा? जब बेरोजगारी का सवाल इस ठोस तरीके से आता है तो वे नियत पर चले जाते हैं। इसी तरह महंगाई का भी मुख्य कारण मोनोपोली पूंजी और मुख्यत: मोनोपोली वित्त पूंजी के द्वारा बाजार पर कब्जा है। यह युग एकाधिकार का है, छोटी पूंजियों की स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा का नहीं। इस युग में पश्चगमन एक आम प्रवृत्ति है। फासीवाद का उठान इसी वजह से है जिसमें जनवाद और जनतंत्र, पूंजीवादी जनतंत्र का भी क्रमिक लेकिन शर्तिया क्षरण होना एक अंतर्निहित नियम है।
सवाल उठता है, क्या राहुल गांधी पूंजी के इस ऐतिहासिक विकास के नियम और गति को बदल देंगे? हम मान भी लें कि वे खुद को और कांग्रेस को बदल देंगे, लेकिन पूंजी की गति, जब तक पूंजी है, उनसे या हमसे पूरी तरह स्वतंत्र होती है। हम इसके आधिपत्य को खत्म करके ही इसे बदल ही सकते हैं। पूंजी का चरित्र जीवित श्रम का खून चूसना है और जब इसमें अवसर की कमी पड़ जाये तो वह पहले से मौजूद छोटी या मंझोली पूंजियों को हड़पने में लग जाती है। हर पूंजी अपने से छोटी पूंजी को निगलने में लगी रहती है। ऐसे में उसे बदलना उसे खत्म करना है, उसका नाश करना है। इतिहास में पीछे की और लौटना प्रगतिशीलता नहीं प्रतिक्रियावादी चीज है, क्योंकि उसका अर्थ अब तक हुए विकास को नष्ट करना है। इसलिए नेहरू और इंदिरा का युग अब वापस नहीं आ सकता। वह दौर पूंजी पर नियंत्रण का दौर था, क्योकि तब पूंजी और उत्पादक शक्तियों का इतना विकास नहीं हुआ था। प्रगतिशीलता इसमें है कि अब तक हुए विकास को सामाजिक स्वामित्व के हवाले करके समाज को पुनर्गठित करने का काम ही पूंजी की गति पर नियंत्रण करना, उसके चरित्र और लोगों के जीवन को बदलना है।
कुछ लोग बोल सकते हैं कि फासीवाद के हमले से बचने और कुछ देर के लिए आराम की सांस लेने के लिए यह जरूरी है। तो फिर तो श्रीमान से खुलकर यह बात करनी होगी कि क्या वे हमें वास्तव में सांस लेने देंगे? यह एक नीतिगत मसला है जिस पर बात की जा सकती है। लेकिन यह तो भविष्य की बात है। यह साबित होना बाकी है कि क्या राहुल उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके साथ फासीवाद विरोधी लड़ाई में क्रांतिकारी शक्तियों को एक कदम भी साझे तौर पर चलना चाहिए? हम इस पर खास तौर पर अगले अंक में बात करेंगे जब राहुल गांधी की यात्रा कश्मीर पहुंचकर खत्म हो चुकी होगी। संवाद के इस बिंदु पर पहुंचकर कम से कम यह तो साफ हो ही गया है कि राहुल का मामला क्रांतिकारी आंदोलन में राजनीतिक फूट डालने की शक्ति रखता है। खासकर यह तय करना जरूरी हो गया है कि राहुल गांधी को लेकर हमारी ठीक-ठीक नीति क्या हो सकती है। (अगले अंक में जारी ……)