गहराते कृषि-संकट के बीच किसानों की बढ़ती दयनीयता
January 24, 2023सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे–77 पर विलम्बित टिप्पणियां
अजय सिन्हा
भाग 1
कृषि परिवारों के नवीनतम (तीसरे) एसएएस सर्वेक्षण की रिपोर्ट[1] स्पष्ट रूप से न सिर्फ यह स्थापित करती है कि कृषि संकट और गहरा गया है और यह धीरे-धीरे ही सही लेकिन सतत रूप से बेहद खराब स्थिति की ओर बढ़ रहा है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि हम इसे अत्यंत तेजी से विनाशकारी अंत की ओर बढ़ते हुए भी देख सकते हैं। वर्तमान एसएएस-77 का परिणाम, जो 2019 में पूरा हुआ और सितंबर 2022 में प्रकाशित हुआ, बताता है कि कृषि-संकट तेजी से किसानों को अस्तित्व के संकट की ओर धकेल रहा है। इस बीच, 2019 से 2022 के अंतराल में कृषि क्षेत्र जो कुछ हुआ है और हो रहा है वह एसएएस-77 में इंगित परिणामों को प्रमाणित ही करता है।
मोदी-भक्त प्रिंट मीडिया की पतनशील मानसिकता; इसने कैसी प्रतिक्रिया दी थी?
एक मोदी-भक्त प्रिंट मीडिया सरकारी सर्वे के किसी ऐसे रहस्योदघाटन पर, जो ‘महान’ मोदी को काले रंग से पोत दे या उन्हें काले साये में दिखाये, कैसी प्रतिक्रिया दे सकता है? हम इसे सितंबर 2022 में प्रकाशित एसएएस-77 रिपोर्ट पर अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के न्यूज कवरेज को देख कर समझ सकते हैं। एसएएस-77 के रहस्योद्घाटन के प्रति ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जैसे मोदी-भक्त प्रिंट मीडिया की प्रतिक्रिया, यानी न्यूज कवरेज का इसका मोदी-भक्त तरीका हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप ही दिखा।
‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने 20 सितंबर 2021 की सुबह इस खबर को बड़े ही बोल्ड और चमकदार शीर्षक के साथ प्रकाशित किया – ‘Survey shows farm incomes have risen’ (सर्वे ने दिखाया कि कृषि-आय में वृद्धि हुई है)’- जबकि सर्वे में से निकल कर सबसे बदसूरत तथ्य यह सामने आया है कि खास कृषि से होने वाली आय, जो एक कृषि-परिवार की कुल आय का सबसे बड़ा हिस्सा (शेयर) हुआ करती थी, आज इतिहास में पहली बार अपने सर्वोच्च स्थान से गिर कर दूसरे स्थान पर आ गई और उसकी जगह मजदूरी/वेतन से होने वाली आय ने ले ली है। फिर ऐसा उज्ज्वल शीर्षक बनाना कैसे संभव हुआ? वह इस तरह हुआ कि केंद्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल को इस नवीनतम एसएएस रिपोर्ट के तथाकथित उज्ज्वल खुलासे के बारे में जो कुछ भी कहना था सीधे उसे ही उद्धृत कर के न्यूज हेडलाइन (सुर्खी) बना दिया गया। है न यह आश्चर्य की बात! लेकिन यही सच है, और इसलिए इसका मुकाबला करने की जरूरत है। इसलिए आइए, अपनी इस चर्चा की शुरुआत उस आवश्यक इलाज से करें जिसका ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जैसा प्रिंट मीडिया हकदार है।
इस तरह की सभी झूठी सुर्खियों की विडंबना यह है कि अंदर की खबरें ही झूठी रिपोर्टिंग करने तथा झूठी सुर्खियां बनाने के तरीके की पोल खोल देती हैं, उसके पीछे के झूठ को उजागर कर देती हैं। इस बार भी मोदी समर्थक अखबारों और मीडिया घरानों की मूर्खता की पराकाष्ठा ही सामने आई है। इस बार भी यही साबित हुआ है कि जब एक झूठा मनगढ़ंत उज्ज्वल शीर्षक बनाया जाता है तो वास्तव में यह केवल उनकी भ्रष्ट मानसिकता की उस गहराई को प्रकट करता है जो हर गुजरते दिन के साथ और नीचे की ओर ही गिरता चला जा रहा है।
‘हिंदुस्तान टाइम्स’ इसकी रिपोर्ट इस तरह करता है:
”विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ लगातार विरोध के बीच, वर्ष 2019 में जनवरी और दिसंबर के बीच संपन्न हुए ग्रामीण भारत के कृषि-परिवारों, भूमि और पशुधन जोत के स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण (एसएएस) 2019 ने किसानों की आय में, जो हालांकि मुद्रास्फीति से साथ सहयोजित नहीं है और इसलिए अंकित-मूल्य पर आधारित है, 59% की वृद्धि का खुलासा किया है।”
इस प्रकार एक किसानों की आय में वृद्धि का एक गुलाबी चित्र खींचा जाता है!
हां, वास्तव में यह गुलाबी चित्र मैनुफैक्चर्ड चित्र है। यह बात इस उज्ज्वल हेडलाइन के ही तहत दी गई अंदर की उस खबर से साबित हो जाती है जो ठीक अगले पैराग्राफ में दी गई है। अगले पाराग्राफ में केंद्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल के हवाले से यह लिखा गया है :
”सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि मुद्रास्फीति के साथ सहयोजित कृषि-परिवारों की आय – जिसे अर्थशास्त्री वास्तविक आय कहते हैं – में लगभग 2% की वृद्धि हुई है। हालांकि, जब प्रति व्यक्ति किसानों की आय प्राप्त करने के लिए कृषक-परिवारों की संख्या के बीच बिना मुद्रास्फीति के साथ सहयोजित की गई आय वितरित की जाती है, तो प्रति कृषि-परिवार प्रति दिन आय के रूप में ₹27 का आंकड़ा मिलता है जैसा कि ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने पहले बताया था।”
तो यहां झूठी हेडलाइन द्वारा बनाये गये उम्मीदों का बुलबुला इस तरह फट जाता है!
लेकिन यह अभी भी खेती या फसलों से होने वाली आय के संबंध में एक झूठी तस्वीर पेश कर रहा है। इस पहेली को समझने की कुंजी किसानों या कृषि-परिवार की परिभाषा में निहित है जो एक कृषि-परिवार की आय में मजदूरी के साथ-साथ डेयरी व पशुधन के साथ-साथ ऐसे अन्य संबद्ध स्रोतों से आने वाली आय को जोड़ने की अनुमति देती है। 70वें दौर में किसान/कृषि-परिवार की परिभाषा बदल दी गई थी। 2013 में एसएएस-70 द्वारा अपनाई गई नई परिभाषा इस प्रकार है कि ”कोई भी परिवार जो एक वर्ष में 4,000 रुपये के मूल्य (पुराने न्यूनतम उत्पादन मूल्य को इन छह वर्षों में बढ़ी हुई मुद्रास्फीति के साथ सहयोजित करने के बाद)[2] के बराबर का कृषिउत्पादन प्राप्त करता है और मुख्य या सहायक व्यवसाय के रूप में कृषि में स्वरोजगार प्राप्त करता है, वह एक कृषिपरिवार है। इसलिए, यदि कोई ग्रामीण परिवार केवल एक बकरी पालता है या रखता है और एक वर्ष में, कहने के लिए, 150 लीटर दूध प्राप्त करता है, और मुख्य व्यवसाय के रूप में किसी गैर-कृषि संबद्ध गतिविधि में भी लगा हुआ है, तो इस नई परिभाषा के तहत वह एक कृषिपरिवार बन जाता है। इसलिए, यदि फसल उत्पादन से होने वाली आय का हिस्सा, मान लें, ₹3,798 प्रति वर्ष है, तो आय का यह आंकड़ा खेती (फसलों के उत्पादन) से होने वाली उसकी आय की वास्तविक तस्वीर नहीं है, जिसे आमतौर पर भूमि के मालिक किसान की आय के रूप में समझा जाता है। इसी तरह, भले ही एक ग्रामीण परिवार जिसके पास कोई जमीन नहीं है, लेकिन वह दूसरे की जमीन पर काम कर कृषि-मजदूरी अर्जित करता है या कृषि से संबद्ध गतिविधियों में से किसी एक से कोई आय अर्जित करता है, उसे एक किसान या कृषि-परिवार मान लिया जाएगा और इस प्रकार अर्जित आय को कृषि-परिवार की आय में जोड़ा और गिना जाएगा।[3]
इसके अलावा ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के रिपोर्टर के ईमेल द्वारा भेजे गये सवाल[4] के जवाब में संजय अग्रवाल इस अंदाज में जवाब देते हैं-
”यह सही है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPYI) के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पूछताछ के एक एकीकृत कार्यक्रम के साथ “घरों की भूमि और पशुधन और कृषि परिवारों की स्थिति का आकलन” पर एक सर्वेक्षण किया। इससे पहले, कृषि परिवारों के भूमि और पशुधन जोत सर्वेक्षण (एलएचएस) और स्थिति आकलन सर्वेक्षण (एसएएस) दोनों अलग-अलग सर्वेक्षण के रूप में संपन्न किये जाते थे। लक्ष्य है – किसानों की आय के बारे में समग्र दृष्टिकोण रखना है। उदाहरण के लिए, डेयरी और पशुधन से आय का आकलन करने के लिए अलग-अलग सर्वेक्षण करने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि डेयरी व्यवसाय कृषि-गतिविधि का एक प्रमुख क्षेत्र है।”
रिपोर्टर का ईमेल किया गया प्रश्न यह था : ”यह सर्वेक्षण पिछले स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण (सिचुएशनल असेसमेंट सर्वे) से इस तरह से हटकर है कि यह केवल फसलों से होने वाली आय का नहीं, बल्कि भूमि और पशुधन जोत से होने वाली कमाई का लेखा-जोखा भी रखता है। दोनों सर्वे के पैरामीटर अलग-अलग हैं। इसका क्या औचित्य है?”
उत्तर से ही पता चलता है कि कृषि परिवारों की आय में उपरोक्त 2% की मामूली वृद्धि भी तथाकथित ‘जांच की एकीकृत अनुसूची’ के कारण हुई है, जो किसानों की लगातार बिगड़ती आर्थिक स्थिति की दुर्दशा को प्रकट करने के बजाय छुपाती है क्योंकि यह कई तरह के स्रोतों से होने वाली आय को एक में जोड़ देती है। खास फसल की खेती से होने वाली आय बुरी तरह प्रभावित हुई है और पिछले एक दशक से इसमें या तो ठहराव है या फिर गिरावट रही है।
जब रिपोर्टर ने औसत मासिक आय और उस आय के अलग-अलग स्रोतों को ध्यान में रखते हुए पूछा, तो संजय अग्रवाल ने इसे इस तरह से पूरी तरह से समझाया। उसने यह कहा:
”अखिल भारतीय स्तर पर, कृषि वर्ष 2018-19 के दौरान प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये है। कुल औसत में से, मजदूरी से आय ₹4,063 है, इसके बाद खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति ₹3,798 है, पशुओं की खेती से शुद्ध प्राप्ति ₹1,582 है, गैर-कृषि व्यवसाय से शुद्ध प्राप्ति ₹641 है और भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय ₹134 है। कृषि परिवारों द्वारा अर्जित कुल आय में से 39.8% आय मजदूरी से अर्जित की गयी है, इसके बाद खेती/फसल उत्पादन से शुद्ध प्राप्ति 37.2% है, पशुओं की खेती से 15.5% से, और गैर-कृषि व्यवसाय से होने वाली आय 6.3% है।” [स्रोत: एनएसएस रिपोर्ट नंबर 587: ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन जोत की स्थिति का आकलन, 2019]
मोदी की छत्रछाया में काम करने वाले एक नौकरशाह के मुंह से निकला यह ठेठ जवाब है। फिर भी, सभी विकृतियों के बावजूद यह बहुत सारे रहस्यों को प्रकट करने वाला जवाब है। कृषि-परिवार की आय में अब न केवल कृषि और डेयरी और पशुधन जोत से होने वाली आय शामिल है, बल्कि गैर-कृषि व्यवसाय और भूमि को पट्टे पर देने से होने वाली आय भी शामिल है। इसलिए वर्तमान एसएएस सर्वेक्षण दरअसल भूमि और पशुधन जोत सर्वेक्षण और स्थिति आकलन सर्वेक्षण का योगफल है। हालांकि, सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस सर्वेक्षण में कृषि आय का हिस्सा (₹3,798) मजदूरी के हिस्से (₹4,063) से नीचे गिर गया है। कृषि संकट की गहराई और उसके परिणामों – किसानों की संपत्ति हड़पने की चल रही प्रक्रिया, पूंजीवादी कृषि की वह विशेषता जिसने किसानों को अस्थिर बाजार के भंवर के ठीक बीच में खींच लिया है – को यहां साफ-साफ देखा जा सकता है। कोई भी इसे आसानी से देख या समझ सकता है।
फिर, कृषि-परिवार की आय के सर्वेक्षण की इस नई पद्धति में जांच की इस एकीकृत अनुसूची का आखिर क्या उद्देश्य हो सकता है? केंद्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल का कहना है कि ”(ऐसे)[5] सर्वे का उद्देश्य स्पष्ट है। यह समग्रता के स्तर पर एक कृषि-परिवार की वर्तमान कुल आय की स्थिति को पकड़ में लेने के लिए है।” लेकिन ठीक-ठीक उद्देश्य क्या है? ”आय का कोई स्रोत पकड़ से न छूटे। इस तरह हम जान सकते हैं कि उनकी कुल आय की स्थिति क्या है” – वे आगे कहते हैं।
इस तरह मुद्रास्फीति को सहयोजित करने के बाद नवीनतम एसएएस रिपोर्ट में कृषि-परिवारों की आय में मामूली 2% की वृद्धि को किसानों की आय में 59% की भारी वृद्धि के रूप में इसी तरीके से मैनुफैक्चर्ड किया किया गया है!
भाग II
2019 में पूर्ण किए गए एसएएस-77 की मुख्य विशेषताओं को अपराजिता बख्शी द्वारा तीन तालिकाओं, जो कि आगे दिये गये हैं, में संक्षेपित किया गया है अर्थात संक्षेप में समेटा गया है। तालिकाओं की सामग्री पर टिप्पणियां मेरी हैं, हालांकि उनमें से कुछ उनकी टिप्पणियों से मेल खा सकती हैं, क्योंकि तालिकाओं के आंकड़े या सामग्रियां वस्तुनिष्ठ तथ्य हैं और इसलिए ये कुछ निर्विवाद सत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें कोई झुठला नहीं सकता है, भले ही अलग-अलग व्यक्तियों की अभिव्यक्तियों के रूप भिन्न हो सकते हैं।
यदि सभी आरोपित (imputed) लागतों को शामिल किया जाए, तो फसल उत्पादन से औसत मासिक आय 2018-19 की मौजूदा कीमतों पर और कम होकर 3,058 रुपये हो जाती है और पशु खेती से होने वाली आय घटकर 441 रुपये हो जाती है। [स्थिति आकलन सर्वेक्षण 2019]
तालिका 1: कृषि परिवारों की औसत मासिक आय, स्रोत के अनुसार, 2013 और 2019 (अंकित मूल्य के आधार पर यानी उन्हें मुद्रास्फीति के साथ सहयोजित किए बिना), रुपये और प्रतिशत (अंकित पदों) में
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तालिका 1 पर हमारी टिप्पणियां :
1. मजदूरी से आय: मजदूरी/वेतन से आय का हिस्सा लगभग दोगुना (रुपये में) हो गया है जो पिछले 6 वर्षों में कुल आय में इसके हिस्से में 7.6% और पट्टे पर दी गई भूमि से आय को छोड़कर इसके हिस्से में 8.1% की वृद्धि दर्शाता है। यह भूमि से किसानों के बीच बेदखली की एक सतत प्रगतिशील प्रवृत्ति को दर्शाता है।
2. पशुपालन से आय: पशुपालन से होने वाली आय का हिस्सा भी (रुपये में) लगभग दोगुना हो गया है जो कुल आय में इसके हिस्से में 3.6% और पट्टे पर दी गई भूमि से आय को छोड़कर इसके हिस्से में 3.8% की वृद्धि दर्शाता है।
3. खेती से आमदनी: यह सबसे खतरनाक परिणाम है इस बार का एसएएस रिपोर्ट दर्शा रहा है। हालांकि फसलों की खेती से होने वाली आय में 7017 रुपये (अंकित मूल्य के आधार पर) की वृद्धि दिखाई देती है, लेकिन कुल आय में इसकी हिस्सेदारी 10.7% कम हो गई है, जो कि एक भारी कमी है।
4. खेती या फसलों से होने वाली आय, यदि सभी आरोपित (imputed) लागतों को शामिल किया जाए तो, 2013 में 3081 रुपये से घट कर 2019 में 3058 रुपये हो जाती है। यदि इस आंकड़े को छह वर्षों में हुई मुद्रास्फीति में वृद्धि के साथ सहयोजित किया जाये, तो यह और भी कम हो जाएगा।
5. 2013 में, कृषि परिवारों की आय में खेती से होने वाली आय सबसे बड़ा हिस्सा था, जबकि 2019 में मजदूरी/वेतन से होने वाली आय सबसे बड़ा हिस्सा हो गया।
6. वर्ष 2012-13 के बाद जहां फसलों से होने वाली आय में स्पष्ट रूप से गिरावट आई है, वहीं एसएएस-77 में पशुपालन से होने वाली आय में 50.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। यदि इन दो घटकों पर वास्तविक आय के पदों में विचार किया जाए, तो कृषि-परिवारों की आय के इन दोनों स्तरों का योग दोनों कालखंडों में मोटे तौर पर एक समान हो जाता है। यह भारतीय कृषि क्षेत्र के भीतर विविधीकरण की दिशा में उठे कदम या हुई वृद्धि की ओर भी इशारा करता है क्योंकि इन छह वर्षों में पशुधन क्षेत्र में भी तेजी से वृद्धि देखी गई है। कृषि और संबद्ध गतिविधियों में सकल मूल्य वर्धन में इसकी हिस्सेदारी में वृद्धि भी यही संकेत देती है।
7. उपरोक्त सभी को ध्यान में रखते हुए, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि किसान वास्वत में किसान है, इसलिए नहीं कि वे खेती से कमाते हैं बल्कि इसलिए कि वे संबद्ध कृषि गतिविधियों जैसे कि पशुपालन और कृषि मजदूरी गतिविधियों से ज्यादा कमाते हैं।
तालिका 2: वर्ष 2018-19 के मूल्यों पर कृषि परिवारों की औसत मासिक घरेलू आय, रुपये व प्रतिशत में
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नोट: मूल्य सहयोजन के लिए आधार वर्ष 2012 के साथ उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (ग्रामीण) का उपयोग किया गया है।
तालिका 2 जो वास्तविक रूप में आय के शेयरों की गणना करती है, वह और भी स्पष्ट रूप से दिखाती है कि-
1. जब कृषि परिवारों की आय के शेयरों की वास्तविक रूप से गणना की जाती है, तो उनकी आय में जो भी वृद्धि हुई है (कुल मिलाकर 2%) केवल मजदूरी (42.6%) और पशुपालन (50.7%) से आय में वृद्धि के कारण हुई है।
2. इन छह वर्षों में खेती और गैर-कृषि व्यवसाय दोनों से आय में वृद्धि नकारात्मक हो गई है, क्रमशः -10.4% और -9% की वृद्धि हुई है।
3. कुल मिलाकर फसल की खेती छोटे और मध्यम (विशेष रूप से निम्न मध्य) किसानों के लिए निवेश करने के लिए एक बहुत ही जोखिम भरा क्षेत्र बन गया है। इससे यह भी पता चलता है कि यह संपन्न किसानों के लिए भी प्रगतिशील रूप से कम आकर्षक और कम लाभप्रद होता जा रहा है। इसके कारणों को तालिका 3 में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
तालिका 3: कृषि परिवारों (एएच) के बीच एमएसपी और खरीद एजेंसियों की जागरूकता, 2013 और 2019, प्रतिशत में
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तालिका 3 यह दर्शाती है कि-
1. हालांकि एसएएस डेटा खरीफ/धान के लिए एमएसपी और सरकारी खरीद एजेंसियों के बारे में जागरूकता में वृद्धि दिखाता है, लेकिन यह किसी भी तरह से उल्लेखनीय नहीं है। इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि रबी/गेहूं के बारे में न केवल एमएसपी और सरकारी खरीद एजेंसियों के बारे में उपरोक्त जागरूकता में, अपितु अन्य दो विवरण (कृषि-परिवारों द्वारा सरकारी खरीद एजेंसी में बेचे गए और एमएसपी पर बेचे गए उत्पादन का हिस्सा) दोनों में भी काफी बड़ी गिरावट आई है।
2. खरीफ/धान के लिए भी छह वर्षों (2013 से 2019 तक) में एमएसपी पर बेचे गए उत्पाद के हिस्से में गिरावट आई है।
अन्य महत्वपूर्ण हाइलाइट्स
1. यह पता चलता है कि ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों की हिस्सेदारी में स्पष्ट रूप से कमी आई है, 2013 में 57.8 प्रतिशत से 2019 में 54 प्रतिशत तक, जबकि कृषि परिवारों की कुल या निरपेक्ष संख्या में वृद्धि हुई है: 90.2 मिलियन से 93.09 मिलियन। इसका क्या मतलब है? इसका सर्वप्रथम और सबसे महत्वपूर्ण अर्थ यह है कि जो लोग सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर हैं उनकी संख्या कम हो रही है। अपराजिता बख्शी अपने शब्दों में यही बात दूसरे तरीके से कहती हैं – ”यह भारत में कृषि रोजगार में गिरावट की समग्र प्रवृत्ति के अनुरूप है जैसा कि भारत की जनगणना के विभिन्न दौरों से देखा गया है।” वैसे परिवारों की संख्या बढ़ी है जो ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं लेकिन कृषि से नहीं जुड़े हैं।
2. 2013 में, 63.4 प्रतिशत कृषि परिवारों ने आय के प्रमुख स्रोत के रूप में खेती से होने वाली आय को बताया था, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 86.9 प्रतिशत (बढ़ोतरी) है। इसी तरह 3.7 प्रतिशत ने पशुधन आय को अपनी आय का प्रमुख स्रोत बताया, जबकि 2019 में इसका आंकड़ा 2.3 प्रतिशत (गिरावट) था। 2019 में फसल उत्पादन से होने वाली आय की घटती हिस्सेदारी और पशुधन खेती की बढ़ती आय हिस्सेदारी के समक्ष इस तरह के आंकड़ों का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि 1) कुल आय में खेती से होने वाली आय के घटते हिस्से के साथ भूमि पार्सल और खंडित हो रहे हैं और 2) पशुधन जोत में अन्य परिवर्तनों के साथ-साथ पूंजी का संकेंद्रण और केद्रीकरण हो रहा है।
3. फसल से होने वाली आय का निम्न स्तर लगातार बना रह रहा है। यह कृषि संकट की निरंतरता को दर्शाता है। पूंजीवाद में इसका निदान बड़ी या कॉर्पोरेट पूंजी की कृषि क्षेत्र में प्रवेश या कॉरपोरेट खेती की शुरुआत करना माना जाता है और साथ ही साथ खेती से होने वाली आय में गिरावट से तंगहाल गरीब किसानों को गांवों से जबरन बाहर निकालना माना जाता है। यह ‘जबरन’ इसलिए है क्योंकि औद्योगिक या गैर-औद्योगिक शहरों या गंतव्य स्थलों में, जहां पलायन के शिकार हो गांव के लोग रोजगार के लिए जाते हैं, वहां रोजगार की भयंकर कमी व्याप्त होने के कारण गरीब किसान जब तक बाध्य नहीं किये जाएंगे वे अपने-आप से गांव नहीं छोड़ सकते। जिन लोगों को जबरन निष्कासित या बाहर किया जाना था, उसके बारे में लक्ष्य पहले से निर्धारित था और है। पूरे गांव की आबादी को यूपीए शासन के तहत 11वीं योजना में अब की परिकल्पना के अनुसार 36% नीचे रखा जाना था। यह बिना किसी कारण के नहीं था कि फसल आय का लगातार निम्न स्तर तत्कालीन मीडिया के साथ-साथ आंदोलनकारी किसानों के लिए मुख्य ध्यानाकर्षण का विषय बना हुआ था। किसान कॉर्पोरेटपक्षी कृषि कानूनों के विरूद्ध इसलिए ही शुरू से चौकन्ना थे, क्योंकि यदि ये कानून सच में लागू होते तो जो होना था ठीक वही होता। यदि इन कानूनों को निष्पादित किया गया होता तो बड़ी पूंजी समर्थक संप्रग और मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने जो सोचा था, वह सब लागू कर दिया गया होता।
4. फसल उत्पादन से होने वाली दैनिक आय महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) द्वारा भुगतान की गई न्यूनतम मजदूरी से भी कम है।[6] मौजूदा महंगाई दर से एडजस्ट करने पर यह 27 रुपये प्रति परिवार है।
5. फसलों में लगी लागत के अनुरूप मूल्य वसूली की समस्या आज भी बनी हुई है जैसा कि सभी फसलों के लिए कृषि उत्पादन के सूचकांक संख्या में वृद्धि (2012-13 और 2018-19 के बीच 129.8 से 138.1 तक) के बावजूद घटती फसल आय से स्पष्ट है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह उपरोक्त मूल्य वसूली की लगातार बनी समस्या के साथ-साथ कृषि अर्थव्यवस्था में आदानों (इनपुट) की उच्च लागत की ओर भी इशारा करता है।
6. ‘फाउंडेशन फॉर एग्रेरियन स्टडीज’ द्वारा किए गए अध्ययनों ने यह लगातार दिखाया है कि किसानों, विशेष रूप से छोटे किसानों द्वारा प्राप्त मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से काफी नीचे रहे हैं और फसलों का एमएसपी अक्सर इन किसानों द्वारा भुगतान की गई इनपुट लागत को कवर नहीं करता रहा है। [7]
निष्कर्ष और सामान्य टिप्पणियां
स्पष्ट है कि फसल से होने वाली आय में गिरावट आई है जबकि सभी स्रोतों से अर्जित कृषि-परिवारों की कुल आय वास्तविक पदों में लगभग स्थिर हो गई है। एमएसपी पर बेचे गए कृषि उत्पादन के हिस्से में खरीफ/धान और रबी/गेहूं दोनों में गिरावट आई है। मजदूरी/वेतन से प्रति कृषि-परिवार होने वाली आय फसल या खेती से प्रति कृषि-परिवार होने वाली आय से अधिक हो गई है। यह मोदी के 2022 तक किसान की आय दोगुनी करने के वादे के झूठ को समझने और उस पर टिप्पणी करने के लिए पर्याप्त है। 2022 वह वर्ष जो अभी-अभी बीता है। अगर 2019 तक यही स्थिति थी जैसा कि ऊपर वर्णित है, तो क्या कोई कल्पना कर सकता है कि 2019 से 2022 के बीच के पिछले 3 सालों में ऐसा कुछ चमत्कार हुआ है जिससे किसानों की आय दोगुनी हो गई होगी या दोगुनी हो गयी होगी इसकी उम्मीद भी की जा सकती है? अपराजिता बख्शी ठीक ही कहती हैं कि ”भले ही हम इस तथ्य पर विचार करें कि किसानों की आय दोगुनीकरण का लक्ष्य कृषि परिवारों की कुल आय और इनकी आय के सभी स्रोतों के लिए है, न कि केवल खेती से होने वाली आय के लिए, लेकिन कृषि परिवारों की सभी स्रोतों से होने वाली आय (वास्तविक पदों में) में मात्र 15 प्रतिशत की वृद्धि से उस लक्ष्य की पूर्ति की उम्मीद भविष्य में भी नहीं की जा सकती है।”
वह आगे कहती हैं – ”दलवई समिति [8] ने कहा था कि ‘2022-23 में राष्ट्रीय स्तर पर लक्षित किसानों की आय 192,694 रुपये (2015-16 की स्थिर कीमतों पर) या मौजूदा कीमतों पर 271,378 रुपये होगी’ (भारत सरकार 2018, पृष्ठ 8)। [9] वह आगे कहती हैं – ”मैंने पहले एसएएस-70 और गांव के अध्ययन के आंकड़ों का उपयोग करते हुए तर्क दिया था कि कृषि परिवारों के एक बड़े हिस्से की आय उनकी खुद की खपत की जरूरतों को पूरा करने के लिए या वास्तव में किसी भी गरीबी मानक को पूरा करने के लिए अपर्याप्त थी। खपत पर होने वाले व्यय के बारे में एसएएस-70 डेटा के विश्लेषण से यह पता चलता है कि नीचे के छह खपत डेसील्स में कृषि परिवारों की औसत आय वास्तव में औसत खपत-व्यय से कम थी। इसके अलावा, 42.7 प्रतिशत कृषि परिवारों की वार्षिक आय तेंदुलकर गरीबी रेखा से नीचे थी।” [10]
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ‘एनएसएस के 77वें दौर के एसएएस की प्रकाशित रिपोर्ट में ‘औसत उपभोग-व्यय का अनुमान या आंकड़ा उपलब्ध नहीं हैं। फसल से होने वाली आय और पशुधन आय, यदि इसके आधार पर विश्लेषण किया जाए तो यह अधिकांश ग्रामीण परिवारों की गरीबी की तस्वीर पेश करेगी। अपराजिता बख्शी का कहना है कि 2013 से 2019 के इन छह वर्षों में ”67 प्रतिशत कृषि-परिवारों की आय (जिसमें फसल और पशुधन आय शामिल है), और 74.5 प्रतिशत कृषि-परिवारों की फसल से होने वाली आय गरीबी रेखा द्वारा निर्दिष्ट आय से भी नीचे थी।” [11]
अब यह कहना एक इतिहास हो गया है कि उपभोग-व्यय अनुमानों के आधार पर आधिकारिक गरीबी रेखा को परिभाषित करने के प्रयासों को भारत में छोड़ दिया गया है। आखिरी रिपोर्ट 2014 में प्रकाशित रंगराजन समिति की रिपोर्ट थी। इसके बाद इस बारे में कोई रिपोर्ट नहीं आई है। इसके कारण विशेषज्ञों के बीच कृषि परिवारों के बीच गरीबी का त्वरित अनुमान लगाने में असमर्थता पैदा हुई है। इसलिए 2019 के एसएएस के आधार पर, गरीबी के किसी भी अनुमान को तुरंत जारी करना लगभग असंभव है। हालांकि, 77वें दौर के एसएएस के माध्यम से आने वाली अन्य सूचनाएं कृषि परिवारों में गरीबी के प्रसार के संबंध में अपेक्षाकृत स्पष्ट तस्वीर देने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए, कुल आय में मामूली वृद्धि बहुत कुछ बताती है, खासकर यह कि अगर गरीबी तथा आय-उपभोग की सीमा और अधिक चौड़ी नहीं हुई है, तो इस सीमा में कोई सुधार या सकारात्मक बदलाव तो अवश्य ही नहीं हुआ है।
हालांकि 77वें दौर के एसएएस की कार्यप्रणाली में कुछ प्रतिगामी बदलाव (जैसे कि एसएएस सर्वेक्षण और भूमि और पशुधन जोत सर्वेक्षण का एकीकरण) किये गये हैं, फिर भी यह हमें एनएसएस के लगातार दो दौरों के आंकड़ों के बीच तुलना का लाभ देता है। इसका मुख्य कारण यह है कि एसएएस-77 कृषि परिवारों की उसी परिभाषा का पालन करता है जिसका एसएएस-70 में पालन में किया गया था। दोनों की तुलना करने पर यह हमें किसानों की भूमि और साथ ही उनकी संपत्ति से एक-एक करके बेदखली और संपत्तिहरण की एक सतत प्रगतिशील प्रवृत्ति की एक स्पष्ट तस्वीर देता है जिससे ग्रामीण आबादी का तेजी से सर्वहाराकरण हो रहा है। हालांकि कॉर्पोरेट-समर्थक या बड़ी पूंजी-समर्थक कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया है, लेकिन बाजार पर इजारेदारों के लगभग पूर्ण नियंत्रण के कारण किसानों की बर्बादी किसानों की नियति बन गई है। अपने स्वयं के जीवन के अनुभव से और बड़े शार्क और वित्तीय पूंजी के कप्तानों द्वारा नियंत्रित विश्व बाजार में अपनी स्थिति के आंकलन से, अब उन्हें अवश्य ही लगता होगा कि एमएसपी पर उनकी उपज की गारंटीकृत खरीद ही लगभग निश्चित बर्बादी से बचा सकती है और इसलिए इसी मांग को लेकर वे संघर्ष की तैयारी भी कर रहे हैं। लेकिन शायद वे यह नहीं जानते कि एक बार फिर से वे चाहे जितनी कुर्बानी दें, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था उनकी सारी उपज की खरीद की गारंटी नहीं दे सकती। इसके लिए लाभ पर आधारित न होकर सभी उत्पादकों और मेहनतकशों की बढ़ती हुई भौतिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर आधारित समाजवादी योजना की आवश्यकता है जिसकी पूर्ति का दिखावा करने की शक्ति भी आज के पूंजीवादी व्यवस्था में कतई नहीं है। इसकी पूर्ति किसी पूंजीवादी समाज और व्यवस्था में नहीं बल्कि मेहनतकश किसानों और अन्य मेहनतकश जनता के साथ के गठबंधन में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व वाली समाजवादी समाज और व्यवस्था में हो सकती है। उन्हें इस सड़ी-गली व्यवस्था से कुछ मांगने के अतिरिकत इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए एक अंतिम दृढ़ लड़ाई के लिए भी खुद को तैयार करना चाहिए। मांग पर आधारित लड़ाई करना जरूरी है, क्योंकि यही लड़ाई हमें अगले स्तर की लड़ाई के लिए रास्ता प्रशस्त करेगी, लेकिन इस व्यवस्था में मांगे मान लिये जोने के बाद भी लागू होंगी इसकी उम्मीद कम है, लगभग न के बराबर। कागज पर स्वीकार किए जाने पर भी इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती कि वे मांगें वास्तव में लागू होंगी।
फुटनोट-
[1] कृषि-परिवारों का स्थिति आकलन सर्वेक्षण (जिसे संक्षेप में कृषि परिवारों का एसएएस कहा जाता है) ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन’ (एनएसएसओ) द्वारा आयोजित किया जाता है, जबकि इसका रिपोर्ट/परिणाम ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय’ (एनएसओ) द्वारा प्रकाशित किया जाता है। कृषि परिवारों का नवीनतम या तीसरा एसएएस सर्वेक्षण 2018-19 के खरीफ/रबी मौसम के दौरान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के 77वें दौर के हिस्से के रूप में किया गया था, जबकि इसका रिपोर्ट सितंबर 2021 में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले, इस तरह के दो सर्वेक्षण आयोजित किए गए थे। पहला 2004 में (एसएएस-59 या 59वें दौर का एसएएस), और दूसरा 2013 में (70वें दौर का एसएएस या एसएएस-70) इसका उद्देश्य आय, उत्पादक संपत्ति, ऋण, जागरूकता और कृषि प्रौद्योगिकी और बाजारों तक पहुंच सहित कृषि-परिवारों की आर्थिक स्थिति से संबंधित विभिन्न तरह के अनुमान प्रदान करना है। यह देखा जा सकता है कि सर्वेक्षणों की कार्यप्रणाली और कवरेज तीनों दौरों में बदलते रहे हैं, हालांकि प्रमुख संकेतक जिनके आधार पर आंकड़े एकत्र किये जाते हैं और ऐसे सर्वेक्षणों के मुख्य उद्देश्य बड़े पैमाने पर और मोटे तौर पर समान बने रहे हैं।
[2] इस लेख के लेखक द्वारा जोड़ा गया।
[3] हिंदुस्तान टाइम्स लिखता है – ”एसएएस द्वारा कृषि-परिवार की दी गयी परिभाषा यह है कि ‘कोई भी परिवार जो प्रति वर्ष ₹4000 मूल्य का उत्पादन प्राप्त करता है और मुख्य या सहायक व्यवसाय के रूप में कृषि में स्वरोजगार करता है वह एक कृषि-परिवार है।”
[4] रिपोर्टर का ईमेल किया गया प्रश्न यह है: यह सर्वेक्षण पिछले स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षणों से अलग है, जिसमें यह न केवल फसलों बल्कि भूमि और पशुधन जोत से होने वाली आय का लेखा-जोखा रखता है। दोनों सर्वे के पैरामीटर अलग-अलग हैं। इसका क्या औचित्य है?
[5] “ऐसे” शब्द इस लेख के लेखक द्वारा जोड़ा गया है।
[6] (किशोर और झा 2021)
[7] सरकार 2017, बख्शी और मुंजल 2018)।
[8] दलवई समिति ”किसानों की आय दुगनी करने के लिये बनी कमिटी” थी। इस कमिटी का गठन अशोक दलवई की अध्यक्षता में किया गया था, जो पूर्व में राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे, एक आय क्रांति की एक बड़ी आशावादिता के साथ किया गया था जिसने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का आश्वासन दिया था। कमिटी ने 2018 में ही अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी थी। तब से चार साल बीत चुके हैं, लेकिन किसानों की आर्थिक स्थिति 2014 से पहले की तुलना में भी खराब हो चुकी है।
[9] ”ध्यान दें कि ये आंकड़े कृषि और गैर-कृषि आय दोनों के लिए हैं” – अपराजिता बख्शी लिखती हैं।
[10] तेंदुलकर गरीबी रेखा की गणना तेंदुलकर कमिटी द्वारा की गई थी। क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के लिहाज से यह प्रति दिन 33 रुपये की प्रति व्यक्ति आय के बराबर थी।
[11] (बख्शी, आगामी)