फासीवाद पर विजय के 75 साल : इतिहास के सबक और आगे का रास्ता

May 25, 2023 0 By Yatharth

आकांक्षा

(2 मई 1945 को नाजी जर्मनी के खिलाफ सोवियत लाल सेना की जीत की 78वीं वर्षगांठ के अवसर पर यथार्थ, अंक 3, जुलाई 2020 में छपा लेख पुनः प्रकाशित)

किसी ने सही कहा है कि, “अगर हम द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद हुए हर सोवियत संघ के जवान के लिए एक मिनट का मौन रखें, तो पूरी दुनिया दशकों के लिए शांत हो जाएगी।” 75 साल पहले लाल सेना द्वारा नाजी जर्मनी की राजधानी बर्लिन पर आक्रमण और राइखस्टाग ईमारत पर कब्जा द्वितीय विश्व युद्ध में फासीवादी ताकतों के साम्राज्य का अंत था। कॉमरेड स्तालिन के नेतृत्व में मजदूर वर्ग के महिलाओं और पुरुषों ने मानव इतिहास के सबसे क्रूर और नृशंस युद्ध में अपनी जीत हासिल की। यह एक सामान्य युद्ध नहीं था, अपितु यह मुसोलिनी और हिटलर जैसे क्रूर निरंकुश तानाशाहों के खिलाफ लड़ा गया इतिहास का सबसे निर्मम युद्ध था। यह पूरी दुनिया में गुलामी थोपने के फासीवादी प्रयासों के खिलाफ लड़ा गया युद्ध था। मानवता की जीत सुनिश्चित करने के लिए सोवियत संघ के 2.7 करोड़ जवानों और नागरिकों ने अपनी जान कुर्बान कर दी। 1935 में हुई ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की सातवीं विश्व कांग्रेस में जॉर्जि दिमित्रोव ने कहा था, “कॉमरेड, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कार्यकारी कमेटी की तेरहवीं प्लेनम में फासीवाद की बिलकुल सटीक परिभाषा दी गई थी कि फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे अंधराष्ट्रवादी और सबसे साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकी तानाशाही है। … यह मजदूर वर्ग एवं किसानों और बुद्धिजीवी वर्ग के क्रांतिकारी तत्वों के खिलाफ आतंकी बदले का संगठन है।” और वाकई, वित्तीय पूंजी के बढ़ते साम्राज्य के साथ ही हम लगभग पूरी दुनिया के राजनीतिक व सामाजिक ढांचे में फासीवाद या फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार देख सकते हैं।   

विश्व पूंजीवाद एक गहरे और स्थाई संकट का सामना कर रहा है। अतिउत्पादन की समस्या के साथ-साथ लगभग सभी सेक्टरों में सट्टेबाज पूंजी के अंतर्प्रवाह के कारण उत्पन्न हुआ यह संकट 2008 से ही बना हुआ है और प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। मुनाफे का चक्र रुक गया है और अभी तक बुर्जुआ जनतंत्र के परदे के पीछे से अपने दमनकारी कृत्यों को अंजाम देने वाला पूंजीपति वर्ग बेचैन हो उठा है और अपना मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए इस परदे के बाहर आने को मजबूर हो गया है। इस बात की साफ झलक जनतांत्रिक संस्थाओं के ध्वस्त और खोखले होने की प्रक्रिया में और मानवाधिकार के मूल्यों की पूर्ण उपेक्षा में देखी जा सकती है। हालांकि यह सच है कि एक बुर्जुआ जनतंत्र खुद मानवाधिकार के अपने मूल्यों की अक्सर अवहेलना करता रहा है और अधिकारों की रक्षा हेतु बनाए गए जनतांत्रिक संस्थान गरीब और असहाय मेहनतकश जनता की बजाय पूंजीपतियों और धन्नासेठों के पक्ष में झुके रहते हैं, परन्तु इस जनतंत्र में ‘जनवाद’ के जो भी अवशेष बचे थे उसे भी तेजी से खत्म किया जा रहा है।

विश्व राजनीति की बदलती तस्वीर

पिछले कुछ सालों में एक न्यूनतम उदारवादी किस्म की सरकार से एक निरंकुश और एकाधिकारी सरकार की तरफ बढ़ने की प्रवृत्ति दुनिया भर में दिखाई दे रही है। ब्राजील में जैर बोलसोनारो से ले कर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प तक, नस्लवाद, इस्लामोफोबिया और जेनोफोबिया (विदेश से आए लोगों से घृणा) में एकाएक वृद्धि हुई है। वित्तीय पूंजी के वफादार, ये विश्व नेता अंधराष्ट्रवाद की नीति अपना कर जनता को उनके असली मुद्दों से भटकाने और विरोध के हर स्वर को कुचलने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। प्रतिदिन गहराते और अपरिहार्य होते जा रहे विश्व आर्थिक संकट ने पूरी दुनिया, मुख्यतः यूरोपीय देशों, की राजनीति को एक घोर दक्षिणपंथी दिशा लेने पर मजबूर कर दिया है। ‘ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (एएफडी), एक घोर दक्षिणपंथी पार्टी जो आप्रवासी विरोधी और इस्लामोफोबिक नीतियों की पैरोकारिता करती है, ने जर्मनी के 2017 आम चुनाव में प्रतिपक्ष का नेतृत्व हासिल कर लिया और जनता के बीच उसकी लोकप्रियता भी बढ़ती जा रही है। स्पेन में लैंगिक हिंसा के खिलाफ बने कानूनों को खारिज करने और आप्रवासियों के निर्वासन की बात करने वाली घोर दक्षिणपंथी ‘वॉक्स पार्टी’ भी तेजी से जनता के बीच अपनी पैठ बनाते जा रही है। नव-नाजीवादी विचारधारा के साथ जन्मी स्वीडन की ‘स्वीडन डेमोक्रेट्स’ पार्टी को वहां के 2018 आम चुनावों में 18% वोट मिले थे। हंगरी, फिनलैंड, आदि अन्य देशों में भी इसी तरह का एक घोर-दक्षिणपंथी झुकाव देखा जा सकता है।

कोरोना महामारी के दौरान अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों के नेताओं द्वारा बीमारी के रोकथाम और अपनी जनता को सुरक्षित रखने में दिखाई गई लापरवाही और उपेक्षा के कारण यहां संक्रमित मरीजों और कोविद से हुई मौतों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। नतीजा है कि अभी अमेरिका और ब्राजील कोरोना संक्रमित मरीजों और उससे होने वाली मौतों की संख्या में दुनिया में पहले और दूसरे पायदान पर है। मजलूमों, बेघरों और गरीबों की एक बड़ी आबादी को सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं और यहां तक कि मूलभूत संसाधनों के अभाव में यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया गया है। और तो और, इन लापरवाह दमनकारी सरकारों और इनकी असंवेदनशील नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को भी राजकीय दमन और हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। पुलिस बर्बरता और नस्लवाद के खिलाफ चल रहे ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन में पूरे अमेरिका भर में 10,000 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी (8 जून 2020 के आंकड़ों के अनुसार) इस दमन का जीता जागता उदाहरण है।

भारत की मौजूदा स्थिति

भारत में, फासीवाद और फासीवादी विचारधारा 2014 में संसद के रास्ते से सत्ता में आई। तब से ही इसके जनाधार की गहराती जड़ें और फैलता प्रतिक्रियावादी आन्दोलन, 20वी सदी के जर्मनी और इटली के फासीवादी शासन की तुलना में कम उग्र होते हुए भी, अपने आप में काफी भयावह है। इन मानवताविरोधी ताकतों द्वारा समाज के हर क्षेत्र में फैलाया गया प्रतिगमन साफ देखा जा सकता है। राज्य मशीनरी के साथ-साथ पूरे समाज पर इनके कसते खूनी पंजों की पकड़ हर कदम पर महसूस की जा सकती है। मीडिया चैनलों पर पूर्ण नियंत्रण की मदद से साम्प्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद का जहर घोला जा रहा है ताकि इसे अपने मकसद को पूरा करने के लिए जब चाहें इस्तेमाल किया जा सके। यहां तक कि न्यायतंत्र भी खोखला और लाचार प्रतीत होने लगा है। जनतांत्रिक मूल्यों के साथ-साथ नैतिक और मानवीय मूल्यों का अभाव भी सर्वत्र दिखाई पड़ता है।

शुरुआत में मुख्यतः मुसलमानों के खिलाफ लक्षित हमले अब मजदूर मेहनतकश वर्ग सहित गरीब दलित, गरीब आदिवासी, महिलाओं, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कम्युनिस्टों, सभी को अपने निशाने पर ला रहे हैं। खुलेआम हो या चोरी-छुपे, संविधान पर अन्दर और बाहर दोनों तरफ से लगातार घातक प्रहार किए जा रहे हैं। बुर्जुआ जनतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त और कमजोर किया जा रहा है और जनतांत्रिक अधिकारों को बुरी तरह कुचला जा रहा है। बुर्जुआ जनतंत्र खतरे में है। हालांकि दुनिया के किसी भी बुर्जुआ जनतंत्र की तरह, भारत में भी आम गरीब जनता के लिए जनवाद कागजों से बाहर निकल कर जमीन पर उनकी रक्षा करने के लिए कभी मौजूद नहीं रहा, क्योंकि उसकी प्राथमिकता हमेशा से बड़े धन्नासेठ और पूंजीपति वर्ग ही रहे हैं, लेकिन अब तो इस कटे-छंटे जनतंत्र पर चढ़ा पर्दा भी तेजी से उतरता जा रहा है। पूंजीपति वर्ग के दृष्टिकोण से भी जनतंत्र काफी संकुचित होता चला जा रहा है। इसे अन्दर से हथिया लिया गया है और बचा है तो मात्र एक बाहरी आवरण, वो भी इस कदर जीर्ण-शीर्ण कि पहचान में ना आए।

एक सच्चे जनतंत्र की नींव असहमत स्वरों और सरकार की नीतियों की आलोचना और उन पर सवाल उठाने के अधिकार पर टिकी होती है। इस नींव को आए दिन तोड़ा-मरोड़ा और ध्वस्त किया जा रहा है। कम से कम जनपक्षीय आवाजों के लिए मतभेद की जगह खत्म की जा चुकी है। या तो उन्हें प्रशासन की धमकियों से कुचल दिया जाता है और नहीं तो हिंदुत्व या फासीवादी गुंडों के हाथों हमेशा के लिए खामोश कर दिया जाता है। इन आवाजों को झूठे मुकदमों में फंसा कर यूएपीए जैसे काले कानूनों के तहत उन्हें भारतीय न्याय व्यवस्था के नारकीय दलदल में धकेल देना, इन्हें कुचलने का नया तरीका है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण फरवरी में सुनियोजित ढंग से कराए गए दिल्ली दंगों में देखा जा सकता है, जहां दर्ज किए गए सैकड़ों एफआईआर की मदद से सरकार को सीएए-विरोधी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने और उन्हें सरकार के खिलाफ जाने के लिए “सबक सिखाने” हेतु जेल में सड़ाने की खुली छूट मिल गई है। सैकड़ों लोग गिरफ्तार किये जा चुके हैं और चार्जशीट में भी सैकड़ों लोग नामजद हैं। सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, मुस्लिम युवा, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, कम्युनिस्ट, अर्थात वो कोई भी शख्स जिसने इस दमनकारी सरकार के खिलाफ आवाज उठाने की जुर्रत की, उन सबको इसी तरह दबाया जा रहा है।

दूसरी बार सत्ता में आते ही बीजेपी ने और जोर-शोर से इस्लामोफोबिया और अंधराष्ट्रवाद का एजेंडा जनता के बीच फैलाना शुरू कर दिया था। विगत कुछ वर्षों में बीजेपी के व्यापक जनाधार एवं आईटी सेल और बिकाऊ मीडिया चैनलों के माध्यम से फैलाए गए प्रचार ने जमीन पकड़ ली है। अब जनता के बीच घर कर गए इसी जहर का इस्तेमाल उनका ध्यान बेरोजगारी, भुखमरी, बेघरी, कंगाली, कुपोषण, जैसी समस्याओं, जो कि इस लॉकडाउन में कई गुना बढ़ गई हैं, से हटाने के लिए किया जा रहा है।

मौजूदा कोविद महामारी से बचने हेतु लागू किए गए लॉकडाउन और उससे जन्मी बेरोजगारी, छंटनी जैसी समस्याओं के बीच गहराते आर्थिक संकट ने इस फासीवादी सरकार के सामने श्रम कानूनों में घोर मजदूर-विरोधी बदलाव करने का अवसर और जरूरत, दोनों उजागर किए हैं। “अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने” और “इस संकट को अवसर में बदलने” की आड़ में सरकार ने श्रम कानूनों को खत्म करने, 8 घंटे के कार्य दिवस को 12 घंटे करने, हड़ताल और यूनियन बनाने के अधिकार को कुचलने का फैसला सुना दिया है। और तो और, निजी मालिकों के पंजों से अभी तक अछूते सेक्टरों, जैसे कोयला, अंतरिक्ष, रेलवे, आदि को भी निजीकरण की आग में झोंकने का निर्णय ले लिया गया है। निजी कंपनियों के बीच 41 कोल ब्लॉक की नीलामी और उन्हें बिना किसी प्रतिबंध के व्यावसायिक खनन के लिए निजी मालिकों को सौंपने का कदम यही दिखाता है कि सरकार अपने आकाओं, यानी बड़े पूंजीपतियों को खुश करने और उन्हें इस संकट से निकालने के लिए कुछ भी करने को तैयार है।

हमारी न्याय व्यवस्था को भी भीतर से हथिया कर उन्हें मूक दर्शक में तब्दील कर दिया गया है, जो अपनी शक्तियों का इस्तेमाल सरकार की जनविरोधी नीतियों को जनता के समक्ष दुहराने और उसे उचित ठहराने के लिए करते हैं। 23 जून 2020 को पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने पी.जी.आई.एम.ई.आर. के मजदूरों और यूनियन नेताओं के हड़ताल करने पर रोक लगा दी, और यह तक आदेशित किया कि हड़ताल करने वाले मजदूरों को जेल में डाल दिया जायेगा। इसके कुछ दिन पहले, 12 जून को सर्वोच्च न्यायालय ने ये कहते हुए कि, “लॉकडाउन से मालिकों और कर्मचारियों, दोनों को समान रूप से क्षति पहुंची है”, फैसला सुनाया कि फैक्ट्री मालिकों को और अन्य निजी औद्योगिक प्रतिष्ठानों को अपने मजदूरों के साथ वार्ता करके लॉकडाउन के दौरान वेतन नहीं दिए जाने की समस्या को सुलझा लेना चाहिए और जल्द से जल्द काम शुरू कर देना चाहिए। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने निजी कंपनियों को पूर्ण वेतन भुगतान का आदेश देने के सरकार के अधिकार पर भी सवाल खड़े किए हैं। दिल्ली दंगों में पुलिस की दमनकारी भूमिका और स्वयं गृह मंत्रालय द्वारा आदेशित किए जाना कि, “किसी भी कीमत पर गिरफ्तारियां रुकनी नहीं चाहिए” भी स्थिति को समझने के लिए काफी है। यह सभी उदाहरण हमारे कटे-छंटे जनतंत्र की, अगर इसे जनतंत्र कहा भी जा सकता है, एक बेहद भयावह और रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर पेश करते हैं।

इतिहास से मिलते सबक

फासीवादी तानाशाही के खिलाफ अभी तक की लड़ाई से मिले अनुभव और सबक बहुत महत्वपूर्ण किन्तु सामान्य स्वरूप के हैं, खासकर के तब जब हम उन्हें आज की परिस्थितियों में लागू करने की बात करें। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन और इतालियन फासीवाद की हार हमें कोई सटीक सबक या आज का फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी कार्यक्रम तैयार करने के लिए कोई ठोस दिशा नहीं दिखाते हैं। उदाहरण के तौर पर, आज हमें ठोस रूप से नहीं पता है कि फासीवाद की हार के बाद उसकी जगह कौन सी व्यवस्था लेगी या ये कि फासीवादी ताकतों को हमेशा के लिए हराने की आज की सर्वहारा रणनीति या कार्यनीति क्या होनी चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन और इतालियन फासीवाद की हार आज की अभूतपूर्व परिस्थितियों में, जबकि बुर्जुआ जनतंत्र एक स्थाई आर्थिक संकट के प्रतिगामी प्रभावों के फलस्वरूप ऐतिहासिक रूप से सड़ चुका है, हमारा मार्ग प्रशस्त नहीं करती है। इसी तरह, आज कोई विश्व युद्ध या सोवियत संघ के नहीं होने से अभी की भौतिक परिस्थिति भी तब से भिन्न है। हमें नहीं पता कि जर्मन जनता द्वारा जर्मन फासीवाद का अंत कैसे होता अगर द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत सेना ने उसे नेस्तनाबूद नहीं कर दिया होता। इस तरह 20वीं सदी की भांति आज फासीवादी तानाशाही से वापस बुर्जुआ जनतांत्रिक तानाशाही में जाना कोई ठोस परिवर्तन नहीं ला पाएगा। आज भी अधिकांशतः ऐसी धारणा बनी हुई है कि फासीवाद के ऊपर जीत के बाद बुर्जुआ जनतंत्र की वापसी संभव ही नहीं, अनिवार्य भी है। ऐसी किसी धारणा का आज कोई अर्थ नहीं, और ना ही जर्मन फासीवाद का अंत हमें केवल यही सिखाता है।

उपरोक्त सामान्य धारणा अभी तक कायम है कि फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में हम, पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से, चाहे वो उदारवादी हो या कोई और, के साथ खड़े होने के लिए बाध्य हैं। अतः जैसा कि ऊपर बताया गया है, फासीवादी ताकतों की पकड़ मजबूत होने के साथ ही हमें सिकुड़ते बुर्जुआ जनतंत्र के बचाव में आना पड़ता है, जो कि सही मायनों में मेहनतकश आवाम के लिए तब भी कोई जनवाद नहीं देता जब कोई फासीवादी शासन ना हो।

आज के फासीवाद के खिलाफ लड़ाई यह मान कर नहीं लड़ी जा सकती है कि फासीवाद की हार के फलस्वरूप बुर्जुआ जनतंत्र को उखाड़ फेंक सर्वहारा वर्गीय जनतंत्र लाने की लड़ाई टाली जा सकती है। आज की नई परिस्थिति में जहां एक स्थाई आर्थिक संकट से ग्रस्त जनतंत्र तेजी से सिकुड़ता जा रहा है और बढ़ती फासीवादी प्रवृत्तियों के सामने पूरी तरह असहाय है, ऐसे में फासीवाद को बीच में बिना रुके हराया जा सकता है और हराया जाना चाहिए, अर्थात फासीवाद के पराजित होने के बाद बिना रुके बुर्जुआ जनतंत्र के क्षितिज के पार जाने का रास्ता (रणनीति एवं कार्यनीति) लेना चाहिए।

विश्व पूंजीवाद आर्थिक संकट और मंदी के दलदल में काफी अंदर तक धंस चुका है। नवउदारीकरण ना सिर्फ आर्थिक मंदी और गिरावट के तूफान को रोकने में असमर्थ रहा है, बल्कि इसके विपरीत, इसने संकट को इतना गहरा कर दिया है कि अब वापसी का कोई रास्ता नहीं बचा। ऐसे में बड़े पूंजीपतियों की लूट-खसोट और तीव्र होगी और आम जनमानस के लिए अत्यंत दुःख और विध्वंस ले कर आएगी और बेरोजगारी, भुखमरी, जीवन-आजीविका एवं शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का छिन जाना, जैसी समस्याएं गरीब जनता के लिए कई गुना बढ़ जाएंगी। यह स्थिति बुर्जुआ वर्ग के राज को अस्तव्यस्त व असंतुलित करने और जनता में एक क्रांतिकारी हलचल पैदा करने की क्षमता रखती है जो आगे चल कर एक स्वतःस्फूर्त विद्रोह का कारण बन सकती है। पूंजीपति वर्ग ने दशकों पहले ही यह संभावना भांप ली थी और तब से ही जनतंत्र का आवरण बिना पूरी तरह उतारे ही अंदर ही अंदर फासीवाद स्थापित करने की कोशिश में लगा था। अतः बाहर से देखने में भले ही ऐसा प्रतीत होता हो कि राजनीतिक जनतंत्र बुर्जुआ शासन की अधिरचना के रूप में मौजूद है, लेकिन असलियत में ऐसा नहीं है। बड़े पूंजीपतियों ने इतिहास से सीखते हुए यह नई रणनीति बनाई है और जिस हद तक भी संभव हो, वे इसे लागू कर रहे हैं; जिसके तहत उन्हें जनतंत्र के परदे के पीछे फलने-फूलने का काफी अवसर मिल जाता है।

सर्वहारा वर्ग और मेहनतकशों की जीत ही है एकमात्र रास्ता

संक्षेप में, भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया में गहराते आर्थिक संकट के फलस्वरूप भीतर से खत्म, बाधित और संकुचित किए जा रहे जनतंत्र और पूंजीवादी दुनिया में पैदा हुई सड़ांध की वजह से बुर्जुआ जनतांत्रिक शासन वाले देश पिछले कुछ दशकों में फासीवाद के उदय के रास्ते पर बढ़ चले हैं और फासीवादी ताकतों के हाथों अपने राज्य के हरण की जमीन तैयार कर रहे हैं। इतिहास के इस प्रतिगामी मोड़ पर, बुर्जुआ वर्ग अपने जीवन के आधार यानी मुनाफे को दांव पर लगा के अपना बाहरी आवरण नहीं बनाए रख सकता है। मुनाफे के लिए अगर खुली नंगी लूट-खसोट की जरूरत हो तो वे इससे भी पीछे नहीं हटेंगे, तब भी नहीं जबकि इससे खुद उनका क्षय शुरू हो जाएगा, उनकी राजनीतिक खोल पूरी तरह हट जाएगी और एक खुली तानाशाही कायम हो जाएगी।

अतः फासीवादी ताकतों के कंधे पर सवार हो कर बर्बर, कलंकपूर्ण और घृणित लूट जारी रखना और साथ ही साथ दिखावे के लिए जब तक संभव हो तब तक एक बाहरी आवरण बनाए रखना आज के संकटग्रस्त विश्व पूंजीवाद की सर्वप्रथम जरूरत बन गया है। और जैसे कि संकट को वापस पलटा नहीं किया जा सकता, वैसे ही बुर्जुआ जनतंत्र के क्षय को भी ठीक नहीं किया जा सकता, भले ही बाहर में फासीवादी ताकतें खुद इसका जश्न क्यों ना मनाते दिखती हों। यह सड़ते और ध्वस्त होते पूंजीवाद की एक ऐतिहासिक मंजिल है जो इसे उखाड़ फेंकने में क्रांतिकारी ताकतों की निष्क्रियता और असमर्थता का अंजाम है। यह पूंजीवाद की वो मंजिल है जहां बुर्जुआ जनतांत्रिक शासन और खुली नंगी बुर्जुआ तानाशाही के बीच मात्र एक पतली सी दीवार का ही अंतर रह गया है। अर्थात, इस परिस्थिति में फासीवाद को क्रांतिकारी रास्ते से हराना और मौजूदा व्यवस्था का क्रांतिकारी तख्ता-पलट दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं।

अतः आज की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के आधार पर यही कहा जा सकता है कि सर्वहारा वर्ग और मेहनतकशों की जीत ही एक मात्र रास्ता है और फासीवाद की हार के फलस्वरूप बुर्जुआ जनतंत्र की पुनःस्थापना एक बेतुकी धारणा है। जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई और बुर्जुआ खेमे की दरारों को कुशलता से, अर्थात बुर्जुआ आदर्शों के बजाय सर्वहारा वर्गीय विचारधारा के प्रभुत्व और नायकत्व को आगे करते हुए, सर्वहारा वर्गीय रणनीति और कार्यनीति से जोड़ने की जरूरत है। फासीवाद के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई, अर्थात फासीवादी ताकतों को क्रांतिकारी रास्ते से उखाड़ फेंकना, बुर्जुआ जनतंत्र को ना तो वापस ला सकती है और ना ही उसे लाना चाहिए। हालांकि, इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि फासीवादी ताकतों की हार मौजूदा दमनकारी व्यवस्था के खात्मे से अलग कोई विशेष कार्यभार हमारे सामने नहीं प्रस्तुत करती। इसकी व्याख्या एक अलग मुद्दा है जिसपर हम अगले अंक में चर्चा कर सकते हैं। अभी के लिए यह कहना उचित होगा कि जब तक फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में सर्वहारा वर्गीय नेतृत्व और उसकी क्रांतिकारी राजनीति का पूर्ण नायकत्व नहीं स्थापित किया जायेगा, जो मेहनतकशों और उनके सहयोगियों की जीत सुनिश्चित करे, तब तक फासीवादी ताकतों पर पूर्ण विजय संभव नहीं है। हालांकि सत्ता में काबिज पार्टियों के परिवर्तन से मिलने वाली अस्थाई राहत और इसके कारण कार्यनीति में एक अस्थाई उत्तरवर्ती बदलाव की गुंजायश से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता।