‘विद्रोह का गीत’

May 25, 2023 0 By Yatharth

सुकांत भट्टाचार्य

प्रगतिशील युवा कवि की 76वीं मृत्यु वार्षिकी पर उनकी कविता

बज उठी है क्या समय की घड़ी?

तो फिर आओ आज हम विद्रोह करें

हम सब जो जिसके प्रहरी हैं

उठे पुकार।

उठे तूफान जमीन और पहाड़ों पर

आग सुलगे गरीब की हड्डियों में

करोड़ों दस्तकें पहुंचे दरवाजों तक,

रहने दें कायरों को।

हमें बाधाओं की परवाह नहीं

परवाह नहीं नुकसानों की

आंखों में युद्ध का दृढ़ समर्थन है

इस आगे बढ़ने को अब भला कौन रोक सकता है

किसकी हिम्मत है?

वे रोटी नहीं देंगे! नहीं देंगे अन्न!

इस लड़ाई से तुम खुश नहीं हो?

आंखें दिखाने को हम गिनते ही नहीं

नहीं करते परवाह।

शोहरत के मुंह पर ठोकर मारते हैं हम

गढ़ते हैं, हम तो विद्रोह गढ़ते हैं

तोड़ते हैं हाथों की जंजीरें

मरते दम तक।

दिशाओं-दिशाओं में फैल रहा है विद्रोह

अब बैठे रहने का समय बिल्कुल नहीं है

खून से लाल हो उठी है

पूर्व दिशा ।

फाड़ता हूं, गुलामी की दलीलें फाड़ता हूं

बेपरवाहों के झुंड में होता हूं शामिल

तलाशता हूं, कहां है स्वर्ग की सीढ़ी

कहां हैं प्राण!

देखूंगा, ऊपर आज भी है कारा

चोटों से गिराऊंगा आकाश के तारे

आखिरी बार झकझोरूंगा इस दुनिया को

बिखेरूंगा धान।

जानता हूं खून के पीछे पुकारेगी सुख की बाढ़।

अनुवाद : उत्पल बनर्जी