इजरायल में ‘न्यायिक सुधारों’ के खिलाफ उमड़ा जन प्रतिरोध गहन सामाजिक संकट का नतीजा

August 17, 2023 0 By Yatharth

एम असीम

24 जुलाई को इजरायली संसद नेसेट ने प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘न्यायिक सुधार’ कानून को पारित कर उच्च न्यायपालिका से सरकार के स्वेच्छाचारी फैसलों, नीतियों, नियुक्तियों व कानूनों पर पुनर्विचार व उन्हें रद्द करने की शक्ति छीन ली है। इसके पहले मार्च में भारी जनविरोध व इजरायली मजदूर वर्ग द्वारा पूरे देश में आम हड़ताल की स्थिति पैदा किए जाने के बाद उन्होंने इस प्रस्ताव को टालने व इस पर विपक्ष के साथ चर्चा के बाद फैसला लेने का ऐलान किया था। 12 जुलाई को प्रधानमन्त्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इस ‘सुधार’ को रोकने के अपने वादे से पलटते हुए अधिनायकवादी न्यायिक सुधार पारित करने की नीति पर फिर से अमल शुरू किया तो उसके खिलाफ एक बार फिर भारी जन रोष उमड़ पड़ा।

एक तरह से इजरायली राजनीतिक व्यवस्था को ही पलट डालने की इस नीति के विरोधी उस दिन बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आए, मुख्य हाइवे ब्लॉक कर दिए गए और 10 हजार से अधिक प्रदर्शनकारियों ने देश के प्रमुख बेन-गुरियन हवाई अड्डे के मुख्य टर्मिनल को घेर लिया। तेल अवीव, जेरूसलम, आदि जैसे कई शहरों में पुलिस को वाटर कैनन का प्रयोग करना पड़ा और बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां की गईं। अमरीकी दूतावास और नेतन्याहू के घर के सामने भी प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों पर पुलिस ने सख्त हिंसात्मक दमनचक्र चलाया है। इजरायली पुलिस, फौज व यहूदीवादी फासिस्ट सेटलर समूह इजरायली कब्जे वाले फिलिस्तीनी इलाकों की आबादी पर दशकों से अत्यंत नृशंस दमन चक्र चलाते आए हैं। मौजूदा दमन चक्र इससे बहुत नरम है। पर एक फासिस्ट सत्ता कैसे जुल्म ढा सकती है, इजरायली बहुसंख्यक यहूदी आबादी के लिए यह इसकी पहली झलक है और उसने ही इसे हिला कर रख दिया है।     

याद रहे इजरायल में कोई औपचारिक संविधान नहीं है। 1948 से ही एक संविधान बनाने की सारी कोशिशें इसके सामाजिक अंतर्विरोधों की वजह से नाकाम रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ही स्वेच्छाचारी सरकार पर किसी प्रकार की रोकथाम का एकमात्र विकल्प रहा है। उसे इस शक्ति से वंचित करने वाले इन प्रस्तावों के सामने आने के बाद जनवरी से ही इसका विरोध चल रहा था। लंबे व सख्त प्रतिरोध के बाद 25 मार्च को नेतन्याहू ने न्यायिक प्रणाली के खिलाफ एक प्रकार से तख्तापलट करने की अपनी योजना पर अमल को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया था। मार्च में नेतन्याहू द्वारा अस्थाई तौर पर पीछे हटने की वजह इजराइल के इतिहास का सबसे बड़ा आम जनता व खास तौर पर इजरायली मजदूर वर्ग का विरोध बना था। तब बड़े पैमाने पर सड़कों पर विरोध के बाद मजदूर वर्ग के विशाल हिस्सों ने काम का पूर्ण बहिष्कार कर दिया था। हवाई अड्डे, शिपिंग, परिवहन, विनिर्माण, बिजली-पानी जैसी सेवाएं, स्कूल, डे केयर सेंटर, विश्वविद्यालय और वस्तुतः सभी सरकारी कार्य इससे प्रभावित हुए थे। पूरी दुनिया में इजरायली दूतावास तक बंद हो गए थे।

न्यायपालिका की स्वायत्तता के हनन के खिलाफ तब से ही तेल अवीव, जेरूसलम और अन्य शहरों में बड़े विरोध प्रदर्शन जारी थे। 23-24 मार्च के सप्ताहांत की घटनायें इस विरोध में एक गुणात्मक छलांग थीं। बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए। लगभग 100,000 लोगों की भीड़ ने तेल अवीव की मुख्य सड़कों को अवरुद्ध कर दिया। जेरूसलम में नेतन्याहू के सरकारी आवास के सामने हजारों लोगों ने प्रदर्शन करते हुए पुलिस बैरिकेड तोड़ डाले। इजरायल में सामान्य कार्यदिवस, रविवार, को हड़तालें शुरू हुईं, और इतनी व्यापक हो गईं कि लंबे समय से इजरायली राज्य का ही प्रत्यक्ष अंग रही सुधारवादी ट्रेड यूनियन हिस्ताद्रुत को भी राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल का आह्वान करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। कई नियोक्ताओं ने हड़ताल की ताकत को देखते हुए 25 मार्च को बंदी की घोषणा की थी। बेन-गुरियन अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे से जाने वाली सभी उड़ानें रद्द कर दी गईं और देश के दो मुख्य बंदरगाह हाइफा और अशदोद बंद हो गए थे।

इस राजनीतिक विस्फोट के लिए तत्काल ट्रिगर रक्षा मंत्री योआव गैलेंट की बर्खास्तगी थी। उन्होंने 24 मार्च को न्यायपालिका नियंत्रण की योजना छोड़ने के लिए कहा था क्योंकि इस पर हो रहा राजनीतिक संघर्ष इजरायली रक्षा बलों (आईडीएफ) को विभाजित कर रहा था। बड़ी तादाद में पाइलटों, आदि रिजर्व सैनिकों ने ड्यूटी पर आने से इंकार कर दिया था। कुछ कम्युनिस्ट/शांतिवादी युवाओं ने अनिवार्य सैनिक सेवा के आदेश सार्वजनिक रूप से फाड़कर जेल की सजा स्वीकार करनी शुरू कर दी थी। सेना में यह आंतरिक संकट उस संघर्ष की ही अभिव्यक्ति है जिसने इजरायली समाज को गहराई से हिलाकर रख दिया है और जायनिज्म या यहूदीवाद के इस बुनियादी मिथक को चकनाचूर कर दिया है कि इजरायल दुनिया के सभी यहूदियों की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। इसने यह सच्चाई उजागर कर दी है कि इजरायली समाज भारी सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों और वर्ग संघर्षों से त्रस्त है। खुद नेतन्याहू को स्वीकार करना पड़ा था कि देश “गृहयुद्ध” के कगार पर है।

इस विशाल लोकप्रिय आंदोलन से पता चलता है कि इसमें शामिल मुद्दे बहुत गहरे हैं और लंबे अरसे तक दबाकर रखे गए सामाजिक अंतर्विरोध सत्तारूढ़ वर्ग में परस्पर टकराव के माध्यम से प्रस्फुटित हो रहे हैं। ये अंतर्विरोध इजरायल की आबादी के व्यापक जनसमूह और सबसे बढ़कर, मजदूर वर्ग, को राजनीतिक मंच पर ला रहे हैं। मार्च में ही यह स्पष्ट हो गया था कि न्यायिक सुधारों के इस प्रस्ताव का स्थगन, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय पर संघर्ष का कैसा भी समाधान, इस सामाजिक आंदोलन के आगे के विकास को दबा नहीं पाएगा, क्योंकि यह इजरायल के भीतर अत्यधिक आर्थिक असमानता और वैश्विक पूंजीवादी संकट के प्रभाव को प्रतिबिंबित करता है।

हालांकि न्यायपालिका पर नियंत्रण की कोशिश भ्रष्टाचार के कई सारे मुकदमों से जूझ रहे नेतन्याहू द्वारा अपनी खुद की खाल बचाने की इच्छा से प्रेरित थी लेकिन वास्तविक मुद्दे कहीं अधिक बुनियादी हैं। इन न्यायिक प्रस्तावों का वास्तविक सार उन अंधधार्मिक यहूदीवादियों और फिलिस्तीनी इलाकों में जबरदस्ती बसने वाले कट्टरपंथियों की तानाशाही की राह में सभी कानूनी और प्रक्रियात्मक बाधाओं को समाप्त करना है, जो यहूदी आबादी में  भी अल्पसंख्यक हैं, पर वहां की राजनीतिक व्यवस्था पर पूर्णतया हावी हैं।

हालिया महीनों की ये घटनाएं इजरायल में राजनीतिक प्रतिक्रिया की लंबी अवधि का नतीजा हैं। श्रमिक वर्ग की अधीनता कायम रखने हेतु वर्ग संघर्ष को व्यवस्थित रूप से दबाने और यहूदीवादी विचारधारा के प्रभुत्व हेतु बनाए गए फौजी राज्य के जरिए इस प्रतिक्रिया को अंजाम दिया गया। फिलिस्तीनी जनता पर जो अत्याचार लंबे अरसे से जारी है, अब उसके लिए लामबंद की गई ताकतों – सबसे बढ़कर, फासीवादी सेटलर (कब्जा करने वाले) तत्व – को यहूदी मजदूरों और युवाओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इन हमलों ने ही उस जनआंदोलन को भड़काया है जिसने बड़ी संख्या में इजरायलियों को सड़कों पर ला दिया है। उन्होंने धुर दक्षिणपंथ के खिलाफ अपनी ताकत को आजमाना शुरू कर दिया है। साथ ही उन्होंने यहूदी श्रमिकों और युवाओं को विवश कर दिया है कि वे कट्टर यहूदीवाद के साथ एक राजनीतिक हिसाब वाले टकराव की ऐतिहासिक आवश्यकता को महसूस करें।

1948 में इजरायल की नींव ही ‘नकबा’ अर्थात फिलिस्तीनी अवाम को व्यवस्थित ढंग से उजाड़ने, हिंसा और आतंक के माध्यम से रखी गई थी। इसके बाद इजरायली क्षेत्र का विस्तार पश्चिम एशिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर एजेंट के तौर पर काम करने के मकसद से छेड़े गए युद्धों की श्रृंखला के जरिए हुआ था, जिसमें इजरायल ने फिलिस्तीनी क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया था, जो अभी भी जारी है।

इजरायल की एक वर्गहीन राज्य के रूप में यहूदीवादी प्रस्तुति, जहां सभी यहूदी लोग एक झंडे के नीचे एकजुट हो सकते हैं, जहां सामाजिक विभाजन मिटा दिए जाएंगे, हमेशा से ही एक झूठ था। मगर 1990 के दशक तक घोषित आधिकारिक नीति इजरायल के लिबरल डेमोक्रेसी होने, यहूदी व फिलिस्तीनी दो राज्यों को मानने और वार्ता के द्वारा समाधान की थी। इजरायल के आधिपत्य वाले इलाकों को लौटा देने व यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम तीनों धर्मों के पवित्र ऐतिहासिक केंद्र जेरूसलम पर किसी शांतिपूर्ण साझा नियंत्रण की थी।

किंतु 1990 के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति व तथाकथित ‘इतिहास के अंत’ के साथ ही नेतन्याहू एवं अन्य धुर दक्षिणपंथी व फासिस्ट समूहों के नेतृत्व में उभरी मुहिम ने कब्जे वाले इलाकों के इजरायल में स्थाई विलय, जेरूसलम को राजधानी बनाने और फिलिस्तीनियों को नागरिकता के अधिकारों से वंचित करने की नाजी शैली की नीतियों को आगे बढ़ाना शुरू किया। इजरायली कम्युनिस्टों व जनवादी कार्यकर्ताओं ने तभी चेतवानी दी थी कि यह नीतियां सिर्फ इजरायली अरबों तथा फिलिस्तीनियों को ही दोयम दर्जे की स्थिति में नहीं रखेंगी बल्कि अंततोगत्वा खुद यहूदियों में से भी मजदूर वर्ग व अल्पसंख्यक यहूदी समुदायों के जनवादी अधिकारों को कुचलने का आधार बनेंगी। फिलिस्तीनियों के साथ वार्ता के समर्थक प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन की हत्या ने भी इसके संकेत स्पष्ट कर दिए थे।

नेतन्याहू, बेन ग्विर व स्मोट्रिच के फासिस्ट गठबंधन के इरादों के बारे में फाइनेंशियल टाइम्स (लंदन) में इजरायली बुद्धिजीवी युवाल नूह हरारी ने लिखा है कि यहूदी प्रभुत्ववादी धर्मांध इजरायली शासक अपने कब्जे वाले फिलिस्तीनी इलाकों के निवासियों को नागरिकता दिए बगैर उन इलाकों को इजरायल में मिला लेना चाहते हैं और उनका सपना अल अक्सा मस्जिद परिसर को ढहाकर वहां यहूदी मंदिर बनाना है।

हालांकि नेतन्याहू इन कानूनों के पक्ष में राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत बनाने का ‘तर्क’ दे रहे हैं पर मार्च में हुए राजनीतिक विस्फोट के लिए चिंगारी नए न्यायिक कानून का विरोध कर रहे रक्षा मंत्री योआव गैलेंट की बर्खास्तगी ही थी। उन्होंने न्यायपालिका पर नियंत्रण की योजना छोड़ने के लिए कहा था क्योंकि उनके विचार से इस पर हो रहा राजनीतिक संघर्ष इजरायली रक्षा बलों (आईडीएफ) को विभाजित कर रहा था। इस बार भी इजरायली सेना चीफ ने चेतावनी दी है कि इस कानून से गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है और इजरायल का अस्तित्व तक मिट सकता है।

सेना में उभरा संकट उस संघर्ष की ही अभिव्यक्ति है जिसने इजरायली समाज को गहराई से हिलाकर रख दिया है और जायनिज्म या यहूदीवाद के इस बुनियादी मिथक को चकनाचूर कर दिया है कि इजरायल दुनिया के सभी यहूदियों की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। इसने यह सच्चाई उजागर कर दी है कि इजरायल भारी सामाजिक, राजनीतिक और वर्ग अंतर्विरोधों से त्रस्त है। जनरोष के स्तर से पता चलता है कि इसमें शामिल मुद्दे बहुत गहरे हैं। लंबे समय से दबाकर रखे गए सामाजिक अंतर्विरोध सत्तारूढ़ वर्ग में परस्पर टकराव के माध्यम से प्रस्फुटित हो रहे हैं और इजरायल की आबादी के व्यापक जनसमूह और सबसे बढ़कर मजदूर वर्ग को राजनीतिक केंद्र में ला रहे हैं। इस संघर्ष का कोई तात्कालिक समाधान भी इस सामाजिक आंदोलन के आगे के विकास को दबा नहीं पायेगा, क्योंकि यह इजरायल के भीतर अत्यधिक आर्थिक असमानता और वैश्विक पूंजीवादी संकट के प्रभाव से ही जनित है।

लेकिन अपने विशाल पैमाने के बावजूद इस जन आंदोलन की एक बड़ी गहरी कमजोरी है जिसे दूर न करना घातक साबित होगा। इसने अभी तक घोर उत्पीड़न के विरुद्ध फिलिस्तीनी लोगों के न्यायोचित संघर्षों को किसी भी तरह से गले नहीं लगाया है। इजरायली झंडों से पटे आंदोलन में इजरायली कब्जे वाले क्षेत्रों की फिलिस्तीनी आबादी को तो छोड़ ही दें इजरायली अरबों तक से समर्थन जुटाने का प्रयास नहीं किया गया है। सफलता के किसी भी अवसर के लिए यहूदी श्रमिकों और युवाओं को यहूदीवादी विचारधारा के अंधत्व से मुक्त होकर पूंजीवाद के खिलाफ एक आम संघर्ष में यहूदी और अरब श्रमिकों के क्रांतिकारी एकीकरण के आधार पर एक समाजवादी रणनीति अपनानी होगी।

असल में सभी धर्मों की तरह यहूदी भी कोई एकाश्म आबादी नहीं है और उसके अंदर भी सांप्रदायिक, नस्ली व आर्थिक गैर-बराबरी की बहुत बड़ी समस्या है। यहूदियों में भी अल्ट्रा ऑर्थोडॉक्स कट्टरपंथियों व जायनिस्टों (जो अमरीकी-यूरोपी वित्तीय पूंजी के साथ जुड़े हैं) का प्रभुत्व है और दूसरे यहूदी संप्रदायों खास तौर पर हमेशा से ही फिलिस्तीनी अरबी इलाकों में बिना सांप्रदायिक नफरत के मिला जुला जीवन बिताते आ रहे स्थानीय मूल के यहूदियों की स्थिति तुलनात्मक रूप से निम्न है। बीटा इजरायली या ब्लैक इथिओपियाई मूल के यहूदियों के साथ तो भारी नस्ली भेदभाव किया जाता है। इजरायल की एक वर्गहीन राज्य के रूप में यहूदीवादी प्रस्तुति, जहां सभी यहूदी लोग एक झंडे के नीचे एकजुट हो सकते हैं, जहां सामाजिक विभाजन मिटा दिए गए हैं, हमेशा से ही झूठ था।

इजरायल में हिंसक दमन, धुर दक्षिणपंथी तानाशाही और फासीवाद की ओर यह मोड़ लगभग चिरस्थाई हो चुके आर्थिक संकट से घिरे पूंजीवाद की मौजूदा वैश्विक प्रक्रिया का ही हिस्सा है। जैसा हाल के महीनों में फ्रांस, ब्रिटेन, अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देशों से लेकर तुलनात्मक रूप से अल्पविकसित पूंजीवादी देशों श्रीलंका, पाकिस्तान, घाना, नाइजीरिया, पेरू, आदि में प्रदर्शित हुआ है, शासक वर्ग को ऐसे तरीकों के अलावा विश्व पूंजीवाद के इस अंतहीन सामाजिक और राजनीतिक संकट से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखता। इस संकट ने हर जगह पूंजीवादी जनतंत्र की कलई खोल दी है और आधुनिक समाज के दो प्रमुख वर्ग, पूंजीपति और मजदूर वर्ग, खुले संघर्ष में एक-दूसरे के आमने-सामने आ खड़े होने को मजबूर हो रहे हैं।      

भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं को भी इजरायल के हालात से सबक लेना चाहिए

जिस समय भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा या तो देश के विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों के साथ होने वाली नाइंसाफी, हिंसा व जुल्म, जिसका मणिपुर ताजा व अत्यंत दर्दनाक उदाहरण है, का समर्थन कर रहा है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘विकास’ के वादों में बहकर उस अन्याय पर चुप्पी साधे बैठा है, ठीक उसी वक्त नरेंद्र मोदी के हिंदुत्ववादियों के अत्यंत प्रिय व अति-प्रशंसित आदर्श इजरायल में ऐसा कुछ हो रहा है जो भारत के मोदी समर्थक बहुसंख्यकवादी हिंदुओं के लिए किसी जादुई शीशे में अपना भविष्य देखने जैसा है। इतिहास में हुए सच्चे-झूठे जुल्मों के भारी कुप्रचार से तैयार ‘पीड़ित ग्रन्थि’ के आधार पर विशेष समुदायों को निशाना बनाकर खड़ी की गई बहुसंख्यकवादी मुहिम के नतीजे क्या होते हैं, इसका सबक सिखाने के लिए इजरायल से बेहतर क्या हो सकता है, क्योंकि मुस्लिम अल्पसंख्यकों से साझा नफरत और उन्हें ऐतिहासिक सबक सिखाने की नीति में इजरायल ही तो भारतीय फासिस्टों का वर्तमान आदर्श है हालांकि इन्हीं यहूदियों पर बर्बर जुल्म ढाने वाले जर्मन नाजी उनके मौलिक आदर्श और सम्मानित गुरु रहे हैं!

भारत के आम हिंदू लोगों में से भी भ्रम में आकर इजरायल प्रेमी हिंदुत्ववादी फासिस्ट शासकों के हिमायती बने लोगों को आज इजरायल के हालात से ही सबक लेने का एक ऐतिहासिक मौका मिला है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार के फैसलों को पलटने का अधिकार समाप्त कर देने के बाद तेल अवीव में विरोधियों पर पुलिस ने उन्हें निर्मम हिंसा की जो पहली झलक दिखलाई है उससे ही अब बहुत से इजरायलियों को फासिज्म शब्द याद आ रहा है। उन्हें अब पता चल रहा है कि अमरीकी साम्राज्यवाद की फंडिंग के बदले हिटलर के नाजियों के जुल्म के विरोध को बस यहूदी पहचान तक सीमित कर देने, यहूदीवादी बन जाने से, वे खुद फिलिस्तीनी जनता पर जुल्म ढाने वाली एक फासिस्ट सत्ता के समर्थक बन गए थे, हालांकि सच्चाई यह है कि नाजीवाद के जुल्म सिर्फ यहूदियों पर नहीं, स्लाव, रूसी, रोमां, आदि पूर्व यूरोप की सारी नस्लों व राष्ट्रीयताओं पर भी उतने ही भयानक थे और इस जुल्म को पराजित करने में सबसे बड़ी कुर्बानी तो सोवियत जनता ने दी थी – ढाई करोड़ सोवियत जिंदगियां। पास्टर नीमोलर की ‘जब वो मेरे लिए आए ….’ अब इजरायल में भी कुछ लोगों द्वारा याद की जा रही है। कुछ ऐसा ही सबक पिछले साल श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी को सीखना पड़ा था। पाकिस्तान में खास तौर पर खैबर पख्तूनख्वा के लोग इस तकलीफदेह सबक की वजह से ही पाकिस्तानी तालिबान का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं।

यह सबक सभी देशों के बहुसंख्यक समुदायों की जनता के लिए है कि वे बहुसंख्यकवाद का शिकार होकर अपने देश के पूंजीपति शासक वर्ग द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों के अनयिकरण व उन पर फासीवादी जुल्म में भागीदार बनने के बजाय इस जुल्म के खिलाफ मेहनतकश जनता की फौलादी एकता कायम कर इसका प्रतिरोध करें। अन्यथा एक दिन फासीवादी पूंजीवादी शासक उन्हें भी इसी जुल्म का शिकार बनाएंगे। समुदाय व पहचान के आधार पर अंधता, जुल्म की हिमायत, अंततोगत्वा खुद को भी मजलूम बनाती है। दूसरी ओर, अपने समुदाय-पहचान के साथ जुल्म के विरोध में शेष मानवता को भूल जाने, सभी उत्पीड़ितों के साथ एकजुटता के बजाय, दूसरों के साथ जुल्म को छोटा कर देखने, नजरअंदाज करने, का नतीजा एक दिन खुद उस जुल्म का हिमायती बन जाना ही होता है। दूसरों के साथ जुल्म का मजा लेते लोग कब खुद ही जुल्म का शिकार हो जाते हैं यह तो बाद में समझ आता है।

अपने साथ जुल्म का विरोध करते हुए हर जगह हर किसी के साथ शोषण-जुल्म का विरोधी होना, सभी मजलूमों की एकजुटता की हिमायत करना आज फासीवाद से लड़ने की जरूरी शर्त है। देश और दुनिया के सभी मेहनतकशों व उत्पीड़ितों की व्यापक एकता ही आज दुनिया में बढ़ते, पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित, फासीवादी प्रवृत्तियों का समूल नाश कर सकती है।