त्राहिमाम करती जनता के गुस्से और विक्षोभ से 2024 चुनाव में सत्ता बचाने में लगी फासीवादी ताकतें

August 17, 2023 0 By Yatharth

आकांक्षा

(9 अगस्त को अगस्त क्रांति दिवस के अवसर पर दस केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा आयोजित ‘श्रमिक महापड़ाव’ में आईएफटीयू सर्वहारा द्वारा स्वतंत्र व संयुक्त रूप से किये गए प्रचार अभियान की जमीनी रिपोर्ट और मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में उसका मूल्यांकन) 

विगत 9 अगस्त, यानी अगस्त क्रांति दिवस के अवसर पर दस केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 14 सूत्री मांगों के साथ देश भर में ‘श्रमिक महापड़ाव’ का आयोजन किया गया था। बिहार में इसका आयोजन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और आईएफटीयू (सर्वहारा) के ‘बिहार श्रम संगठन मंच’ द्वारा किया गया। बिहार स्तर पर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का मुख्य नारा था ‘भाजपा हटाओ, देश बचाओ’। आईएफटीयू (सर्वहारा) भी ‘फासीवादी शक्तियों, भारत छोड़ो’ के नारे के साथ जनता के बीच प्रचार में उतरा। हम इस रिपोर्ट में पूरे प्रचार अभियान के दौरान जनता के बीच से आई प्रतिक्रियाओं और फासीवादी उभार के दौर में हो रहे 2024 के चुनाव के मद्देनजर उनके महत्व पर चर्चा करेंगे।

2024 में होने वाले चुनाव की तैयारी में भाजपा-आरएसएस और उनके पीछे खड़ा पूरा फासीवादी तंत्र लगा हुआ है। कानूनों को बेबाकी से बदला जा रहा है। निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों का चुनाव करने वाली पैनल से मुख्य न्यायाधीश को बाहर करके अपनी जीत सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है। एक तरफ अन्दर से कब्जाए गए इन तमाम संस्थानों को 2024 के लिए तैयार किया जा रहा है – उच्च अधिकारियों के लिए सरकारी फरमान जारी किया जा रहा है, नियम बनाये और बदले जा रहे हैं, विश्वस्त अधिकारियों का कार्यकाल बढ़ाया जा रहा है एवं खुद्दार और जनता के प्रति ईमानदार अफसरों का तबादला किया जा रहा है। और दूसरी तरफ, अगर तब भी कोई कसर रह जाये तो उसे पूरा करने के लिए देश को दंगों की आग में झोंका जा रहा है। जनता को अपनी समस्याओं से भटकाने के लिए हिंदू-मुस्लिम, भारत-पाकिस्तान, गौ रक्षा, मंदिर-मस्जिद जैसी बहसों में उलझाने की कोशिश हो रही है। पिछले दिनों नूह और गुरुग्राम में जो हुआ और कई महीनों से मणिपुर में जो हो रहा है – ये सब इसी फासीवादी नीति के तहत किया जा रहा है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, भाजपा-आरएसएस का असली चरित्र और उनकी मंशा भी देश के सामने और स्पष्ट होती जा रही है।

लेकिन फासीवादी कैंप की इस मुस्तैदी का एक और मतलब भी है – हार जाने का उनका डर। आज देश में बेतहाशा बढ़ती महंगाई, अभूतपूर्व स्तर की बेरोजगारी और आम लोगों के जीवन-जीविका के संकट की समस्या को चाह कर भी जनता की नजर से ओझल नहीं किया जा सकता है। कल तक जो युवा भगवा झंडा ले कर “हिंदू राष्ट्र” के नाम पर सड़कों पर उतरते थे, आज वो बहाली, भर्ती और परीक्षाओं के नतीजों के लिए सड़कों पर पुलिस की लाठियां खा रहे हैं। कल तक टीवी डिबेट में पाकिस्तान और मुसलमान को गाली दे कर “मोदी-मोदी” के नाम के जयकारे लगाने वाला मध्य और निम्न मध्य वर्ग भी अब अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा महंगे पेट्रोल, सब्जी, राशन, बच्चों की स्कूल की फीस, महंगी दवाइयों और इलाज पर खर्च करके शांत हो गया है। किसान भी, जो कल तक भाजपा-आरएसएस का विश्वस्त वोट बैंक हुआ करते थे, वे महंगी होती खेती, बढ़ते कर्ज और किसान आंदोलन में सरकार द्वारा उनके साथ किये गए अमानवीय बर्ताव के बाद इस कॉर्पोरेट-पक्षीय सरकार का चरित्र अच्छी तरह समझ चुके हैं। मजदूर-मेहनतकश आबादी तो पहले से ही त्रस्त थी लेकिन आज अभूतपूर्व महंगाई, खत्म होते रोजगार और जीवन स्तर के बेहद निचले पायदान पर पहुंच जाने ने उन्हें भी झकझोर दिया है। ऐसे में जमीन पर भाजपा की स्थिति 2014 और 2019 की तुलना में कई गुना बदतर हुई है।

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा आहूत इस श्रमिक महापड़ाव के प्रचार अभियान में जनता के बीच से आती आवाजों ने इसी बात को और पुष्ट कर दिया। 9 अगस्त के पहले दो दिनों का प्रचार अभियान रखा गया था जहां पूरे पटना में पर्चा वितरण, माइक प्रचार और नुक्कड़ सभाएं की गयीं। 7 तारीख को हुए कैंपेन में मैं और कॉम उमेश कुमार निराला, आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा जारी पर्चे के साथ शामिल थे। कैंपेन के दौरान लगभग दस जगह सभाएं की गयीं। इसके साथ ही आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा स्वतंत्र रूप से इस कार्यक्रम को ले कर लेबर चौकों पर निर्माण मजदूरों के बीच में पर्चा वितरण और नुक्कड़ सभाएं जारी थीं। सभी सभाओं में आईएफटीयू (सर्वहारा) की ओर से दिए गए भाषणों में जनता को यह साफ-साफ बताया गया कि आज देश में एक फासीवादी शासन है जिसने अन्दर ही अन्दर राज्य के सभी संस्थानों और निकायों पर लगभग पूर्ण कब्जा कर लिया है। मुख्य धारा के न्यूज चैनलों व तमाम तरह के प्रचार माध्यमों पर पूर्ण नियंत्रण करके भाजपा-आरएसएस पूरे देश को भ्रातृघातक युद्धों में धकेल रही है और पूरे देश में मणिपुर जैसी स्थिति लाना चाहती है, जिसका हालिया उदाहरण हम नूह और गुरुग्राम में देख सकते हैं। और तो और ये सारी नृशंस घटनाएं ‘राज्य’ (पढ़ें फासीवादी राज्य) के संरक्षण में हो रही है। हमने जनता को अपील की कि भाजपा-आरएसएस के वर्ग चरित्र को ना भूलें। फासीवाद, यानी सड़ते हुए पूंजीवाद, का मुख्य लक्ष्य है – इस विश्व आर्थिक संकट के दौर में वित्तीय पूंजी के मालिकों को आकाश से पाताल तक सब कुछ पर एकाधिकार देना ताकि वे मनुष्य से ले कर प्राकृतिक संसाधनों तक सभी चीजों की बेतहाशा लूट करके अपनी तिजोरियां भर सकें। और इसके लिए जरूरी है कि पहले से मौजूद कटे-छंटे जनतंत्र (पढ़ें पूंजीवादी जनतंत्र) का भी आवरण हटा कर खुली नंगी तानाशाही पर उतर जाया जाये। सभ्य समाज में मौजूद न्याय और भाईचारे की अवधारणा तक को कुचल कर मानव सभ्यता को बर्बरता में धकेल दिया जाये। ये सरकार ठीक यही काम कर रही है। और इसीलिए समाज को पीछे ले जाने वाली इन ताकतों को तत्काल सत्ता से हटाना फौरी रूप से जरूरी हो गया है। इससे इन शक्तियों को धक्का लगेगा, जो जरूरी भी है, लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि सरकार बदलने भर से ना तो ये फासीवादी शक्तियां पूर्ण रूप से परास्त होंगी और ना ही हमारे जीवन-जीविका से जुड़ी समस्याओं का ही हल होगा। अगर हमें इन जन-विरोधी ताकतों के खिलाफ मुकम्मल जीत हासिल करनी है और एक बेहतर जीवन पाना है तो इसकी जड़, यानी पूंजीवाद, को ही समाज की ड्राइविंग सीट से हटाना होगा।

फासीवादी खतरे के बारे में हमने 2013 से ही लिखना-बोलना शुरू कर दिया था। हमने जनता के बीच इसी बात को लगातार कहा है लेकिन इस बार हमारे श्रोताओं की प्रतिक्रिया पहले से भिन्न थी। मानो जनता अपने अनुभवों में हमारी बात की भयावहता को महसूस कर रही है। गरीब मजदूरों से ले कर दुकानों के मालिक भी मोदी को कोस रहे थे। महंगाई और बेरोजगारी आज केवल आकड़ों में नहीं दिखती, बल्कि वे अपने घरों में इन समस्याओं की ताप झेल रहे हैं। कोरोना महामारी में अपने परिजनों को सरकारी अस्पताल की सीढ़ियों और डॉक्टरों के अभाव में चल रहे प्राइवेट अस्पताल के हाई-फाई कमरों में गंवा कर वे निजीकरण का मतलब समझ चुके हैं। पढ़ लिख कर घर बैठे अपने बच्चों की अवसादग्रस्तता में वे बेरोजगारी का दर्द समझ चुके हैं। बुझते चूल्हों और अपनी थाली से गायब होती सब्जियों में उन्हें महंगाई साफ दिखती है। दंगों में देश का विभाजन और नेताओं की चमकती किस्मत को वे समझने लगे हैं। गौर करने वाली बात यह भी है कि हमारे भाषणों के बाद जनता अपनी बातों में महंगाई और बेरोजगारी को ही नहीं, बल्कि भाजपा-आरएसएस के सांप्रदायिक चरित्र के बारे में भी खुल कर बोल रही थी। कई जगह आम लोगों ने (जो धर्म से हिंदू थे) साफ तौर पर कहा कि “इस बार मोदी को हटाना जरूरी है, नहीं तो ये पूरे देश में आग लगा देगा।” इस परिवर्तन के पीछे की मुख्य वजह उनकी अपनी भौतिक परिस्थिति है, जो बीते नौ सालों में बद से बदतर होती गयी है। आज वे भाजपा-आरएसएस के खिलाफ, साम्प्रदायिकता के खिलाफ और अपने जीवन-जीविका को ले कर की गयी तर्कसंगत बातों को ठहर कर सुनते हैं, समझते हैं, और मौन व कई बार मुखर समर्थन करते हैं।

एक और चीज है जो पहले से भिन्न है, और वह है संघी मानसिकता वाले भाजपा-आरएसएस के कार्यकर्ताओं का मुखर रूप से सामने ना आ पाना, और आने पर जनता द्वारा उनका विरोध किया जाना। पहले, इस तरह मोदी और भाजपा-आरएसएस के खिलाफ खुले भाषणों में अक्सर कोई संघी आ कर सभा में बाधा डालने की कोशिश करता, जनता को भड़काता या कभी-कभार तो हमला तक कर देता। आने वाले चुनाव को देखते हुए ऐसे लोग आज भी सक्रीय हैं, कई मायनों में पहले से ज्यादा ही, लेकिन पहले की तरह उनमें खुले रूप से सामने आने की हिम्मत नहीं रह गयी है। वे दबे स्वरों में मोदी का समर्थन करते, पर्चा लेने से मना कर देते, अपने बीच बातें करते, लेकिन कहीं भी पहले की तरह का उनका आक्रामक रूप नहीं दिखाई दिया। एक-दो जगह जहां ऐसे तत्वों ने भाषण रोकने और जनता को भड़काने का प्रयास किया भी, वहां उनकी दाल नहीं गली। उलटे जनता ही उन पर हावी हो गयी और उनके कुतर्कों का जवाब देने लगी। ये घटना पटना जंक्शन के पास हो रही सभा में घटी, जब एक संघी लड़का आ कर मेरे भाषण के दौरान सभा को रोकने का प्रयास करने लगा। लेकिन अंत में जनता के सवालों और तर्कों से परास्त हो कर उसे वहां से जाना पड़ा। लगभग यही वाकया हमने आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा मजदूर चौकों पर किये गए प्रचार अभियान के दौरान भी देखा। रामकृष्ण नगर लेबर चौक पर एक व्यक्ति मोदी का समर्थन करते हुए मजदूरों को कहने लगा कि “लड़ाई से कुछ नहीं होगा, अपने बच्चे को पढ़ाओ, पढ़ने से ही मिलेगा सब।” मजदूरों ने इसकी प्रतिक्रिया में उसी से सवाल पूछना शुरू कर दिया कि “जो लोग पीएचडी करके नौकरी के लिए भटक रहे हैं उनको क्यों नहीं मिल रही नौकरी?”, “नौकरी है कहां जो ये सरकार देगी, सारी नौकरियां तो सरकार ने खत्म कर दी, जो नौकरी बची है उसमें लाखों रूपये घूस देना पड़ता है, कहां से लायेंगे हम इतना पैसा?” इन सभी घटनाओं के अंतर्य में मुख्य बात है कि जनता अपने जीवन-जीविका और अस्तित्व के संकट से त्रस्त है और वो समझने लगी है कि मोदी के जुमलों और जाति-धर्म की राजनीति से उनका जीवन नहीं चल रहा। देश के पैमाने पर भी देखें तो पिछले दिनों हरियाणा के हिसार में खाप पंचायतों और किसान संगठनों की हुई महापंचायत ने साफ तौर पर ऐलान कर दिया है कि भाजपा-आरएसएस द्वारा भड़काए जा रहे दंगों में वे न तो केवल भाग नहीं लेंगे, बल्कि नूह और गुरुग्राम में शांति बहाल करने का प्रयास भी करेंगे और दमित समुदायों की रक्षा भी करेंगे। देश भर में हो रही इन घटनाओं से इतना तो साफ पता चलता है कि हवा का रुख बदल रहा है और भाजपा-आरएसएस का ये खूनी खेल बहुत दिन तक नहीं चलने वाला है। हम ये नहीं कह रहे और ना ही हम ये मानते हैं कि जनता की ये मनोदशा पूरी तरह वोटों में तब्दील हो ही जाएगी। ऐसा दावा करना मूर्खता से बढ़कर कुछ नहीं। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सतह के नीचे जनता का गुस्सा और विक्षोभ ज्वालामुखी की तरह धधक रहा है। भाजपा ये समझ चुकी है कि उसके लिए ये चुनाव आसान नहीं होने वाले हैं और इसी के मद्देनजर फासीवादी ताकतों द्वारा इन सारे सरकारी संस्थानों और गैर-सरकारी भीड़ तंत्र को तैयार किया जा रहा है।

हम जानते हैं कि पूंजीवाद के पास इस विश्व आर्थिक संकट से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं रह गया है और इसीलिए केवल भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में फासीवादी ताकतें उभार पर हैं। ऐसे में 2024 में कोई भी सरकार आ जाये, जनता की समस्याओं को हल नहीं कर सकती और ना ही जनतंत्र में हुए क्षरण को वापस पलट सकती है। अगर भाजपा हारती भी है, जिसकी संभावनाएं अभी भी धूमिल दिखती हैं, तो भी जनता के एक हिस्से को पेट तक न भर पाए इतना अनाज और खैरात के रूप में शुरुआत में छंटांक भर कुछ दे देने से ज्यादा आने वाली सरकार और कुछ नहीं कर सकती। लेकिन इसके बावजूद 2024 में भाजपा को हराने का संघर्ष जरूरी है। इसीलिए कि भाजपा के सत्ता से हटने के बाद जनपक्षीय ताकतों को सांस लेने की जगह मिलेगी। ये इस बात का भी प्रमाण होगा कि जनता अपने जीवन-जीविका की समस्याओं के समाधान के लिए लड़ने को तैयार हो रही है। ऐसे में हम जनता के पक्ष में उठने वाली आवाजों को लामबंद कर सकते हैं। हमें इस समय का उपयोग एक मुकम्मल और जुझारू सर्वहारा-वर्गीय नेतृत्व तैयार करने के लिए करना होगा, जो मजदूर वर्ग को एकजुट करने के साथ-साथ जनता के बीच से उठने वाले हर संघर्ष को नेतृत्व दे सके और उनसे रक्त-मांस का रिश्ता कायम कर सके, ताकि मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाज के सभी तबकों, जो अपने अस्तित्व को बचाते हुए अपनी मुक्ति चाहते हैं, को एकजुट कर इस फासीवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष का बिगुल फूंका जा सके।