नई आपराधिक कानून प्रणाली

August 17, 2023 0 By Yatharth

पुराने औपनिवेशिक कानूनों से ज्यादा दमनकारी साबित होंगे नए फासीवादी काल के कानून

सिद्धांत

मोदी सरकार ने संसद के 2023 मानसून सत्र के अंतिम दिन लोक सभा में देश की आपराधिक (क्रिमिनल) कानून प्रणाली का “कायापलट” करने के दावे के साथ तीन नए विधेयक प्रस्तुत किए। भारत में आपराधिक कानून प्रणाली को संचालित करने हेतु मुख्यतः तीन कानून हैं – भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (इंडियन एविडेंस ऐक्ट)। जो तीन नए विधेयक लाए गए वह पारित हो जाने पर इन तीनों कानूनों को प्रतिस्थापित करेंगे।

आईपीसी के बदले “भारतीय न्याय संहिता”, सीआरपीसी के बदले “भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता” और इंडियन एविडेंस ऐक्ट के बदले “भारतीय साक्ष्य अधिनियम”।

अभी यह विधेयक पारित नहीं हुए हैं और संसदीय स्थाई (स्टैंडिंग) कमेटी के समक्ष भेजे गए हैं। हालांकि पूर्व मिसालों की माने तो ऐसे बड़े दावे के साथ लाए गए विधेयक भी संसद के अगले सत्र में ही बिना बहस के सरकार द्वारा पारित करवा दिए जाएंगे। अतः यह समझना जरूरी है कि इन कानूनों में क्या ठोस बदलाव प्रस्तावित हैं और उसके क्या मायने हैं।

प्रथम दृष्टया गौरतलब बात यह है कि तीनों विधेयकों के नाम केवल हिंदी में हैं। यह अभूतपूर्व है कि संसद में पेश विधेयकों के नाम केवल हिंदी में प्रस्तुत हुए हैं जबकि संविधान के अनुछेद 348 में यह निर्दिष्ट है कि संसद से पारित सभी अधिनियम अंग्रेजी भाषा में होंगे। अतः यह नामकरण असंवैधानिक तो है ही, साथ ही विविध भाषाओं व राष्ट्रीयताओं से समावेशित इस देश में “हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान” के फासीवादी अजेंडे के तहत एक भाषा थोपने का ही एक और उदाहरण है।

अगर प्रावधानों की संख्या की बात करें, तो आईपीसी की 511 धाराओं के बदले भारतीय न्याय संहिता में कुल 356 धाराएं हैं। वहीं नागरिक सुरक्षा संहिता में सीआरपीसी की 478 धाराओं के बदले 533 धाराएं हैं, तथा साक्ष्य विधेयक में पुराने अधिनियम की 167 धाराओं के बदले 170 धाराएं हैं। हालांकि “कायापलट” और औपनिवेशिक “गुलामी की मानसिकता को तिलांजलि देने” के दावे के साथ लाए गए इन तीन कानूनों में ज्यादातर प्रावधान पुराने कानूनों से हूबहू लिए गए हैं। लेकिन जो परिवर्तन या जोड़ किए गए हैं वह महत्वपूर्ण और गंभीर हैं।

संसद में गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इन विधेयकों को पेश करते हुए दिए गए बयानों में जो सबसे अधिक प्रचलित हुआ वो था राजद्रोह (सेडिशन) कानून रद्द करने के ऊपर। यह सच है कि नई न्याय संहिता में राजद्रोह का जिक्र नहीं है, परंतु धारा 150 में भारत की “संप्रभुता, एकता व अखंडता” को खतरे में डालने वाली गतिविधियों के खिलाफ जो प्रावधान लाया गया है, वह पुराने राजद्रोह कानून से भी अधिक दमनकारी साबित होगा। पहली बात कि अन्य प्रावधानों की तरह इसे भी अस्पष्ट बनाया गया है। इतना ही स्पष्ट बताया गया है कि “अलगाववादी गतिविधि, सशस्त्र विद्रोह, “विनाशक” (subversive) गतिविधि या ऐसी गतिविधि जिससे भारत की “संप्रभुता, एकता व अखंडता” को खतरा पहुंचे” में शामिल होना या भड़काना अपराध है जिसपर 7 वर्षों तक या आजीवन कारावास की सजा होगी। एक तरफ तो “अलगाव” को अपराध घोषित कर के पहले से ही जिन राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्णय के अधिकार को दमन के बल पर कुचल देने की कार्रवाई जारी थी उसे कानूनीजामा पहनाया गया है, वहीं दूसरी तरफ यह अस्पष्ट छोड़ दिया गया है कि अलगाव व सशस्त्र विद्रोह के अलावा आखिर किस गतिविधि को “संप्रभुता, एकता, अखंडता” को खतरा पहुंचाने वाला माना जाएगा और किसे विनाशक (“subversive”) माना जाएगा।

जनतांत्रिक न्याय व्यवस्था का यह सामान्य नियम है कि आपराधिक कानून संकीर्णतम शब्दों में परिभाषित हों ताकि न्याय प्रक्रिया व्यक्तिपरक न हो कर वस्तुगत व निष्पक्ष रहे, अन्यथा कानूनों को अस्पष्ट छोड़ देने से पूरी प्रक्रिया जज, वकील, पुलिस आदि के विवेक पर निर्भर हो जाती है। कुल मिला कर ऐसे प्रावधानों के रहने से पुलिस के पास किसी को भी गिरफ्तार कर लेने की पूरी छूट मिल जाती है। आज जब जनतंत्र के लगभग सभी संस्थाओं व निकायों पर सत्तासीन आरएसएस-भाजपा का भीतर से कब्जा हो चुका है, तो ऐसे में किसी भी व्यक्ति को इन अस्पष्ट लेकिन खतरनाक कानूनों के जरिए दबोचा जा सकता है और इसका मुख्य नियंत्रण राज्य के हाथों में होगा। इसके साथ ही, नए प्रावधान में उपरोक्त गतिविधि को भड़काने में शामिल होने के अर्थ को भी विस्तार दिया गया है। इसके तहत केवल भौतिक/शारीरिक रूप से गतिविधि में उपस्थित व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि ऑनलाइन लिखने वालों या महज आर्थिक सहयोग करने वालों को भी गतिविधि भड़काने में शामिल माना जा सकेगा!

यह भी उल्लेखनीय है कि इसी दिशा में आपराधिक कानूनों में एक और “सुधार” मोदी सरकार ने एक वर्ष पहले ही संसद से आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) बिल पारित करवा कर किया था (जो अब कानून बन चुका है)। यह कानून पुलिस व जांच एजेंसियों को ना सिर्फ दोषियों से बल्कि महज गिरफ्तार हुए व्यक्तियों (जिनका दोष सिद्ध होना या न होना बाकी है) से भी बायोमेट्रिक एवं व्यवहारिक डाटा (जैसे फिंगरप्रिंट, रेटिना स्कैन, लिखावट, हस्ताक्षर, तथा अन्य भौतिक व जैविक सैंपल) इकट्ठा करने का अधिकार प्रदान करता है, जिसे 75 सालों तक संग्रहीत किया जा सकता है!

नई न्याय संहिता की धारा 111 में पहली बार आतंकवादी गतिविधि को परिभाषित किया गया है। इस प्रावधान की बनावट भी इतनी व्यापक है कि इसका इस्तेमाल जनता के जुझारू आंदोलनों, रैलियों, जुटानों आदि को कुचलने और आंदोलनकारियों व नेतृत्वकारी तत्वों को आतंकवादी घोषित कर आजीवन कारावास की सजा देने के लिए किया जा सकता है। यहां तक कि इस प्रावधान में ऐसी गतिविधि से किसी भी रूप से संबंधित संपत्ति को भी जब्त करने का अधिकार राज्य को दिया गया है। गौरतलब है कि इस व अन्य कुछ प्रावधानों की अंतर्वस्तु यूएपीए जैसे काले जन-विरोधी कानूनों से काफी हद तक ली गई है।

सीआरपीसी की जगह लेने वाली नागरिक सुरक्षा संहिता में अब अभियुक्त की अनुपस्थिति के बावजूद कानूनी मुकदमे की संपूर्ण प्रक्रिया चलाने व संपन्न करने का प्रावधान लाया गया है। यानी बिना निष्पक्ष सुनवाई के सजा नहीं देने के प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को भी नकार दिया गया है। गौरतलब है कि यह प्रावधान भी यूएपीए कानून से लिया गया है। साथ ही संपूर्ण मुकदमे की प्रक्रिया को ऑनलाइन (विडियो कांफ्रेंसिंग के) माध्यम से चलाने का विकल्प भी जोड़ दिया गया है, जिसमें साक्ष्य रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया भी शामिल है।

नागरिक सुरक्षा संहिता में सबसे खतरनाक प्रावधानों में से एक है पुलिस हिरासत की समयसीमा का विस्तार। यह सर्वविदित है कि पुलिस हिरासत के दौरान अभियुक्त से जबरन दोष-स्वीकृति (confession) या सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाने हेतु अमानवीय यातनाओं का इस्तेमाल किया जाता है। सीआरपीसी के तहत पुलिस हिरासत की अधिकतम समयसीमा गिरफ्तारी से 15 दिनों तक की थी, लेकिन सुरक्षा संहिता में इसे अपराध के अनुसार 60 से 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकेगा। अन्य समय सीमाओं को भी प्रस्तावित किया गया है जैसे दलील प्रक्रिया संपन्न हो जाने के 30 दिनों के भीतर न्यायालय द्वारा फैसला सुना देने की सीमा। परंतु वर्तमान पूंजीपरस्त न्याय प्रक्रिया, जो आर्थिक गैर-बराबरी के आधार पर खड़ी है, जिसमें करीब 5 करोड़ केस लंबित हैं, जजों की भारी कमी है, न्यायपालिका पर कार्यपालिका (सरकार) का भारी दबाव व हस्तक्षेप है, में बिना कोई संरचनात्मक सुधार के महज कानून में प्रावधान जोड़ते जाने से कोई बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वर्तमान सीआरपीसी में भी अभियुक्त के विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में रहने की समयसीमा तय है जो अधिकतम 60 से 90 दिन है, जिसके बाद उसे बेल का अधिकार मिल जाता है। लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि आज देश में कुल कैदियों में से 77% विचाराधीन कैदी हैं! इनमें से एक बड़ा हिस्सा कई सालों से जेल में कैद हैं, केवल इसलिए क्योंकि उनके ऊपर आरोप है और न्याय प्रक्रिया उस आरोप पर फैसला नहीं कर पा रही है। यह खबरें भी आम बन गई हैं कि न्यायालय द्वारा रिहाई का फैसला आने पर वो मासूम लोग दोषमुक्त साबित हो कर जेल से अंततः बाहर आए जो 10 से 20 सालों तक विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में कैद थे, और जिनमें से कुछ की गिरफ्तारी के वक्त उम्र 18 वर्ष से भी कम थी! समयसीमा की नजर से अन्य प्रावधानों को देखें तो मृत्युदंड रोकने हेतु राज्यपाल व राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर करने पर भी 30 व 60 दिनों की समयसीमा लगा दी गई है।

न्याय संहिता में कुछ नए अपराधों के भी प्रावधान जोड़े गए हैं जैसे मॉब लिंचिंग, नफरत के आधार पर किए गए अपराध, “कपटपूर्ण साधनों” से यानी पहचान छुपा कर यौन संबंध बनाना आदि। तीसरा प्रावधान तो “लव जिहाद” के फासीवादी अजेंडे को और तेज करने तथा अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले आम लोगों को कानूनी रूप से उत्पीड़ित करने के लिए ही लाया गया है। पहले दो प्रावधानों को लें, तो यह विडंबना ही है कि जिस आरएसएस-भाजपा की सरकार ने नफरत के आधार पर एक पूरे प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन को खड़ा किया है जिसके लिए मॉब लिंचिंग अपने अजेंडे को आगे बढ़ाने का ही एक साधन है, वह आडंबरपूर्ण रूप से इन्हीं गतिविधियों के खिलाफ कानून ला रही है। इसका तत्काल कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे कानून की स्थापना को लेकर हाल में बने दबाव को बताया जा रहा है, लेकिन असल में यह सत्तासीन फासीवादी ताकतों द्वारा जनतंत्र के बचे-खुचे परदे को थोड़ा साफ करने भर की कोशिश है, ताकि आम जनता और समाज के न्यायपक्षीय बुद्धिजीवी तबके के समक्ष जनतंत्र के सुरक्षित होने का झूठा दावा बरकरार रखा जा सके। यही कारण है कि सेडिशन कानून का सबसे आक्रामक इस्तेमाल करने वाली, यूएपीए को और भी दमनकारी बनाने वाली, श्रम कानूनों, आरटीआई, जैसे जनवादी कानूनों को निरस्त करने वाली, और जनपक्षीय आवाजों/आंदोलनों को बर्बर रूप से कुचलने वाली यह सरकार सेडिशन कानून को “निरस्त” करते हुए संसद में कहती है कि “यहां लोकतंत्र है और सबको बोलने का अधिकार है”। जैसे 2013 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर बने कड़े कानूनों के बावजूद उसके बाद महिलाओं के खिलाफ अपराध और बढ़ गए, कुछ वैसा ही हाल इन कानूनों के साथ भी होता हुआ दिखने की पूरी संभावना है।

पूंजीवाद की स्थापना के बाद से ही निजी संपत्ति (पूंजी) की रक्षा और उसकी शोषण पर टिकी उत्पादन व्यवस्था के सुचारु परिचालन हेतु ही पहले विकसित राज्यों और बाद में औपनिवेशिक शासनों से मुक्त हुए देशों में एक सामान्य न्याय प्रणाली (न्यायालय, कानून, पुलिस आदि) की स्थापना की गई थी। उसके तहत ही आईपीसी सीआरपीसी जैसे कानून भारत में आए। पूंजीवाद के संकट में पड़ने यानी बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे पर संकट छाने की स्थिति में इस प्रणाली का इस्तेमाल भी जनता पर और आक्रामक रूप से किया जाता रहा। परंतु आज जब पूरे विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था एक अनुत्क्रमणीय संकट में फंस चुकी है तो शासन करने के पुराने तरीके काम नहीं आ रहे हैं। इसी संकट का नतीजा है कि मजदूर मेहनतकश वर्ग का शोषण और तेज करने तथा जनता के प्रतिरोध को पूरी तरह कुचलने हेतु भारत सहित पूरे विश्व में घोर दक्षिणपंथी तथा फासीवादी सरकारें शासन में आ रही हैं और जनतंत्र संकुचित या समाप्त होने की कगार पर पहुंच रहा है। इसी “विकास” का परिचायक है जनतांत्रिक निकायों पर कब्ज़ा, श्रम कानूनों को ध्वस्त कर लेबर कोड का आगमन, कृषि कानूनों का कार्यान्वयन, और अब आपराधिक कानून में यह “सुधार”।

हालांकि गहराते संकट के दौर में क्योंकि मोदी सरकार भी जनता का जीवनस्तर थोड़ा भी बेहतर करने में असमर्थ है, इस कारण से धार्मिक नफरत, अंधराष्ट्रवाद, और औपनिवेशिक काल विरोधी लफ्फाजी (rhetoric) इसके आखिरी सहारे बन गए हैं। नया संसद भवन, राजपथ के बदले कर्तव्य पथ, शहरों/सड़कों/भवनों का नव नामकरण, और अब आईपीसी सीआरपीसी के बदले यह भारतीय संहिताएं आदि इसी एजेंडा के तहत लाए जा रहे हैं। जबकि असलियत है कि इन आपराधिक संहिताओं (जिनका अधिकतर हिस्सा उन्हीं औपनिवेशिक कानूनों से हूबहू लिया गया है) में औपनिवेशिक कानूनों से भी दमनकारी और खतरनाक प्रावधान जोड़े गए हैं जो, श्रम संहिताओं की तरह ही, मजदूर वर्ग और आम जनता को जनतांत्रिक समाज से सैकड़ों साल पीछे धकेल नागरिक से प्रजा में तब्दील करने की क्षमता रखते हैं और इसी मंशा से लाए गए हैं।