पूंजीपतियों को खुली लूट की छूट का कानूनी ढांचा

August 17, 2023 0 By Yatharth

(जन विश्वास कानून और निजी डिजिटल डाटा संरक्षण कानून में जनविरोधी बदलाव)

एम असीम

सच है कि जिसे बुर्जुआ जनतंत्र कहा जाता है, वह बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व ही होता है। ऐसे जनतंत्र में राज्य का कार्य मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता पर पूंजीपति वर्ग के शोषण की व्यवस्था की हिफाजत करना ही है। राज्य के विभिन्न अंग इस कार्य में अपनी अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हैं। फिर भी जब तक पूंजीवाद तुलनात्मक रूप से खुली होड़ वाला पूंजीवाद था और कुछ इजारेदार पूंजीपति उस पर हावी नहीं थे, सभी पूंजीपतियों के बीच की होड़ में एक स्वायत्त रेफरी की भूमिका भी बुर्जुआ राज्य निभाता था। इस रूप में विभिन्न आर्थिक गतिविधियों का नियमन भी राज्य का एक कार्य था। मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के संघर्षों से बने दबाव के कारण राज्य ने इस नियामक भूमिका में पूंजीपति वर्ग के लिए कुछ ऐसे कानून-कायदे भी बनाए थे जो पूंजीपतियों के मुनाफे की हवस से जनता के स्वास्थ्य व जीवन की सुरक्षा को कुछ हद तक सुनिश्चित करते थे। किंतु मोनोपॉली पूंजीवाद व फासीवाद के दौर में बुर्जुआ राज्य अपनी इस भूमिका से भी पीछा छुड़ा चुका है और इन कुछ नियम-कायदों को भी समाप्त कर पूंजीपतियों की सुपर मुनाफों की हवस पूरी करने के रास्ते से सभी बाधाओं को हटा रहा है। गत संसद अधिवेशन में हुए ऐसे दो मुख्य कानूनी परिवर्तनों के कुछ पहलुओं की संक्षिप्त चर्चा इस लेख में प्रस्तुत है।

जन विश्वास कानून – स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते पूंजीपतियों को अभयदान

27 जुलाई को लोकसभा में मणिपुर मुद्दे पर जारी गतिरोध व शोर के बीच ही जन विश्वास (प्रावधान संशोधन) विधेयक, 2023 को सरकार ने पारित करा लिया। विधेयक पेश करते वक्त मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि यह बहुत से मामलों में आपराधिक मुकदमे व सजा के प्रावधानों को गैर आपराधिक बना कर जुर्माने लायक अभियोगों में बदल देगा। इससे कारोबारियों में छोटी गलतियों के लिए आपराधिक मुकदमे की कार्रवाई का भय समाप्त हो जाने से ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस’ को बढ़ावा मिलेगा। इस मकसद के तहत इस कानून के द्वारा 42 कानूनों की 183 धाराओं-उपधाराओं में आपराधिक मुकदमे व सजा के प्रावधानों को समाप्त कर दिया गया है। इन मामलों में अब पुलिस के द्वारा आपराधिक मुकदमा न चला कर संबंधित विभागों द्वारा जुर्माना लगाकर ही मामला समाप्त कर दिया जाएगा।  

इन 42 कानूनों में भी सबसे अधिक हानि की संभावना वाला संशोधन ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 27(डी) में है जिसके अंतर्गत निम्न स्तरीय गुणवत्ता वाली दवाओं के निर्माण के मामले में दवा कंपनियों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से छूट दे दी गई है। अब इसमें दो साल तक की कैद की सजा व जुर्माने के स्थान पर मात्र जुर्माना अदा करने पर ही फार्मा कंपनियों के मालिकों व प्रबंधकों को छूट मिल जाएगी। निम्न स्तरीय दवाओं पर फार्मा कंपनियों को सजा का डर न रहने से मरीजों के स्वास्थ्य को होने वाले खतरे व उनकी जान को होने वाले खतरे को देखते हुए डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों व अन्य कार्यकर्ताओं ने इस पर सख्त विरोध जताया।

विरोध पश्चात सरकार ने प्रेस वक्तव्य जारी कर सफाई दी कि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 27(ए), (बी) व (सी) में संशोधन नहीं किया गया है। सरकार ने बताया कि नकली व फर्जी दवाओं को आपराधिक मुकदमे व कैद की सजा से छूट नहीं दी गई है क्योंकि ये मामले इन तीन धाराओं के अंतर्गत आते हैं और उन मामलों में आजीवन कारावास तथा मृत्युदंड तक की सजायें जारी रहेंगी। सिर्फ 27(डी) में छूट दी गई है जो स्तरीय गुणवत्ता से निम्न अर्थात नॉट ऑफ स्टैंडर्ड क्वालिटी (एनएसक्यू) दवाओं के लिए ही लागू होता है। सरकार तथा फार्मा लॉबी बता रहे हैं कि एनएसक्यू दवाएं सिर्फ कानूनी तौर पर निर्धारित न्यूनतम स्तर से कुछ नीची गुणवत्ता वाली होती हैं और ऐसी दवाओं से कोई शारीरिक हानि नहीं होती। अतः इन मामलों में मुकदमा व सजा के प्रावधान से समाज को कोई लाभ नहीं। इससे मात्र न्यायपालिका पर बोझ बढ़ता है और देशी-विदेशी निवेशक भयभीत होकर पर्याप्त निवेश न करने से दवा उद्योग का विकास बाधित होता है।

सरकार व फार्मा लॉबी के तर्क से मिलावटी दवा वह होती है जिसमें कोई बाहरी जहरीला नुकसानदायक तत्व घुस आया हो, जैसे कफ सीरप में डाई एथिलीन ग्लाईकोल जिससे बच्चों की मृत्यु हो सकती है। यह धारा 27(ए) के अंतर्गत आता है। इसी तरह बिना लाइसेंस दवा बनाने या दवा पर जो लेबल है उसके बजाय वास्तव में कुछ और होने को नकली दवा माना जाता है। सरकार ने सफाई दी है कि इन पर सजा फिलहाल जारी रहेगी। सजा से छूट सिर्फ गैर नुकसानदायक मामलों में दी गई है। 

किंतु क्या बात इतनी सीधी सच्ची है? आखिर ये एनएसक्यू दवाएं क्या होती हैं? किसी दवा में घोषित से कम मात्रा में सक्रिय फार्मा तत्व का होना एनएसक्यू का एक उदाहरण है। मान लें कोई मरीज आहार नाल या सांस की नली में गंभीर संक्रमण की वजह से अस्पताल में भर्ती है। ऐसे मामलों में अक्सर सिप्रोफ्लोक्सासिन नामक एंटीबायोटिक दवा दी जाती है। अगर इस दवा में घोषित डोज के 50% से कम सक्रिय एंटीबायोटिक तत्व हो तो यह एनएसक्यू दवा की श्रेणी में आएगा। अगर सक्रिय तत्व 15 या 25% हो तब भी यह मामला एनएसक्यू श्रेणी में ही आएगा। किंतु गंभीर मामलों में कुछ समय तक पर्याप्त सक्रिय तत्व की कमी वाली दवा से मरीज की मृत्य तक हो सकती है। उसकी बीमारी अधिक गंभीर होकर उसे लंबे महंगे इलाज की जरूरत पड़ सकती है। एंटीबायोटिक दवा की डोज का अधूरा कोर्स प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर सकता है जो भविष्य में घातक हो सकता है। क्या सरकार व फार्मा लॉबी की बात सही है कि एनएसक्यू दवा से शारीरिक हानि नहीं होती?

इसी तरह मिट्टी-पानी की अशुद्धता की वजह से बहुत से बच्चे हुकवर्म, पिनवर्म, व्हिपवर्म आदि कृमियों से पीड़ित होकर एनीमिया व कुपोषण के शिकार होते हैं। ऐसे क्षेत्रों में बच्चों को सालाना अल्बेंडाजोल दवा दी जाती है। यह शरीर में घुलनशील क्रिया द्वारा प्रभाव डालती है। लेकिन अगर यह शरीर में घुले नहीं तो इसका प्रभाव नहीं होगा। इसके लिए घुलनशीलता का न्यूनतम स्तर निर्धारित है। किंतु घुलनशीलता के अभाव में इसे नकली या मिलावटी नहीं बस एनएसक्यू माना जाएगा। ऐसी दवा लेने वाला बच्चा सही से वृद्धि न कर एनीमिया व कुपोषण का शिकार होगा और उसका शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होगा, शिक्षा में भी वह पिछड़ जाएगा। किंतु सरकारी तर्क से यह शारीरिक हानि नहीं है!

आईसीयू में मरीजों को स्टेरॉइड इंजेक्शन जीवन बचाने के लिए दिए जाते हैं। उनमें बैक्टिरीअल एंडोटॉक्सिन रह जाने को भी एनएसक्यू ही माना जाता है जबकि यह अत्यंत हानिकारक हो सकता है। एंटीबायोटिक दवाओं, इंजेक्शनों, बच्चों के कीड़ों, आदि मामलों में ऐसे बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं जो सरकारी नियमों से एनएसक्यू में आते हैं तथा नकली या मिलावटी दवा नहीं माने जाते। इनसे भारी शारीरिक हानि हो सकती है। लेकिन अब यह सभी आपराधिक मुकदमे व कैद की सजा से मुक्त कर दिए गए हैं। फार्मा पूंजीपतियों की लॉबी के लिए यह बड़ी जीत है।

कुछ महीनों में ही भारत में नकली, मिलावटी, निम्न स्तरीय दवाओं के उत्पादन के कई मामले देखे गए हैं। इससे देश में तो सरकारी ढील से उतनी कार्रवाई नहीं हुई है लेकिन वैश्विक स्तर पर भारतीय दवाओं का बाजार बेहद प्रभावित हुआ है। गाम्बिया में कुछ महीने पहले ऐसे ही कफ सीरप की वजह से 19 बच्चों की मृत्यु हो गई थी। श्रीलंका ने अभी कुछ दिन पहले ही 50 व्यक्तियों की आंखों में इंफेक्शन पश्चात गुजरात की इंडियाना ऑफ्थैल्मिक्स नामक भारतीय फार्मा कंपनी को वहां दवा आयात के लिए ब्लैक लिस्ट कर दिया है।

हम समझ सकते हैं कि भारतीय दवा उद्योग में गुणवत्ता नियंत्रण की स्थिति कितनी बदतर है। ऐसे में हमारे देश में दवाओं की गुणवत्ता की विस्तृत जांच व नियंत्रण तथा निम्न गुणवत्ता के मामलों में सख्त कार्रवाई समय की जरूरत है। असल में तो यह भी शोध का विषय होना चाहिए कि निम्न गुणवत्ता की दवाओं की वजह से भारतीय जनता के स्वास्थ्य पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है और सुधार का अन्य उपाय न होने पर पूरे दवा उद्योग को तुरंत राष्ट्रीयकरण कर सार्वजनिक नियंत्रण में ले लेना चाहिए और उसके गुणवत्ता के समस्त डाटा को गुप्त रखने के बजाय पारदर्शी पद्धति से सामाजिक जानकारी का विषय बना देना चाहिए।

इसके बजाय नरेंद्र मोदी की सरकार अपनी पूंजीपरस्त नीतियों के अंतर्गत फार्मा कंपनियों और उनमें निवेश करने वाले देशी-विदेशी वित्तीय पूंजीपतियों को पहले से ही ऊंचे मुनाफों को और भी अधिक बढ़ाने के लिए उन्हें जनता के स्वास्थ्य पर घातक हमला करने की खुली छूट दे रही है। यह इस सरकार के सर्वांगीण जनविरोधी दृष्टिकोण व नीतियों का एक और प्रमाण है।  

निजी डिजिटल डाटा संरक्षण कानून – निजता के हनन का ब्लूप्रिंट

लोकसभा ने बिना किसी विशेष बहस के ही 7 अगस्त को डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन विधेयक पारित कर दिया। सरकार ने निजी डाटा की सुरक्षा का फ्रेमवर्क तैयार करने के लिए अपनी पीठ थपथपा ली और दावा किया है कि इतना सरल और स्पष्ट कानून दुनिया में कहीं नहीं है। इस पर बहुत से ऐतराज भी किए गए लेकिन संसद की बहस में जिन्होंने इसकी आलोचना की, वे भी इसके गहरा नुकसान कर सकने वाले कई गंभीर पहलू पूरी तरह नजरंदाज कर गए।

इस कानून के दायरे में ऑनलाइन एकत्र किया गया या ऑफलाइन एकत्र कर डिजिटल में रूपांतरित किया गया डाटा और इसकी सभी प्रकार की प्रोसेसिंग आती है। विदेश में इकट्ठा डाटा का उपयोग भारत में सामान या सेवा व्यापार में होगा तब भी यह इस कानून के दायरे में आएगा। जिस भी डाटा से किसी व्यक्ति की पहचान हो सकती है उसे निजी डाटा परिभाषित किया गया है और इसकी पूर्ण या आंशिक स्वचालित प्रोसेसिंग इस कानून के अंतर्गत आती है। इसमें डाटा एकत्र करना, उसका भंडारण, प्रयोग और शेयर करना शामिल हैं। 

इस कानून के कुछ अहम प्रावधान हैं कि कोई भी कंपनी कहीं से डाटा उठाकर उसका उपयोग तब तक नहीं कर सकती, जब तक डाटा से संबंधित व्यक्ति की मंजूरी नहीं ली जाती। नया एक्ट लागू होने के बाद कंपनी को संविधान में अनुसूचित सभी 22 भाषाओं में संबंधित व्यक्ति की सुविधा के मुताबिक यह बताना होगा कि वह किस उद्देश्य से डाटा ले रही है। कंपनी व्यक्ति के डाटा की सुरक्षा तय करेगी। एक निश्चित उद्देश्य के बाद व्यक्ति के निजी डाटा को डिलीट करना होगा। प्राइवेसी के उल्लंघन पर उसकी प्रकृति, गंभीरता और अवधि के आधार पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है। यह हर्जाना कुछ हजार रुपये से लेकर 250 करोड़ रुपये तक होगा। प्राइवेसी उल्लंघन पर नजर रखने के लिए एक डाटा प्रोटेक्शन बोर्ड ऑफ इंडिया का गठन किया जाएगा। कानून में बोर्ड के कामकाज की प्रक्रिया का जिक्र है।

कानून का विरोध करने वालों का कहना है कि डाटा प्रोटेक्शन बोर्ड में सरकार द्वारा नामित प्रतिनिधि होंगे। इससे प्राइवेसी के निगरानी तंत्र पर सरकार का पूरा नियंत्रण होगा। हालांकि एक्ट के चैप्टर 5 के क्लॉज 19 (3) में बोर्ड के चेयरपर्सन और सदस्यों के लिए आईटी और साइबर विशेषज्ञता की बात कही गई है लेकिन कहा जा रहा है कि सरकार बोर्ड को पारदर्शी बनाने के लिए एक स्वतंत्र कमिटी का गठन करे और इसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया, विपक्ष के नेता और कैबिनेट सेक्रेटरी के द्वारा नामित सदस्य शामिल करने के सुझाव दिए गए हैं। विपक्ष का यह भी कहना है कि डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट के जरिए सरकार ने प्राइवेट सेक्टर पर जिस तरह निगरानी बढ़ाई है, वैसी ही जवाबदेही सरकार पर भी होनी चाहिए। दुनिया भर में बने डिजिटल प्रोटेक्शन एक्ट के लिए यूरोपीय यूनियन के जनरल डाटा प्रोटेक्शन रेग्युलेशन (GDPR) को रोल मॉडल माना जाता है। यूरोपीय यूनियन ने भी राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर सरकारों को कुछ रियायतें दी हैं, लेकिन भारतीय डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट यह स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं करता कि किन विषय और परिस्थिति में सरकार को छूट होगी। अतः यह सरकार के लिए इन प्रावधानों के मनमर्जी से उपयोग हेतु सिर्फ एक चोर दरवाजा नहीं बल्कि पूरा फाटक ही खोल देता है।

पर इन ऐतराजों में कुछ महत्वपूर्ण व अत्यंत हानिकारक पहलू नजरंदाज कर दिए गए हैं। इसमें सबसे अहम निजी डाटा के प्रयोग के लिए उद्देश्य की सूचना के आधार पर संबंधित व्यक्ति से ली जाने वाली मंजूरी का क्षेत्र मुख्य है। जहां निजी डाटा के उपयोग के लिए उद्देश्य की सूचना के आधार पर स्पष्ट सहमति या मंजूरी प्राप्त करने का प्रावधान किया गया है वहीं चार प्रकार के ‘वैध इस्तेमाल’ के लिए मंजूरी लेने से छूट दे दी गई है। पहला, निश्चित मकसद के लिए व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से दिया गया डाटा; दूसरा, सरकार द्वारा दिया जाने वाला लाभ या सेवा; तीसरा, चिकित्सकीय आपात स्थिति; एवं, चौथा, रोजगार संबंधी डाटा।

उपरोक्त संबंध में जो भी डाटा इकट्ठा किया जाता है उसके बारे में डाटा एकत्र करने वाली निजी कंपनियों व सरकार को बिना डाटा प्रोसेसिंग का उद्देश्य बताए या यह स्पष्ट किए कि उसके लिए व्यक्ति का कोई डाटा क्यों प्रयोग होगा, बिना कोई हद बांधे डाटा के अबाध उपयोग का ब्लैंक चेक दे दिया गया है। इसके विपरीत दुनिया के कई विकसित देशों में जो डाटा संरक्षण कानून बने हैं उसमें निजी डाटा के बेसबब प्रयोग पर रोक लगाते हुए उद्देश्य के अनुरूप जरूरी डाटा मात्र ही एकत्र करने और इसके विवेकपूर्ण प्रयोग को मुख्य सिद्धांत माना गया है। उदाहरण के लिए एक डॉक्टर को किसी व्यक्ति की कैंसर की बीमारी का इलाज करने के लिए क्या डाटा जरूरी है? क्या उसे कैंसर के इलाज हेतु मरीज की जाति, धार्मिक विश्वास, राजनीतिक विचार, राष्ट्रीयता, यौन रुझान, आदि बहुत सी चीजें जानने की तार्किक आवश्यकता है? अगर नहीं, तो यह सूचनाएं एकत्र करना और इन्हें किसी भी मकसद से प्रयोग करना बेसबब व अविवेकपूर्ण ही नहीं, इन आधार पर भेदभाव की संभावना भी माना जाता है। किंतु लोकसभा द्वारा पारित डाटा प्रोटेक्शन विधेयक उपरोक्त चार मामलों में कोई सीमाएं तय नहीं करता, और सरकार व निजी कंपनियों दोनों के द्वारा बेसबब गैर जरूरी डाटा एकत्र कर इसके अविवेकपूर्ण प्रयोग की पूरी छूट देता है।    

रोजगार संबंधी छूट के निहितार्थों का एक अत्यंत सरल उदाहरण देखिए। सबसे पहले तो नियोक्ता कर्मी संबंधी डाटा एकत्र करने के लिए किसी तार्किक सीमा से पूरी छूट पा गया है। जैसे चिकित्सकीय आवश्यकता का उदाहरण दिया गया वैसे ही तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं कर्मी संबंधी जो सूचनाएं कंपनी द्वारा दिए गए रोजगार के उद्देश्य से संबंधित नहीं हैं। नियोक्ता कंपनी को ऐसी सूचनाएं एकत्र, स्टोर, प्रोसेस व शेयर करने की छूट क्यों होनी चाहिए? ऐसे ही किसी नियोक्ता कंपनी को अपने कर्मियों का कार्य मूल्यांकन एक ‘वैध प्रयोग’ है तो इसके लिए वह अपने कर्मियों के सभी निजी डाटा को बिना प्रतिबंध अबाध रूप से प्रयोग करने की अधिकारी बन गई है। उसे कर्मचारी को बताने की आवश्यकता नहीं है कि इस मूल्यांकन का दायरा क्या है और उसका कौन सा निजी डाटा किस काम में इस्तेमाल होगा। अब कंपनी अपने कर्मी का जो कोई भी डाटा उसके हाथ लगे उसे अपने उत्पादकता एआई प्रोग्राम में डाल प्रोसेस कर सकती है जैसे उसकी व्यक्तिगत पहचान, स्थान, कान्टैक्ट की जानकारियों के साथ ही उसके सारे मूवमेंट्स (कैमरा से), उसकी यात्राएं, वित्तीय जानकारियां, मेडिकल डाटा, आदि। अब उसे कार्य मूल्यांकन में इन जानकारियों को इकट्ठा व प्रोसेस करने का उद्देश्य बताने और व्यक्ति की सहमति लेने की कोई जरूरत नहीं रही। इसके निहितार्थों की कल्पना की जा सकती है।

इसके साथ अगर हम यह जोड़ कर देखें कि भारत में शिक्षा, सूचना व चेतना का स्तर कितना नीचा है; आधार से लेकर तमाम उद्देश्यों से सरकार पहले ही बहुत सारी सूचनाएं सभी नागरिकों के बारे में एकत्र कर रही है; हर जगह आधार और पैन देना अनिवार्य किया जा चुका है; और, अब तो 7 अगस्त को ही पारित हुए जन्म-मृत्यु पंजीकरण कानून संशोधन में भी इनके लिए आधार जोड़ना अनिवार्य कर दिया गया है तब हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि यह निजी डाटा संरक्षण विधेयक डाटा प्रोटेक्शन का नहीं, सरकारी विभागों व निजी कॉर्पोरेट दोनों को ही हर नागरिक पर एक निगरानी तंत्र कायम कर हमारी निजता के सम्पूर्ण हनन में सक्षम बनाने का ब्लूप्रिंट है।