मणिपुर : असमान पूंजीवादी विकास, राष्ट्रीय आकांक्षाओं के दमन व बहुसंख्यकवाद का नतीजा

August 17, 2023 0 By Yatharth

संपादकीय, अगस्त 2023

3 मई से मणिपुर में जारी भ्रातृघाती गृहयुद्ध की तबाही में अब तक लगभग 200 मौतें हो चुकी हैं। कुछ स्त्रियों को निर्वस्त्र कर गैंगरेप का विडिओ सामने आने के बाद मुख्यमंत्री ने खुद कहा है कि ऐसी घटनाएं सैंकड़ों की तादाद में हुई हैं (8 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के सामने ही ऐसी 11 एफआईआर पेश की गईं)। कई हजार इमारतें जला दी गई हैं जिसमें इम्फाल घाटी स्थित सभी कुकी-जो मकान-दुकान व अन्य इमारतें शामिल हैं। लगभग 80 हजार लोग अपने घर-बार आदि गंवाकर अन्य क्षेत्रों व राज्यों में शरणार्थी बनने के लिए मजबूर हुए हैं। इनमें साधारण नागरिक ही नहीं सरकारी कर्मचारी और उच्च सिविल व पुलिस अफसर तक शामिल हैं। असुरक्षा के भय से सत्तारूढ़ बीजेपी के कुकी-जो विधायक तक इम्फाल में विधानसभा अधिवेशन में जाने से इंकार कर चुके हैं।

इसे दंगा न कहकर गृहयुद्ध ही कहना चाहिए क्योंकि 32 लाख की आबादी वाले राज्य में लगभग 25 हजार फौज व असम राइफल्स ने बख्तरबंद गाड़ियों के साथ दोनों समुदायों की आबादी को अलग कर उनके बीच में एक बफर जोन बना रखा है, तब भी गोलीबारी, आगजनी, कत्ल रुक नहीं रहे हैं। मणिपुर पुलिस इन आतंकी गिरोहों की मदद में इस बफर जोन को तोड़ने के लिए सेना से भिड़ती दिखाई दे रही है (3 अगस्त को इंडिया टुडे टीवी असम राइफल्स व मणिपुर पुलिस के बीच ऐसी एक गोलीबारी को लाइव दिखा चुका है)। दोनों समुदायों के किसी भी आम व्यक्ति का तो दूर, पुलिस अफसरों तक का एक दूसरे के इलाकों में जाना नामुमकिन हो चुका है। दोनों ओर बंकर बनाए गए हैं, आधुनिक स्वचालित हथियारों के साथ गोलीबारी हो रही है और सशस्त्र टुकड़ियां बनाकर गश्त की जा रही है।

हिंसा में सत्तारूढ़ दल की भूमिका

प्रयोग किए जा रहे हथियारों का बड़ा हिस्सा पुलिस शस्त्रागारों से ही आया है। आधिकारिक तौर पर इसे पुलिस शस्त्रागारों से लूट बताया गया है। किंतु 4,572 आधुनिक स्वचालित हथियार व 6 लाख कारतूसों की ‘लूट’ उच्च स्तर पर राजनीतिक व अफसरशाही की मिलीभगत के बगैर मुमकिन नहीं थी। राज्य सरकार द्वारा इन हथियारों की बरामदगी की किसी कार्रवाई के बजाय इन्हें लौटा देने की अपील भी सच जाहिर कर देती है। यह ‘लूट’ अभी भी जारी है। 3 अगस्त को बिष्णुपुर जिले में दूसरी इंडियन रिजर्व बटालियन ने अपने हेडक्वार्टर में 500 पैदल व 40-45 गाड़ियों के घुसकर लाइट मशीन गन, एमपी5, एके47, इंसास व एसएलआर राइफल, 9 मिमी पिस्टल व 17 हजार कारतूस ‘लूट’ लिए जाने की रिपोर्ट की है। क्या कश्मीर, पंजाब, बिहार, तमिलनाडु, आदि किसी भी राज्य में सशस्त्र बलों के शस्त्रागार से इस प्रकार एक भी हथियार की लूट मुमकिन है? ऐसी स्थिति में क्या हुआ होता, हम सब अच्छी तरह जानते हैं।       

खुद मुख्यमंत्री को ही सशस्त्र मैतेई उग्रवादी गिरोहों का संरक्षक बताया जा रहा है। बीरेन सिंह लगातार कुकी-जो लोगों के प्रति नफरत भड़काते आ रहे हैं और उन्हें गैरकानूनी घुसपैठिए, पॉपी उगाने वाले तथा नशा तस्कर कहकर उनका वजूद मिटा देने की धमकियां दे रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि तमल साहा और करन थापर को दिए गए दो इंटरव्यू में मणिपुर पुलिस की पूर्व असिस्टैंट सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस थानुजाम बृंदा ने मुख्यमंत्री को ही मणिपुर में नशा व्यापार का मुख्य संरक्षक बताया है। 2018 में इस आईपीएस अधिकारी ने एक वरिष्ठ बीजेपी नेता को करोड़ों की ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया था। उसके बाद मुख्यमंत्री ने खुद, बीजेपी नेताओं, एसपी और डीजीपी के जरिए उन पर भारी दबाव डालकर इस ड्रग तस्कर बीजेपी नेता को रिहा करवाया था। इसके बाद बृंदा ने इस्तीफा दे दिया। किंतु उन्होंने इस घटना का नामों सहित सम्पूर्ण विवरण एक अफिडेविट में मणिपुर हाईकोर्ट को बताया है। 

सुप्रीम कोर्ट में सॉलिसीटर जनरल ने बताया है कि इस हिंसा की 6 हजार से अधिक जीरो एफआईआर दर्ज हुईं हैं, और एक में भी पुलिस ने कोई जांच नहीं की, एक भी व्यक्ति से पूछताछ नहीं की है। जिन स्त्रियों के साथ गैंग रेप का विडिओ सामने आ आया, वे परिवार सहित पुलिस के संरक्षण में थी, पुलिस ने ही उन्हें ‘भीड़’ को सौंपा, और पुरूषों की हत्या व स्त्रियों के साथ बलात्कार हुआ। मणिपुर पुलिस से लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग तक ने शिकायत पर रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गई। विडिओ वाइरल होने पर 19 जुलाई को रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ी और 6 अगस्त को कुछ पुलिस वालों को निलंबित किया गया है। लेकिन विडिओ सामने आने पर बीजेपी की कोशिश विडिओ बनाने वाले को गिरफ्तार करने की अधिक थी ताकि इसके बाद और कोई छिपी घटनाएं जाहिर करने का साहस न करे। क्या इसके बाद भी इस पूरे घटनाक्रम में राजसत्ता की भूमिका पर कुछ और कहने की जरूरत बचती है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित केंद्र की बीजेपी सरकार की इस मामले में लगभग पूर्ण चुप्पी भी जाहिर करती है कि वो इस गृहयुद्ध जैसी स्थिति को रोकने के कतई इच्छुक नहीं हैं।

‘द वायर’ की रिपोर्ट है कि केंद्र सरकार व कुकी संगठनों के बीच सस्पेंसन ऑफ ऑपरेशंस की सहमति के बाद 2015 से ही मध्यस्थों के जरिए वार्ता चल रही थी। कुकी संगठन उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों की तरह अपने लिए मणिपुर के अंदर ही संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत स्वायत्तशासी परिषद की मांग कर रहे थे, जैसे उदाहरणार्थ असम में बोडो स्वायत्तशासी परिषद है। इससे उन्हें एक निश्चित बजट के साथ कुकी क्षेत्र के लिए स्वायत्त शासन का अधिकार मिल जाता। केंद्र सरकार इसके लिए लगभग राजी हो चुकी थी और 8 मई को दिल्ली में बैठक निर्धारित थी। किंतु मुख्यमंत्री बीरेन सिंह इसके खिलाफ थे। और 3 मई को ही हिंसा शुरू हो गई जिसमें मुख्यमंत्री के करीबी माने जाने वाले मैतेई उग्रवादी संगठनों अरांबोल तेंगोल व मैतेई लीपुन की प्रमुख भूमिका सामने आई है।

किंतु अब केंद्र की बीजेपी सरकार भी बीरेन सिंह के पूरी तरह साथ है। संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में गृहमंत्री अमित शाह ने भी म्यांमार से आने वाले गैरकानूनी आप्रवासियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। मिजोरम से एनडीए के ही राज्यसभा सदस्य के वनलालवेना ने 10 अगस्त को इसका खंडन करते हुए कहा, “मैं मिजोरम से आदिवासी सांसद हूं। गृहमंत्री जी ने हमको म्यांमारी बताया है। पर हम म्यांमारी नहीं हैं। हम भारतीय हैं।” लेकिन उनकी इस बात को राज्यसभा के सभापति ने “नथिंग विल गो ऑन रेकॉर्ड। कुछ भी रेकॉर्ड में नहीं जाएगा।” कहते हुए सदन के रिकॉर्ड से हटवा दिया।

आरक्षण व भागीदारी का सवाल

इस घटनाक्रम के लिए तात्कालिक ट्रिगर हाईकोर्ट द्वारा बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे की सिफारिश पर फैसला लेने के लिए राज्य सरकार को दिया गया निर्देश था, क्योंकि इसके विरोध में ट्राइबल एकजुटता मार्च एवं उसके विरोध में मैतेई उग्रवादी संगठनों की मुहिम में ही हिंसा फूटी। किंतु इसके पीछे के वास्तविक कारण अधिक दीर्घस्थाई व गहरे हैं। इस हिंसा-प्रतिहिंसा के चक्र में केंद्र-राज्य की सत्ता व उससे संलग्न राज्येतर फासिस्ट संगठनों की भूमिका बिल्कुल स्पष्ट है। 

तात्कालिक ट्रिगर बना आरक्षण में हिस्सेदारी का मुद्दा भी बहुत विडंबना से भरा है। भारत की संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था, और उसका भी बदतरीन सड़ा हुआ अति प्रतिगामी फासिस्ट अवतार देश की बहुसंख्यक मेहनतकश शोषित उत्पीड़ित आबादी को विकास तो बहुत दूर कुछ सांस लेने तक की राहत भी देने में पूरी तरह नाकाम साबित हो चुका है। बेरोजगारी चरम पर है। सरकारी नौकरियों में भर्ती लगभग बंद है। सभी सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण और उनमें छंटनी जोरों पर है। निजी क्षेत्र में तो रोजगार की सुरक्षा पहले से ही नहीं है। अधिकांश नियमित रोजगारों को कॉंट्रेक्ट के अस्थाई कामों में बदला जा रहा है। गिग इकॉनोमी के नाम पर तो और भी तीक्ष्ण शोषण जारी है। मेहनतकश उत्पीड़ित अवाम ने अपने संघर्षों से इस व्यवस्था में पहले जो थोड़ा बहुत श्रम व जनवादी अधिकार तथा सुविधाएं हासिल किये थे, उन्हें भी अब एक के बाद एक लगातार छीना जा रहा है। शिक्षा व रोजगार में आरक्षण को पहले ही बहुत हद तक निष्प्रभावी बनाया जा चुका है।

पूंजीवाद के अनिवार्य लक्षण असमतल विकास की वजह से बचे-खुचे उपलब्ध रोजगार भी कुछ तुलनात्मक रूप से विकसित क्षेत्रों में ही मौजूद हैं। पिछड़े राज्यों में स्थिति और भी बदतर है और उन्हें रोजगार के लिए देश के दूसरे हिस्सों में पलायन करना पड़ता है। वहां उन्हें श्रम के शोषण के साथ ही राष्ट्रीयता, नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, आदि के आधार पर भी उत्पीड़न झेलना पड़ता है। उत्तर-पूर्व की जनता के साथ इस उत्पीड़न का सुविदित व पुराना इतिहास है। मणिपुर में भी बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय स्तर से दोगुनी है। इंडियन एक्सप्रेस (10 मई) के मुताबिक वहां के ग्रामीण इलाकों में 65% पुरुष तथाकथित स्वरोजगार में लगे हैं। दरअसल स्वरोजगार किसी तरह जिंदा रहने की विवशता ही है। ऐसे ‘रोजगार’ में लगे अधिकांश मेहनतकश भारत के औसत निम्न जीवन स्तर से भी नीचे किसी तरह जिंदा रहने के लिए मजबूर हैं।  

किंतु वास्तव में आरक्षण को जितना ही निष्प्रभावी व खोखला किया जा रहा है, उतना ही उसे औजार बना कर बेरोजगारी की इस मुसीबत को शासक वर्ग अपने लिए एक नापाक मौके में तब्दील कर रहा है। आरक्षण के दायरे में उपलब्ध रोजगार के चंद अवसरों में बढ़ी हिस्सेदारी देने का लोभ देकर विभिन्न समुदायों में परस्पर वैमनस्य व नफरत उकसा रहा है। सभी समुदायों-जातियों में मौजूद सत्ता के एजेंट-दलाल, इन समुदायों-जातियों का शासक वर्ग में शामिल एक छोटा संपन्न पूंजीपति संस्तर, आरक्षण को विभिन्न समुदायों में शत्रुता फैलाने हेतु शासक वर्ग का औजार बना देने की इस घृणित साजिश को अंजाम देने में लगे हैं। यह वही स्क्रिप्ट है जिसकी पहले हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, आंध्र-तेलंगाना, आदि राज्यों में खूब रिहर्सल की जा चुकी है – जो जाति-समुदाय आरक्षण के बाहर है उसे आरक्षण में आने के लिए उकसाओ और जो ओबीसी में शामिल है उसे एससी या एसटी में शामिल करने का लालच देकर उकसाओ। मणिपुर में भी पहले ही ओबीसी/एससी श्रेणी में शामिल मैतेई समुदाय को 30% आरक्षण वाली एसटी श्रेणी में शामिल करने के ऐसा ही लोभ दिखाया गया। दूसरी ओर पहले से एसटी श्रेणी में शामिल जनजातियों में अपने हिस्से में कमी से रोष पैदा हुआ। यह मणिपुर की पहले से ही सामाजिक तनाव की स्थिति को उतना ज्वलनशील बनाने में कामयाब हुआ जिसमें आग भड़काने हेतु बस एक छोटी चिंगारी ही चाहिए थी।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य 

मगर इस तात्कालिक ट्रिगर के पीछे पूर्वाग्रहों, असुरक्षा, असंतोष, तनाव, टकराव, संघर्ष का एक लंबा इतिहास है जिसके मूल में जाने के लिए हमें राष्ट्रीयता के सवाल को समझना होगा। आधुनिक राष्ट्र राज्य पूंजीवादी विकास की देन हैं। एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले समान भाषी लोगों के स्थिर समुदाय में एक समान आर्थिक जीवन व पूंजीवादी घरेलू बाजार के उभार के दौरान समान संस्कृति व एक राष्ट्र होने की मनोवैज्ञानिक मानसिकता तैयार हुई। इन राष्ट्रीयताओं के आधार पर राष्ट्र राज्य कायम करने की एक ऐतिहासिक प्रक्रिया चली।

किंतु भारत का मौजूद राज्य ऐसे इतिहास की देन नहीं है। यहां पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया में राष्ट्र राज्यों के उदय की संभावना के पहले ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन कायम हो गया। उस औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत आने वाले विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र के भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न सांस्कृतिक, आर्थिक स्तर के समुदायों के औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के साझा राजनीतिक संघर्ष के आधार पर आज का यह राज्य कायम हुआ है जिसमें कई राष्ट्रीयताओं के लोग शामिल हैं। औपनिवेशिक शासन ने इस दौरान चीन, नेपाल, अफगानिस्तान, इरान के साथ मनमर्जी से अतार्किक सीमा रेखाएं खींचीं। औपनिवेशिक जरूरतों से मनमानी राजनीतिक व प्रशासनिक इकाइयां कायम की गईं। फिर बर्मा (म्यांमार), पाकिस्तान (व बांग्लादेश) वाले इतने ही अतार्किक मनमानी विभाजन हुए।

उपरोक्त प्रक्रिया में कई समान भाषा-भाषी, आर्थिक जीवन व संस्कृति वाले समुदाय व जनजातियों को मनमाने ढंग से जबर्दस्ती खींची गई अतार्किक सीमा रेखाओं के द्वारा बांट दिया गया तो कई कतई अलग भाषा-संस्कृति, असमान आर्थिक जीवन व राजनीतिक इतिहास वाले समुदायों को उतने ही मनमाने ढंग से एक ही राजनीतिक-प्रशासनिक इकाई में विलय कर दिया गया। इसने जनता के बीच ऐतिहासिक संकीर्णता, स्थानिक पूर्वाग्रहों, संसाधनों के बंटवारे जनित असंतोष ने वैमनस्य के बहुत से बीज बोए हैं। कश्मीर से तमिलनाडु या गुजरात-राजस्थान से त्रिपुरा तक इसके नतीजे देखे जा सकते हैं। भारत की सत्ता में आए बीमार संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग ने भी इन पूर्वाग्रहों और असंतोष को जनवादी ढंग से सुलझाने के बजाय धर्म, जाति, भाषा के साथ ही राष्ट्रीयता के भी आधार पर जनता में भ्रातृघाती वैमनस्य को बढ़ावा देने और बहुसंख्यकवादी उत्पीड़न की ही नीति अपनाई है। 

आज के मणिपुर को देखें तो इसकी इम्फाल घाटी के समतल कृषि क्षेत्र में मैतेई समुदाय की अपनी भाषा, धर्म व राजतंत्र का सुदीर्घ इतिहास है। इसके चारों ओर नगा, लुशाई, चिन, कचार, मिजो, जोमी, आदि पहाड़ियों में रहने वाले जनजाति समुदाय कभी इस राज्य का अंग नहीं थे। उनकी भाषा, संस्कृति, धर्म, आर्थिक जीवन, राजनीतिक इकाईयां इससे बिल्कुल अलग थीं। लेकिन औपनिवेशिक शासन ने अपनी सुविधा व मनमर्जी से इन पहाड़ियों के बीच मनमानी रेखाएं खींचीं। कुछ बर्मा में जा गिरे, कुछ आज के बांग्लादेश में, कुछ मौजूदा भारत के अन्य राज्यों में और कुछ मणिपुर रियासत में मिला दिए जाने से आज के मणिपुर में आ पहुंचे हैं।

वर्तमान स्थिति है कि मणिपुर भौगोलिक क्षेत्र के 10% इम्फाल घाटी में लंबे समय से कृषि करने वाला आबादी का 53% बहुसंख्यक मैतेई समुदाय रहता है जबकि इसके चारों ओर के 90% पहाड़ी वन क्षेत्रों में कुकी, चिन, मिजो, जोमी, नगा, आदि अल्पसंख्यक बना दी गई जनजातियां रहती हैं। पूंजीवाद के चारित्रिक असमान विकास का परिणाम है कि राज्य के सभी प्रमुख शिक्षण व अन्य सार्वजनिक संस्थान इम्फाल घाटी में स्थित हैं, पहाड़ी-वन क्षेत्रों में नाममात्र का ही विकास हुआ है। अतः वहां की जनजातियों के निवासियों को शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय के लिए इम्फाल घाटी में ही आना पड़ता है। इसके विपरीत घाटी के निवासियों की शिकायत है कि पहाड़ी क्षेत्रों के लोग घाटी में बस सकते और संपत्ति खरीद सकते हैं, मगर वे घाटी से बाहर संपत्ति खरीद कर नहीं बस सकते। इस स्थिति ने दोनों समुदायों में असंतोष को जन्म दिया है और चुनावी पार्टियों ने सभी क्षेत्रों-समुदायों के समग्र विकास और उसमें समान भागीदारी के द्वारा परस्पर शक-शुबहे को दूर करने के बजाय इस वैमनस्य को और भी हवा दी है। राज्य के 60 विधायकों में से 40 इम्फाल घाटी से आते हैं अतः राजनीति व प्रशासन तंत्र में भी बहुसंख्यक मैतेई ही हावी रहे हैं। पहले कांग्रेस, अब बीजेपी ने हमेशा एक ओर बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा दिया है तो दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के भय और असुरक्षा की भावना को भी। अतः दोनों समुदायों के बीच परस्पर अविश्वास की खाई चौड़ी होती गई है।  

पूंजीवादी दायरे में इस जटिल समस्या के अस्थाई सीमित हल की कोशिश में संविधान सभा ने संविधान की 6ठी अनुसूची द्वारा पुराने अविभाजित असम की विभिन्न जनजातियों को सीमित स्वायत्तता व स्वशासन की व्यवस्था की थी। असम से विभाजन के बाद बने उत्तर पूर्व के राज्यों में यह व्यवस्था जारी रही। लेकिन पहले से अलग रियासत के रूप में भारत में विलय होने वाले मणिपुर व त्रिपुरा में यह व्यवस्था नहीं की गई। 1985 में त्रिपुरा के जनजाति इलाकों में भी यह व्यवस्था कर दी गई। पर लंबे समय से इस मांग के बावजूद मणिपुर को फिर भी छोड़ दिया गया। बहुसंख्यक मैतेई प्रभाव वाले मणिपुर की पहाड़ियों की विभिन्न जनजातियों में इस वजह से असुरक्षा और असंतोष की भावना रही है और उनकी अंडरग्राउन्ड सशस्त्र सेनाएं इसे लेकर संघर्ष चलाती रही हैं। अतः इस स्थिति में जरा भी परिवर्तन की आशंका इस राज्य में उबाल लाती रही है। 2015 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जब भूमि, मकान, दुकान, आदि संपत्तियों वाले 3 कानून बनाने का प्रयास किया तब भी विरोध प्रदर्शनों व सामुदायिक झड़पों में 9 व्यक्तियों की मौत हुई थी, हालांकि प्रोसीजर के नुक्तों को लेकर ये कानून अंततः लागू नहीं हो पाए।

बीजेपी का बहुसंख्यकवाद

एक पहलू यह भी है कि 19वीं सदी में मैतेई राजवंश धर्म परिवर्तन कर वैष्णव बन गया और उसने बांग्ला लिपि अपना ली। इसे लेकर खुद मैतेई समुदाय में आंतरिक द्वंद्व है और पिछले दशकों में उनका एक बड़ा हिस्सा अपने पुराने धर्म और भाषा-लिपि की ओर वापस जाने की मुहिम चला रहा है। लेकिन हिंदुत्ववादी बीजेपी के इस बीच सत्ता में आने और हिंदुत्व आधारित बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने के लिए वैष्णव मैतेई राजाओं के महिमामंडन से स्थिति और जटिल हो गई है। बीजेपी सरकार ने कुकी बहुसंख्यक आबादी वाले चूड़ाचांदपुर जिले के बेहियांग में 19वीं सदी के मैतेई राजा चन्द्रकीर्ति सिंह का स्मारक बनाया, हालांकि यह इलाका कभी भी मैतेई राज्य का हिस्सा नहीं रहा था। इसने भी आग को और भड़काया।

इसके बाद रिजर्व फॉरेस्ट में गांवों को अनधिकृत ढंग बढ़ने से रोकने, अतिक्रमण हटाने, गैरकानूनी कहकर चर्चों को हटाने, वन क्षेत्रों में मैतेई को जमीन खरीदने के अधिकार के प्रस्ताव, आदि से कुकी-जो समुदायों में असुरक्षा व असंतोष भड़क कर चरम पर पहुंच गए हैं। म्यांमार में फौजी शासन के दमन से कुछ चिन लोग (कुकी-मिजो व चिन भ्रातृ समुदाय हैं) सीमा पार कर आए तो उन्हें विदेशी नागरिक कहकर बीजेपी सरकार द्वारा रोकने व प्रताड़ित करने से भी कुकी समुदाय विक्षुब्ध था। इस बीच बीजेपी मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह ने दो सशस्त्र कुकी सेनाओं के साथ चल रहे युद्धविराम व समझौता वार्ता को भी छोटे से विवाद को मुद्दा बनाकर तोड़ दिया। अब मुख्यमंत्री व मैतेई उग्रवादी सभी कुकी-जो लोगों को गैरकानूनी विदेशी घुसपैठिए बता उनके संहार के लिए उकसा रहे हैं।

उत्तर आधुनिकतावाद, इंटरसेक्शनैलिटी व अस्मिता की राजनीति की भूमिका 

पर मणिपुर की बीजेपी सरकार के इस बहुसंख्यकवाद के बीच ही ध्यान देने की बात यह भी है कि मीडिया खबरों के मुताबिक कुकी सशस्त्र समूहों ने खुद ही कहा है कि उन्होंने चुनाव जीतने में बीजेपी की मदद की थी। 10 कुकी विधायकों में से अधिकांश बीजेपी के साथ हैं और कुकी पीपल्स अलायंस 6 अगस्त तक सरकार के समर्थन में ही था। अभी भी कुकी संगठनों के प्रतिनिधि समस्या के समाधान के लिए केंद्र की बीजेपी सरकार व गृह मंत्री अमित शाह पर ही भरोसा व्यक्त कर रहे हैं। इस तरह मैतेई व कुकी दोनों ही समुदायों को जिस तरह बीजेपी अपने स्वार्थ में इस्तेमाल करने में कामयाब रही है उसके पीछे हमें उत्तर आधुनिकतावादी अस्मितावाद या इंटरसेक्शनैलिटी के पूंजीवाद द्वारा स्पॉन्सर्ड शासक वर्गीय विचार की भूमिका पर भी गौर करना चाहिए। यह विचार शोषित-उत्पीड़ित जनता की व्यापक एकजुटता के आधार पर शोषक तंत्र के खिलाफ एक्यबद्ध संघर्ष से इंकार कर उत्पीड़ित जनता को हर मुमकिन आधार पर छोटे होते जाते समूहों में बांट कर अपने संकीर्ण हितों की पूर्ति के लिए प्रयास को बढ़ावा देता है। उनके सजीव अनुभव (lived experience) या अनुभववाद को ही एकमात्र सत्य घोषित कर यह दूसरे किसी भी समूह द्वारा उनकी अवस्थिति की आलोचना को पूरी तरह खारिज कर देता है। इस प्रकार सभी उत्पीड़ितों के शोषण के लिए जिम्मेदार सामाजिक व्यवस्था के सामान्य नियमों जैसी किसी बात से पूर्ण इंकार कर उन्हें दूसरे उत्पीड़ितों की परवाह बगैर अपने संकीर्ण हितों पर बजिद होने के लिए प्रोत्साहित करता है।

सभी उत्पीड़ितों के उत्पीड़न की साझा वजह के खिलाफ एक साझा समझ आधारित एकजुट संघर्ष को नकार एक ओर तो यह पूंजीवादी व्यवस्था में सीमित संसाधनों के बंटवारे में अधिक हिस्से के लिए इन समुदायों में परस्पर वैमनस्य को बढ़ावा देता है, तो दूसरी ओर, व्यापक एकता के अभाव में सीमित शक्ति के कारण ये किसी भी जुझारू संघर्ष में असमर्थ होकर शासक वर्ग राजनीति में ही संरक्षण खोजने को मजबूर हो उसकी साजिशों के शिकार बन जाते हैं। मणिपुर इसका क्लासिक उदाहरण है। मैतेई, कुकी-जो व नगा मणिपुर के ये तीन मुख्य समुदाय ऐतिहासिक तौर पर एक ही जनजातीय नस्ल-वंश परंपरा से आते हैं, लगभग एक सी भाषाएं बोलते हैं, और तीनों ही हजारों साल से इस भूभाग के निवासी हैं। इनके बीच कोई मूलनिवासी-बाद में आए आप्रवासी का ऐतिहासिक भेद भी नहीं है। मात्र निवास के सांयोगिक भौगोलिक कारण से तीनों विकास क्रम में भिन्न मार्ग पर आगे बढ़े – मैतेई उपजाऊ घाटी में निवास की वजह से स्थाई कृषि व राजतंत्रीय समाज में विकसित हुए जबकि शेष दोनों नहीं। भूतकाल में इन्होंने पहले औपनिवेशिक व बाद में भारतीय राज्य के उत्पीड़न के विरुद्ध साझा संघर्ष भी चलाए हैं। किंतु पूंजीवाद के असमान विकास और अस्मिता की राजनीति के पूंजीवादी चुनावी राजनीति के हाथ में औजार बन जाने से आज तीनों तीन विभिन्न कोणों पर हैं और घनघोर वैमनस्य जनित परस्पर खूंरेजी में फंसा दिए गए हैं।    

एक विशिष्ट उत्पीड़ित समुदाय के साथ होने वाले अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना कतई गलत नहीं, बिल्कुल जायज है। लेकिन अगर नजरिए के तौर पर कोई व्यक्ति/संगठन सामान्य तौर पर हर जगह मानवता के साथ अन्याय का विरोधी होने के बजाय खुद को मात्र एक समुदाय के साथ अन्याय के विरोध तक ही सीमित कर ले तो यह संकीर्ण नजरिया अंततः उसे कुछ वक्त बाद अन्याय के साथ ही खड़ा कर उत्पीड़क शासक वर्ग का औजार बना देता है। मैतेई समुदाय की स्त्रियों के ‘मैरा पैबी’ नाम के संगठन के साथ भी यही हुआ है। मैतेई समुदाय की स्त्रियों के अधिकारों के लिए कई लड़ाइयां लड़ने वाले इस समूह ने कभी मणिपुर में अफस्पा व सेना द्वारा बलात्कारों के खिलाफ लंबा संघर्ष किया था। लेकिन इसका अन्याय विरोधी नजरिया एक समुदाय तक सीमित था तो आज यही ‘मैरा पैबी’ समूह कुकी-जो स्त्रियों को अपने समुदाय के ‘मर्दों’ से बलात्कार करवाने के घिनौने काम तक में शामिल हो गए हैं। वे इन समुदायों की स्त्रियों को पकड़कर ‘अपने मर्दों’ को सौंपने और उन्हें बलात्कार के लिए ‘प्रेरित’ करने तक पतित हो गए हैं।

यही वह परिस्थिति है जिसमें एसटी आरक्षण श्रेणी में मैतेई को शामिल करने से गुस्सा इतना भड़क गया और बड़े पैमाने पर झड़पें, दूसरे समुदायों के बीच रह रहे मैतेई व जनजाति दोनों ही अल्पसंख्यकों के घर जलाए गए, हत्याएं हुईं और उन्हें जान बचाकर शरणार्थी बनना पड़ा है। अब दोनों समुदायों के एक राज्य में रहने को असंभव घोषित कर दिया गया है। 10 कुकी विधायकों ने भी बयान जारी किया है कि कुकी-चिन-मिजो-जोमी जनजातियों की मणिपुर में रहने की स्थिति समाप्त हो चुकी है और राज्य से विभाजन ही शांति का एकमात्र तरीका है।                

साफ है कि यह समस्या अनसुलझे ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों, पूंजीवाद में असमान विकास, जनवादीकरण की गैरमौजूदगी, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा के अभाव की है। भारत की विभिन्न पूंजीवादी सरकारों ने इसे समय पर हल करने के बजाय इसे नासूर बनने दिया ताकि वे जनता के बीच परस्पर वैमनस्य भड़काकर उनके जनवादी अधिकारों का दमन कर सके व पूंजीपति वर्ग इसका लाभ उठाता रहे। हिंदुत्ववादी फासिस्ट बीजेपी ने बहुसंख्यकवाद को और भी बढ़ावा देकर इसे विस्फोटक स्थिति में बदल दिया। नतीजा हालिया दुखद घटनाएं हैं। 

भारत के मात्र औपचारिक पूंजीवादी जनतंत्र में सारतत्व के तौर पर पहले ही जनवाद अत्यंत अल्प मात्रा में था। जनवादी आकांक्षाओं को पूरा करना तो दूर उसकी अभिव्यक्ति तक के लिए यहां बहुत कम मौके थे। इस पूंजीवाद के संकटग्रस्त होकर हुई सड़न के बाद आई फासीवादी पार्टी की सत्ता के दौर में तो ऐसी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति तक को देशद्रोह व आतंकवाद बताया जाने लगा है। उत्पादक शक्तियों का कुछ विस्तार जब तक जारी था, तब तक भी पूंजीवादी राज्य एक हद तक ही सही विभिन्न समुदायों के एक छोटे ऊपरी हिस्से की आकांक्षाओं को पूरा करता था। मगर अब इसके लगभग चिरस्थाई संकट के दौर में वह संभावना समाप्त हो चुकी है। अब यह घोर संकेंद्रण व एकाधिकार के दौर का पूंजीवाद है जो एक मोनोपॉली कॉर्पोरेट पूंजी के हितों के लिए माध्यमिक टटपुंजिया वर्गों तक का संपत्तिहरण करने में लगा है। ऐसे पूंजीवादी दौर में उत्पीड़ित जनता के किसी भी हिस्से की जनवादी आकांक्षाओं के पूरा होने की आशा पूर्ण भ्रम है। पूंजीवाद में अब अन्य ऐसी समस्याओं की तरह राष्ट्रीय उत्पीड़न के समाधान की गुंजाइश समाप्त हो चुकी है। आज सभी उत्पीड़ित समुदायों की जनता की जनवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समस्त मेहनतकश जनता व सभी प्रकार के उत्पीड़ित समुदायों की जनता की व्यापक एकता के जरिए साझा संघर्ष से पूंजीवाद का उन्मूलन जरूरी है। सामूहिक मालिकाने में सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नियोजित समाजवादी व्यवस्था में ही उत्पादक शक्तियों के चौतरफा विकास और उसमें सभी की न्यायसंगत भागीदारी ही इन समस्याओं के समाधान का एकमात्र तार्किक विकल्प है।