नूंह दंगे के बाद बदली फिजां का मर्म क्या है?

August 22, 2023 0 By Yatharth

संपादकीय, सर्वहारा, 28 अगस्त 2023

यह एक वस्तुगत सच्चाई है कि नूंह के बाद देश की फिजां सकारात्मक दिशा में बदलती नजर आ रही है। देश के आम लोगों का मिजाज भी कुछ दिनों से बदलता नजर आ रहा है। धीरे-धीरे ही सही लेकिन देश का मौसम और मौसम का रंग दोनों बदलने लगे हैं। मसलन, आम लोगों व बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने खुलकर मोदी सरकार के खिलाफ बोलना और लिखना शुरू कर दिया है। माहौल अभी भी खौफजदा है, लेकिन लोग खौफ के बीच बेखौफ होने लगे हैं। तो क्या जनता पर लादे गये युद्ध (फासीवाद जनता पर थोपा गया युद्ध ही तो है!) का माकूल जवाब देने के लिए जनता कमर कसने लगी है? क्या फिजां में हुए बदलाव का यही वास्तविक मर्म है? अभी ठोस रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है, लेकिन इस नजरिये से इस पर खुलकर बात की जानी चाहिए। नूंह दंगे के बाद आम लोगों की दंगा-विरोधी पहलकदमी खुल कर सामने आयी। नूंह दंगे खत्म हुए नहीं कि दर्जनों नहीं सैंकड़ों व हजारों की संख्या में जाट, गुर्जर, यादव तथा अन्य समुदायों के बुजुर्ग व नौजवान नेता व कार्यकर्ता इस दंगे को उकसाने वाले बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के विरोध में उतर गए और दंगाइयों को सीधी चुनौती देते हुए उनके कई वीडियो सोशल मीडिया पर तैरने लगे। खौफ और डर का माहौल एकाएक तिरोहित होता दिखा। मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी सहित पर्दे के पीछे से इस दंगे को प्रायोजित करने वाली तमाम शक्तियों को बेनकाब करने का सिलसिला चल पड़ा। उस खास पैटर्न, जो गुजरात में हुए 2002 के दंगों से निकला है, का भी जमकर पर्दाफाश किया गया।1 (देखें लेख के अंत में दिया नोट)

दोस्तो! इस बदलाव का क्या कारण है? एक तो यह कि इसके पीछे मोदी सरकार के असली चरित्र का पर्दाफाश करने में लगे कई तरह के लोगों का अथक परिश्रम और मेहनत है। लेकिन बड़ा कारण लगातार कठिन होते जा रहे जन-जीवन की ठोस परिस्थितियां हैं। ये वस्तुगत (आर्थिक व सामाजिक) परिस्थितियां, जो स्थाई रूप से संकटग्रस्त पूंजीवाद की वजह से, दिनोंदिन जनता की विशाल आबादी के लिए असह्य और पीड़ादायक होती जा रही हैं और आम लोगों का जीना दूभर बनाती जा रही हैं। दूसरी बात, जनतंत्र और मौजूदा संविधान को ही खत्म करने की तैयारी चल रही है जिससे जनमानस में बेचैनी और हलचल व्याप्त है। तीसरी बात, सरकार के विरोध में बोलने, लिखने, पढ़ने, भाषण देने तक की आजादी लगभग पूरी तरह खत्म हो चुकी है। जो लोग विरोध कर रहे हैं वे भारी खतरा उठा कर ऐसा कर रहे हैं। इससे भी आम लोग अब क्षुब्ध हो चले हैं। मानो, लोग पूछ रहे हों – आखिर मोदी सरकार आम जनता के साथ करना क्या चाहती है?

स्थिति स्पष्ट है, अगर प्रत्येक 10 आदमी में से 9 आदमी, जिसमें छात्र-युवा भी शामिल हैं, का भविष्य दांव पर है, तो आखिरकार मुस्लिम-विरोध के झुनझुने से उन्हें कब तक बहलाया जा सकता है! अन्य चीजों के अतिरिक्त असली कारण यही है। हिंदू समुदाय के मेहनतकश व गरीब लोग ही देश की बहुमत आबादी बनाते हैं और अगर भाजपा नीतियां घोर पूंजीपक्षीय हैं, जो कि हैं, तो इसका अर्थ तो यही हुआ कि जहां तक जीवन-जीविका का सवाल है मोदी सरकार मुख्य रूप से हिंदू विरोधी है। लोग इसे अब तेजी से समझने लगे हैं।

मेवात और उसके आसपास के समुदायों ने ही नहीं, उस पूरे इलाके के लोगों ने जिस तेजी से दंगे की आग को फैलने से रोका और जिस तरह से खुलकर हिंदु धर्म की ठेकेदारी करने वाले दंगेबाजों को आपसी भाईचारा खराब करने के उनके प्रयासों के खिलाफ सीधी चेतावनी दी, उस पर अलग से बात करने, उसकी गहराई से व्याख्या करने एवं इसका ठोस विश्लेषण करने तथा उसके खास महत्व को समझने व रेखांकित करने की जरूरत है।

जाहिर है, आने वाले दिनों में भारत की राजनीति (संसदीय और गैर-संसदीय दोनों) पर इसके गहरे प्रभाव देखने को मिलेंगे। जहां मोदी सरकार 2024 का आम चुनाव हार सकती है, वहीं फासीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई में भी इसकी किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति होगी। चुनी हुई राज्य सरकारों को गिराने का मोदी सरकार और भाजपा का रिकार्ड हम सभी जानते हैं। इसलिये हम मान कर चल सकते हैं कि केंद्र में अपनी चुनावी हार को वह आसानी से स्वीकार नहीं करेगी। सबसे पहली बात, वह पूरे देश को दंगों की आग में झोंकने की कोई न कोई योजना व रणनीतिबना ही इसलिए रही है कि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हो और वह आगामी आम चुनाव जीत ले। लेकिन अगर वह ऐसा नहीं कर पाती है, तो जनतंत्र के आवरण के भीतर जो फासीवादी टेक ओवर वह करा चुकी है उसे आगे जारी रखने के लिए उसे किसी न किसी तरह का अतिवादी कदम उठाना ही पड़ेगा। मोदी सरकार ने बड़े जतन से पिछले सालों में पूरी राज्य मशीनरी के एक बड़े भाग का फासिस्टीकरण किया है। जनतंत्र अब मात्र ऊपरी आवरण में ही मौजूद है। अंतर्य में देश में बड़ी पूंजी की खुली नंगी तानाशाही कायम हो चुकी है। ऐसे में चुनावी हार-जीत से क्या इसे पलटा जा सकेगा? ऐसा संभव नहीं दिखता है।

इसलिये, 2024 चुनाव में हुई हार-जीत का वास्तविक परिणाम क्या होगा, और मोदी सरकार को खास मकसद से सत्ता में बिठाने वाले देश व दुनिया के बड़े पूंजीपतियों का गिरोह उस स्थिति में क्या करेगा, उसका अभी से पूर्वानुमान लगाना बहुत मुश्किल है। मुख्य बात यह है कि जनता को इस ठोस हालात से परिचित कराया जाना चाहिए। देश की राजनीतिक फिजां में हुए बदलाव के मद्देनजर हम जो कार्यभार आज और अभी निकाल सकते हैं उसका यही वास्तविक मर्म है।


नोट –
1 नूंह के मुसलमानों को पहले खुलेआम सोशल मीडिया पर वीडियो डालकर उकसाया गया जिससे दंगे की परिस्थिति पैदा हुई। फिर प्रशासनिक ढिलाई व शिथिलता बरतते हुए दंगे को हो जाने दिया गया। उद्देश्य यह था कि कुछ निर्दोष हिंदु मारे जायें ताकि इसका व्यापक पैमाने पर बदला लेने के नाम पर पूरे देश में हिंदुओं को मुसलमानों पर हमला करने का आह्वान किया जाये। ठीक ऐसा ही करने की कोशिश की गई। हिंदू समुदाय के लोगों ने स्वयं आगे आकर इसका कड़ा विरोध किया और ऐसी किसी साजिश में शामिल होने से इनकार कर दिया गया। अन्यथा, हरियाणा ही नहीं पूरा देश दंगे की आग में झुलस रहा होता। इससे हिंदु वोटों के हुए ध्रुवीकरण से हर जगह कमल खिल उठता। इसके चंद दिनों पहले ही उत्तरप्रदेश की बरेली में भी ठीक ऐसा ही करने की कोशिश की गई जिसे वहां के मुस्तैद और कर्तव्यपरायण एसएसपी प्रभाकर चौधरी ने शुरू में ही असफल कर दिया। उन्होंने कांवरियों के भेष में कांवड़ यात्रा में घुसे बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के लोगों की मुस्लिम बहुल इलाके व गांव से होकर कांवड़ यात्रा निकालने की साजिश को जबरन विफल कर दिया था। इस साजिश के ऊपर के स्तर में रचे जाने का संकेत इस बात से मिलता है कि दंगे की संभावना को विफल करने के बाद एसएसपी प्रभाकर चौधरी का कुछ ही घंटों में बरेली से तबादला कर दिया जाता है। जरा कल्पना कीजिये कि अगर कांवड़ यात्रा वैसे ही निकलती जैसे कि बजरंग दल के लोग चाह रहे थे, तो क्या होता! मुसलमानों को उनके इलाके में उकसाया जाता और टकराव में कुछ निर्दोष कांवरिये, जिन्हें इस साजिश की भनक भी नहीं थी, मारे जाते। फिर इसका बदला लेने के नाम पर पूरे देश में दंगा कराया जाता।