संविधान बदलाव – अधमरे बुर्जुआ जनवाद को फासीवादी ताबूत में दफनाने की तैयारी
August 22, 2023संविधान कोई ‘पवित्र पुस्तक’ नहीं, किंतु सत्ता की असल शक्ति मेहनतकशों, शोषितों-उत्पीड़ितों को सौंपने वाला अग्रगामी बदलाव ही स्वीकार्य
सर्वहारा, 28 अगस्त 2023
14 अगस्त को ‘मिंट’ अखबार में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रधान विवेक देवरॉय का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने एक स्वाभिमान, आशा व आकांक्षा से भरपूर ‘विकसित’ राष्ट्र बनने के क्रम में औपनिवेशिक परंपरा को त्याग भविष्योन्मुखी होने पर बल दिया। उनके अनुसार अमित शाह द्वारा संसद में प्रस्तुत तीन विधेयक आपराधिक कानून प्रणाली के
क्षेत्र में बदलाव कर देंगे, लेकिन अन्य क्षेत्रों में काम बाकी है। औपनिवेशिक परंपरा त्याग भविष्योन्मुखी होने के मोहक शब्दों का अर्थ भी देवरॉय ने तुरंत स्पष्ट कर दिया कि भूली विरासत का पुनरुद्धार करना है, ‘सेंगोल’ जिसका रूपक है। साफ है कि देवरॉय के ‘भविषयोन्मुखी’ विचार की प्रेरणा शोषण मुक्ति, जनवाद, समता, स्वतंत्रता, आदि किसी आधुनिक विचार के बजाय हिंदुत्ववादी राजनीति के पुरातन गौरव व ब्राह्मणवादी विश्वगुरुत्व का प्रतिक्रियावादी ‘आदर्श’ है।
इस सरकार के दस्तूर के मुताबिक आर्थिक सलाहकार परिषद ने इसे देवरॉय का निजी विचार कहकर पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन यह भी तथ्य है कि देवरॉय ही नरेंद्र मोदी की आर्थिक टीम के वो अकेले सदस्य हैं जो 2014 से आज तक इसमें
बरकरार हैं, पहले तीन साल नीति आयोग में, उसके पश्चात आर्थिक सलाहकार परिषद में। और वे पहले भी मौजूदा शासक समूह के लिए कई ऐसे विचारों को गुब्बारे के तौर पर छोड़ चर्चा का विषय बनाने की भूमिका निभाते रहे हैं। 7 अगस्त को पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा राज्यसभा में मनोनीत सदस्य रंजन गोगोई ने राज्यसभा में पहली बार बोलते हुए संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को विवादास्पद बताया था। 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने संविधान के बुनियादी ढांचे में संशोधन के संसद के अधिकार को अमान्य ठहराया था। किंतु रंजन गोगोई ने यह बताने की कोशिश की कि संसद संविधान के किसी भी प्रावधान को बदल सकती है। उधर कई मुंहों से बोलने की फासिस्ट चाल के मुताबिक देवरॉय ने दूसरी लाइन लेते हुए कहा कि बुनियादी ढांचे का सिद्धांत सीमित संशोधन की गुंजाइश छोड़ता है अतः पूरे संविधान पर ही पुनर्विचार करना चाहिए। स्पष्ट है कि मौजूदा सत्ताधारी संविधान में बदलाव के प्रश्न को कुछ निहित उद्देश्यों से बहस का विषय
बना रहे हैं।
उनके लेख में देश को उच्च मध्यम आय वाला विकसित देश बनाने की बात 1935 के इंडिया एक्ट आधारित पुराने संविधान को बदलने की जरूरत से शुरू होती है मगर जल्द स्पष्ट हो जाता है कि मकसद अफसरशाही पर हर नियंत्रण समाप्त कर उसकी ‘कार्यकुशलता’ बढ़ाने, राष्ट्रीय-भाषाई आधार पर बने राज्यों को भौगोलिक क्षेत्र व आबादी की संख्या के किन्ही तकनीकी आधारों पर मनमर्जी से तोड़ने, राज्यों व स्वशासित क्षेत्रों में जनआकांक्षाओं की पूर्ति हेतु बने कुछ विशेष प्रावधानों को समाप्त करने (जैसे धारा 370 समाप्त की गई), अत्यंत न्यून अधिकारों वाले निर्वाचित ग्राम-नगर स्तरीय ढांचे को खत्म करने, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को समाप्त करने (अभी भी ये बाध्यकारी नहीं हैं, पर अब निजीकरण व ‘बाजार’ को बढ़ावा देने में सभी के लिए शिक्षा की व्यवस्था तथा वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार, आदि का जिक्र तक भी संभवतः दिक्कत तलब माना जा रहा है!), और अंत में सेकुलरिज्म, समाजवाद, जनतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, आदि शब्दों के जिक्र तक पर पुनर्विचार तक पहुंच जाता है।
संविधान बदलने के इस मुद्दे को गुब्बारे की तरह फुलाकर मौजूदा फासिस्ट सत्ताधारी क्या करना चाहते हैं उसे समझने के लिए हम इसके इंगित बतौर उनके कुछ पूर्व कार्यों और बयानों का जिक्र कर सकते हैं। 3 साल पहले नीति आयोग के मुखिया ने बयान दिया था कि भारत में जनतंत्र इतना अधिक है कि विकास तथा सुधार में बाधा है। तभी संकेत मिल गया था कि मौजूदा सत्ताधारियों द्वारा बुर्जुआ जनतंत्र की औपचारिक प्रक्रियाओं को अपने रास्ते में रोड़ा मान इसे हटाने की तैयारी जारी है, बस सही वक्त का इंतजार है।
2017 में हमने देखा कि संसद में टैक्स प्रस्तावों हेतु मनी बिल के प्रावधान के जरिये 40 कानूनों को बदल दिया गया था जिनमें चुनाव कानून, राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट चंदे के नियम, आधार न होने पर कई नागरिक अधिकारों में कटौती, औद्योगिक विवाद कानून, ट्रिब्यनलों/नियामक संस्थाओं का पूरा ढांचा, सिनेमा कानून तक सबको मनी बिल के नाम पर एक ही विधेयक के जरिए संशोधित कर दिया गया था। आयकर कानून में तो ऐसा बदलाव किया गया था कि बगैर वजह बताये किसी पर रेड डाली सकती है। मनी बिल का प्रावधान मूलतः इसलिए था कि टैक्स लगाने और टैक्स आय से खर्च की अनुमति का अधिकार सिर्फ प्रत्यक्ष निर्वाचित लोकसभा सदस्यों को ही हो। लेकिन इस सरकार ने राज्यसभा में अल्पमत होते हुए भी मनमर्जी से कानून बनाने हेतु लोकसभा अध्यक्ष से इन कानूनों में संशोधनों को मनी बिल घोषित करा लिया था। अहम बात यह कि जनतंत्र-संविधान की रक्षा का दम भरते विपक्ष ने बस बयान देकर विरोध की रस्म पूरी की और फाइनेंस बिल ध्वनि मत से पारित हो गया था।
कृषि कानूनों के मामले में भी इनको राज्यसभा में बिना वोट के ही पारित घोषित कर दिया गया था। बहुत वर्षों से संसद में सालाना बजट सहित अधिकांश कानून बिना किसी चर्चा मिनटों में पारित कर दिए जाते हैं। बहुत मामलों में तो शोर शराबे के दौरान ही कानून पारित होते रहते हैं। पिछले सत्र में शोर शराबे के बीच जन विश्वास कानून से 42 ऐसे अपराध समाप्त कर दिए गए जिनमें पूंजीपतियों को मुकदमा व सजा का प्रावधान था। मगर अब ऐसे मामलों में मुकदमे के बजाय अफसरशाही कुछ जुर्माना लगाकर रफा-दफा कर देगी। इसमें खराब दवाओं व चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति शामिल है जिनसे मरीजों की जान जा सकती है। हाल में बिना विशेष बहस के ही निजी डाटा संरक्षण कानून पारित कर निजी कॉर्पोरेट को मनमर्जी से व्यक्तिगत डाटा एकत्र व इस्तेमाल करने का असीमित अधिकार दिया गया है। दिल्ली सेवा अधिनियम के जरिए निर्वाचित सरकार के अधिकार गैर निर्वाचित एलजी व अफसरों को दिए गए हैं। संसद सत्र के अंतिम दिन आपराधिक न्याय प्रणाली को बदल कर पुलिस की शक्तियां बेहद बढ़ाने वाले कानून इस प्रकार पेश किए गए कि उन पर चर्चा का समय ही न हो।
वर्तमान फासिस्ट सत्ता पूरी संवैधानिक व्यवस्था को येन केन प्रकारेण अंदर से कमजोर कर अपना पूंजीपतिपरस्त और मेहनतकश, उत्पीड़ित-वंचित जनता पर शोषण का पहिया कस देने वाला एजेंडा लागू करती रही है और उसमें उसे संसदीय विपक्ष व पूरे संवैधानिक तंत्र का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सहयोग मिलता रहा है। उदाहरणार्थ चुनाव मौजूदा व्यवस्था के जनतंत्र होने का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है, मगर कश्मीर/लद्दाख में नौ साल से चुनाव ही नहीं हुए और तभी कराए जाएंगे जब बीजेपी अपनी जीत पक्की कर लेगी। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां चुनाव वर्षों से लंबित हैं, जैसे महाराष्ट्र में नगर प्रशासन के चुनाव।
किंतु अब फासिस्ट बीजेपी अपने एजेंडे को अगले चरण में ले जा संविधान/कानूनों से औपचारिक जनतांत्रिक प्रावधानों को समाप्त कर देना चाहती है जिन्हें अभी उसे सारतत्व में तो नहीं पर औपचारिक बाह्य तौर पर मानना पड़ता है, जिनके आधार पर उसकी आलोचना की जाती रही है कि संविधान-कानून में प्रावधान होने पर भी सरकार उन्हें लागू नहीं कर रही। औपचारिक श्रम अधिकारों वाले 40 से अधिक श्रम कानूनों को समाप्त कर 4 नये लेबर कोड इसका प्रमुख उदाहरण हैं। शासक पूंजीपति वर्ग की राह में बाधा औपचारिक कानूनी व्यवस्थाओं को समाप्त करना और जनता के कुछ हिस्सों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की औपचारिक व्यवस्था करना अब उसके एजेंडे पर है। सारतत्व में तो मौजूदा बुर्जुआ जनतंत्र को पहले ही अधमरा बनाया जा चुका है, मगर अब औपचारिक रूप में भी बचे-खुचे जनवाद को समाप्त कर एक फासिस्ट कानूनी तंत्र खड़ा करना उनका निहित एजेंडा है। चुनांचे संविधान बदलाव का मुद्दा उछाला गया है।
यहां सवाल स्वाभाविक है कि क्या हम संविधान को अपरिवर्तनीय ‘पवित्र पुस्तक’ समझते हैं जिसमें बदलाव नहीं किए जा सकते? निश्चय ही हम ऐसा नहीं मानते। हम संविधान के चरित्र पर यह समझ रखते आए हैं कि यह भारत के शासक पूंजीपतियों के वर्ग शासन का औजार है। एक बुर्जुआ जनतांत्रिक शासन का संविधान होने के नाते यह जनता को कुछ औपचारिक समानता, स्वतंत्रता व जनवाद के वैधानिक अधिकार देता है, पर उन अधिकारों को वास्तविकता में बदलने का काम यह नहीं कर सकता क्योंकि बुनियादी रूप से यह निजी संपत्ति मालिक पूंजीपतियों के शासन का संवैधानिक ढांचा है।
हम यह भी जानते हैं कि भारतीय पूंजीवाद और उसका जनवाद शुरू से ही बीमार व अधकचरा था, क्योंकि यह उभरते मजदूर वर्ग से भय के चलते औपनिवेशिक शासन और सामंती वर्ग से समझौता करते हुए विकसित हुआ था। अतः यह संविधान बुर्जुआ जनवाद के पैमाने पर भी अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है और विकसित पूंजीवादी देशों की तुलना में भी इसने
औपनिवेशिक व सामंती मूल्यों को बहुत हद तक कायम रखा है। हम यहां मात्र दो उदाहरण पेश करेंगे।
प्रथम, यूएपीए, एनएसए, आदि दमनकारी कानूनों का प्रावधान इस संविधान में ही है। धारा 22(1) व (2) में गिरफ्तारी के खिलाफ नागरिकों के अधिकार के साथ ही संविधान सभा ने 22(3) में सरकार से कहा कि वो एक निवारक कानून बनाये और उस कानून में गिरफ्तारी हो तो नागरिकों के अधिकार लागू नहीं होंगे। इसके बाद 22(5) व 22(6) में इस निवारक गिरफ्तारी पर भी कुछ सीमाएं लगाई गईं पर 22(7) में कह दिया गया कि संसद इन सीमाओं को समाप्त कर सकती है। अर्थात मौलिक अधिकार देते हुये उनके हनन का डिजाइन भी तैयार कर दिया गया। इसी प्रावधान के तहत 26 फरवरी 1950 को संसद
(संविधान सभा ने ही अपना नाम संसद रख लिया था) ने यह कानून पास भी कर दिया! संविधान सभा के सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी ने मूल अधिकारों पर बहस में कहा था कि ये पुलिस थानेदार के नजरिए से लिखे गए हैं।
दूसरे, संविधान में मौलिक अधिकारों वाले अध्याय का मूल मसौदा विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक सदस्य के एम मुंशी का बनाया था। 28 मार्च 1947 को उपसमिति में मीनू मसानी ने यह मौलिक अधिकार जोड़ने का संशोधन रखा कि ‘धर्म के आधार पर नागरिकों के विवाह में कोई भी बाधा नहीं होगी।’ महिला सदस्यों हंसा मेहता व राजकुमारी अमृत कौर ने डॉ अंबेडकर सहित इसका समर्थन किया। लेकिन मुंशी के साथ कृष्णास्वामी अय्यर व जे दौलतराम ने तो इसका विरोध किया ही, नामी समाजवादी जेबी कृपलानी व केटी शाह द्वारा विरोध से संशोधन नामंजूर हो गया। दो सदस्य सरदार हरनाम सिंह व मौलाना अबुल कलाम आजाद बैठक में गैरहाजिर रहे। 1872 के विशेष विवाह कानून में अलग धर्म मानने वालों के परस्पर विवाह पर
रोक थी, एवं धर्मांतरण जरूरी था। 1954 के संशोधित कानून में यह रोक हटाई गई किन्तु प्रक्रिया इतनी जटिल रखी गई कि व्यावहारिक तौर पर विवाह की स्वतंत्रता नहीं मिली। 80 के दशक में ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की ओर मुड़ने पर कई
राज्यों की कांग्रेसी सरकारों ने इसमें बाधा डालने वाले नियम बनाए। इसकी परिणति वर्तमान फासिस्ट ‘लव जिहाद’ कानून हैं जो अल्पसंख्यकों व स्त्रियों दोनों की परतंत्रता की जंजीर की एक और कड़ी हैं। पिछले तीस सालों में कोर्ट ने ऐसे कानूनों को असंवैधानिक नहीं पाया।
अतः मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था, संसद, सुप्रीम कोर्ट, आदि की रक्षा का नारा फासीवाद से लड़ने का आधार न बन पा रहा है, न बन सकता है, क्योंकि पूंजीपति वर्ग शासन के संचालन हेतु बनी व्यवस्था उसके आर्थिक संकट से घिर जाने पर सड़कर फासीवाद का औजार बननी निश्चित है। फासीवाद विरोध के लिए शोषणमुक्त व हर किस्म के भेदभाव से रहित, समानता आधारित समाज का नया खाका ही प्रस्तुत करना होगा।
हम संविधान की आलोचना करते हैं तो क्या संविधान का मौजूदा बदलाव हमारे लिए कोई मुद्दा ही नहीं? हम संविधान की आलोचना इस तर्क पर करते आए हैं कि यह पूंजीवादी व्यवस्था का संविधान है जो वास्तविक समानता और जनवाद पर स्थापित समाज नहीं बना सकता और इसमें दिये गए अधिकार बहुत हद तक कागजी हैं। लेकिन हम इस संविधान में प्रदत्त जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि समाजवादी समाज की स्थापना की लड़ाई तभी मुमकिन है जब संविधान में प्रदत्त वैधानिक जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष के जरिए मेहनतकश जनता की समझ यहां तक पहुंच जाये कि पूंजीवादी व्यवस्था में ये अधिकार प्राप्त होना नामुमकिन है। हम मौजूदा व्यवस्था में ऐसा बदलाव चाहते हैं जो निजी संपत्ति की व्यवस्था समाप्त कर समस्त मेहनतकश-उत्पीड़ित जनता को वास्तविक ठोस अधिकार ही नहीं, उन अधिकारों को लागू करने की शक्ति को
भी नौकरशाही के नियंत्रण से निकालकर जनता के हाथ में दे। किंतु फासिस्ट उभार एक नई स्थिति पैदा करता है – पूंजीपति वर्ग को संविधान के जनवादी अधिकार और कल्याणकारी राज्य का कागजी वादा भी असहनीय लगने लगा है। पूरी तरह लागू न किए जाने वाले वादों से भी इंकार कर अब वह निहायत प्रतिक्रियावादी सत्ता का ढांचा जबरिया लादना चाहता है। सभी धर्म,
जाति, लिंग, क्षेत्र और भाषा-भाषियों को संविधान ने समान नागरिक घोषित किया था, हालांकि वह कभी पूरी तरह क्रियान्वित नहीं किया गया। पर अब पूंजीपति वर्ग उस समानता की घोषणा को भी रद्द कर कुछ तबकों को दोयम दर्जे का नागरिक घोषित करना चाहता है (जैसे जर्मनी में यहूदियों, रोमा व स्लाव लोगों को अधिकारों से वंचित किया गया था)। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास,
रोजगार के कागजी वादों से भी वह मुंह फेर लेना चाहता है। उदाहरणार्थ हम मानते हैं कि मात्र आरक्षण से वंचित तबके की समस्याओं का अंतिम समाधान संभव नहीं। उसके लिए शिक्षा, रोजगार, आवास, मनोरंजन, आदि को बिना भेदभाव की गारंटी वाला मूल अधिकार बनाना और क्रियान्वित करना होगा। लेकिन आज आरक्षण का जितना अधिकार दिया गया है उसे भी शासक वर्ग द्वारा समाप्त करने का हम विरोध करते हैं। हमारा मकसद इन सीमित अधिकारों से पीछे नहीं, बल्कि आगे जाना, इनका विस्तार करना है। इस परिस्थिति में संविधान पर होने वाले फासिस्ट हमलों का विरोध न करना या उसे ध्यान देने
लायक मुद्दा न मानना पूरी तरह अतार्किक व अनैतिहासिक नजरिया होगा।
(कॉo मुकेश असीम द्वारा प्रेषित लेख)