यह हमारी विफलता है कि प्रेमचंद आज भी प्रसांगिक है
August 17, 2023कुमार ज्योतिष
साहित्य जगत में शायद ही कोई ऐसा पाठक हो जो प्रेमचंद को न जानता हो या यूं कहें की उनके रचनाओं से उनका परिचय न हुआ हो। प्रेमचंद अपने समय की आवाज थे, उनका समय ‘सत्य का समर’ था। वे फाइटर-राइटर थे। उनका साहित्य निर्भीक और साहसी लेखन का साहित्य है।
प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रसांगिक है, जितने वह अपने जमाने में थे बल्कि यूं कहे कि कुछ अर्थों में उनकी प्रासंगिकता ज्यादा हो गई है। उनके किसान, उनके दलित, उनके मेहनतकश लोग, आज कहीं अधिक उत्पीड़ित हो रहे हैं। राष्ट्र के इतिहास बोध को सांप्रदायिकता कि जन्मघुट्टी पिलाई जा रही है। घृणित राजनीति ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि पूरे राष्ट्र को समय से पीछे ले जाने की घृणित कोशिश हो रही है। ऐसे में प्रेमचंद हमारे कानों में बुद्बुदाते जाते हैं और कहते हैं कि ‘सबसे बड़ा सत्य मनुष्य का सत्य है’ इससे बड़ा राष्ट्र तो क्या, ईश्वर भी नहीं है। प्रेमचंद का जीवन और जमाना सन् 1880 से सन् 1936 का रहा है, तब भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद से संघर्ष कर रहा था और पूरा देश मे राष्ट्रीयता की लहर चल रही थी। प्रेमचंद पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के लेखक हैं, प्रेमचंद के पूर्व हिंदी कथा साहित्य, उपन्यास की कोई विशेष परंपरा नहीं थी; लेकिन यह जरूर था कि जड़तायें टूट रही थी और बड़ी संख्या में लोगों ने लिखना-पढ़ना शुरू किया था। हिंदी से उर्दू का लेखन तब नि:संदेह अधिक समृद्ध था। स्वयं प्रेमचंद उर्दू लेखन से ही हिंदी लेखन में आए थे अथवा दोनों जुबानों में लिख रहे थे। उनके कई उपन्यास, कहानियां पहले उर्दू और फिर हिंदी या पहले हिंदी और फिर उर्दू में आए थे। उनकी ख्याति दोनों जुबानों में फली-फूली और उनकी लोकप्रियता बनी रही। उन्होंने यथार्थवाद लेखन की शुरुआत की थी। उनके रचना संसार में कोरा यथार्थवाद नहीं है। प्रेमचंद में भाववादी रुझान बहुत है साथ ही आदर्श और नैतिकता जैसे सामंती औदात्य उनकी जमीन है। प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, यथार्थ से हीन नहीं है अपितु यथार्थ के संकुचित यथार्थ से मुक्त है। उनके पूर्व अधिकांश उपन्यास लेखन में पाठकों का मनोरंजन करना होता था, उसे झकझोरना या बदलना नहीं।
प्रेमचंद ने साहित्य के इस बुनियादी चरित्र को बदल दिया। उन्होंने किसानों, मजदूरों, अछूतों, स्त्रियों और समाज के दूसरे अपेक्षित और हाशिए पर पड़े लोगों को साहित्य के कोमल-कांत दायरे में ला खड़ा किया। इससे साहित्य जगत की रूपरेखा ही बदल कर रख दी। जिस तरह गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के मंच से एक नया राष्ट्र स्वरूप ले रहा था, ठीक उसी तरह साहित्य के बीच से भी एक नई दुनिया, नया राष्ट्र विकसित हो रहा था। हिंदी क्षेत्र में यह प्रेमचंद के नेतृत्व में हो रहा था, उस दौर में यह मुश्किल और चुनौती का कार्य था। सच तो यह है कि कोई भी जीवित समाज जीवित नायकों से ही चलता है, जबकि अतीतजीवी पूर्व स्थापितों की स्मृति पूजा में ही लगे रहते हैं। एक युग प्रवर्तक रचनाकार होना और एक कालजयी रचनाकार होना अलग-अलग कारणों और विशेषताओं के आधार पर भी हो सकता है। युग प्रवर्तक रचनाकार होने के ऐतिहासिक कारण और परिस्थितियां हो सकती है, जबकि कालजयी होना समाज के लिए किसी रचनाकार की उपयोगिता, संवेदनात्मक और कलात्मक प्रभाव पर भी निर्भर हो सकता है। प्रेमचंद की पीढ़ीगत महानता यदि आज भी भारतीय समाज के न बदले हुए यथार्थ में भी है; जो कि अब भी उनकी कहानियों को निरंतर प्रसांगिक बनाए हुए हैं। इसके अतिरिक्त प्रेमचंद का युग-प्रवर्तक होना भी उन्हें ऐतिहासिक कारणों से महत्वपूर्ण बनाता है।
प्रेमचंद सामंती चेतना के टूटते और पूंजीवादी चेतना की आहट के बीच के लेखक हैं। उनकी हृदय विदारक कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ (1932) जिसमे जोखू चमार को ज्वार का ताप अवश कर देता है। वही चमार टोली में जो कुआं है। उसमें कोई जानवर गिरकर मर गया है, उस कुएं का पानी पीना किसी तरह निरापद है। अब पीने योग्य पानी सिर्फ ठाकुर के कुआं से ही मिल सकता है, लेकिन चमार वहां नहीं जा सकते। वही जाति आधारित ‘सद्गति'(1930) कहानी में दुखी यों तो चमार जाति का है, पर अपनी बेटी के विवाह का शुभ मुहूर्त निकलवाने के लिए वह पंडित के पास पहुंच जाता है। भूखे पेट होने के बावजूद वह पंडित के आदेशानुसार श्रम करता है और अंततः लकड़ी चीरता हुआ मर जाता है। उसकी लाश के साथ पंडित परिवार का व्यवहार क्रूरता की चरम स्थिति वाला होता है। ‘सवा सेर गेहूं’ (1924) में पंडित सूदखोर है शंकर आजन्म उस पंडित का सूद नहीं चुका पाता है। ‘कफन’ (1936) के घीसू और माधव भी दलित है और व्यवस्था के दुष्चक्र ने उन्हें जिस मोड़ पर पहुंचा दिया है वह भी अमानवीय है। ‘गुल्ली डंडा’ (1916) का गया भी अपनी स्थिति से बाहर निकल नहीं पाता है। उसी तरह ‘पूस की रात’ (1930), ‘पंच परमेश्वर’ (1916), ‘नमक का दारोगा’ (1913), ‘बड़े भाई साहब’ (1934), ‘दूध का दाम’ (1934) कहानियां जो आज भी समाज में अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं।
कहानी ‘ठाकुर का कुआं’, ‘सद्गति’, ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ में प्रेमचंद अब तक अछूते विषयों को पाठकों के समक्ष रखते हैं। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1924) में वह इतिहास की नब्ज पर हाथ रखते हैं, और आखिर में आता है उनका चिरंजीवी उपन्यास; भारतीय किसान जीवन की महागाथा ‘गोदान’ (1936) भारतीय किसानों का वह खुला दस्तावेज जिसे बिना किसी लाग लपेट के रख दिया गया हो। उत्तर भारतीय किसान ‘होरी महतो’ अपने 40 साल से भी कम की जिंदगी में चुपचाप एक किसान से दिहाड़ी मजदूर में तब्दील हो जाता है। जिस अंग्रेजी राज्य का ढिंढोरा पूरी ताकत से अनेक विद्वान लोग पीट रहे थे, उनकी सच्चाई यही थी कि एक सीधा साधा किसान किस तरह असमय काल-कलवित्त हो जाता है।
हीरा, गोबर, धनिया, बुधिया, गंगिया, सिलिया जैसे पात्र साहित्य में नहीं थे। इन पात्रों का प्रवेश प्रेमचंद ने पहली दफा अपनी रचनाओं में किया। उनकी रचनाओं से उछलकर वह हमारे विमर्श के बीच आए और हमारी चेतना को प्रभावित किया। प्रेमचंद ने हमेशा अपने वर्तमान की बात की और बीते हुए जमानों के अर्नगल बातों को खारिज किया। प्रेमचंद आज भी यही शिक्षा देते हैं कि जो दलित हैं, पीड़ित है, कमजोर है, जो हाशिये पर है, मेहनतकश है; उनकी वकालत करना साहित्य का फर्ज है। उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली मसाल है। इस रूप में अपने उत्तरदायित्वबोध से वह सुपरिचित है और उन्होंने सदैव इसका निर्वहन भी किया।
प्रेमचंद के प्रति श्रद्धा निवेदन करने का मतलब अपने समय के प्रति खरे और सच्चे होने में है, इसलिए प्रेमचंद एक नई नैतिकता का सवाल उठाते हैं, – ‘कौन नीचे, कौन ऊंचे हैं। यदि मनुष्य कर्म से नीच होता है, कर्म से ऊंचा होता है, तो कर्मों के आधार पर नियम होना चाहिए, न की जन्म के आधार पर होना चाहिए।’
इसी निर्भीकता और बेबाकी के साथ के साथ प्रेमचंद हम सभी से एक प्रश्न करते हैं, – “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?”