राज्य-स्वीकृत सामूहिक दंड के रूप में विध्वंसक कार्रवाई

August 17, 2023 0 By Yatharth

गौतम भाटिया

(हालांकि इस लेख के अंत में न्यायपालिका से की गई उम्मीद भ्रामक है और वास्तविकता में भी गलत निकली है, पर बुर्जुआ जनतंत्र के औपचारिक न्याय के शासन के फासीवादी रूपांतरण के विवरण की दृष्टि से इस मूल अंग्रेजी लेख का अनुवाद प्रस्तुत है – संपादक मंडल)

‘बुलडोजर न्याय’ के लिए कानून के शासन को छोड़ना एक तानाशाही समाज की ओर पहला कदम है जहां किसी व्यक्ति की सुरक्षा, जीवन और स्वतंत्रता सुनिश्चित करना राज्य के अधिकारियों की इच्छा पर निर्भर करेगा।

हरियाणा के नूह में हाल में हुई हिंसा के बाद, अब एक जाना पहचाना पैटर्न देखा गया है: हिंसा के तुरंत बाद, राज्य द्वारा समर्थित स्थानीय प्रशासन ने उस इलाकों या पड़ोस में कई घरों को ध्वस्त कर दिया। कुछ राजनीतिक पदाधिकारियों ने दावा किया है कि ये वे घर और पड़ोस थे, जहां से आरोपी दंगाई संबंधित थे।

नूह में की गई तोडफोड़ “बुलडोजर न्याय” कही जाने वाली कार्रवाई की नवीनतम पुनरावृत्ति है। एक वर्ष से अधिक समय से, मध्य प्रदेश के खरगौन से लेकर गुजरात के खंभात तक, दिल्ली के जहांगीरपुरी से लेकर असम के नागांव तक, कई अन्य स्थानों पर, आक्रामक न्याय के बतौर (राजनीतिक हिंसा की प्रतिक्रिया के रूप में) घरों को ध्वस्त कर देना प्रशासन की एक मानक विशेषता बन गया है।

न्याय का आवरण भी नोंच फेंका गया है

इस तोडफोड़ को अंजाम देने में, राज्य और उसके अधिकारी दोहरी जुबान में बात करते हैं। सार्वजनिक और आधिकारिक औचित्य यह है कि विध्वंस “अवैध निर्माण” या “अतिक्रमणों” को हटाने के लिए किया जाता है। अनधिकृत संरचनाओं को हटाने का अधिकार देने वाले नगरपालिका कानूनों को ऐसी कार्रवाई के लिए कानूनी कवर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जब इसे अदालत में चुनौती दी जाती है तो राज्य इसी औचित्य का सहारा लेता है। हालांकि, इसके साथ ही साथ राजनेता, और कभी-कभी प्रशासन के अधिकारी भी, रिकॉर्ड पर कहते हैं कि विध्वंस का उद्देश्य कथित दंगाइयों को “सबक सिखाना” है।

सबसे पहले, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि राज्य का सार्वजनिक औचित्य अपनी शर्तों पर ही गलत उतरता है। लंबे अरसे से अदालतों ने माना है कि जिन्हें हम व्यंजना में “अनधिकृत निर्माण” कहते हैं, वे अक्सर आर्थिक रूप से हाशिए पर रहने वाले और कमजोर लोगों के निवास स्थान हैं, जिनके होने की वास्तविक वजह राज्य द्वारा अपने सभी नागरिकों को निवास प्रदान करने के अपने दायित्व में विफल रहना है। नतीजतन, पर्याप्त नोटिस जैसी बुनियादी प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को लागू करने के अलावा, अदालतों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि तोडफोड़ की कार्रवाई करने से पहले, प्रशासन को यह जांचने के लिए एक सर्वेक्षण करना चाहिए कि क्या निवासी पुनर्वास योजनाओं के लिए पात्र हैं, और यदि हां, तो विध्वंसक कार्रवाई के पहले उनका पुनर्वास सुनिश्चित करें (सार्थक प्रभावी प्रक्रिया के माध्यम से)।

साथ ही पुनर्वास का मतलब केवल शहर के एक हिस्से से लोगों को उठाकर दूसरे हिस्से में फेंक देना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि उनके (पहले से ही) अनिश्चित जीवन में कोई बड़ा व्यवधान न हो।

मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राज्य अपने ही नागरिकों को बिना किसी सहारे के बेघर न कर दे। ऐसा करना एक असभ्य समाज की विशिष्ट पहचान है।

यह स्पष्ट है कि जो फौरी विध्वंस हम देखते हैं, वे इन प्रक्रियात्मक या वास्तविक आवश्यकताओं का अनुपालन नहीं करते हैं। पिछले साल, यह पाया गया था कि तोडफोड़ के एक मामले में नोटिस वास्तव में प्रशासन द्वारा अनुपालन का दिखावा करने के लिए पिछली तारीख में दिया गया था। नूह में की गई विध्वंसक कार्रवाई में भी व्यापक आरोप लगे हैं कि नोटिस देना और विध्वंसक कार्रवाई एक ही दिन किए गए हैं। अतः साफ है कि इन विध्वंसों को वैधता का आवरण प्रदान करने की राज्य की कोशिशें हल्की सी जांच पडताल में ही फर्जी सिद्ध हो जाती हैं।

आक्रामक न्याय का एक रूप

लेकिन यह असलियत हर कोई जानता है कि जो हो रहा है वह कोई नगरपालिका कानूनों, क्षेत्रीय वर्गीकरण नियमों और “अनधिकृत” निर्माणों संबंधी विवाद नहीं है। यह स्पष्ट है कि जो कुछ हो रहा है वह राज्य-स्वीकृत सामूहिक दंड की कार्रवाई है, जो मुख्यतया कुछ विशिष्ट समुदायों के खिलाफ लक्षित है। कानून प्रवर्तन और न्यायपालिका द्वारा न्यायपूर्ण प्रक्रिया के बजाय – जो कि कानून के शासन से बंधे राज्य को करना चाहिए – राज्य आक्रामक न्याय करता दिखना पसंद करता है, हिंसा के माध्यम से आदेश लागू करता है, और खुद कानून तोड़ने वाला पक्ष बन जाता है।

यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि जैसा ऊपर बताया गया है, राजनेताओं, प्रशासकों और यहां तक कि कभी-कभी पुलिस ने भी कहा है कि इन विध्वंसक कार्रवाइयों का असली उद्देश्य कथित दंगाइयों के घरों को निशाना बनाना है। यह हिंसा की घटनाओं के तुरंत बाद होने वाली तोडफोड़ के समय से भी स्पष्ट है। फिर इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि हमारे शहरी नियोजन की वास्तविकता ऐसी है कि क्षेत्रीय वर्गीकरण नियम मृत अक्षर जैसे हैं। लोगों ने बार-बार यह तथ्य प्रदर्शित किया है कि दिल्ली के सबसे समृद्ध इलाकों का एक बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय वर्गीकरण के नियमों का उल्लंघन करके बनाया गया है। किंतु इन कॉलोनियों में से किसी को भी बुलडोजर का सामना नहीं करना पड़ता। उस विध्वंस का सामना तो कमजोर और हाशिये पर पड़े लोगों को ही करना पड़ता है। और यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि सांप्रदायिक हिंसा के बाद का सारा विध्वंस मुख्य रूप से मुस्लिम इलाकों में ही हुआ है।

माना जा सकता है कि ऐसा हमेशा ही नहीं रहा है। उत्तर प्रदेश में विभिन्न “गैंगस्टर्स” की संपत्तियों पर भी विध्वंसक कार्रवाई हुई है, और पिछले साल जहांगीरपुरी हिंसा में, एक हिंदू व्यक्ति की दुकान को बिना किसी स्पष्ट कारण के ध्वस्त कर दिया गया था। लेकिन यह बार-बार देखा गया है – और नूह इसका सबसे ताजा उदाहरण है – कि जब बुलडोजर चलते हैं, तो इसकी जगह मुख्य रूप से मुस्लिम इलाकों में ही होती है। इस पैटर्न को नजरअंदाज करना अब असंभव हो गया है। कुछ ही दिन पहले, नूह विध्वंस पर स्थगन आदेश जारी करते समय, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पाया कि जो कुछ चल रहा था वह जातीय सफाये (ethnic cleansing) का आभास दे रहा था। जातीय सफाई कोई ऐसा मुहावरा नहीं है जिसे कभी भी हल्के में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, और त्रासदी यह है कि इस मामले में, इसका उपयोग निस्संदेह ढंग से उचित था।

‘बुलडोजर न्याय’ उन लोगों के गुस्से को संतुष्ट कर सकता है जो दंगों के माहौल में फंसे हैं, और जो आपराधिक न्याय प्रणाली को वर्षों तक बिना परिणाम के घिसटते चलता देखने के आदी हैं। वास्तव में, चाहे वह गैर-न्यायिक हत्याएं हों या आबादी के निर्माणों का विध्वंस, वास्तव में इसी बात को औचित्य के तौर पर दोहराया जाता है कि अदालतें बहुत धीमी हैं, जमानत देने में बहुत रियायत दिखाती हैं, और बरी करने में बहुत उदार हैं। इसलिए, जनता के गुस्से को ठंडा करने के लिए, राज्य को कानून की सीमा के बाहर जाकर भी “न्याय” देने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेनी चाहिए।

स्पष्ट है कि यह एक खतरनाक और विनाशकारी तर्क है। ‘बुलडोजर न्याय’ इंसाफ नहीं, सामूहिक दंड का एक रूप है, जहां न केवल अपराध साबित होने से पहले सजा दी जाती है, बल्कि कथित दोषी व्यक्ति के साथ-साथ उनके परिवार के निर्दोष सदस्यों को भी दंडित किया जाता है। लोकलुभावन सामूहिक संतुष्टि का कोई भी तर्क इस तरह की कार्रवाई को उचित नहीं ठहरा सकता।

इसके अलावा, अपराध सिद्ध हुए बिना सजा – राज्य की मर्जी मुताबिक सजा – कानून के शासन का उल्लंघन है। कानून का शासन ही वह एक चीज है जो एक लुटेरे राज्य और व्यक्तियों की बुनियादी सुरक्षा के बीच खड़ी होती है। आक्रामक न्याय के लिए कानून के शासन को त्यागना एक तानाशाही समाज की ओर पहला कदम है जहां किसी की भी निजी सुरक्षा, भौतिक संपत्ति और यहां तक कि जीवन और स्वतंत्रता भी राज्य के अधिकारियों की इच्छा और सनक पर निर्भर होगी।

न्यायपालिका की चुप्पी

इस संदर्भ में, संविधान और कानून के शासन को लागू करना अदालतों पर निर्भर करता है। दुर्भाग्य से, एक वर्ष से अधिक समय से, अदालतें खामोश हैं। यहां तक कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस स्थिति में “अनधिकृत निर्माणों” से निपटने के राज्य के औचित्य को स्वीकार कर लिया है। ऐसा करने में, जॉर्ज ऑरवेल के शब्दों में, अदालतों ने “अपनी आंखों और कानों के साक्ष्य को अस्वीकार करने” का विकल्प चुना है। पंजाब और हरयाणा उच्च न्यायालय का आदेश पहली बार दर्शाता है कि न्यायपालिका ने अराजक बुलडोजर “न्याय” के इस पैटर्न पर सक्रिय रूप से ध्यान दिया है। उम्मीद है कि यह न्यायपालिका द्वारा राज्य की समस्त नियंत्रणों से मुक्ति के खिलाफ बुनियादी संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों को मजबूत करने की एक शुरूआत है।

(गौतम भाटिया एक लीगल स्कॉलर हैं। लेख साभार: द हिन्दू)