भगत सिंह के विचारों के आलोक में देश की वर्तमान स्थिति और छात्र-छात्राओं व युवक-युवतियों का दायित्व

October 5, 2023 0 By Yatharth

(प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक यूथ/स्टूडेंट फेडरेशन द्वारा 15 मार्च 2019 को जारी बुकलेट का एक अंश)

I. भूमिका

छात्र-नौजवान साथियो!

हम आज देश में फासिस्ट उभार के जिस दमघोंटू वातावरण में सांस ले रहे हैं वह एक महात्रासदी के संकेत से कम नहीं है। यह एक काली सदी की तरह है जिसका एक-एक पल एक संगीन घड़ी की तरह हम सब पर भारी पड़ रहा है। सच तो यह है कि जिस तरह से आज देशभक्ति के नाम पर राज्य-प्रायोजित हुल्लड़बाजी, सांप्रदायिकता से ओत-प्रोत देशप्रेम तथा एक खास विचारधारा (न्याय व प्रगति की विचारधारा) के विरुद्ध प्रचार चलाया जा रहा है, उसमें शहीद-ए-आजम भगत सिंह और उनके साथियों की देशभक्ति पर अभी तक कीचड़ नहीं उछाला गया है यह कम राहत की बात नहीं है। झुंड हिंसा के द्वारा जब एक खास समुदाय को ही नहीं जनवादी, प्रगतिशील व क्रांतिकारी विचारों पर खड़े संगठनों व समूहों को निशाना बनाया जा रहा है, तो यह भगत सिंह के विचारों को निशाना बनाने जैसा ही तो है। आज के वर्तमान दौर ने कई चीजों के मायने बदल दिये हैं। कुछ बानगी देखिये। इस दौर में ‘देश’ में देश के लोग शामिल नहीं हैं। ‘देशभक्ति’ में देश के लोगों के प्रति न तो कोई सम्मान का भाव है, न ही भक्ति की भावना। उल्टे, आज देशभक्ति का अर्थ सरकार के प्रति भक्ति हो गया है, जिसमें पूंजीपतियों, खासकर बड़े पूंजीपतियों के प्रति चाकरी का भाव कूट-कूट कर भरा है। राष्ट्र और देश बस एक चौहद्दी का नाम भर रह गये हैं। विकास का अर्थ बहुसंख्यक आबादी का विनाश है। नेताओं के वायदों का अर्थ जुमला हो गया है। चाहे पक्ष हो या विपक्ष इसमें कोई ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। सरकार ही नहीं पूरा ‘राज्य’ ही जुमलेबाज हो गया है। आम जनता के किसी भी तबके का हित जब वह नहीं कर सकता, तो यह स्वाभाविक ही है कि पूरी व्यवस्था के नंगा होने का समय आता है। अपने औचित्य को बनाये रखने के लिए पूंजीवादी राज्य के पास आज न्यायोचित जैसा कुछ भी करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है। चौकीदारी का अर्थ चोरी हो गया है। न्याय का अर्थ एकमात्र बड़े-बड़े पूंजीपतियों के लिए न्याय भर रह गया है, बाकियों के लिए यह अन्याय हो गया है। दसियों लाख आदिवासियों को उजाड़ने का अभी हाल का सुप्रीम कोर्ट का आदेश इसका एक ताजा उदाहरण है। न्यायालय अब सीमित व संकुचित अर्थ में भी न्याय के मंदिर नहीं रह गये हैं। वे ज्यादातर मामलों में एक खास एजेंडे को आगे बढ़ाने और पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने का चोर-दरवाजा बनते जा रहे हैं। सरकार जिस काम को जन-विक्षोभ के कारण वोटों पर पड़ने वाले असर की वजह से नहीं कर सकती है, उसे वह कोर्ट से करवा लेती है। छात्रों-नौजवानों ने जब भी मोर्चा खोला या मजदूरों-किसानों ने जब भी आर-पार के संघर्ष का बिगुल फूंका है, यानी, जब भी आम लोगों का गुस्सा इस नाकारा व्यवस्था के खिलाफ बेकाबू हुआ है, सरकार ने कानून व्यवस्था के नाम पर कोर्ट का सहारा लेकर ही घोर जनविरोधी कदम उठाये हैं। यह मात्र आज नहीं हो रहा है, लेकिन आज स्थिति निश्चय ही भयानक हो चुकी है। आज राजद्रोह का मुकदमा और यूएपीए जैसा कानून धड़ल्ले से छात्रों, प्रोफेसरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, नाटककारों, गायकों पर लगाया जा रहा है। सरकार के विरोध में मुंह खोलते ही बंदी बनाये जाने का खतरा रहता है। आज जो लोग बोल रहे हैं, वे यह खतरा उठाकर ही बोल रहे हैं।      

लेकिन बात इतनी ही नहीं है। काले कानूनों से हमला हो रहा है यह तो वर्तमान स्थिति का मात्र एक पहलू है। सबसे बढ़कर आज के दौर में किसी भी मसले पर संवेदनशील और तर्कसंगत सोच के लिए स्पेस सिकुड़ता जा रहा है। उसकी जगह उकसावेबाजी तथा उन्माद ने ले ली है। हवा में पूरी तरह घुल चुकी सांप्रदायिकता के जहर से नथूने ही नहीं पूरा शरीर विषाक्त हो चुका है। समाज में नफरत और घृणा के असंख्य विषबेल उग चुके हैं। धर्म, जाति व समुदाय के बीच नफरत भरा पार्थक्य (अलगाव) लगातार बढ़ता ही जा रहा है। एक कहावत है, आग को भड़काने के लिए घी डाला जाता है, लेकिन यहां तो घी के भंडार में ही आग लगा दी गई है। समाज झुलस रहा है। लोग दम साधे कुछ बेहतर होने की आस में बस जिये जा रहे हैं। सवाल है, कौन हैं ये लोग जो इसे अंजाम दे रहे हैं, और सरकार क्या कर रही है? दरअसल, वित्तीय पूंजीपति वर्ग के सबसे आतंकी तत्वों के नुमाइंदों के हाथों में सरकार की बागडोर आ गई है। ‘राज्य’ भी इनके नियंत्रण में चला जा रहा है। ये अंधकार, जुल्म और अन्याय के सिपाही हैं जो वित्तीय पूंजीपतियों के इशारों पर और उनके हितों के अनुसार पूरे समाज को, लोगों को, हमारी सभ्यता और संस्कृति को इतिहास के खंडहर में धकेलने पर आमादा हैं। यह वह दौर है जब आजादी से जीने, न्याय के लिए बोलने और शोषण व लूट के खिलाफ विरोध की आवाज उठा सकने की संभावना धीरे-धीरे खत्म की जा रही है। इसके लिए सारी हदें तोड़ी जा रही हैं। यहां तक कि शोषण से मुक्ति की विचारधारा के बारे में सोचने और भविष्य के सुंदर व शोषणमुक्त समाज के सपने देखने और उसके बारे में बात करने तक पर पाबंदी लगाने की साजिश हो रही है। खोजपूर्ण तर्क और अन्वेषण, आलोचना व स्वतंत्र विचार और जड़ व मृत बन चुके पुरातन को जीवन से परिपूर्ण नवीन द्वारा प्रतिस्थापित करने की ऐतिहासिक गति के विपरीत पश्चगामी-पुरातनपंथी व पोंगापंथी विचारों का ऐसा वृहताकार जाल फैलाया जा रहा है कि समाज अगर पूरजोर ताकत से इसे फाड़ने और नष्ट करने का प्रयास नहीं करेगा, तो हम सबका इस जाल में फंसना तय है। धर्म का राजनीति व ‘राज्य’ के कार्यो में बढ़ता दखल इसे और मजबूती दे रहा है। धर्म से राजनीति को ही नहीं ‘राज्य’ को आच्छादित करने का सुचिंतित प्रयास किया जा रहा है। इससे एक प्रतिक्रियावादी जनमानस और एक हिंसक भीड़तंत्र तैयार हो रही है जो समाज को पीछे ले जाने के लिए कृत संकल्प दिख रही है। समाज का जनतांत्रिक ताना-बाना टूट रहा है। ये लोग, जो इन काली करतूतों को अंजाम दे रहे हैं, अपने को देशभक्त कहते हैं, लेकिन असल में वे सरकारभक्त या फिर फासीवादभक्त हैं। ये लोगों को भी अपने सांचे में ढालने का प्रयास कर रहे हैं। पैसा और सत्ता की ताकत इनके मुख्य हथियार व साधन हैं जो इनके काम आते हैं। ये हिंदू धर्म और संस्कृति को न तो समझते हैं और न ही इनका इससे कुछ भी लेना-देना है, लेकिन इसके आवरण में वे अपना प्रतिक्रियावादी प्रचार चलाना अच्छी तरह जानते हैं। वे सबसे पहले अपने को हिंदू धर्म और संस्कृति का स्वयंभू ठेकेदार घोषित करते हैं और फिर हिंदुओं के सामने एक काल्पनिक दुश्मन पेश करते हैं ताकि वे हिंदुओं से ये कह सकें कि वे उनको दुश्मन से बचाना चाहते हैं। वे एक ऐसी मनोवैज्ञानिक परिस्थिति का निर्माण करते हैं जिसमें लोगों को लगता है कि रोजगार और आर्थिक व सामाजिक उन्नति, शिक्षा व स्वास्थ्य की बात करने से पहले इनके बताये काल्पनिक ‘दुश्मनों’ से निपटना जरूरी है। यह वह तरीका है जिससे वे बहुसंख्यक आबादी को फासीवादी विचारों का भक्त बनाते हैं। यह एक सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन के माध्यम से किया जा रहा है। अपने देश में हम इसकी कुछ बानगी देख सकते हैं, जैसे कि गोरक्षा आंदोलन, तथाकथित लव जिहाद के विरुद्ध आंदोलन, घर वापसी का आंदोलन, हिंदू आबादी के खत्म होते जाने के तथाकथित खतरे का हौवा खड़ा करने का आंदोलन और फिर इसी आधार पर हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा बच्चे (लड़के) पैदा करने का मनोवैज्ञानिक प्रचार आंदोलन, देशभक्ति के नाम पर सरकार के विरुद्ध कुछ भी नहीं बोलने का डर भरा माहौल पैदा करने का आंदोलन, मुस्लिमों को दबाकर रखने और उनका भयादोहन करने का आंदोलन, पूजा-पंडालों में आम लोगों की शक्ल में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर उसका इस्तेमाल करने का आंदोलन, बीफ का व्यापार करने वालों के समक्ष आत्मसमर्पण लेकिन बीफ खाने वालों के खिलाफ नफरत फैलाने और हिंसक भावनायें भड़का कर मार-काट मचाने का आंदोलन, बसों में, ट्रेनों में और पैदल चलते मुसलमानों के टिफिन बॉक्स को खोल कर बीफ है या नहीं यह जांचने और इस तरह उन्हें हर तरह से भयभीत करने का आंदोलन, प्रेम करने और अपने मन मुताबिक तरीके से शादी करने आदि को हिंदू-मुस्लिम और जाति आधारित भेदभाव व फ्रेमवर्क में परोस कर हो-हल्ला मचाने का आंदोलन, संविधान और जनतंत्र को मुस्लिमपक्षीय बता कर इसके विरुद्ध प्रचार करने और दूसरी तरफ एक सशक्त नेता के नेतृत्व में मुस्लिमों को सबक सिखाने की जरूरत और यहां तक कि उनका सफाया करने के बारे में अंदर ही अंदर प्रचार चलाने का आंदोलन, मुसलमानों को सबक सिखाने तक जनतंत्र और संविधान को मुल्तवी रखने का अंदरूनी प्रचार करने का आंदोलन, हिंदू राजाओं-महाराजाओं के पक्ष में इतिहास पुनर्लेखन का आंदोलन, बच्चों के टेक्सटबुक में राष्ट्रवादी सोच के अनुसार मनमाना फेर-बदल करने और झूठ व मनगढ़ंत बातों को इतिहास के तथ्य के रूप में परोसने का आंदोलन, घोर कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार चलाने का आंदोलन, मिथक को इतिहास के रूप में परोसने का आंदोलन आदि ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं। ये कई दशकों से चलाये जाते रहे हैं, हालांकि इसमें उन्हें सफलता जितनी आज मिली है वह पहले कभी नहीं मिली थी। इसका कारण ऐसी ताकतों का केंद्रीय सरकार में होना है। देशभक्ति दिखाने का जनविरोधी व स्त्री-विरोधी हुल्लड़बाज तरीका इसके पहले लोगों ने कभी नहीं देखा था। ‘भारत माता की जय’ बोलते हुए ये बड़े आराम से लड़कियों और औरतों को गालियां दे सकते हैं। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया था। इसी तरह सैनिकों के शहीद होने पर राष्ट्रप्रेम का दिखावा करते हुए ये बड़े आसानी से बाकी जीवित सैनिकों के हितों पर न सिर्फ चुप्पी साध सकते हैं, बल्कि जवानों के लिए सुविधाओं की मांग उठाने और इसके लिए सरकार से सवाल पूछने वालों को बिना झिझक गालियां दे सकते हैं। सैनिकों आदि के शहीद होने पर ये इतना हल्ला मचाते हैं लेकिन सैनिक नहीं मरें और सुरक्षित रहें तथा युद्ध के मोर्चे पर उन्हें बेकार में जान नहीं गंवाना पड़े, इसके लिए अनावश्यक जंग और नफरत की राजनीति रोकने की मांग करने वालों को ये बड़े आराम से जलील कर सकते हैं और मार सकते हैं। आज जब वे ऐसी मुहिमें चलाकर मजबूत हो चुके हैं तो बड़ी आसानी से सरकार की गैर-कानूनी कार्यवाहियों पर सवाल उठाने वालों को अपराधी ठहराने में कामयाब हो रहे हैं। वे बड़ी चालाकी से जनवादी-प्रगतिशील चेतना की जगह धर्म के नाम पर सांप्रदायिकतावादी संकुचित चेतना को बढ़ाने में लगे हैं। इससे जनवादी अधिकारों के प्रति एक स्वाभाविक उदासीनता (यहां तक कि नफरत भी) पैदा होती है जिसका फायदा उठाकर आज वे तमाम तरह के जनवादी अधिकारों व अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बोल रहे हैं। बड़ी गहराई व महीनी से यह सब किया जा रहा है, ताकि कल अगर वर्तमान संविधान और जनतंत्र को ये अलविदा कह कर हम पर खुली आतंकी तानाशाही थोपें तो एक पत्ता तक न हिले। अगर इक्का-दुक्का विरोध करने वाले हों भी तो इससे उन्हें कुचलने में सहूलियत होगी और देश में इसे सामान्य बात मानकर इसके विरुद्ध एक आवाज भी नहीं उठेगी। इसी से ताकत पाकर मौजूदा सरकार यह साफ संदेश दे रही है कि उन्मुक्त आवाज कंठ के नीचे ही दबा दी जाएगाी। मुख्य बात यह है कि अगर यही दौर जारी रहा तो भगत सिंह के विचारों को गैर-कानूनी घोषित किया जा सकता है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। हमें आज इस गंभीर खतरे पर ठीक से गौर फरमाना चाहिए, नहीं तो वक्त निकल जाएगा और हम कब इतिहास के एक भयंकर पश्चगमन का सामना कर रहे होंगे यह पता तक नहीं चल पायेगा।

जरा गौर करिये। अगर आज पतन व साजिश का आलम यह है कि ज्यादा किताबें पढ़ने वालों को ‘संदिग्ध’ की श्रेणी में रखा जा रहा है, तो ऐसे में अगर कल भगत सिंह सरीखे तेज-तर्रार पढ़े-लिखे क्रांतिकारी को निशाना बनाया जाता है तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है! आज सत्ता को जड़मूल से उखाड़ फेंकने में लगे क्रांतिकारी संगठनों के नेताओं व कार्यकर्ताओं को ही नहीं, अपितु आम गरीब जनता का पक्ष लेने तथा सरकार की मनमानी से बचाने में उन्हें कानूनी मदद देने वाले प्राध्यापकों, कानूनविदों और शीर्षस्थ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा पूरी जिंदगी जनता के उत्थान में खपा देने वाले नामचीन सामाजिक कार्यकर्ताओं तक को मनगढंत सबूतों के आधार पर जेलों में डाला जा रहा है, तो पूरी तरह बिगड़े हालात की गंभीरता का और क्या सबूत दिया जा सकता है। किसी भी सभ्य आधुनिक समाज में जनतांत्रिक ‘राज्य’ की आत्मा को झकझोरने व जगाने वाले लोग होते हैं जिन्हें ‘राज्य’ की स्वीकृति और समाज की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और इसी बल पर नाजुक मौकों पर, जब राज्य बेकाबू हो गैर-कानूनी मनमानी हरकत करने लग जाता है तो वे ‘जनता की आवाज’ बन कर ‘राज्य’ को कानून की सीमा में रहने, झुकने व पीछे हटने के लिए मजबूर करते हैं। दरअसल वे इस तरह जनता के विक्षोभ को विस्फोटक रूप लेने से रोक कर ‘राज्य’ की ही सेवा अलग तरीके से करते हैं। पूंजीवादी राज्य के धुर शोषणकारी तंत्र व चरित्र पर ये लोग मानवीय चेहरा का पर्दा लगाते हैं और सेफ्टी वॉल्व का काम करते हैं। सामान्य पूंजीवादी राज्य इसी तरह अपने ‘जनतांत्रिक’ आत्मा (अंतरात्मा) व आवरण को बनाये रखता है। लेकिन वर्तमान ‘राज्य’ को अब यह भी मंजूर नहीं है। ऐसा लगता है कि आज ‘राज्य’ की अंतरात्मा ही मर गई है। आखिर अंतरात्मा बची हो तभी तो अंतरात्मा को जगाने वालों की जरूरत ‘राज्य’ को होगी। यह प्रमाण है कि देश में जनतंत्र का सफाया होने वाला है और अंदर ही अंदर फासीवादी तानाशाही के स्थापित होने के साफ संकेत दिख रहे हैं। फासीवाद के एजेंडे को बढ़ाने में लगा ‘जनतांत्रिक राज्य’ ऐसा ही हो सकता है।

जब हालात इतने प्रतिक्रियावादी हो चले हैं, तो ऐसे में अंग्रेजों से मुक्ति के साथ-साथ मुट्ठी भर पूंजीपतियों के अन्यायपूर्ण एकाधिकार और श्रम की लूट पर टिकी भारतीय समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन लाने का सपना देखने वाले और मेहनतकशों के ‘राज्य’ के लिए समाजवादी क्रांति का मसविदा लिखने वाले आजादी के संघर्ष के सबसे दमदार व्यक्तित्व के स्वामी और क्रांतिकारियों में सबसे चमकदार सितारे भगत सिंह के संवदेनशील विचारों को वर्तमान ‘राज्य’ अपने लिए खतरा ही मानेगा, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। और यह स्वाभाविक भी है। आज जनतांत्रिक ‘उदारता’ की जगह घोर निरंकुशता और प्रतिक्रियावाद से ओत-प्रोत ‘राज्य’ का दौर चल रहा है, तो फासिस्ट एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले ‘राज्य’ की आंखों में भगत सिंह खटकेंगे ही। वर्तमान ‘राज्य’ का बस चले तो वह भगत सिंह के विचारों को पाताल में दफन कर दे, जहां से उसे कोई खोज या निकाल न पाये। मगर भगत सिंह पर लिखी किताबें और उन पर बनी फिल्म आज भी बेस्टसेलर साबित होती हैं। इसलिए ‘राज्य’ उन्हें इस तरह खत्म करने में लगी है कि उनके विचार नये भगत सिंह नहीं पैदा कर पायें। और इसका एक ही तरीका है, उनके विचारों पर बात न होने दी जाए और उन्हें गलत तरीके से पेश किया जाए।

चाहे जैसे भी हो आज ‘राज्य’ भगत सिंह को ‘खत्म करने’ की पूरजोर कोशिश कर रहा है। वर्तमान सरकार के चरित्र को देखते हुए यह कतई अस्वाभाविक नहीं है। जब धार्मिक अंधश्रद्धा से लड़ने वाले ‘नरेंद्र दाभोलकर’ तथा तेज-तर्रार चर्चित वामपंथी ‘गोविंद पानसारे’ को मारा जा सकता है, तो भगत सिंह को ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लिखने के लिए क्यों नहीं मारा जा सकता है? जब तर्क को आगे रखने वाले प्रसिद्ध कन्नड विद्वान ‘कलबुर्गी’ को खत्म किया जा सकता है, तो तर्क के आधार पर ही खुलेआम ईश्वर के न होने की घोषणा करने वाले भगत सिंह के प्रति इनका दिखावटी सम्मान आखिर कब तक टिका रहेगा! मौजूदा केंद्र सरकार के सांप्रदायिक एजेंडे की पोल खोलने वाली प्रखर पत्रकार गौरी लंकेश को गोलियों से भूना जा सकता है तो सांप्रदायिकता को देश के दुर्दिन का कारण बताने वाले भगत सिंह को वे खत्म करने की साजिश क्यों नहीं करेंगे। वे जिंदा नहीं हैं तो क्या हुआ, उनके विचारों को मानने वालों को तो मारा ही जा सकता है। यह क्या भगत सिंह का कत्ल नहीं है कि उनके विचारों और उनके बताये रास्ते पर चलने वालों को निशाना बनाया जा रहा है और उन्हें देशद्रोही कह कर प्रताड़ित तथा बदनाम किया जा रहा है? जब देश में खाने, पहनने और अपने तरीके से सोचने, विचारधारा का चुनाव करने और अपनी पसंद से प्रेम व शादी करने तक पर ‘राज्य’ कानून के दायरे से बाहर जाते हुए पाबंदी लगा रहा है, तो क्या भगत सिंह को याद करने, उनके व्यक्तित्व से प्रेम करने व प्रभावित होने और उनकी राह पर चलने की आजादी बची रहेगी, आज यह सोचने का गंभीर विषय बन चुका है।

भगत सिंह के विचारों को दबाने की कोशिश तो शुरू से ही हुई है, लेकिन आज जिस तरह से सरकार या व्यवस्था का विरोध करने के अधिकार को देशद्रोह बताकर कुचलने के लिए एक अति प्रतिक्रियावादी माहौल व जनमानस तैयार किया जा रहा है, ऐसा पहले कभी नहीं था। अगर कल फासिस्ट लंपट गिरोहों की हुल्लड़बाजी के निशाने पर भगत सिंह भी आ जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसकी शुरूआत हो भी चुकी है। जब लेनिन, अंबेदकर, पेरियार की मुर्तियां तोड़े जाने का दौर आया है और अगर यह दौर नहीं रुका या नहीं रोका गया, तो भगत सिंह की मुर्तियां तोड़ने का कुत्सित समय भी आयेगा। आज न कल हमें इसका सामना करना ही पड़ेगा।

आज मीडिया देशभक्ति के नाम पर फासिस्ट संगठनों की हिंसक व शर्मनाक हुल्लड़बाजी को बढ़ावा दे रही है। एक अति प्रतिक्रियावादी हिंसक भीड़ को जिस तरह से ‘राज्य’ व मीडिया का समर्थन प्राप्त हो रहा है और वह भीड़ गोरक्षा, देशभक्ति, राष्ट्रवाद और हिंदू-राष्ट्र के नाम पर किसी की भी जान ले सकती है और झुंड हिंसा से लेकर चुन-चुन कर विरोधियों का कत्ल किया जा रहा है, तो ऐसे माहौल में अगर भगत सिंह फिर से जिंदा हो जाएं तो अंग्रेजों से भी घिनौने तरीके से इन्हें फासी पर फिर से लटका दिया जाएगा यह निश्चित है। हम कहां से कहां पहुंच गये हैं यह देख सकते हैं। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और संपूर्णता में जीवन-जीविका की समस्या जिस तेजी से बढ़ी है और पूंजीवादी राज्य द्वारा इन समस्याओं के समाधान किये जाने की संभावना जिस तेजी से खत्म होती जा रही है, पूंजीवादी व्यवस्था जिस तेजी से स्थायी संकट के दलदल में फंसती जा रही है, पूंजी-निवेश के ठिकाने जिस तेजी से घट रहे हैं और आम जनमानस जिस तेजी से व्यथित और उद्वेलित हो सड़कों पर उतर कर अपने हकों के लिए आवाज लगाने लगा है, उसी तेजी से ‘राज्य’ का यह घोर जन विरोधी रूप भी प्रकट होता जा रहा है।

अभी भी समय है, इसे रोकने के लिए मजदूरों-मेहनतकशों के अलावा छात्र-छात्राओं व युवक-युवतियों को भी आगे आना होगा, नहीं तो हमारी सभ्यता और संस्कृति ही नहीं, हमारे नागरिक होने के अधिकार को भी खत्म किया जा सकता है। इसकी शुरूआत हो चुकी है हम जानते हैं। जब जन पक्षधर लेखकों व प्राध्यापकों को पुलिस उठा ले जा रही है, मीडिया उन्हें ‘अरबन नक्सल’ कह कर बदनाम कर रही है और दूसरी तरफ कुछ टी वी चैनेल इनके खिलाफ झुंड हिंसा करने के लिए दर्शकों को उकसा रहे हैं, और जब यह सब कुछ फासीवाद का जनाधार बढ़ाने के तयशुदा कार्यक्रम के रूप में सोची-समझी रणनीति के तहत ‘राज्य’ के द्वारा किया जा रहा हो, तो हम किस अंधकार के युग में जी रहे हैं इसे नहीं समझने की जानबूझ कर गलती व भूल करने वाले इन काली ताकतों के सहअपराधी ही माने जाएंगे। ‘देशभक्त’ और ‘देशद्रोही’ के दो शिविरों में समाज व देश को बांटने का जैसा कुत्सित प्रयास टी वी स्टूडियों के चीखते-चिल्लाते एंकरों द्वारा किया जा रहा है, वह स्टूडियों से लेकर सड़क तक एक हिंसक भीड़ तैयार करने की एक सुविचारित रणनीति ही है। और यह हिंसक भीड़ ‘राज्य’ के अंदर एक अनौपचारिक ‘राज्य’ के अलावा और क्या है, जो रोजगार मांगने वालों से लेकर जनता के पक्ष में बौद्धिक बहस करने वालों को एक ही साथ हिंसक व अहिंसक तथा कानूनी व गैर-कानूनी तरीके से ‘निपटाने’ का काम कर रहा है जिसकी बानगी हमें आये दिन देखने को मिल जाती है। यहां तक कि महिलाओं, लड़कियों, बुजुर्गों व बच्चों तक को बुरे से बुरे तरीके से निशाना बनाया जा रहा है। फासिस्ट लंपट भीड़ द्वारा लागू किया जा रहा और थोपा जा रहा यह अनौपचारिक ‘राज्य’ और इसके दमन का तरीका सामान्य पूंजीवादी राज्य के दमनतंत्र से कहीं ज्यादा भयानक है। यह सर्वग्रासी है और अगर समाज इसके पूर्ण नियंत्रण में चला गया तो फिर अब तक हासिल मानवजाति की तमाम ऐतिहासिक उलब्धियों पर निश्चय ही ग्रहण लग जाएगा।     

II. भगत सिंह के विचारों पर संक्षिप्त रोशनी      

भगत सिंह और उनके साथी सिर्फ आजादी के दिवाने लोग नहीं थे, अपितु नये शोषणविहीन समाज के गठन को लेकर इनके अपने ठोस व स्पष्ट विचार थे जिसको पूरा करने के लिए ही इन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग किया। वे आत्म बलिदान, व्यक्तिगत त्याग, साहस, अनुशासन, विलक्षण प्रतिभा और महान विचारों का अद्भूत संगम थे। आज जब कि पूरे देश में देशभक्ति, देशप्रेम, आजादी के मायनों आदि पर एक तीखा राजनीतिक व विचारधारात्मक संघर्ष चल रहा है और तरह-तरह के पैमाने व मानक बनाये जा रहे हैं, तो इनके विचारों को जानना-समझना और बार-बार उन पर चर्चा व विमर्श करना हमारे लिए जरूरी हो गया है। आज हम एक आजाद मुल्क के तौर पर कहां पहुंचे हैं और आज हमें किन कठिनाइयों से मूलतः पार पाना है, इस पर भी हमें भगत सिंह के विचारों के आलोक में गंभीरता से सोचना चाहिए। दुख की बात यह है कि देश में उत्पात मचाते अंधकार के सिपाहियों ने जो माहौल बनाया है, उससे हम छात्रें-नौजवानों के बीच एक तरह की संवेदनहीनता की स्थिति पैदा हुई है, विकल्पहीनता का भय और संशय प्रचारित हुआ और निराशा का वातावरण बना है, लेकिन हमें बिना हारे और डरे भगत सिंह के विचारों और उनकी तरह की संवेदनशीलता को पुनः बहाल करने के लिए निरंतर काम करते रहना होगा। इसके अतिरिक्त इन काली ताकतों से देश को बचाने का और कोई तरीका भी नहीं है। हमें जमीन पकड़ना और धरती से आ रही आवाज से आवाज मिलाना होगा। जनता के पास जाना होगा। उनकी ताकत को जगाना होगा। हमें फिर से सपने देखना सीखना होगा। साथ में, मेनस्ट्रीम मीडिया से उम्मीद छोड़ देनी होगी। वह टीआरपी के लिए उत्तेजना फैलाने तथा प्रतिक्रियावाद को हवा देने में लगी है। ये सभी कॉरपोरेट संचालित हैं और उनका लक्ष्य जनता और सही पक्ष की आवाज को बुलंद करना नहीं कॉरपोरेट हितों को आगे बढ़ाने के लिए समाज में उनके पक्ष में माहौल बनाना है। इनके तौर-तरीकों व कार्य-पद्धति से यह आज साफ हो गया है।  

भगत सिंह ने अंग्रेजों से मुक्ति के लिए क्रांति का रास्ता अपनाया था, न कि सुलह-समझौते का। जब भगत सिंह से पूछा गया कि क्रांति से उनका क्या मतलब है तो उन्होंने कहा था – ‘क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।’ यहां स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य केवल अंग्रेजों को भगाना नहीं, अपितु समाज में आमूल परिवर्तन लाना और सभी तरह के शोषण व गैर-बराबरी के खात्मे के आधार पर एक नये समाज का निर्माण करना था। फांसी से तीन दिनों पूर्व पंजाब गवर्नर को उन्होंने लिखा था – ‘युद्ध छिड़ा हुआ है और यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति, अंग्रेज शासक अथवा सर्वथा भारतीय ही क्यों न हों। यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता।’ साफ है भगत सिंह और उनके साथियों की देशभक्ति में पूंजीवाद, पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था तथा शासकों या सरकारों के प्रति भक्ति कहीं से भी शामिल नहीं थी। बल्कि उनकी देशभक्ति में पूंजीवादी शोषण के प्रति घृणा की भावना शामिल थी। उनकी देशभक्ति का अर्थ था शोषण पर टिके पूंजीवादी व्यवस्था व साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकना। भगत सिंह की देशभक्ति देश की सीमाओं के भी मोहताज नहीं थी। उनकी देशभक्ति अंतराष्ट्रीयतावाद से ओत-प्रोत व ‘वसुधेव कुटुम्बकम’ में निहित उदात्त प्रेरणाओं व भावनाओं से प्रेरित थी। कलकत्ते से प्रकाशित ‘मतवाला’ में उन्होंने 1924 में लिखा था – ‘वसुधेव कुटुम्बकम! इसका अर्थ मैं तो समस्त संसार में समानता (साम्यवाद या कम्युनिज्म) अर्थात सच्चे अर्थों में वैश्विक समानता के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझता।’ भगत सिंह मनुष्य के कुदरती अधिकारों, जैसे बोलने, अभिव्यक्ति व अन्याय का विरोध करने की आजादी के पक्के समर्थक थे। मनुष्य के कुदरती अधिकारों के लिए लड़ने को वे देशभक्ति का मानदंड मानते थे। उन्होंने कोर्ट में सुनवाई के दौरान कहा था – ‘जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छिनती है, उसके बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।’ इसका अर्थ है वे आजादी से बोलने, रहने, अपने मन मुताबिक भोजन चुनने, अन्याय का विरोध करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि जैसे महत्वपूर्ण जनवादी अधिकारों के मुखर पक्षधर थे। वे अभिव्यक्ति की आजादी को छीनने और सीमित करने वाले कानूनों के विरूद्ध थे। उनका कहना था – ‘ऐसे कानून को, जो युक्ति (दलील) पर आधारित नहीं है और न्याय के सिद्धांत के विरूद्ध हैं, समाप्त कर देना चाहिए।’ आज दक्षिणपंथी ताकतें, यहां तक कि फासिस्ट शक्तियां भी ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के दिखावटी नारे खूब लगाती हैं, लेकिन भगत सिंह के इंकलाब के नारे से इसे नहीं मिलाना चाहिए। उनके लिए इस नारे का अर्थ बिल्कुल अलग था। वे कहते हैं – ‘हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवाद और पूंजीवादी युद्धों की मुसीबत का अंत करना है।’

आज धर्म और राजनीति को मिला दिया गया है। राजनीतिक विमर्श के नाम पर इनका जहरीला कॉकटेल परोसा जा रहा है। इससे खतरनाक व विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई है। देशभक्ति को भी इसी तंग नजरिये से देखा जाने लगा है। भारतीय राष्ट्रवाद के साम्राज्यवाद-विरोधी और उस हद तक इसके प्रगतिशील व जनवादी चरित्र व स्वरूप को दूषित व विकृत किया जा रहा है। हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा धर्म और राजनीति के इसी मेल से बनी एक पश्चगामी अवधारणा है, क्योंकि यह जनतंत्र के खात्मे और नवीन पर पुरातन के विजय को सुनिश्चित करेगा। इससे देश में धार्मिक व जातीय युद्ध छिड़ने की आशंका बढ़ गई है। भगत सिंह इस तरह की राजनीति से बिल्कुल अलग, राज्य व राजनीति को धर्म से अलग करने की बात करते थे। वे कहते हैं – ‘भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है। लोगों को परस्पर एक दूसरे से लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकश व किसान को स्पष्ट बता देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं। अगर धर्म को (राजनीति से) अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं, धर्म में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।’ भगत सिंह ने सांप्रदायिकता और दंगे भड़काने वाले और देश में प्रतिक्रियावादी जहर उगलने वाले अखबारों व पत्रकारों की भी खूब मजम्मत की थी। भगत सिंह नौजवानों व विद्यार्थियों के राजनीति में भाग लेने के भी प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था – ‘हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगाना चहिए, लेकिन क्या देश का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं है? वे पढ़ें, जरूर पढ़ें। साथी ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करे और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें।’

हम देख सकते हैं कि अमर शहीद भगत सिंह कितनी गहराई में प्रगतिशील व जनवादी आदर्शों से प्रेरित और ओतप्रोत थे। उन्होंने रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति के नक्शे-कदम पर भारत में समाजवादी क्रांति का एक मसविदा भी तैयार किया था, लेकिन फांसी ने उन्हें इस कार्यक्रम को अमल में लाने का वक्त व मौका नहीं दिया। उनकी जेल-डायरी में उनके कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के प्रयासों की बात दर्ज है। लेकिन उनकी कल्पना में कोई आम कम्युनिस्ट पार्टी नहीं, अपितु एक लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक पार्टी जैसी) थी। वे लेनिन से प्यार करते थे और उनसे प्रभावित थे। उनमें एक महान लेनिनवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बनने के सारे गुण मौजूद थे। वे लेनिन के बताये सिद्धांत पर पार्टी निर्माण की बात सोंचते थे। लेनिन मृत्यु-वार्षिकी पर भगत सिंह द्वारा भेजा गया तार संदेश हो, 21 जनवरी 1931 के दिन उनके व उनके सभी साथियों द्वारा लाल रूमाल सर में बांध कर अदालत में पहुंचने की बात हो, अदालत में ‘लेनिन का नाम अमर रहे’, ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिंदाबाद’, साम्राज्यवाद का नाश हो’ आदि जैसे नारे खुले रूप से अदालत में लगाने की बात हो या फिर मजिस्ट्रेट के माध्यम से तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशल’ को उनके द्वारा भेजा गया बधाई तार संदेश हो, इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगत सिंह लेनिन-स्टालिन द्वारा बताये गये रास्ते पर चलते हुए भारतीय समाज को शोषणमुक्त बनाना चाहते थे जिसके पहले पायदान पर का कार्यभार अंग्रेजों से क्रांति के जरिए मुक्ति प्राप्त करना था। वे इसलिए भी क्रांति के जरिये आजादी के पक्षधर थे क्योंकि इससे एक ही झटके में समाज के तमाम पुराने सड़े-गले सामाजिक संबंध और कुरीतियों को खत्म किया जा सकता है। वे जानते थे कि क्रमिक सुधार का रास्ता नये समाज के जन्म की प्रसव-पीड़ा को लंबा कर आम जनता के लिए स्थिति को अत्यंत कठिन और असह्य बना देता है। वे कल्पनाशील क्रांतिकारी और विचारक थे, इस बात का अंदाजा भगत सिंह की वैचारिक अगुवाई में बने ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के घोषणापत्र में दर्ज इन पंक्तियों से लगता है। इसमें प्रस्फुटित हुए 22 वर्षीय भगत सिंह के विचारों की गहराई देखकर कोई भी आश्चर्य से भर जा सकता है। वे लिखते हैं – ‘क्रांति एक ऐसा करिश्मा है जिसे प्रकृति स्नेह करती है और जिसके बिना कोई प्रगति नहीं हो सकती, न प्रकृति में, न ही इंसानी कारोबार में। क्रांति निश्चय ही बिना सोची-समझी हत्याओं और आगजनी का दरिंदा मुहिम नहीं है और न ही यहां-वहां चंद बम पटकना और गोलियां चलाना है, और न ही यह सभ्यता के सारे निशान मिटाना तथा समयोचित न्याय और समता के सिद्धांत को खत्म करना है। क्रांति कोई मायूसी से पैदा हुआ दर्शन भी नहीं है और न ही सरफरोशों का कोई सिद्धांत है। क्रांति ईश्वर विरोधी हो सकती है, लेकिन मनुष्य विरोधी नहीं। यह एक पुख्ता और जिंदा ताकत है। यह नये और पुराने, जीवन और मौत, रोशनी और अंधेरे के आतंरिक द्वंद्व का प्रदर्शन है, कोई संयोग नहीं। क्रांति एक नियम है, क्रांति एक आदेश है और क्रांति एक सत्य है।’

‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में वे (भगत सिंह) पुराने जड़ विचारों के विरूद्ध आवाज उठाने, अंधश्रद्धा से लड़ने और धर्म के नाम पर जारी कुरीतियों को उखाड़ फेंकने को सही ठहराते हुए लिखते हैं – ‘आलोचना और स्वतंत्र विचार दोनों एक क्रांतिकारी के अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था, अंतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास की सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को चुनौती देगा, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जाएगा।’ वे रूढ़ीग्रस्तता की मानसिकता पर चोट करते हुए आगे लिखते हैं – ‘सिर्फ विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है।’ यही कारण है कि उन्होंने जाति-व्यवस्था के नाम पर भारतीय समाज में प्रचलित छुआछूत पर भी करारा चोट किया। उन्होंने 1928 में लिखा – ‘क्या खूब चाल है! सबको प्यार करने वाले भगवान की पूजा करने के लिए मंदिर बना है, लेकिन वहां ‘अछूत’ जा घुसे तो वह अपवित्र हो जाता है। भगवान रूष्ट हो जाता है। पशुओं की हम पूजा करते हैं और जाति के नाम पर इंसानों को पास तक नहीं बैठने देते। हम तो साफ कहते हैं कि उठो, संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि नहीं होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी।’

तो ऐसे अनूठे थे भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी सहयोद्धाओं के विचार! इन्हीं विचारों के आलोक में देश के वर्तमान हालात पर विमर्श करना जरूरी है। हमें न सिर्फ यथासंभव समग्र तौर पर भगत सिंह के विचारों को सामने लाना चाहिए, अपितु हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि एक ‘आजाद’ मुल्क के बतौर हम कहां पहुंचे हैं और हम भगत सिंह के विचारों का भारत बनाने में कितना सफल या असफल हुए हैं। इसलिए भगत सिंह द्वारा बताये गये राजनीतिक व वैचारिक दर्शन की आज की प्रासंगिकता पर विचार करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में रखते हुए आज की विकट परिस्थितियों में अपने लिए कोई रास्ता निकालने का प्रयत्न करना अत्यावश्यक हो गया है। हमें भगत सिंह की सलाह मानते हुए एक तरफ अपनी पढ़ाई भी पूरी करनी है, तो दूसरी तरफ देश व समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारी को भी निभानी है। छात्रें-युवाओं के बीच भगत सिंह की इस सोच का पनपना, फैलना और जड़ जमाना जरूरी है। अन्यथा, न तो ये समाज बचेगा और न ही हम और हमारा कैरियर।

III. देश की मौजूदा नाजुक परिस्थिति 

देश की आज की अत्यंत नाजुक परिस्थिति की बात करें तो हमें सबसे पहले हो रही झुंड हिंसा में विरोधियों, खासकर मुस्लिमों के हो रहे कत्ल की बात करनी चाहिए जिसे मोदी सरकार, प्रांतीय भाजपा सरकारों तथा समग्रता में ‘राज्य’ का खुला और गुप्त समर्थन प्राप्त हो रहा है। यानी, यह सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है। ‘राज्य’ का वर्तमान मुखिया इन जैसी तमाम संगीन घटनाओं पर मुंह पर पट्टी लगाये चुप्पी साधे रहता है, तो पुलिस तमाशबीन बनी हुई है या उत्पातियों का साथ दे रही है। इस बात का इससे बड़ा कोई और दूसरा सबूत नहीं हो सकता है कि समाज एक वृहताकार दुष्चक्र में फंस चुका है। मीडिया सरकार विरोधियो को ‘अरबन नक्सल’ कह कर ही नहीं, अन्य सभी तरीके अपनाकर, धार्मिक मुद्दे उछालकर, सैनिकों पर हुए आतंकी हमलों के वक्त उभरे जनाक्रोश को उग्र-राष्ट्रवाद की तरफ मोड़कर, सांप्रदायिक रंग देकर और हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व के फ्रेमवर्क में परोसकर आम लोगों को एक बेहद गंदी और खतरनाक मुहिम में शामिल करने व समेटने की कोशिश कर रही है, ताकि घृणा व नफरत की राजनीति और इस तरह फासीवाद के लिए जनाधार बढ़ सके तथा जनता के हक की लड़ाई को कमजोर किया जा सके। मीडिया और समाज को फासीवादी विचारों व आंदोलन की गिरफ्रत में ले लेने की कोशिश करने वाले संगठन आरएसएस, इसके तमाम अणुषंगी संगठन तथा विश्व हिंदू परिषद जैसे गिरोहबंद संगठन सभी एक दूसरे के पूरक बन गये हैं। मीडिया को नियंत्रित करके झूठ परोसना और समाज के विभिन्न तबकों को सत्य से दूर झूठ के संसार में ले आने और प्रतिक्रियावादी कल्पनाओं के सागर में गोते लगवाने का तरीका फासिस्टों का एक जाना-माना तरीका है। इटली व जर्मनी की फासिस्ट सरकारें इसका उदाहरण हैं। हिटलर के सबसे विश्वस्त और मासूम आम जर्मनों के बीच झूठ फैलाने के विभाग के मुखिया (हिटलर के प्रचार मंत्री) गोयबल्स को कौन नहीं जानता? लेकिन हमारे देश की मीडिया का बड़ा भाग आज गोयबल्स से भी काफी आगे निकल चुका है। हमारी मेनस्ट्रीम मीडिया आज फासिस्टों का ‘चीयर लीडर’ बन कर फासीवादी प्रचार आंदोलन का फ्रंटलाइन बन चुकी है। नागरिकों की अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला बोलना हो, जनपक्षीय नामी-गिरामी हस्तियों के विरुद्ध सफेद झूठ से भरा प्रोपेगंडा चलाना हो, दूसरी तरफ झूठ बोलकर अपने मनपंसद नेता के शौर्य का झूठा बखान करना हो या ‘जनतांत्रिक मूल्यों’ पर हमला बोलना हो, मीडिया सबसे कारगर हथियार साबित हो रही है। मीडिया ही लंपट भीड़तंत्र तैयार करने का आज सबसे बड़ा साधन बन चुका है। मीडिया, भीड़तंत्र और फासिस्टों का यह जमघट दुष्प्रचार करने तथा झूठ और घृणा का जहर फैलाने में इतना कारगर हो चुका है कि इसके समक्ष हिटलर और गोयबल्स भी बौना साबित हो रहे हैं। झूठ को सौ बार बोलने से झूठ को सच में बदलने का गोयबल्स का सिद्धांत आज इनके सामने कुछ मायने नहीं रखता। सोशल और मेनस्ट्रीम मीडिया दोनों का आज जितना दुरूपयोग किया जा रहा है उसकी इतिहास में कोई दूसरी मिसाल संभव नहीं है। झूठ को सच बनाना तो एक बात है, यहां तो तिल को ताड़ बनाने का काम यूं चुटकी बजाते किया जा रहा है। स्वयं देश का प्रधानमंत्री बिना किसी झिझक के सफेद झूठ बोलता है और कॉरपोरेट-पोषित मीडिया उसे जन-जन तक पहुंचाती है। इसकी इस क्षमता को देखकर आज आंखें फटी की फटी रह जाती हैं।

मोदी सरकार ने एक घोर प्रतिक्रियावादी जनमानस व जनाधार तैयार करने के लिए एक और तरीका निकाला है। वह अपने समर्थक गिरोहबंद संगठनों की लंपट कार्रवाइयों व करतूतों को जन-इच्छाओं का प्रदर्शन कहती है और उन्हें खुली छूट देती है। इसके जरिये वह जनता, खासकर बुद्धिजीवियों की मुक्त आवाज को दबाने में बहुत हद तक सफल भी हुई है। जो फिर भी नहीं दब रहे हैं उन्हें प्रताडि़त करने के और दूसरे रास्ते अपनाये जा रहे हैं। जनांदोलनों और जनपक्षीय लोगों की उन्मुक्त आवाज पर दमन का यह नायाब तरीका षडयंत्रकारी मानसिकता की उपज है जो फासिस्टों की एक मुख्य पहचान है। यह ‘राज्य’ के दायरे से परे दमनतंत्र का एक नमूना व उदाहरण है। पूरे मुल्क को ‘देशभक्तों’ और ‘देशद्रोहियों’ के दो शिविरों में विभक्त कर देना इसी का विस्तारित रूप है। इसका उद्देश्य भी एक घोर प्रतिक्रियावादी जनमानस को तैयार और सुदृढ़ करना ही है। इसी उद्देश्य के तहत मीडिया रूम से लेकर सड़क तक चीखते-चिल्लाते, गाली देते, मारते-पीटते, गालियां बकते, हथियार लहराते तथा तिरंगे को अपहृत करते लंपटों तथा हुल्लड़बाजों की एक भीड़ सुनियोजित तरीके से काम कर रही है जिसका सबसे पहला काम यह है कि सरकार के विरोधियों, कम्युनिस्टों व अल्पसंख्यकों, मजदूर संगठनों के नेताओं और मुस्लिमों को खास तौर पर देशद्रोही कह कर बदनाम किया जाए। ये इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु सहजता से विरोधियों के ऊपर राजद्रोह और खतरनाक यूएपीए की धारा लगा रहे हैं। कानूनों का उपयोग कानूनों के दायरे से बाहर जाकर करना और इससे एक अनौपचारिक दमनतंत्र की एक पूरी योजना को सामने लाना, फासिस्टों के खतरनाक मंसूबों का एक नायाब उदाहरण है। यह फासिस्ट तरीके के शासन की पहचान है। वे इस क्रम में पूरे मुल्क को देशद्रोही साबित करने पर तुले हैं, क्योंकि बहुसंख्यक आबादी इनसे इनके वायदे को लेकर सवाल पूछती है जिसके जवाब में वे उन्हें देशद्रोही करार देते हैं। आत्महत्या कर रहे किसानों तक को ये कम्युनिस्टों का एजेंट और देशद्रोही कह कर बदनाम करते हैं। मजदूरों को तो ये लद्दु जानवर ही समझते हैं। यहां तक कि सरकार के असली इरादों को समझ चुके सेना के जवानों तक को इनकी ट्रोल सेना निशाना बनाने से नहीं चुकती है। सरकार का बस चले तो वह दस में से नौ पर देशद्रोह (राजद्रोह) का मुकदमा ठोक दें। इस तरह वे खुद यह साबित कर दे रहे हैं कि जनता उनके विरुद्ध बगावत करने पर तुली है और इनकी वैधानिक हैसियत को चुनौती दे रही है। लेकिन ये तब भी जनता को ही गद्दार कहेंगे और सत्ता से चिपके रहेंगे। ये जनता से ही इस्तीफा मांगेंगे, क्योंकि इनके अनुसार जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है। गैर-बराबरी, बेरोजगारी, भुखमरी व कुपोषण से पीडि़त और अपने अधिकारों से वंचित होती जा रही आम जनता जब उनसे पांच सालों का हिसाब मांगती है तो स्वाभाविक है कि वे सबको काले सख्त कानूनों का डर तो दिखाते ही हैं, अपने लंपट गिरोहों के जरिए भी उन पर हमला करवाते हैं। टी वी स्टूडियो के चीखते-चिल्लाते एंकर उनकी आवाज को दबा देते हैं। हालांकि टी वी स्टूडियों में मजदूरों, किसानों व मेहनतकशों की आवाज अब पहुंचती ही कहां है! हजारों-लाखों लोग सड़कों पर आकर रोज अपनी जीवन-जीविका व अधिकारों के लिए जोरदार आवाज लगा रहे हैं, लेकिन टी वी स्टूडियों में उस पर बहस तो छोडि़ये उसकी एक झलक तक नहीं दिखाई जाती है। सैनिकों की वाजिब मांगों तक के लिए भी टी वी स्टूडियों में कोई जगह नहीं है। हालांकि, देश में फासिस्टों के पक्ष में जनमानस तैयार करना हो, तो इन्हीं सैनिकों के मारे जाने पर इनका चीखना-चिल्लाना देखने लायक होता है। मानों, सैनिकों का इन मीडिया वालों ने पेटेंट करा रखी हो। उग्र से उग्र माहौल बनाकर ये ‘देशभक्ति’ के नाम पर एक ऐसी चीज परोस रहे हैं जो कहीं से भी देशभक्ति नहीं है। यह देशभक्ति नहीं, इनके फासिस्ट मंसूबे हैं जिसे वे देशभक्ति के नाम पर प्रदर्शित कर रहे होते हैं। ऐसी देशभक्ति असल में राजकीय दमनतंत्र, चारण मीडिया और जनता की आवाज दबाने वाले राज्य-पोषित भीड़तंत्र का एक संयुक्त घिनौना चेहरा है, देशभक्ति का फासिस्ट सरकार-प्रायोजित लंपट चेहरा है जो राज्यतंत्र तथा फासिस्ट गिरोहबंदियों, जिसमें आज मीडिया का एक हिस्सा शामिल है, का एक दूसरे में हो चुके विस्तार को दर्शाता है। औपचारिक तौर पर कहें, तो हम कह सकते हैं कि राज्य के अंदर एक अनौपचारिक राज्य के उदय से जुड़े खतरे की ओर यह ठोस इशारा करता है। यह इस बात का भी परिचायक है कि भारतीय राज्य के फासीवादी अधीनीकरण (जांम वअमत) का खतरा हमारा दरवाजा खटखटा रहा है।

जो लोग आज भी यह कहते हैं कि पूंजीवाद में क्या दमन नहीं होता है और ऐसा कहते हुए फासीवाद के मौजूदा खतरे से आंख मूंद लेना चाहते हैं उनसे आग्रह है कि उपरोक्त बातों पर उचित तौर पर ध्यान दें। आज राज्य अपने चरित्र को सख्त से सख्त और काले से काले कानूनों के दायरों को लांघते हुए, राजकीय दमनतंत्र की परिधि से बाहर जाते हुए जनतंत्र-विरोधी बनाते जा रहा है। यह इतना विस्तारित रूप ले चुका है कि वर्तमान राज्य के अंदर ही एक अनौपचारिक राज्य के उभरने के संकेत चारो ओर बिखरे पड़े हैं। हमें यह बार-बार दुहराने की आवश्यकता महसूस हो रही है, क्योंकि इस बात को समझे बिना हम देश की नाजुक स्थिति को समझ नहीं सकेंगे। सवाल यह नहीं है कि हमारी अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला हो रहा है, अपितु असल बात यह है कि सामान्य पूंजीवादी राज्य के दमनकारी तंत्र के अंदर एक अनौपचारिक दमन तंत्र खड़ा करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर वार के ऊपर वार किया जा रहा है और जनतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया का बड़ा हिस्सा महज सरकारपक्षीय ही नही, फासिस्ट मूल्यों व विचारधारा को जनता तक प्रसारित करने में लगा है।

हाल में हुए पुलवामा हमले में मीडिया की भूमिका को लें। अर्धसैनिक बल मारे नहीं गए कि ये धुर सांप्रदायिकता से ओत-प्रोत उग्र-राष्ट्रवाद की बोली बोलने लगे! मारे गये सैनिकों की चितायें अभी जली भी नहीं थीं कि बदला लेने के नाम पर अंधराष्ट्रवाद का जहर उगलते ये पुनः देश को ‘देशद्रोही व देशभक्त’ में बांटने के अपने पुराने एजेंडे को लागू करने के लिए पहले से ज्यादा उतावला हो गये! ऐसा लगता है जैसे इन्हें कहीं से निर्देशन मिला हो या फिर मीडिया के ये हुल्लड़बाज एंकर स्वयं खुद राज्य का निर्देशन करने लगे हैं। यह फासीवादी एजेंडा लागू करने की सुचिंतित नीति का परिचायक नहीं तो और क्या है? वे इस आतंकी वारदात के होने में सरकारी तंत्र की हुई चूक पर सरकार पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहते हैं। लेकिन इस वारदात के बहाने उन्मादी, साम्प्रदायिक भीड़ को नये सिरे से संगठित करने व उसकी नयी खेप पैदा करने मे जुटे हैं। साफ दिखता है कि इनका मकसद जवानों की सुरक्षा पर गंभीर बात करना नहीं, अपितु जवानों की लाश पर विभाजनकारी राजनीति करना और देश को ‘देशद्रोही और देशभक्त’ के दो शिविरों में बांटना और फासिस्टों के मंसूबों को जड़ जमाने में मदद पहुंचाना है। ये पतित मीडिया वाले जनविरोधी तो हैं ही, जवान-विरोधी भी हैं, क्योंकि वे कभी यह नहीं पूछते कि हमले की संभावना वाले खुफिया इनपुट आने के बावजूद सी-आर-पी-एफ- के जवानों को वायु सेना के जहाजों से एयर लिफ्रट करने की इजाजत गृह मंत्रयल ने क्यों नहीं दी। उनकी यह मांग गृह मंत्रलय के फाइलों में धूल फांकती रही, लेकिन भाड़ मीडिया इस पर सरकार से कोई सवाल नहीं पूछती। देशभक्ति के नाम पर उत्पात मचाते फासीवादी गिरोहबंद ‘भक्तों’ को जवानों के मारे जाने से अगर सच में इतना दुख है तो सड़कों पर सांप्रदायिक हिंसा को उकसाने के बदले अर्धसैनिक बलों को पेंशन सहित शहीद का दर्जा देने व अन्य सारी सुविधायें देने की तुरंत घोषणा करने के लिए सरकार पर दवाब क्यों नहीं बनाते? वे सरकार से इस बारे में सवाल क्यों नहीं पूछते? प्रधानमंत्री घटना के पहले ही दिन से शूटिंग व रैलियों में व्यस्त हैं, और हर जगह खिलखिलाते दिख रहे हैं जबकि पूरा देश दुख में डूबा हुआ था। लेकिन मीडिया इस पर भी सवाल नहीं पूछता और टी वी स्टूडियो से वही बातें फैलायी जा रही हैं जिससे फासिस्टों का एजेंडा आगे बढ़े। इतने सालों से कश्मीर में हमारे सैनिक जमे हैं, लेकिन समस्या खत्म नहीं हो रही है। समस्या को खत्म करने और उसके समाधान की जिम्मेवारी सरकारों की है। लेकिन सरकार पर कहीं कोई सवाल नहीं पूछा जाता। सेना के जवानों को आतंकी खतरे में झोंकने के अलावा अन्य विकल्पों के बारे में तो सोचना ही संभव नहीं है, क्योंकि तुरंत ही ऐसा कहने वालों को गद्दार कहना शुरू कर दिया जाएगा, जबकि सैनिकों की सुरक्षा इसमें है कि कश्मीर समस्या का जल्द से जल्द समाधान ढूंढा जाए। अगर यह नहीं होगा तो सैनिक मारे जाएंगे और उन्हें सच में प्यार करने वाले रोते रहेंगे और इस पर राजनीति करने वाले राजनीति करते रहेंगे। हम देख भी यही रहे हैं। जंग व नफरत की राजनीति को हवा देना सिर्फ आम लोगों के लिए ही नहीं, जवानों और उनके परिवार वालों के लिए भी ठीक नहीं है। जिनके लोग सीमाओं पर तैनात हैं उनसे कोई पूछता तक नहीं कि वे जंग चाहते भी हैं या नहीं। जवानों से भी कोई नहीं पूछता कि वे सच में क्या युद्ध चाहते हैं। प्रधानमंत्री और हमारी मौजूदा सरकार जंग और जंग के माहौल को प्रोत्साहित करने वाली उग्र बातें बोलती है। सत्ताधारी पार्टी युद्धोन्मादी राजनीति को हवा देने वाली बात करती रहती है। वह इसी की राजनीति करती है। क्या यह सही है और इसका समर्थन किया जाना चाहिए? अगर हां, समर्थन किया जाना चाहिए, तो फिर सैनिक, जो गरीब मजदूर-किसान के बेटे हैं, आतंकवादियों का चारा बनने के लिए यूं मजबूर होंगे ही होंगे। आतंकवादियों या आतंक को एक ही झटके में खत्म करने का सपना देखना अलग बात है, लेकिन असल बात यह है कि आज के आणविक युग में यह रास्ता आणविक महाविनाश के खतरों से भरा है और इस पर पूरे देश में गंभीरता से चर्चा करने की जरूरत है कि आतंक को खत्म करने का क्या रास्ता है। इसके लिए पहले जंगजू की भाषा पर रोक लगनी चाहिए। वित्तीय पूंजी की मुनाफाखोरी की राजनीति के चक्रब्यूह से इसे निकाला जाना चाहिए, क्योंकि वित्तीय पूंजी की जो शक्तियां तावेदार हैं वे युद्ध चाहेंगी ही चाहेंगी, भले ही युद्ध की असल में जरूरत न हो, क्योंकि प्रभावी मांग और निवेश का अविश्वसनीय संकट झेल रहे वित्तीय पूंजी के लिए आज युद्ध ही अपार मुनाफा कमाने का एकमात्र सुगम रास्ता बचा रह गया है। इसीलिए वित्तीय पूंजी और इसके भाड़े के तावेदार आज हर कहीं खासकर टी वी स्टूडियो में बैठकर युद्धोन्माद भड़काते रहते हैं। हम पाते हैं कि कई रिटायर्ड सैन्य अफसर देशी-विदेशी हथियार निर्माता कंपनियों के पे-रोल पर रहते हैं और बाजाप्ता टी वी स्टूडियों में बैठ कर दांत पीस-पीस कर देश में युद्ध का माहौल बनाने के लिए उनको उन कंपनियों के द्वारा भारी वेतन दिया जाता है। यही कारण है कि आम लोग भी युद्ध-युद्ध चिल्लाने लगते हैं। लेकिन सच्चाई क्या है? सच्चाई यह है कि मोदी के पूंजीपति मित्रें (अदानी, अंबानी आदि) सहित देश के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के बेटे के गहरे व्यापारिक हित पाकिस्तान से जुड़े हैं। अधिकांश पूंजीवादी नेताओं व पूंजीपतियों के पाकिस्तान से मुनाफा कमाने के स्रोत जुड़े हैं। इसलिए सरकार युद्ध करेगी यह तो असंभव ही दिख रहा है। हां, क्योंकि इनकी राजनीति युद्धोन्माद पर आधारित है, इसलिए युद्ध जैसा कुछ होते रहे इनकी कार्यनीति का हिस्सा है। यही नहीं, अपने नेता नरेंद्र मोदी के शौर्य को सबसे ऊपर रखते हुए महान बताना और बढ़ा-चढ़ा कर उनका बखान करना इनकी राजनीति का केंद्र बिंदु है। लिहाजा, तिल का ताड़ बनाने की रणनीति पर चलते हुए ये यह दिखाने का प्रयास करेंगे ही करेंगे कि इन्होंने पाकिस्तान को ही नहीं, सारी दुनिया को अपनी ताकत का अहसास करा दिया है आदि। यह अलग बात है कि कहीं इनके द्वारा ‘भड़कायी गई’ आम जनता को संतुष्ट करने के लिए छोटे-मोटे दिखावटी युद्ध से ही कोई बड़ा युद्ध न भड़क जाए! हालांकि, यह अपवाद ही होगा। फिलहाल तो युद्ध की गर्जना का उपयोग बस देश में उग्र सांप्रदायिकता व अंधराष्ट्रवाद का माहौल बनाने के लिए ही किया जाएगा। सरकार की मुख्य मंशा फिलहाल जनता का वोट बटोरना है और फासीवाद के जनाधार को और पुख्ता करना है। दबी जुवान से कश्मीर में ‘जाति सफाया’ की मांग भी अंदर ही अंदर इसीलिए उठाई जा रही है ताकि वे गर्व से यह कह सकें कि कश्मीरियों का दिल तो नहीं जीत पाये, लेकिन कश्मीरियों को तो खत्म कर दिया। लेकिन यह फिलहाल प्रचार भर है ताकि घृणा के सभी संभव स्रोतों का उपयोग करते हुए 2019 का चुनाव जीता जा सके।  

चाहे जो हो, फिलहाल इतना स्पष्ट है कि देश का माहौल बिगाड़ने के लिए इसका पुरजोर उपयोग किया जाएगा और किया जा रहा है। इसी पर चलकर 2019 की चुनावी वैतरणी भी पार करना है। इसीलिए भी मीडिया हर ऐसे मौके पर ‘अफजल प्रेमी गैंग’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और इसी तरह के अन्य बेकार के तथा कालातीत परंतु भड़काउ मुद्दे उछालती रहती है। आखिर तभी तो चिताओं के जलते-जलते इसका भरपूर इस्तेमाल साम्प्रदायिक नफरत फैलाने में किया जा सकेगा, ताकि चितायें ढंडी होने के बाद भी फासिस्टों के हिन्दू-राष्ट्र का एजेंडा फलता-फूलता रहे। ‘इसका बदला लेना है तो वोट मोदी को देना है’ का नारा आज यूं ही नहीं टी वी स्टूडियो से लेकर सड़क तक गुंजायमान हो रहा है। 

IV. धर्म और राजनीति का कॉकटेल

धर्मनिरपेक्षता को तार-तार करते हुए आज धर्म का राजनीति में व्यापक इस्तेमाल हो रहा है। यह भी उसी उपरोक्त एजेंडे के तहत किया जा रहा है, ताकि धर्म के नाम पर हिंदुत्व आधारित गैर-जनतांत्रिक ‘राज्य’ का एजेंडा यानी तथाकथित हिंदू-राष्ट्र आधारित फासीवादी एजेंडा आगे बढ़ सके, एक ऐसा माहौल बने जिससे धार्मिक भावनाओं के आदर के नाम पर जनता के जीवन में ज्यादा से ज्यादा सांप्रदायिक हस्तक्षेप किया जा सके। फासीवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने का यह पुख्ता इंतजाम है जिसे केंद्र और राज्य में बैठी भाजपा सरकारों द्वारा किया जा रहा है। इस हथकंडे से न्यायालय भी दवाब में आ जाएगा। धर्म भीरू जनता को बहला कर सांप्रदायिकता के एजेंडे पर ले आना आसान हो जाता है ताकि दंगा कराने के लिए जनता की मौन सहमति ले ली जाए। हालांकि व्यापक जनता इनके षडयंत्र को समझती है। लेकिन फिर भी इससे लंपट तत्वों को इकट्ठा करने में इन्हें मदद तो मिल ही जाती है। सबसे अधिक इससे ‘राज्य’ और इसकी मशीनरी को दंगाई भीड़ के तुष्टिकरण के लिए प्रेरित किया जाता है। इसके लिए सिपाहियों व अफसरों के हिंदू होने की भावना को उकसाया जाता है। संवैधानिक जनतांत्रिक राज्य को पलट कर हिन्दू-राष्ट्र-राज्य बनाने के इनके एजेंडे को भी एक आम स्वीकृति हासिल होती है। यह सब एक वृहताकार अति प्रतिक्रियावादी आंदोलन के प्रारूप के तहत किया जा रहा है। संविधान को पलटकर मनुस्मृति को संविधान का दर्जा देने की मांग इसी का हिस्सा है जो संसद से लेकर सड़क तक आये दिन गुंजायमान होती रहती है। इस मौके पर यह नहीं भूलना चाहिए कि ये वहीं ताकते हैं जो आजादी के संघर्ष के समय अंग्रेजों के साथ खड़ी थीं और ‘आजादी’ प्राप्त होने के बाद संविधान के बदले मनु स्मृति को संविधान का दर्जा देने की मांग की थी और तिरंगे को देश व हिंदुओं का अपमान बताते हुए भगवा झंडे को देश का झंडा बनाने की मांग की थी। आज जब वे भगवा झंडा के साथ तिरंगा उठाये उत्पात मचाते हैं तो यह तिरंगे का अपमान तो है ही, उससे भी अधिक यह तिरंगे के भगवाधारियों के द्वारा किये गये अपहरण का प्रतीक है, न कि इसके प्रति उनके प्यार और आदर का। आज भी वे संविधान की प्रतियों को सार्वजनिक रूप से और सत्ता के गलियारे तक में जलाते-फिरते हैं। वे आज भी न्यायालयों की बिल्डिंगों पर भगवा झंडा फहराने का काम करते हैं। यह किस बात का प्रतीक है? इस बात का कि वे आज भी अपने मिशन में लगे हैं। यह इस बात का भी प्रतीक है कि वे लोगों को पहले से ही इस बात के लिए मनोवैज्ञानिक तौर से तैयार कर रहे हैं कि वे संविधान को बदलने की बात को, तिरंगे को हटाकर भगवा झंडा को लाने की बात को सामान्य बात समझें और जब सच में ऐसा अंतिम तौर पर किया जाए तो वे चौंकें नहीं और विरोध नहीं करें। धर्म को ‘राज्य’ और राजनीति दोनों से अलग करने की मांग आज इसीलिए जानबूझ कर दबा दी गई है। आधुनिक मौलिक अधिकारों की अवमानना का माहौल आज धार्मिक गुरूओं द्वारा ‘राज्य’ के कार्यों में दिये जा रहे दखल से इसीलिए और भी ज्यादा प्रतिक्रियावादी हो गया है। पुरातनपंथी, पोंगापंथी और प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी मूल्यों से समाज और भी अधिक ओतप्रोत हो गया है जिसके अत्यंत बुरे परिणाम भविष्य में दिखेंगे। एक समुदाय विशेष के धर्मगुरूओं को आज ‘राज्य’ का संरक्षण और सम्मान प्राप्त हो रहा है। वे विधान सभाओं में भाषण दे रहे हैं। नग्न साधुओं की हमारी महिलाओं से आरती उतरवायी जा रही हैं। और इन सबको राज्य का संरक्षण प्राप्त है। यही नहीं, उन्हें मंत्री पद नवाजा जा रहा है। लाखों-करोड़ों मजदूरों-कर्मचारियों व पारा मिलिट्री फोर्सेज के जवानों को पेंशन नहीं प्राप्त है, उन्हें शहीद का दर्जा तक नहीं प्राप्त है, उन्हें कोई अन्य सुविधा भी नहीं मिलती, लेकिन साधुओं को पेंशन दिया जा रहा है। करोड़ों नौजवानों के लिए नौकरी नहीं है, वे दर-दर की ठोकरें खाते हुए एक-एक पैसे के लिए मोहताज हैं, उनकी आय कैसे बढ़ेगी इस पर सरकार की कोई सोच नहीं है, लेकिन मंदिरों के पुजारियों को एक नौकरीशुदा व्यक्ति की तरह वेतन दिया जा रहा है। जवानों की शहादत पर अपनी राजनीति चमकाने वालों की यही असलियत है। यह भी समझना चाहिए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। वे ऐसा करके जनता से अपनी काली करतूतों के लिए स्वीकृति प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। भोली-भाली जनता के धार्मिक विश्वास से ये सीधा विश्वासघात कर रहे हैं। जरा सोचिये, क्या यह सच में शिवभक्तों के प्रति उनका प्यार है कि उनके ऊपर सरकारी खर्च से हेलीकॉप्टर से फूल बरसाये जाते हैं? नहीं, बिल्कुल ही नहीं। यही शिव भक्त जब नौकरी तथा पेंशन की मांग करने वालों के रूप में सड़क पर आते हैं, तो फूल बरसाने वाली यही सरकार उन पर दनादन लाठियां बरसाती हैं। गोली मारने से भी वह परहेज नहीं करती। क्या यह सब समझना इतना कठिन है?

ऐसी और न जाने कितनी बातें हैं जो देश के नये अति प्रतिक्रियावादी स्वरूप की ओर इशारा कर रही हैं। इससे देश की धर्मनिरपेक्ष साझी संस्कृति की विरासत को जानबूझ कर चटकाया जा रहा है। हम इन पांच सालों में कहां से कहां पहुंच गये हैं देख सकते हैं। यह सब एक खास एजेंडे के तहत किया और करवाया जा रहा है, ताकि समाज के बहुसंख्यक आबादी को फासीवादी विचारधारा का अनुयायी बनाया जा सके। तभी यह हो सकेगा कि ‘धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचे’ के नाम पर फासिस्ट मनमानी करते रह सकेंगे और इस वातावरण का इस्तेमाल कर धार्मिक नफरत फैलाते रहेंगे और उन्हें किसी तरह के विरोध का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। यह मुसलमान-कम्युनिस्ट तथा विज्ञान-विरोधी नफरत के इनके एजेंडे को मजबूत बनाने के लिए किया जा रहा है जो अंततः एक घोर गैर-जनतांत्रिक हिन्दू-राष्ट्र के निर्माण यानी आधुनिक जनतंत्र के फासीवादी अधीनीकरण की प्रक्रिया को खाद-पानी देता है और दे रहा है। यह सब आम जन-जीवन के महत्वपूर्ण मसलों पर हिन्दुत्ववादी-ब्राह्मणवादी दखलंदाजी के लिए तथा भीड़तंत्र के इस्तेमाल के लिए जगह बनाता है जो लगभग राज्य के अंदर एक अनौपचारिक राज्य के हो रहे पुख्ता निर्माण की ओर हमारा ध्यान बार-बार खींचता है।

अभी हाल ही में उत्तरप्रदेश में एक पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की निर्मम हत्या करने वाली भीड़ को मिले राजकीय संरक्षण की बात याद कीजिए। यह बात जिस तरह से सामने आई और जिस तरह से प्रदेश के मुखिया के व्यवहार से यह स्पष्ट दिखा कि एक पुलिस इंसपेक्टर की जान से ज्यादा महत्वपूर्ण एक गाय की जान है, तो इससे साफ हो जाता है कि स्थिति कितनी विकट हो चुकी है और हम किस अंधेरगर्दी में जी रहे हैं। पहले से ही धार्मिक, क्षेत्रीय, जातीय, ऊंच-नीच आदि के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त जनता के बीच मीडिया द्वारा परोसी जा रही नफरत और अफवाहें फासिस्टों के पीछे ऐसे लंपट और जनविरोधी तत्वों की गोलबंदी को बल प्रदान कर रहा है, क्योंकि इसके बल पर सीधे सड़कों पर राज्यपोषित ‘वीरतापूर्ण’ तांडव का ‘आकर्षक’ मंचन किया जाता है जिससे एक आज्ञाकारी व अनुयायी भीड़ तैयार होती है जिसे संगठित रूप देकर गिरोहबंद कार्रवाइयों के लिए तैयार किया जा सकता है। ये कहीं भी मारकाट मचाने के लिए तैयार रहने वाले भाड़े के सिपाही बन जाते हैं। पैसे की जरूरत वित्तीय पूंजी के मठाधीश, जिनके हितों से ही ये फासीवादी बंधे होते हैं, पूरा करते हैं। सबसे अधिक कॉरपोरेट फंडिग भाजपा को शायद इसी काम के लिए मिलता है! इससे यह भी साफ है कि कॉरपोरेट के हितों को आगे बढ़ाने में आज सबसे आगे कौन है।    

आज गोरक्षा दल एक समानांतर शासकीय संस्था का रूप ले चुकी है। इसी ढंग से कई अन्य संस्थाओं को रूपांतरित करने की तैयारी है। जरा इसे समझने की कोशिश कीजिए कि जिस गोरक्षा दल नामक भीड़तंत्र ने दलितों और मुस्लिमों पर जुल्म ढाये हैं, आज वह एक शासकीय और वैधानिकता प्राप्त कानूनी संस्था का रूप ले चुकी है! वैसे कानूनी संस्था से ज्यादा इस बात का महत्व गैर-कानूनी होना ही है। कानूनी संस्था बनने से पहले ही क्या यह गोरक्षा दल कम प्रभावी था? इसी तरह की अन्य फासिस्ट संस्थायें आज क्या कम प्रभावी हैं? बिल्कुल ही नहीं, इससे बस यही साबित होता है कि भीड़तंत्र में ‘राज्य’ का विलय हो रहा है। ‘राज्य’ और उत्पात मचाते गोरक्षक आज एक दूसरे के साथ किस तरह एकाकार हो चुके हैं यह गोरक्षा दल, हरियाणा के अध्यक्ष योगेन्द्र आर्य को पढ़कर और सुनकर आसानी से समझा जा सकता है। गोरक्षा के लिए गौ सेवा आयोग बन चुका है जिसके सदस्य गोरक्षा दल के अध्यक्ष योगेंद्र आर्य जैसे इसके अगुवा लोग हैं। मुस्लिम औरतों को कब्र से निकाल कर बलात्कार करने का खुला आह्वान करने वालों के नेता और एक के बदले दस मुस्लिम औरतों को उठा ले आने की खुले मंच से बात  करने वाले आदित्यनाथ योगी मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो इस अंधेरगर्दी में गोभक्तों की गुंडागर्दी को वैधानिकता क्यों नहीं मिल सकती है! इसमें वैधानिकता मुख्य बात नहीं है। अवैधानिक होते हुए ही वे वैधानिक थे, क्योंकि देश व राज्य की फासिस्ट सरकारों का इनको आशीर्वाद प्राप्त था या है। मुख्य बात इनका फासिस्ट परिवार से होना है। फासिस्ट आखिर किस लिए सत्ता तक पहुंचे हैं? गुजरात नरसंहार का प्रणेता व रचयिता प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच सकता है, तो मुस्लिम व दलितों पर झुंड हिंसा करने वालों को राजकीय सम्मान क्यों नहीं मिल सकता! आखिर फासिस्ट किस चीज को सुशोभित करने के लिए सत्ता में बैठे हैं? वे जो हैं वही तो करेंगे न! भीमा कोरेगांव के दलितों पर हमला के सरगना सम्भा जी भीडे का चरण छुने वाले हमारे प्रधानमंत्री जब गालीबाजों को फॉलो कर सकते हैं, तो बलात्कारियों के पक्ष में इनके समर्थक जुलूस-प्रदर्शन क्यों नहीं कर सकते! आज किसी भी चीज पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हर चीज मुमकिन है। समाज व देश पर छाये काले घने बादलों के बढ़ते अंबार को प्रदर्शित करते ये दृष्टांत फासीवाद के खतरे की निरंतरता और उसके सुदृढ़ीकरण को दिखाते हैं जिन्हें हम जितनी जल्द हो समझ लें उतना ही अच्छा है। 

[अगले अंक में जारी…]