भारत-कनाडा संबंधों में तल्खी – अमरीकी साम्राज्यवाद ‘मित्रता’ की कीमत वसूलने की कोशिश में

October 5, 2023 0 By Yatharth

एम असीम

कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो द्वारा भारत पर एक कनाडाई नागरिक की हत्या कराने के आरोप के जवाब में भारत सरकार द्वारा त्रूदो प्रशासन पर अपने घरेलू चुनावी लाभ के लिए कथित खालिस्तानी आतंकवादियों को शरण व संरक्षण के इल्जाम के बाद दोनों देशों के संबंधों में गहरी तल्खी आई है। दोनों ओर से ही वरिष्ठ कूटनीतिकों को देश छोडने के आदेश दिए जाने एवं भारत द्वारा कनाडा में वीजा सेवाएं निलंबित करने से यह तनाव और अधिक बढ गया है।

इस घटनाक्रम पर दोनों देशों की मीडिया में तुलनात्मक वैश्विक स्थिति, अर्थव्यवस्था, व्यापार, पर्यटन, शिक्षा व नौकरी के लिए कनाडा जाने वाले भारतीयों, आदि के परिप्रेक्ष्य में बहुत से विश्लेषण किए जा रहे हैं, और दावा किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अब विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्था और बड़ी शक्ति है। अतः वह अपने हितों के लिए करारा जवाब देने की स्थिति में है और इसकी वजह से उसे वैश्विक राजनीति में अलग-थलग नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार तो त्रूदो के आरोप की सच्चाई पर चुप साध गई है किंतु मेन स्ट्रीम मीडिया व सोशल मीडिया पर उसके समर्थक खुले आम त्रूदो की बात की पुष्टि करते हुए दावा कर रहे हैं कि मोदी सरकार ने मात्र एक नहीं तीन ‘खालिस्तानियों’ की हत्या करवाई है और वह घुस कर मारने वाली सरकार है।

किंतु इन दावों के परे जिओपॉलिटिक्स की दृष्टि से घटनाक्रम के इस मुख्य पहलू को समझना जरूरी है कि कनाडा न सिर्फ सोवियत खेमे के अवसान के बाद तीन दशक तक अमरीकी नेतृत्व में एकमात्र वैश्विक धुरी रहे जी7 देशों के समूह का हिस्सा है बल्कि उसके सैन्य गठबंधन नाटो का सदस्य ही नहीं, नाटो के कोर ग्रुप का काम करने वाले 5 आंग्ल-सैक्सन देशों (अमरीका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड) में से एक है।

नाटो के अन्य सदस्य देश जैसे फ्रांस, जर्मनी, तुर्की, हंगरी, पोलैंड, इटली, आदि कई मौकों पर कुछ भिन्न नीति अपनाते रहे हैं या अमरीकी नीति के साथ एकमत होने के लिए अपने हितों की पूर्ति हेतु थोडी बहुत सौदेबाजी करते रहे हैं। किंतु ये पांचों आंग्ल-सैक्सन देश विदेश नीति, सुरक्षा और युद्ध के सवाल पर हमेशा एकमत रहते हैं और इनकी सेनाओं ने दुनिया के हर कोने में हमलों व दखलंदाजी में अमरीकी सेनाओं के साथ हिस्सा लिया है। नाटो के अंदर भी ये पांच ही देश हैं जिनकी आंतरिक व बाहरी जासूसी एजेंसियां ‘फाइव आईज’ नामक जासूसी व्यवस्था के तहत लगभग पूर्णतया एकीकृत ढंग से काम करती हैं और सुरक्षा व इंटेलीजेंस संबंधित मामलों में इनके बीच लगभग कोई दुराव छिपाव नहीं है। बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में कनाडा की अमरीका पर पूर्ण निर्भरता के मद्देनजर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया विश्लेषक कई बार तो कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य भी बोलते रहे हैं। 

अतः इतनी नजदीकी सुरक्षा व विदेशी नीतियों के कारण यह संभव नहीं है कि इस मामले में भी कनाडा द्वारा उठाया गया एक भी कदम अमरीका व अन्य फाइव आईज देशों की सलाह व सहमति के बगैर उठाया गया हो। खुद जस्टिन त्रूदो व कनाडाई सरकार ही नहीं, अमरीकी, ब्रिटिश, ऑस्ट्रेलियाई सरकार के प्रतिनिधियों के बयान इसकी पुष्टि करते हैं कि यह पूरा घटनाक्रम इनकी पूरी सहमति के साथ ही घटित हुआ है। आरंभ में जो थोडा बहुत भ्रम बना हुआ था वह भी अन्यों के अतिरिक्त अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन तथा विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन के बयानों से दूर हो गया है। स्पष्टता के लिए ब्लिंकेन के बयान को कुछ विस्तार से उद्धृत करना जरूरी है,

“प्रथम, हमें प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो द्वारा लगाए गए आरोपों पर गहरी चिंता है। हम आरंभ से ही इस मुद्दे पर कनाडाई सहयोगियों के साथ गहरा परामर्श करते रहे हैं – सिर्फ परामर्श ही नहीं उनके साथ कोओर्डिनेट करते रहे हैं। हमारे नजरिए से अति आवश्यक है कि कनाडाई जांच आगे बढे और भारत इसमें कनाडा से सहयोग करे। हम जिम्मेदारी तय होने के पक्ष में हैं और जांच पूरी हो परिणाम तक पहुंचना जरूरी है। ….

हम पारदेशीय दमन की घटनाओं के बारे में अत्यंत सजग हैं और इसे बहुत गंभीरता से लेते हैं। मेरी राय से अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए यह अहम है कि कोई देश ऐसा करने के बारे में सोचे भी नहीं।”

कूटनीतिक भाषा के परिप्रेक्ष्य में यह बहुत सख्त भारत विरोधी बयान ही नहीं एक प्रकार से मोदी सरकार को चेतावनी है। खुद अमरीकी साम्राज्यवादी सत्ता द्वारा दूसरे देशों में ऐसे गैरकानूनी कार्यों के लंबे इतिहास के कारण उसके द्वारा ऐसे दमन के विरोध की बात में कितना गहरा ढोंग है इसे सभी जानते हैं। परंतु पश्चिम के पुराने साम्राज्यवादी खेमे का दावा ही अपने प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए दुनिया भर में दखलंदाजी की वैश्विक दारोगा वाली स्थिति को खुद के लिए रिजर्व रखना है। विभिन्न देशों में सैन्य हस्तक्षेप की गनबोट डिप्लोमेसी हो या इंटेलीजेंस एजेंसियों द्वारा भाड़े के हत्यारों को सुपारी दे अपने विरोधियों की हत्या, इस काम में वे किसी को अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरने की कोशिश को नजरंदाज नहीं कर सकते चाहे वह फिलहाल उनका ‘मित्र’ देश ही क्यों न हो। 

लेकिन अभी हम इस बात को समझने की कोशिश करते हैं कि पिछले कुछ समय से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रेड कार्पेट बिछाने और उसके साथ क्वाड, आई2यू2, आईएमईसी जैसे आर्थिक व सैन्य समझौते करने और उसे चीन-रूस विरोधी ग्लोबल नाटो तक की भविष्य की योजना में गठबंधन सहयोगी के रूप में आमंत्रित करने वाली अमरीकी सत्ता अभी इस मुद्दे पर ऐसे संकेत क्यों दे रही है? अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में ऐसे मुद्दे कानून, न्याय, मानवाधिकार या जनतंत्र, आदि के किसी आदर्श या सिद्धांत से प्रेरित होकर नहीं उठाए जाते। इनके पीछे वास्तविक मकसद सौदेबाजी के जरिए कुछ और हासिल करना होता है। इस मामले को इस तरह सार्वजनिक विवाद का मुद्दा बनाने में अमरीकी साम्राज्यवाद का हित या मकसद क्या है, इसे समझने के लिए हमें वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में भारतीय विदेश नीति और उसके घरेलू आर्थिक-राजनीतिक कारणों को अत्यंत संक्षेप में समझना होगा।

भारतीय पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था की विशिष्टता है कि अपनी लाभप्रदता बढ़ाने हेतु यह सस्ती स्थिर पूंजी के लिए चीन और हाल के दिनों में रूस पर अत्यंत निर्भर हो गई है। इस समय भारतीय कॉर्पोरेट का बड़ा हिस्सा अपने उत्पादन में काम आने वाली मशीनों, कच्चे माल, ईंधन व माध्यमिक वस्तुओं (पार्ट्स) के लिए निरंतर चीन, रूस, सऊदी अरब, आदि देशों पर निर्भर है। यह स्रोत बंद हो जाए तो उसकी लाभप्रदता तेजी से गिर जाएगी। उत्पादन की इन सस्ती इनपुट के प्रयोग से वह अपने माल की लागत घटाकर अंतिम उत्पादों को भारतीय दामों पर बेचकर ऊंचा मुनाफा प्राप्त करता है। याद रहे कि जब तक सस्ते चीनी उपभोक्ता उत्पाद भारत में आयात होकर सीधे आम उपभोक्ताओं को सस्ते दामों पर बिक रहे थे तब तक कॉर्पोरेट मीडिया और बीजेपी दोनों इनकी निम्न गुणवत्ता और इनके बढते आयात के राष्ट्रीय हित विरोधी होने का अभियान चलाते थे, क्योंकि तब ये भारतीय कंपनियों के बाजार को प्रभावित कर उनका मुनाफा घटा रहे थे।

अब ऐसे सस्ते उपभोक्ता उत्पादों का आयात तो घट गया है किंतु पूंजीपति अपने अंतिम उत्पादों की असेंबली में चीन से प्राथमिक व माध्यमिक इनपुट वाले उत्पाद बहुत बड़े पैमाने पर आयात कर रहे हैं जैसे दवाओं के लिए बेस सक्रिय रसायन, स्टील, मशीनें और उनके पुर्जे, इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्रॉनिक उपकरण व पार्ट्स, आदि। आज चीन से आयात पहले से बहुत अधिक बढ गया है लेकिन अब भारतीय कॉर्पोरेट मीडिया व बीजेपी को न इसमें गुणवत्ता की समस्या नजर आती है, न ही इनके आयात से राष्ट्रीय हित पर खतरा दिखता है, क्योंकि अब यह सस्ते उत्पाद सीधे उपभोक्ता बाजार में उसके साथ होड़ करने के बजाय खुद इन कॉर्पोरेट द्वारा अपने उत्पादन की लागत घटाने के लिए आयात किए जा रहे हैं। मोदी सरकार की प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) नीति के तहत मोबाइल फोन आदि का जो उत्पादन या असेंबलिंग अभी भारत में शुरू हुआ है उसका आधार भी उसके पार्ट्स का चीन से सस्ता आयात ही है। अब लैपटॉप, कंप्यूटर व अन्य उपकरणों पर भी ऐसी ही नीति अपनाई जा रही है।

दूसरी ओर, पूंजी निवेश तथा निर्यात के लिए भारतीय कॉर्पोरेट अमरीकी खेमे के देशों पर निर्भर हैं। भारत का मुख्य निर्यात सेवाओं का निर्यात है। इसमें भारत में सस्ते श्रम से उत्पादित आईटी सेवाएं और सीधे सीधे कुशल श्रमिकों दोनों का निर्यात शामिल है। ये कुशल श्रमिक विदेशों में जाकर प्रति वर्ष 120 अरब डॉलर से अधिक भारत भेजते हैं जो वस्तुओं के क्षेत्र में बड़े व्यापार घाटे की भरपाई करने में अहम भूमिका निभाता है। इस प्रकार कुशल श्रम के दोनों प्रकार के निर्यात पर ही भारत का भुगतान संतुलन टिका हुआ है और लगभग 600 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार भी। कुशल श्रमिकों के इस निर्यात का अधिकांश अमरीकी नेतृत्व वाले इन आंग्ल-सैक्सन देशों को ही होता है। अतः अंग्रेजी शिक्षा जिसमें इन देशों में शिक्षा लेना शामिल है और इन देशों के साथ सांस्कृतिक-वैचारिक व राजनीतिक लगाव भारत के संपन्न उच्च व मध्यम वर्ग की विशिष्टता है क्योंकि उनके जीवन की उपभोक्ता सुख सुविधाएं इस ‘पश्चिम’ को कुशल श्रमशक्ति के निर्यात पर ही निर्भर है। यही तबका नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा समर्थक है। अतः इनमें से हर देश के साथ व्यापार वार्ताओं एवं समझौतों में भारत सरकार की एक प्रमुख शर्त इन देशों में कुशल भारतीय श्रमिकों के शिक्षा व रोजगार हेतु आप्रवास व वीजा की शर्तों को आसान बनाना रहा है।

चुनांचे भारतीय सरकार घरेलू राजनीतिक लाभ के लिए जो भी उग्र राष्ट्रवादी बातें करे, उसकी वास्तविक नीति इस समय वैश्विक जिओ राजनीति में दुनिया भर के देशों के संसाधनों के फिर से बंटवारे हेतु चल रही छीना झपटी के लिए बन चुकी पश्चिम व चीन-रूस की दोनों विरोधी धुरियों से सम्बंधों को एक हद से अधिक बिगड़ने से बचाने की रही है। 2014 में सत्ता में आने के वक्त तो नरेंद्र मोदी की बड़ी राजनीतिक आकांक्षा ही नेहरू से भी बड़ा वैश्विक स्टेट्समैन कहलाने की थी। अतः उन्होंने आरंभ में नवाज शरीफ व शी जिनपिंग दोनों से मित्रता बढ़ाने और संबंध सामान्य करने की भी कोशिश की थी। मगर घरेलू राजनीति में उन्होंने जिस उग्र राष्ट्रवाद की राजनीति को अपना बड़ा मजबूत अवलम्ब बनाया है और इसके लिए अपने कार्यकर्ताओं व समर्थकों की जो मानसिकता तैयार की है, उसके चलते इस दिशा में अधिक आगे तक चलना उनके लिए संभव नहीं हुआ। मगर इतना तय है कि डोकलाम व गलवान की घटनाओं के बाद राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस व सम्पूर्ण विपक्ष की नीति मोदी सरकार से अधिक उग्र राष्ट्रवादी रही है और पूरे विपक्ष की समस्त तीखी आलोचना झेलते हुए भी मोदी सरकार ने चीन के साथ सम्बंधों को एक हद से आगे बिगड़ने से रोकने की पूरी कोशिश की है। खुद नरेंद्र मोदी के बयान इसे साफ कर चुके हैं। विदेश मंत्री जयशंकर तो इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार कर ही चुके हैं कि चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था से सीधे टकराव की बात उनकी योजनाओं में फिट नहीं होती।

यही नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली सरकार की विदेश नीति की बुनियाद है। अमेरिकी खेमे के साथ संबंध प्रगाढ़ करते हुए भी, उसके साथ सैन्य संबंध गहराते हुए भी, वह उसके विरोधी चीन-रूस से संबंध इतने बिगाड़ने के पक्ष में नहीं है कि भारतीय कॉर्पोरेट पूंजी की लाभप्रदता बढ़ाने वाले सस्ते स्थिर पूंजी इनपुटस के आयात का स्रोत बंद होने से उनकी मुनाफा दर पर आंच आए। पहले दबा-छिपा रहने के बाद उक्रेन में युद्ध के बाद से यह अंतर्विरोध अत्यंत स्पष्ट होकर सामने आ गया है।     

किंतु अमरीका-नाटो खेमे ने जापान, दक्षिण कोरिया व ऑस्ट्रेलिया सहित भारत के साथ संबंध सुधारने के लिए जो कोशिशें की हैं, उसे कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जो समर्थन दिया है, उन्हें अपने उस प्रयास में किए गए बड़े निवेश को यूं ही जाया करना मंजूर नहीं है। उन्हें उसका यथोचित रिटर्न चाहिए। इसके लिए उन्हें भारत जैसे देशों पर अपने खेमे में पूरी तरह शामिल हो जाने का दबाव बनाना आवश्यक है। ये साम्राज्यवादी देश इस वक्त दुनिया भर में जंगी माहौल बनाने में लगे हैं। उक्रेन में पहले ही ऐसा युद्ध चल रहा है और ताइवान को लेकर तैयारियां जारी हैं। किंतु इन देशों की जनता को युद्ध के पक्ष में तब तक ही गोलबंद करना सुविधाजनक है, जब तक सामने कोई कमजोर देश हो, जिसे बिना इनके सैनिकों की जानें गवाएं भारी हवाई बमबारी के बल पर कुचला जा सके। पर किसी मजबूत सेना या लड़ाकू दस्तों के समक्ष इन देशों के कुछ सैनिकों की जानें जाते ही इनकी जनता में युद्ध अस्वीकार्य हो जाता है, उसके विरुद्ध रोष भड़क उठता है।। अतः इन्हें युद्ध के लिए कोई प्रोक्सी या एवजी सैनिक चाहिएं।  रूस के विरुद्ध भी ये देश अंतिम उक्रेनी तक लडने के लिए कटिबद्ध हैं, पर सीधे अपनी फौज भेजने के लिए नहीं। चीन के विरुद्ध भी इन्हें एक और जेलेंस्की की तलाश है। संभवतः बीजेपी के दीर्घकालीन चीन विरोधी वैचारिक-राजनीतिक प्रापगैन्ड की वजह से इन्हें मौजूदा भारतीय सत्ता से ऐसे किसी दुस्साहस की उम्मीद थी।

किंतु इनकी यह उम्मीद फिलहाल पूरी होती नजर नहीं आ रही है। अतः अब इन्हें कैरटस एंड स्टिक्स (दाम व दंड) की नीति की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। एक और ये अपने समर्थन से प्रधानमंत्री मोदी को वैश्विक स्टेट्समैन बनने का लोभ दिखा रहे हैं। दूसरी ओर, उनकी मनमर्जी पूरी न होने पर इस तरह के आरोपों से दुष्ट देशों की श्रेणी में डालने और उसकी सजा भोगने की धमकी भी इशारों में दी जा रही है। यह बातें अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में सीधे नहीं कही जाती हैं। फिर भारत एक बड़ा देश है। उसे सीधे धमकाना आसान भी नहीं है, चाल उलटी पड़ सकती है। पर अमरीकी साम्राज्यवादी खेमा कभी किसी का दोस्त नहीं रहा। वह कूटनीतिक सौदेबाजी में लंबे समय से यह सब कुटिल चालें प्रयोग करता रहा है। मौजूदा घटनाक्रम इसी का एक क्लासिक उदाहरण प्रतीत हो रहा है। लेकिन इसका परिणाम क्या होता है, यह अभी देखना होगा।