“जवान” के बहाने

October 5, 2023 0 By Yatharth

वाचस्पति शर्मा

विनोद दुआ ने एक बार बोला था की – जब हम दयाल सिंह कॉलिज में पढ़ते थे तो वहां के वामपंथी साथी बोलते थे की अमिताभ बच्चन का उदभव असल में पूंजीवाद की एक गहरी साजिश है। तब विनोद दुआ और उनके साथी वामपंथी लोगो का मजाक उड़ाते थे की अमिताभ बच्चन का तत्कालीन राजनीती या पूंजीवाद से क्या रिश्ता? लेकिन इस बात को विनोद दुआ साब ने तीस साल बाद कन्फेस किया की वो लोग सही बोलते थे। वैश्विक स्तर पर सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में ओपेक तेल क्राइसिस शुरू हो गया था। जो की 1930 की महामन्दी के बाद असल में पूंजी की मंदी का पहला बड़ा संकट था। भारत में लगभग उसी समय नक्सल आंदोलन चल रहा था। और देश का युवा वर्ग बेरोजगारी, महंगाई से गुस्से, लाचारी और दिशाहीन अवस्था में था। बंगाल में प्रमुख रूप से लेकिन देश के अन्य हिस्सों में बहुत ही छुटपुट और लगभग नगण्य रूप से ही लोगों को समस्या की असली वजह पता थीं। लेकिन तमाम संगठन जमीन पर काम कर रहे थे जो की लोगों को पश्चिमी साम्राज्यवाद और सोवियत संघ के शीतयुद्ध में तीसरी दुनिया के देशों के नेताओं की कारगुजारियां बतला रहे थे। सरकार छात्र आन्दोलनों से परेशान थी। बंगाल में दमन का तांडव खेला जा रहा था। ठीक इसी वक्त ऐसे महानायक अमिताभ बच्चन का उदभव होता है जो की विमर्श की दिशा ही बदल देता है। अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों से मनोरंजन से ज्यादा लोगों के अवचेतन मन पर हमला किया, उसने असल में ये विचार इंजेक्ट किया की समाज में व्याप्त परेशानियों का उपाय संगठित तरीके हल नहीं हो सकता। इसके लिए आपको हीरो बनना पड़ेगा या एक हीरो बनाना पड़ेगा। इस विचार में जनता की संगठित शक्ति और उसके संघर्ष का विचार नदारद था। सत्तर अस्सी के दशक का हर युवा अमिताभ को शोषणकारी से अकेले भिड़ जाते देखकर अपनी कुंठा शांत करता था। अमिताभ में उसे अपने अंदर का क्रांतिकारी नजर आता था। जिसे परदे पर वो अमीरों को लतियाते पटकाते देख बहुत खुश होता था। चूंकि ये हीरोइज्म का विचार निहायत ही व्यक्तिगत और हवाबाजी था, इसलिए इसने समाज की संगठित शक्ति का दो तरीके से नुकसान किया।

* पहला तो – सम्पूर्ण युवा वर्ग को अमिताभी हीरोइज्म के जाल में उलझाकर संघर्ष के असली और परिपक्व समय को बर्बाद कर दिया (सरल शब्दों में कहूं तो युवा वर्ग का टाइम खोटी करवाया)

* और दूसरा ये की – युवा वर्ग को इस समझ से दूर रखा की शोषकारी सत्ता से भिड़ने के लिए किसी इंडिविजुअल हीरो की नहीं वरन एक वैज्ञानिक तार्किक विचारों से लैस जनता की संगठित शक्ति की जरुरत होती है। इसका नतीजा ये हुआ की सत्ता घूमते फिरते वापिस इंदिरा गांधी के हाथों में आयी। जिन्हे दोबारा सत्ता मिलने तक अमिताभी सिनेमा का प्रभाव लोगो में ये विचार इंजेक्ट कर चुका था की हमें अपनी परेशानियों से निजात के लिए एक हीरो की जरुरत है। इंदिरा गांधी की आलोचना आते ही कॉंग्रेसी समर्थक मित्रों की जरूर यहां भृकुटियां तन गयी होंगी। लेकिन अगर मैं नेहरुवियन समाजवादी प्रयोगों को सफल मान भी लूं तो कॉंग्रेस में भ्रष्टाचार और व्यक्तिपूजा की उच्छ्श्रंखल प्रवत्तियों की शुरुआत इंदिरा जी के जमाने से ही हुई थी। इस बात से कॉंग्रेसी समर्थक भी इंकार नहीं करेंगे। अमिताभ द्वारा हीरो को स्थापित करने के विचार ने इंदिरा गांधी के आभामंडल की आड़ में सारे सवाल पीछे धकेल दिए।  अमिताभ बच्चन की फिल्मों ने इस व्यक्तिपूजा और एक इंडिविजुअल को सुपरमैन दिखाने के विचार को बहुत सॉलिड तरीके से समाज में स्थापित कर दिया था।  जिसका फायदा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से राजनीती में एक हीरो को स्थापित करने के रूप में फलित हुआ। जनता को लगा की ये नया हीरो अब देश की सारी परेशानियां हल कर देगा। लेकिन देश की कोई समस्या हल नहीं हुई। क्योंकि सवाल व्यवस्था बदलने का था। हीरो चेंज होते रहे, व्यक्ति बदलते रहे लेकिन हालात नहीं बदले। और जनता को अमिताभ द्वारा स्थापित विचार ने उनके आक्रोश के उत्सर्जन को फिल्मों तक सीमित रखा। या फिर एक अवैज्ञानिक विचार को पोषित किया जिसके गर्भ में एक हीरो की स्थापना थी। कमोबेश सत्तर अस्सी के दशक के ये विचार और हालात आज भी नहीं बदले। आज भी जनता के संगठित संघर्ष या सत्ता से सवाल इन्ही तथाकथित मनोरंजन के माध्यमों और सिनेमाई हीरो के माध्यम से भटकाये जा रहे हैं या फिर मात्र सुधारवाद या छोटी मोटी मांगों को मनवाने तक सिमित किये जा रहें है। बल्कि आज तो पहले से कहीं ज्यादा माध्यमों के जरिये जनता के संघर्ष को भटकाया जा रहा है। एक बड़ी जनसंख्या को सांप्रदायिक बना दिया वो तो अलग ही बात है। लेकिन जो लोग तटस्थ हैं उनके हाथ में भी इंस्टाग्राम यूट्यूब और फेसबुक पकड़ाकर रील बनाने और उन्हें देखने में व्यस्त कर दिया गया है। जो लोग इंस्टा या यूट्यूब शॉर्ट्स में इंट्रेस्टेड नहीं हैं उनके लिए सिनेमाई नायक खड़े कर दिए हैं। जो जनता को इक्के दुक्के मुद्दे बहुत ही सतही तौर पर उठाकर उनकी तृष्णा को शांत कर देतें हैं। मुझे याद है जब आमिर खान ने सत्यमेव जयते बनाया था तो कई लोग उसे प्रधानमंत्री तक बनाने की सलाह दे रहे थे। बिना ये जाने की वो टीवी प्रोग्राम खुद इस देश के सबसे बड़े कफनखसोट पूंजीपति की कंपनी ने बनाया था। इसी तरह फिल्म नायक हो या जवान, ध्यान से देखिये की ये आपको सन्देश क्या दे रहीं हैं? सिर्फ यही की आप अपना वोट सही जगह दीजिये और सही आदमी को चुन कर चुनाव जिताइये। लेकिन किस फिल्म ने या किस हीरो ने ये बात छेड़ी की इस व्यवस्था में अमीरों के चन्दे से चुनावी खेल के बाद, सांसदों की घोड़खरीद के बाद बनने वाली सरकार आम जनता के लिए काम करेगी? या जनता की सीधी लड़ाई सत्ता से इसलिए हो की वो पहले देश के संसाधनों और श्रम की लूट वाली नीतियों कानूनों को रद्द करे? या कौन सी फिल्म या हीरो ने ये सवाल उठाये की 90 के दशक में शुरू आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद पिछले तीस सालों में लगभग सभी राजनितिक दलों की सरकारों को मौका देने के बाद भी अगर देश के इतने बुरे हालात हैं तो समस्या की जड़ आखिर कहां है? नहीं, ये सवाल आपको किसी फिल्म में या किसी हीरो द्वारा उठाते नहीं मिलेंगे। नेताओं, धार्मिक गुरुओं और पूंजीपतियों के गठजोड़ तो हर दूसरी फिल्म में दिखाए जा रहें हैं, लेकिन इसके हल के तौर पर कभी अमिताभ को मशीनगन चलाते दिखा देतें हैं, या फिर कभी शाहरुख हथौड़ा चलाते दिख जातें हैं, और बीच बीच में एक सॉलिड सा लेक्चर दिलवा कर मामला खुशी खुशी शांत करवा दिया जाता है। हालिया सालों में ये चलन पहले तो साउथ की फिल्मों से से शुरू हुआ और अब बम्बई वालों ने भी इसी स्टाइल को पकड़ कर माल कमाना शुरू कर दिया है मैं इस सिनेमाई विधा को पूरी तरह खारिज नहीं कर रहा हूं।  ऋषिकेश मुखर्जी की “नमक हराम” ने पहली बार पूंजीवाद में मजदूरों के शोषण की आवाज को उठाया, लेकिन उसे भी एक भावनात्मक अंत में लपेट के खतम कर दिया। मधुर भंडारकर की “कॉरपोरेट” मूवी ने भी मुक्त बाजार व्यवस्था में माल बेचने के लिए कॉर्पोरेट्स की गलाकाटू प्रतिद्वंदिता को अच्छे से दिखाया था।  “हजारों ख्वाहिशें ऐसी” मूवी में सुधीर मिश्रा ने क्रांतिकारी समझे जाने वाले मध्यमवर्ग और युवावर्ग के असली वर्गचरित्र को  दिखाया है। इसके आलावा साउथ की और बंगाल का कुछ सिनेमा सही अर्थों में समस्याओं को छू पाया है। ये कुछ इक्का दुक्का उदाहरण अपवाद स्वरुप आप मान सकतें हैं लेकिन इनका प्रभाव और जनता की समझ अभी इतनी नहीं है की उसका असर जमीन पर दिख सके। इसी रौ में अब अगर आप शाहरुख की “जवान” या दक्षिण के सुपरस्टार थलापति विजय की फिल्म “मेरसल” में दी गयी सही वोट देने की स्पीच या सिंगापुर जैसे अस्पताल होने के भाषण देने को सिनेमाई विधा का सही इस्तेमाल मानते हो तो यकीन मानिये की आप पूंजीवादी व्यवस्था के जाल में फंस चुके हो। ये सिनेमा व्यवस्था के प्रति आपके आक्रोश को एक हीरोइज्म की चाशनी में लपेट कर बस सिनेमा हाल या सोशल मीडिआ में लिखने तक सिमित कर रहा है। आप खुद सोचिये की अनिल कपूर की फिल्म नायक का आज 22 साल बाद भी ये असर है की लोग आज भी इस अवैज्ञानिक विचार से मुग्ध हैं की एक हीरो आएगा जो सब समस्याएं हल कर देगा। इसी विचार की विकृत परिणति ये हुई की एक जाहिल अथॉरिटेरियन आज डेड़ अरब जनता के सर पर बैठा हुआ है। भले ही वो आपकी वैचारिकी का ना हो लेकिन वो भी ऐसे ही किसी बड़े समूह का हीरो तो है ही। दुखद तौर पर भारत में अभी तक ऐसा सिनेमा बनना शुरू नहीं हुआ है जो समस्या के गर्भ गृह पर चोट कर सके। अभी हम इस लेवल को भी नहीं छू पाए हैं जो चार्ली चैप्लिन की “मॉडर्न टाइम”, स्पेनिश फिल्म “अल होयो”  डस्टिन हॉफमैन की “वैग द डॉग”, जर्मन फिल्म “गुड बॉय लेनिन”,  “बैटल ऑफ अल्जीयर्स”, “बेबीलोन बर्लिन” जैस फिल्मों में दिखाया गया है, ऐसा सिनेमा बनना भारत में अभी बाकी है। और उससे जरुरी ये की ऐसी ऑडियंस भी अभी तक तैयार नहीं हुई है जो ऐसे सिनेमा को स्वीकार कर सके या उसके समर्थन में खड़े हो सके। “जवान” का ढोल-ढमक्कड़ एक विशुद्ध बाजारवादी हड़बोंग हैं, जिसमे आपके व्यवस्था के प्रति आक्रोश को खुजला खुजला कर पैसा कमाया जा रहा है। लेकिन जमीन पर नतीजा सिफर रहेगा।