ईश्वर को सूली
December 18, 2023दुष्यंत कुमार
की 48वीं मृत्युवार्षिकी पर उनकी कविता जो 1966 में बस्तर गोली कांड पर उनकी प्रतिक्रिया के रूप में लिखी गयी थी, लेकिन आज भी देश ही नहीं, पूरी दुनिया भर में होने वाली राज्य प्रायोजित हत्याओं और जनसंहार के विरोध में यह कविता बेहद प्रासंगिक है।
मैंने चाहा था
कि चुप रहूं,
देखता जाऊं
जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है।
मेरी देह में कस रहा है जो सांप
उसे सहलाते हुए,
झेल लूं थोड़ा-सा संकट
जो सिर्फ कडुवाहट बो रहा है।
कल तक गोलियों की आवाजें कानों में बस जाएंगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून!
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून !
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन मैंने देखा–
धीरे-धीरे सब गलत होता जाता है ।
इच्छा हुई मैं न बोलूं
मेरा उस राजा से या उसकी अंध भक्त प्रजा से
क्या नाता है?
लेकिन सहसा एक व्याख्यातीत अंधेरा
ढक लेता है मेरा जीवित चेहरा,
और भीतर से कुछ बाहर आने के लिए छटपटाता है ।
एक उप महाद्वीपीय संवेदना
सैलाब-सी उमड़ती है-अंदर ही अंदर
कहीं से उस लाश पर
अविश्वास-सी प्रखर,
सीधी रोशनी पड़ती है-
क्षत-विक्षत लाश के पास,
बैठे हैं असंख्य मुर्दे उदास ।
और गोलियों के जख्म देह पर नहीं हैं।
रक्तस्राव अस्थिमज्जा से नहीं हो रहा है।
एक कागज का नक्शा है-
खून छोड़ता हुआ ।
एक पागल निरंकुश श्वान
बौखलाया-सा फिरता है उसके पास
शव चिचोड़ता हुआ
ईश्वर उस ‘आदिवासी-ईश्वर’ पर रहम करे!
सता के लंबे नाखूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया!
घुटनों पर झुका हुआ भक्त
अब क्या
इस निरंकुशता को माथा टेकेगा
जिसने-
भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया,
समाचार-पत्रों की भाषा बदल दी,
न्याय को राजनीति की शकल दी,
और हर विरोधी के हाथों में
एक-एक खाली बंदूक पकड़ा दी-
कि वह-
लगातार घोड़ा दबाता रहे,
जनता की नहीं, सिर्फ राजा की,
मुर्दे पैगम्बर की मौत पर सभाएं बुलाता रहे
‘दिवस’ मनाता हुआ,
सार्वजनिक आंसू बहाता हुआ,
नींद को जगाता हुआ,
अर्द्ध-सत्य थामे चिल्लाता रहे।