संविधान बदलाव की कोशिश – अधमरे बुर्जुआ जनवाद को फासीवादी ताबूत में दफनाने की तैयारी

October 5, 2023 0 By Yatharth

संविधान कोई ‘पवित्र पुस्तक’ नहीं, किंतु सत्ता की असल शक्ति मेहनतकशों, शोषितों-उत्पीड़ितों को सौंपने वाला अग्रगामी बदलाव ही स्वीकार्य

संपादकीय, सितंबर-अक्टूबर 2023

14 अगस्त को ‘मिंट’ अखबार में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रधान विवेक देवरॉय का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने एक स्वाभिमान, आशा व आकांक्षा से भरपूर ‘विकसित’ राष्ट्र बनने के क्रम में औपनिवेशिक परंपरा को त्याग भविष्योन्मुखी होने पर बल दिया। उनके अनुसार अमित शाह द्वारा संसद में प्रस्तुत तीन विधेयक आपराधिक कानून प्रणाली के क्षेत्र में बदलाव कर देंगे, लेकिन अन्य क्षेत्रों में काम बाकी है। औपनिवेशिक परंपरा त्याग भविष्योन्मुखी होने के मोहक शब्दों का अर्थ भी देवरॉय ने तुरंत स्पष्ट कर दिया कि भूली विरासत का पुनरुद्धार करना है, ‘सेंगोल’ जिसका रूपक है। साफ है कि देवरॉय के ‘भविष्योन्मुखी’ विचार की प्रेरणा शोषण मुक्ति, जनवाद, समता, स्वतंत्रता, आदि किसी आधुनिक विचार के बजाय हिंदुत्ववादी राजनीति के पुरातन गौरव व ब्राह्मणवादी विश्वगुरुत्व का प्रतिक्रियावादी ‘आदर्श’ है।   

इस सरकार के दस्तूर मुताबिक आर्थिक सलाहकार परिषद ने इसे देवरॉय का निजी विचार कहकर पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन यह भी तथ्य है कि देवरॉय ही नरेंद्र मोदी की आर्थिक टीम के वो अकेले सदस्य हैं जो 2014 से आज तक इसमें बरकरार हैं, पहले तीन साल नीति आयोग में, उसके पश्चात आर्थिक सलाहकार परिषद में। और वे पहले भी मौजूदा शासक समूह के लिए कई ऐसे विचारों को गुब्बारे के तौर पर छोड़ चर्चा का विषय बनाने की भूमिका निभाते रहे हैं।  

7 अगस्त को पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा राज्यसभा में मनोनीत सदस्य रंजन गोगोई ने राज्यसभा में पहली बार बोलते हुए संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को विवादास्पद बताया था। 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने संविधान के बुनियादी ढांचे में संशोधन के संसद के अधिकार को अमान्य ठहराया था। किंतु रंजन गोगोई ने यह बताने की कोशिश की कि संसद संविधान के किसी भी प्रावधान को बदल सकती है। उधर कई मुंहों से बोलने की फासिस्ट चाल के मुताबिक देवरॉय ने दूसरी लाइन लेते हुए कहा कि बुनियादी ढांचे का सिद्धांत सीमित संशोधन की गुंजाइश छोड़ता है अतः पूरे संविधान पर ही पुनर्विचार करना चाहिए। स्पष्ट है कि मौजूदा सत्ताधारी संविधान में बदलाव के प्रश्न को कुछ निहित उद्देश्यों से बहस का विषय बना रहे हैं।  

देवरॉय का लेख देश को उच्च मध्यम आय वाला विकसित देश बनाने हेतु 1935 के औपनिवेशिक इंडिया एक्ट आधारित पुराने संविधान के विऔपनिवेशीकरण की जरूरत की बात से शुरू होता है। मगर जल्द ही स्पष्ट हो जाता है कि मकसद अफसरशाही पर हर नियंत्रण समाप्त कर उसकी ‘कार्यकुशलता’ बढ़ाने, राष्ट्रीय-भाषाई आधार पर बने राज्यों को भौगोलिक क्षेत्र व आबादी की संख्या के किन्ही तकनीकी आधारों पर मनमर्जी से तोड़ने, राज्यों व स्वशासित क्षेत्रों में जनआकांक्षाओं की पूर्ति हेतु बने कुछ विशेष प्रावधानों को समाप्त करने (जैसे धारा 370 समाप्त की गई), अत्यंत न्यून अधिकारों वाले निर्वाचित ग्राम-नगर स्तरीय ढांचे को खत्म करने, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को समाप्त करने (अभी भी ये बाध्यकारी नहीं हैं, पर अब निजीकरण व ‘बाजार’ को बढ़ावा देने में सभी के लिए शिक्षा की व्यवस्था तथा वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार, आदि का जिक्र तक भी संभवतः दिक्कत तलब माना जा रहा है!), और अंत में सेकुलरिज्म, समाजवाद, जनतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, आदि शब्दों के जिक्र तक पर पुनर्विचार तक पहुंच जाता है।  

संविधान बदलने के इस मुद्दे को गुब्बारे की तरह फुलाकर मौजूदा फासिस्ट सत्ताधारी क्या करना चाहते हैं उसे समझने के लिए हम इसके इंगित बतौर उनके कुछ पूर्व कार्यों और बयानों का जिक्र कर सकते हैं। 3 साल पहले नीति आयोग के मुखिया ने बयान दिया था कि भारत में जनतंत्र इतना अधिक है कि विकास तथा सुधार में बाधा है। तभी संकेत मिल गया था कि मौजूदा सत्ताधारी बुर्जुआ जनतंत्र की औपचारिक प्रक्रियाओं को अपने रास्ते में रोड़ा मान इसे हटाने की तैयारी जारी है, बस सही वक्त का इंतजार है।

2017 में हमने देखा कि संसद में टैक्स प्रस्तावों हेतु मनी बिल के प्रावधान के जरिये 40 कानूनों को बदल दिया गया था जिनमें चुनाव कानून, राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट चंदे के नियम, आधार न होने पर कई नागरिक अधिकारों में कटौती, औद्योगिक विवाद कानून, ट्रिब्यूनलों/नियामक संस्थाओं का पूरा ढांचा, सिनेमा कानून तक सबको मनी बिल के नाम पर एक ही विधेयक के जरिए संशोधित कर दिया गया था। आयकर कानून में तो ऐसा बदलाव किया गया था कि बगैर वजह बताये किसी पर रेड डाली सकती है। मनी बिल का प्रावधान ही मूलतः इसलिए किया गया था कि टैक्स लगाने, उनमें संशोधन करने और टैक्स से होने वाली आय से किए जाने वाले खर्च की अनुमति देने का अधिकार सिर्फ जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव से निर्वाचित लोकसभा सदस्यों को ही हो। इसके अतिरिक्त अन्य सभी कानूनों को दोनों सदनों, लोकसभा व राज्यसभा, में बहस के बाद ही पारित किया जाए। लेकिन इस सरकार ने राज्यसभा में अल्पमत होते हुए भी मनमर्जी से कानून बनाने हेतु लोकसभा अध्यक्ष से इन कानूनों में संशोधनों को मनी बिल घोषित करा लिया था ताकि इन कानूनों को राज्यसभा में ले जाए बगैर मात्र लोकसभा से पारित करा कर ही लागू कर दिया जा सके। अहम बात यह है कि जनतंत्र-संविधान की रक्षा का दम भरते विपक्ष ने भी बस बयान देकर विरोध की रस्म पूरी की और फाइनेंस बिल ध्वनि मत से पारित हो गया था।

कृषि कानूनों के मामले में भी इनको राज्यसभा में बिना वोट के ही अध्यक्ष द्वारा ध्वनि मत से ही पारित घोषित कर दिया गया था। बहुत वर्षों से संसद में सालाना बजट सहित अधिकांश कानून बिना किसी चर्चा के ऐसे ही मिनटों में पारित कर दिए जाते रहे हैं। बहुत मामलों में तो शोर शराबे के दौरान ही कानून पारित होते रहते हैं। पिछले सत्र में शोर शराबे के बीच ही जन विश्वास कानून से 42 ऐसे अपराध समाप्त कर दिए गए जिनमें पहले पूंजीपतियों को मुकदमा व सजा का प्रावधान था। मगर अब ऐसे मामलों में अदालत में मुकदमे व सजा के जोखिम के बजाय अफसरशाही ही कुछ जुर्माना लगाकर रफा-दफा कर देगी। इसमें खराब दवाओं व चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति शामिल है जिनसे मरीजों की जान जा सकती है। अब गलत दवा से मरीज की जान जाने पर दवा बनाने वाली कंपनी के मालिकों को मुकदमा व सजा का डर नहीं रहा। हाल में बिना विशेष बहस के ही निजी डाटा संरक्षण कानून पारित कर निजी कॉर्पोरेट को मनमर्जी से नागरिकों का व्यक्तिगत डाटा एकत्र व इस्तेमाल करने का असीमित अधिकार दे दिया गया है। इसी प्रकार दिल्ली सेवा अधिनियम के जरिए जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के अधिकार गैर निर्वाचित केंद्र द्वारा नियुक्त एलजी व अफसरों को दिए गए हैं।

इसी क्रम में मोदी सरकार ने संसद के 2023 मानसून सत्र के अंतिम दिन लोक सभा में आपराधिक (क्रिमिनल) कानून प्रणाली का “कायापलट” करने के दावे के साथ तीन नए विधेयक प्रस्तुत किए। भारत में आपराधिक कानून प्रणाली को संचालित करने हेतु मुख्यतः तीन कानून हैं – भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (इंडियन एविडेंस ऐक्ट)। जो तीन नए विधेयक लाए गए वह पारित हो जाने पर इन तीनों कानूनों को प्रतिस्थापित करेंगे। आईपीसी के बदले “भारतीय न्याय संहिता”, सीआरपीसी के बदले “भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता” और इंडियन एविडेंस ऐक्ट के बदले “भारतीय साक्ष्य अधिनियम”।

अभी यह विधेयक पारित नहीं हुए हैं और संसदीय स्थाई (स्टैंडिंग) कमेटी के समक्ष भेजे गए हैं। हालांकि पूर्व मिसालों की माने तो ऐसे बड़े दावे के साथ लाए गए विधेयक भी संसद के अगले सत्र में ही बिना बहस के सरकार द्वारा पारित करवा दिए जाएंगे। इनमें प्रथम दृष्टया ही गौरतलब बात यह है कि तीनों विधेयकों के नाम केवल हिंदी में हैं। यह अभूतपूर्व है कि संसद में पेश विधेयकों के नाम केवल हिंदी में प्रस्तुत हुए हैं जबकि संविधान के अनुछेद 348 में यह निर्दिष्ट है कि संसद से पारित सभी अधिनियम अंग्रेजी भाषा में होंगे। अतः यह नामकरण असंवैधानिक तो है ही, साथ ही विविध भाषाओं व राष्ट्रीयताओं से समावेशित इस देश में “हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान” के फासीवादी अजेंडे के तहत एक भाषा थोपने का ही एक और उदाहरण है। हालांकि ऐसा कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत हिंदी को राष्ट्रभाषा माना गया है, उसके बावजूद भी मौजूदा हुकूमत इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की कोशिशों में जुटी हुई है।

सीआरपीसी की जगह लेने वाली नागरिक सुरक्षा संहिता में एक ओर तो बिना आरोप पत्र व मुकदमा चलाए ही जेल में रखने की सीमा को बढ़ा दिया गया है, दूसरी ओर, अब अभियुक्त की अनुपस्थिति के बावजूद भी कानूनी मुकदमे की संपूर्ण प्रक्रिया चलाने व संपन्न करने का प्रावधान लाया गया है। यानी बिना निष्पक्ष सुनवाई के सजा नहीं देने के प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को भी नकार दिया गया है। भारत जैसे देश में जहां जनता का बड़ा हिस्सा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित है वहां अधिकांश नागरिकों को सूचना व नोटिस आदि ठीक से दिए बिना बगैर उनकी कोई सुनवाई हुए ही सजा देना अत्यंत आसान हो जाएगा। भारत में पहले ही जेलों में अधिकांश कैदी ऐसे गरीब मेहनतकश वंचित ही हैं जो बिना अपराधी सिद्ध हुए और सजा पाए ही बिना मुकदमा जेलों में सालों से बंद हैं। नए आपराधिक कानूनों में यह अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति और भी अधिक मजबूत होगी। यह संविधान में प्रदत्त सभी मूल अधिकारों को ही वास्तविकता में ध्वंस कर देगा। 

इसी क्रम में हम नए चुनाव आयोग कानून व उच्च सार्वजनिक पदों पर ऐसी ही अन्य नियुक्तियों में कानूनी प्रावधानों की स्थिति को देख सकते हैं। संविधान सभा ने प्रावधान किया था कि संविधान लागू होने के बाद सरकार जल्दी ही इन नियुक्तियों की जनतांत्रिक व निष्पक्ष प्रक्रिया के लिए कानून बनाएगी। किंतु अधिकतर मामलों में ऐसे कानून नहीं बनाए गए और नियुक्तियां सरकार, सुप्रीम कोर्ट, आदि द्वारा मनमाने अपारदर्शी तरीके से होती रही हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की मनमानी को रोकने का आदेश दिया तो सरकार उसे पलटते हुए ऐसा कानून संसद में ले आई है जिसमें न सिर्फ नियुक्ति फिर से सत्ताधारी दल के पूर्ण नियंत्रण में होगी, बल्कि उसने चुनाव आयोग का संवैधानिक दर्जा भी सुप्रीम कोर्ट के समान से घटाकर सरकार के कैबिनेट सचिव का कर दिया है अर्थात और भी जूनियर नौकरशाहों को चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त किया जाएगा, जो सरकारी आदेशों को पूरी तरह सिर माथे पर रखेंगे। इस प्रकार बुर्जुआ जनतंत्र की जो सबसे बड़ी बात बताई जाती है अर्थात नियमित व निष्पक्ष चुनाव उसमें ही पूरी तरह शक की स्थिति पैदा हो जाएगी। 

इसके साथ ही ‘एक देश एक चुनाव’ के नाम पर सभी राज्य सरकारों के संवैधानिक अधिकार छीनकर उन्हें केंद्रीय सत्ता के पूर्ण नियंत्रण में लाने का प्रयास जारी है। इसके बाद सत्तारूढ़ समूह केंद्र व राज्यों के विभिन्न चुनाव की औपचारिक जरूरतों के लिए भी जनता के सवालों पर मौजूदा सीमित जवाबदेही व कुछ सीमित प्रतीकात्मक राहत तक देने की जरूरत से मुक्त हो जाएगा। 5 साल में एक बार चुनाव की औपचारिकता पूरी करने के बाद वह लगभग पूर्ण अधिनायकवादी सत्ता चला सकेगा। 

स्पष्ट है कि वर्तमान फासिस्ट सत्ता मौजूदा पूंजीवादी संवैधानिक जनतांत्रिक व्यवस्था को येन केन प्रकारेण अंदर से पूरी तरह खोखला व कमजोर कर उसके बाह्य आवरण के अंदर ही अपना वित्तीय व एकाधिकार पूंजी परस्त और मेहनतकश, उत्पीड़ित-वंचित जनता पर शोषण का पहिया और अधिक सख्ती से कस देने वाला एजेंडा ही लागू करती रही है। अपने इस मकसद को पूरा करने में उसे सम्पूर्ण संसदीय विपक्ष व पूरे संवैधानिक तंत्र का भी प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सहयोग मिलता रहा है। उदाहरणार्थ चुनाव मौजूदा व्यवस्था के जनतंत्र होने का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है, मगर कश्मीर/लद्दाख में नौ साल से चुनाव ही नहीं हुए और तभी कराए जाएंगे जब बीजेपी अपनी जीत पक्की कर लेगी। ऐसे और तमाम उदाहरण हैं जहां चुनाव वर्षों से लंबित हैं, जैसे महाराष्ट्र में नगर प्रशासन के चुनाव।

किंतु अब बीजेपी की फासिस्ट सत्ता अपने एजेंडे को अगले चरण में ले जाना चाहती है। अब वह मौजूदा पूंजीवादी संविधान व कानूनों में मौजूद औपचारिक जनतांत्रिक प्रावधानों को ही समाप्त कर देना चाहती है जिन्हें अभी भी उसे वास्तविक सारतत्व में तो नहीं पर औपचारिक व बाह्य तौर पर तो मानने का नाटक करना ही पड़ता है। इनके आधार पर ही उसे कुछ हद तक आलोचना का भी सामना करना पड़ता है कि संविधान-कानून में बहुत से जनतांत्रिक प्रावधान होने पर भी सरकार उन्हें लागू नहीं कर रही। औपचारिक श्रम अधिकारों वाले 40 से अधिक श्रम कानूनों को समाप्त कर 4 नये लेबर कोड इसका प्रमुख उदाहरण हैं। शासक पूंजीपति वर्ग द्वारा शोषण चक्र को और भी तेज करने की राह में बाधा पैदा करने वाली सभी औपचारिक कानूनी व्यवस्थाओं तक को भी समाप्त करना और जनता के कुछ हिस्सों, खास तौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों, को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की औपचारिक व्यवस्था कर देना अब उसके एजेंडे पर आ गया है। सारतत्व में तो मौजूदा बुर्जुआ जनतंत्र को पहले ही अधमरा बनाया जा चुका है, मगर अब औपचारिक रूप में भी बचे-खुचे जनवाद को समाप्त कर एक फासिस्ट कानूनी तंत्र खड़ा करना उनका निहित एजेंडा है। चुनांचे अब संविधान बदलाव का यह मुद्दा उछाला गया है।   

यहां यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या हम वर्तमान संविधान को कोई अपरिवर्तनीय ‘पवित्र पुस्तक’ समझते हैं जिसमें कोई बदलाव ही नहीं किए जा सकते। निश्चय ही हम ऐसा नहीं मानते। हम मौजूदा संविधान के चरित्र पर अपनी यह समझ रखते आए हैं कि यह भारत के शासक पूंजीपतियों के वर्ग शासन का ही औजार है। एक बुर्जुआ जनतांत्रिक शासन का संविधान होने के नाते यह जनता को कुछ औपचारिक समानता, स्वतंत्रता व जनवाद के वैधानिक अधिकार जरूर देता है, पर उन अधिकारों को वास्तविकता में लागू करने का काम यह नहीं कर सकता क्योंकि बुनियादी रूप से यह निजी संपत्ति मालिक पूंजीपतियों के शासन का ही संवैधानिक ढांचा है। निजी संपत्ति आधारित मुनाफे के मकसद से उत्पादन की व्यवस्था के रहते समानता, स्वतंत्रता व जनवाद के ये वैधानिक अधिकार कभी भी अधिकांश मेहनतकश जनता को वास्तविकता में प्राप्त नहीं हो सकते क्योंकि मात्र जिंदा रहने के लिए ही उन्हें निजी संपत्ति मालिकों के पास अपनी श्रम करने की क्षमता को बेचना जरूरी है अर्थात उन्हें खुद के विक्रय के लिए श्रम बाजार में खड़ा होना पड़ता है। इस प्रकार वे दास या सामंती समाज की सीधी गुलामी से वैधानिक रूप से मुक्त होते हुए भी उजरती गुलामी के लिए विवश हैं। ऐसी उजरती गुलामी में रहने को विवश होते हुए ये मेहनतकश लोग निजी संपत्ति मालिकों के समान अधिकारों का उपभोग करने की किसी स्थिति में नहीं हैं।

हम यह भी जानते हैं कि भारतीय पूंजीवाद और उसका जनवाद शुरू से ही बीमार व अधकचरा जनवाद था, क्योंकि यह उभरते मजदूर वर्ग द्वारा शोषण मुक्ति के संघर्ष से भय के चलते औपनिवेशिक शासन और सामंती विशेषाधिकारों के खिलाफ जुझारू संघर्ष चलाने में असमर्थ था और इनके साथ समझौता करते हुए ही विकसित हुआ था। भारत की संविधान सभा का चुनाव एक न्यूनतम संपत्ति से अधिक संपत्ति के मालिक मात्र 11% के वोट से चुनी गई थी और इसमें सामंती रजवाड़ों को बिना निर्वाचन ही प्रतिनिधित्व दिया गया था। इस संविधान सभा ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की प्रमुख जनवादी आकांक्षाओं जैसे भूमि सुधार अर्थात जमीन जोतने वाले की और सभी के लिए समान सार्वजनिक शिक्षा की गारंटी की मांगों को पूरी तरह ठुकरा दिया था।

अतः भारत का यह मौजूदा संविधान विकसित पूंजीवादी देशों के बुर्जुआ जनवाद के पैमाने पर भी देखें तो उसकी तुलना में अत्यंत सीमित जनवादी अधिकार प्रदान करता है (अभिव्यक्ति की आजादी पर बहुत सी सीमाएं हैं) और इन विकसित पूंजीवादी देशों की तुलना में भी इसने बहुत से प्रतिगामी औपनिवेशिक व सामंती मूल्यों को बहुत हद तक कायम रखा है (गौरक्षा को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में रखा गया था)। आगे हम इसके दो विशेष उदाहरणों का जिक्र करेंगे।  

प्रथम, संविधान में दिए गए वैधानिक मौलिक अधिकारों का पूर्ण उल्लंघन करने वाले डीआईआर, मीसा, टाडा, यूएपीए, एनएसए, आदि बिना आरोप बिना मुकदमा चलाए निवारकगिरफ्तारी वाले दमनकारी कानूनों का प्रावधान भी इसी संविधान में ही किया गया है। धारा 22(1) व धारा 22(2) में गिरफ्तारी के खिलाफ नागरिकों के अधिकार के प्रावधान के साथ ही संविधान सभा ने धारा 22(3) में सरकार से कहा कि वो एक निवारक गिरफ्तारी कानून बनाये और उस कानून में गिरफ्तारी होने पर गिरफ्तारी के मामले में नागरिकों के मौलिक अधिकार लागू नहीं होंगे। इसके बाद धारा 22(5) व धारा 22(6) में इस निवारक गिरफ्तारी पर भी कुछ सीमाएं लगाई गईं। पर धारा 22(7) में यह भी कह दिया गया कि संसद इन प्रतिबंधों को समाप्त कर सकती है। अर्थात नागरिकों को मौलिक अधिकार देते हुये ही उनके हनन का डिजाइन भी तैयार कर दिया गया। इसी प्रावधान के तहत 26 फरवरी 1950 को संसद (संविधान सभा ने ही अपना नाम संसद रख लिया था) ने ऐसा निवारक गिरफ्तारी कानून पास भी कर दिया! संविधान सभा के एक सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी ने मूल अधिकारों पर बहस में ही कहा था कि ये पुलिस थानेदार के नजरिए से लिखे गए हैं।

दूसरे, संविधान में मौलिक अधिकारों वाले अध्याय का मूल मसौदा विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक सदस्य कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का बनाया हुआ था। 28 मार्च 1947 को मौलिक अधिकारों संबंधी उपसमिति की बैठक में मीनू मसानी ने यह मौलिक अधिकार जोड़ने का संशोधन रखा कि ‘धर्म के आधार पर नागरिकों के विवाह में कोई भी बाधा नहीं होगी।’ महिला सदस्यों हंसा मेहता व राजकुमारी अमृत कौर ने डॉ अंबेडकर सहित इसका समर्थन किया। लेकिन के एम मुंशी के साथ ही कृष्णास्वामी अय्यर व जे दौलतराम ने तो इसका विरोध किया ही, नामी समाजवादी नेताओं जेबी कृपलानी व केटी शाह द्वारा किये विरोध से यह संशोधन नामंजूर हो गया। उप समिति के दो सदस्य सरदार हरनाम सिंह व मौलाना अबुल कलाम आजाद इस महत्वपूर्ण बैठक में गैरहाजिर रहे।

1872 के विशेष विवाह कानून में अलग धर्म मानने वालों के परस्पर विवाह पर रोक थी, एवं ऐसे विवाह हेतु एक पक्ष का धर्मांतरण जरूरी था। 1954 के संशोधित विशेष विवाह कानून में यह रोक तो हटा दी गई किन्तु इसकि प्रक्रिया इतनी जटिल रखी गई कि व्यावहारिक तौर पर अंतरधार्मिक विवाह की स्वतंत्रता में बहुत सी बाधाएं खड़ी कर दी गईं अर्थात नागरिक को अंतरधार्मिक विवाह के लिए राज्य व नौकरशाही की अनुमति वास्तविकता बन गई। 1980 के दशक में भारत के शासक पूंजीपति वर्ग का रुझान ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की ओर मुड़ने पर कई राज्यों की कांग्रेसी सरकारों ने भी इन विवाहों में बाधा डालने वाले नियम बनाए। इसकी परिणति वर्तमान में बने फासिस्ट ‘लव जिहाद’ कानून हैं जो अल्पसंख्यकों व स्त्रियों दोनों की परतंत्रता की जंजीर को मजबूत करने वाली एक और कड़ी हैं। इसी कानूनी व्यवस्था का नतीजा है कि पिछले तीस सालों में किसी भी कोर्ट ने ऐसे कानूनों को असंवैधानिक नहीं पाया।

अतः मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था, संसद, सुप्रीम कोर्ट, आदि की रक्षा का सीमित नारा भारत में फासीवाद से लड़ने का आधार न तो बन पा रहा है, न ही बन सकता है, क्योंकि पूंजीपति वर्ग शासन के संचालन हेतु बनी व्यवस्था उसके आर्थिक संकट से घिर जाने पर सड़कर आने वाले फासीवाद का औजार बननी स्वाभाविक व निश्चित है। फासीवाद के वास्तविक विरोध के लिए शोषणमुक्त व हर किस्म के उत्पीड़न व भेदभाव से रहित, असली समानता आधारित समाज का एक नया खाका प्रस्तुत करना ही होगा।

किंतु हम जब मौजूदा संविधान की आलोचना करते हैं तो क्या इस संविधान में संशोधन या बुनियादी बदलाव का मौजूदा प्रस्ताव हमारे लिए कोई मुद्दा ही नहीं है? हम संविधान की आलोचना इस तर्क पर करते आए हैं कि यह पूंजीवादी व्यवस्था का संविधान है जो वास्तविक समानता और जनवाद पर स्थापित समाज नहीं बना सकता और इसमें दिये गए वैधानिक अधिकार बहुत हद तक कागजी ही हैं। लेकिन फिर भी हम इस संविधान में प्रदत्त जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि समाजवादी समाज की स्थापना की लड़ाई तभी मुमकिन है जब संविधान में प्रदत्त वैधानिक जनवादी अधिकारों की प्राप्ति के लिए जुझारू संघर्ष के जरिए मेहनतकश जनता की समझ यहां तक पहुंच जाये कि पूंजीवादी व्यवस्था में ये अधिकार प्राप्त होना ही नामुमकिन है। हम मौजूदा व्यवस्था में ऐसा बदलाव चाहते हैं जो निजी संपत्ति की व्यवस्था समाप्त कर समस्त मेहनतकश-उत्पीड़ित जनता को वास्तविक ठोस अधिकार ही नहीं दे, बल्कि उन वैधानिक अधिकारों को लागू करने की वास्तविक शक्ति को भी नौकरशाही के नियंत्रण से निकालकर मेहनतकश जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में ही दे दे।

किंतु इस बीच फासिस्ट उभार हमारे लिए एक नई स्थिति पैदा करता है। अब शासक पूंजीपति वर्ग को मौजूदा संविधान के औपचारिक जनवादी अधिकार और कल्याणकारी राज्य का कागजी वादा भी अपने हितों के लिए असहनीय लगने लगा है। पहले से ही पूरी तरह लागू न किए जाने वाले इन औपचारिक अधिकारों व कागजी वादों से भी पूरी तरह इंकार कर अब वह एक निहायत ही नग्न प्रतिक्रियावादी सत्ता का ढांचा जनता पर जबरिया लादना चाहता है। सभी धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र और भाषा-भाषियों को मौजूदा संविधान ने वैधानिक रूप से समान नागरिक घोषित किया था, हालांकि इस घोषणा को कभी भी पूरी तरह क्रियान्वित नहीं किया गया और पूंजीवाद की निहित प्रवृत्ति के तौर पर बहुसंख्यकवाद की ओर रुझान निरंतर बढ़ता ही रहा। पर अब पूंजीपति वर्ग समानता की उस औपचारिक घोषणा तक को भी रद्द कर कुछ तबकों को दोयम दर्जे का नागरिक घोषित करना चाहता है (जैसे जर्मनी में यहूदियों, रोमा व स्लाव लोगों को अधिकारों से वंचित किया गया था)। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार के कागजी वादों से भी वह मुंह फेर लेना चाहता है।

उदाहरणार्थ, हम मानते हैं कि शिक्षा, रोजगार व राजनीतिक प्रतिनिधित्व में दिए गए आरक्षण के अधिकार से ही ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों की समस्याओं का वास्तविक अंतिम समाधान संभव नहीं है क्योंकि यह भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था में उपलब्ध सीमित स्थानों के लिए होड़ में उनके एक बहुत छोटे से हिस्से को ही शामिल कर सकता है। उनकी ऐतिहासिक वंचना की समाप्ति व उत्पीड़न से मुक्ति हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास, मनोरंजन, यातायात, आदि को बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए सार्वजनिक गारंटी वाला मूल अधिकार बनाना और वास्तविकता में क्रियान्वित करना होगा। लेकिन हमारे इस विचार का मतलब यह नहीं कि आज आरक्षण का जितना अधिकार दिया गया है उसे भी शासक वर्ग द्वारा समाप्त कर दिया जाए। इस अधिकार में कटौती या इसे समाप्त करने के किसी भी कदम का हम पूर्ण विरोध करते हैं। हमारा मकसद आरक्षण जैसे सीमित अधिकारों से पीछे जाना नहीं, बल्कि इनसे आगे बढ़, सबके लिए सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार, यातायात, मनोरंजन, आदि के सार्वत्रिक अधिकारों (universal rights) की गारंटी के रूप में विस्तार करना है। इस परिस्थिति में संविधान पर होने वाले मौजूदा फासिस्ट हमलों का विरोध न करना या उसे ध्यान देने लायक मुद्दा न मानना पूरी तरह अतार्किक और अनैतिहासिक नजरिया होगा।

पूंजीवाद की स्थापना के बाद से ही निजी संपत्ति (पूंजी) की रक्षा और उसकी शोषण पर टिकी उत्पादन व्यवस्था के सुचारु परिचालन हेतु ही पहले विकसित राज्यों और बाद में औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए देशों में एक सामान्य संवैधानिक प्रणाली (संसद, न्यायालय, कानून, पुलिस, आदि) की स्थापना की गई थी। इस संवैधानिक प्रणाली ने औपनिवेशिक उत्पीड़न व सामंती विशेषाधिकारों की समाप्ति का ऐलान कर वैधानिक रूप से सबको समानता व स्वतंत्रता दी थी। इन वैधानिक अधिकारों ने ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित जनता में शोषण मुक्ति की बड़ी उम्मीदों व जनवादी आकांक्षाओं को जन्म दिया था।

किंतु वास्तविकता में क्या हुआ? पूंजीवाद के विस्तार के दौर में निश्चय ही शोषित उत्पीड़ित जनता को कुछ सीमित अधिकार मिले भी थे। लेकिन विस्तार का यह दौर जल्द ही समाप्त हो गया। तत्पश्चात पूंजीवाद के बारंबार आर्थिक संकट में पड़ने पर यानी बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे पर संकट छाने की स्थिति में इस संवैधानिक प्रणाली का इस्तेमाल भी जनता पर आक्रामक व दमनकारी रूप से ही किया जाता रहा है।

परंतु आज इक्कीसवीं सदी में तो पूरे विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था एक अनुत्क्रमणीय व लगभग चिरस्थाई संकट में फंस चुकी है और उसके शासन करने के पुराने तरीके कतई काम नहीं आ रहे हैं। इसी अंतहीन संकट का नतीजा है कि मजदूर मेहनतकश वर्ग का शोषण और तेज करने तथा जनता के प्रतिरोध को पूरी तरह कुचलने हेतु भारत सहित पूरे विश्व में घोर दक्षिणपंथी तथा फासीवादी रुझान वाली सरकारें शासन में आ रही हैं और जनतंत्र संकुचित या समाप्त होने की कगार पर पहुंच रहा है। इसी “विकास” का परिचायक है सभी जनतांत्रिक निकायों पर जबरिया कब्जा, श्रम कानूनों को ध्वस्त कर लेबर कोड का आगमन, किसानों की बेदखली हेतु कृषि कानूनों का कार्यान्वयन, आपराधिक कानूनों में “सुधार”, और अब पूरे संविधान को ही पलट डालने की यह कोशिश।