जी20 शिखर सम्मेलन – साम्राज्यवादी खेमाबंदी और तेज होने का रंगमंच

October 5, 2023 0 By Yatharth

इससे जंग का खतरा कम नहीं हुआ, और बढ़ गया है

हर मुल्क के मेहनतकशों द्वारा पूंजी के शासन को उखाड़ फेंकना ही एकमात्र उपाय

एम असीम

दुनिया के प्रमुख पूंजीवादी देशों के शासकों का जी20 शिखर सम्मेलन दिल्ली की गरीब मेहनतकश जनता को ऊंचे परदों की बाड़ाबंदी में अदृश्य बनाकर तथा पुलिसिया बूटों-डंडों के आतंक से उनकी आवाजाही व रोजीरोटी कमाने तक की आजादी को छीनकर ‘बेहद सफलतापूर्वक’ आयोजित किया गया। इससे भारत दुनिया की प्रमुख शक्तियों में शामिल हो गया है, भारत सरकार और कॉर्पोरेट मीडिया के बड़े हिस्से में खम ठोंक कर किए जा रहे इस दावे की गूंज इतनी अधिक कानफोड़ू व चमक ऐसी चौंधियाने वाली है कि उसे बगैर आलोचनात्मक नजरिए से देखने सुनने पढ़ने वालों के दिमागी तौर पर अंधे-बहरे हो जाने का खतरा पूरी तरह वास्तविक है।

यह भी दावा बड़े जोर शोर से किया जा रहा है कि इस सम्मेलन में इकट्ठा हुए जिन बेहद ‘नाजुक मिजाज’ शासकों को दिल्ली की गरीब जनता के दिख जाने भर से ही हृदयाघात या लकवा मार जाने का ऐसा गंभीर जोखिम था कि उस दृश्य को उनकी नजरों से ओझल करने वास्ते बड़ी भारी जंगी तैयारी की गई थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सशक्त व दूरदर्शी नेतृत्व की अति प्रशंसनीय कूटनीति की भारी कामयाबी के कारण वो सभी शासक दुनिया भर की वैसी ही जनता के ‘मानवता केंद्रित टिकाऊ विकास’ में परस्पर दृढ़ वैश्विक सहयोग के लिए सहमत हुए हैं! किंतु जिस बात पर इस सम्मेलन की कामयाबी का सेहरा सबसे जोरों से बांधा जा रहा है, वह है इसमें जारी संयुक्त घोषणापत्र। मोदी सरकार, बीजेपी व कॉर्पोरेट मीडिया के विशेषज्ञों का दावा है कि इस घोषणापत्र के जरिए पूरी दुनिया ने नरेंद्र मोदी के इस सूत्र को स्वीकृति दी है कि ‘मौजूदा वक्त युद्ध का वक्त नहीं है’। उधर परस्पर विरोधी हितों वाले कटु बयानबाजी में जुटे विभिन्न खेमों ने भी अपनी प्रेस वार्ताओं व बयानों में इस अनोखे घोषणापत्र को अपनी-अपनी विजय घोषित किया है! तो क्या वास्तव में ही नरेंद्र मोदी ने सभी प्रमुख शक्तियों को अमन के लिए तैयार कर लेने का कोई ऐतिहासिक कारनामा कर दिखाया है?

जी20 सम्मेलन की पृष्ठभूमि –

दो साम्राज्यवादी धुरियों का उभार 

यह जी20 शिखर सम्मेलन ऐसी वैश्विक परिस्थिति में हुआ जब पहले सीरिया, फिर उक्रेन में विनाशकारी जंगों के जरिए इजारेदार वित्तीय पूंजीपतियों के बीच सुपर मुनाफों के वास्ते दुनिया भर के संसाधनों की बंदरबांट के लिए दो साम्राज्यवादी खेमों का उभार स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है। अब इन धुरियों के बीच छीना झपटी और जंग की तैयारी का प्रभाव दुनिया भर में तेज होते घटनाक्रम के जरिए नजर आने लगा है। एक धुरी आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में यूरोपीय नाटो देशों, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया आदि देशों की है जिसे आम तौर पर ‘पश्चिम’ कहा जाता है और जी7 समूह जिसका प्रमुख मंच रहा है। 1990 के दशक में पुराने प्रतिद्वंद्वी सोवियत खेमे के पतन के बाद इस धुरी का दुनिया भर पर लगभग एकछत्र प्रभुत्व रहा है और ‘इतिहास के अंत’ के ऐलान के रूप में ये अपने विश्वव्यापी प्रभुत्व के भविष्य में चिरस्थाई होने का दावा करते रहे हैं।

लेकिन ‘इतिहास के अंत’ की इस घमंडी दुंदुभी के मात्र तीन दशक में ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विज्ञान और ‘पूंजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद’ में लेनिन का बताया विश्लेषण फिर से पूरी तरह खरा उतरा है कि अधिकतम व सुपर मुनाफों की होड़ पूंजीवाद का अनिवार्य नियम है और इस होड़ का अवश्यंभावी नतीजा दुनिया पर प्रभुत्व व वर्चस्व हेतु फिर से बंटवारे की एक नई साम्राज्यवादी कशमकश होती है। इस होड़ के ताजा संस्करण के नतीजे में प्रभुत्वशाली अमरीकी नेतृत्व वाली पश्चिमी साम्राज्यवादी धुरी के मुकाबले उसे चुनौती देने वाली दूसरी पश्चिम विरोधी साम्राज्यवादी धुरी चीन, रूस, इरान आदि के नेतृत्व में आकार ले चुकी है और अपने साथ दुनिया के और भी कई देशों को जोड़ने में जुटी है। इससे दुनिया में एक और विनाशकारी वैश्विक जंग का खतरा बढ़ता जा रहा है।             

इस उभरती अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति को किस रूप में देखा जाए? संक्षेप में कहें तो अमरीकी खेमे के नियंत्रण वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा संचालित तथाकथित ‘नियम आधारित विश्व व्यवस्था’ (rules based world order) के स्थान पर एक नई वैश्विक व्यवस्था के उदय की संभावना प्रबल हो गई है। इस पुरानी विश्व व्यवस्था का मतलब था पश्चिमी साम्राज्यवाद का एकाधिपत्य व मनमानी जिसमें इनके वित्तीय व औद्योगिक पूंजीपतियों के हित पर आंच आते ही (जैसे किसी देश द्वारा अपने प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा दोहन पर नियंत्रण) इन देशों में बेरोकटोक तख्तापलट, राष्ट्रप्रमुखों की हत्याएं, गृहयुद्ध छिड़वाना, भाड़े की टुकड़ियों या सीधे अपनी फौजों द्वारा दखलंदाजी के साथ ही साथ उन्हे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से बाहर करने वाली पाबंदियां व लंदन-न्यूयॉर्क आदि के बैंकों में जमा उनका विदेशी मुद्रा व सोना जैसे खजाने को जब्त कर लेना आम हो गया था। क्यूबा, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, बोलीविया, निकरागुआ, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया, इराक, सर्बिया, आदि कई दर्जन देश इस साम्राज्यवादी धींगामस्ती का शिकार बन चुके थे और उन्हें इसके सामने झुकना पड़ता था।

इससे पूरी दुनिया में एक पश्चिमी साम्राज्यवाद विरोधी मानसिकता पहले से तैयार हो चुकी थी और सभी उभरते पूंजीवादी देश इसके प्रति चौकन्ने थे। रूस, चीन, भारत, ब्राजील, तुर्की, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब, इरान, मेक्सिको, आदि कई गैर पश्चिमी उभरते देश दो दशक पहले ही इस जाल से मुक्त होने की तैयारियां आरंभ कर चुके थे। इन तैयारियों में नए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की संभावनाएं टटोलने, ऊर्जा, तकनीक व सैन्य उत्पादन में आत्मनिर्भर होने या एक खेमे पर निर्भरता घटाने से लेकर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वित्त, भुगतान, इ-कॉमर्स, सोशल मीडिया, आदि तक में पश्चिमी खेमे पर निर्भरता से बाहर निकलने की तैयारियां शामिल थीं। 

इस स्थिति को हम जाति/बिरादरी पंचायतों द्वारा बहिष्कार के उदाहरण से बेहतर समझ सकते हैं। जब तक इक्का दुक्का कमजोर स्थिति के व्यक्ति या परिवार जाति बहिष्कार या हुक्का-पानी बंद होने के शिकार होते थे, जाति पंचायत के समक्ष झुकना उनकी मजबूरी थी। किंतु बहिष्कृतों की संख्या बढ़ते या कुछ मजबूत स्थिति वालों का बहिष्कार होते ही इन बहिष्कृतों द्वारा इकट्ठा होकर एक नई प्रतिद्वंद्वी जाति पंचायत या कई बार नई जाति तक बना लेने की स्थिति आ जाती थी।

यही एक ढंग से वैश्विक व्यवस्था में हुआ है। जैसे ही इरान, रूस व डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति काल में चीन पर पश्चिमी ‘नियमों’ का हमला शुरू हुआ, स्थिति बदल गई और इन देशों ने धीरे-धीरे पश्चिमी साम्राज्यवादी एकाधिपत्य के खिलाफ करीब आना व सहयोग करना आरंभ कर दिया और अन्य देशों को भी इस ओर खींच लाने के प्रयास आरंभ कर दिए। सीरिया में इरान व रूस का पश्चिम विरोधी सहयोग इसका पहला स्पष्ट उदाहरण था। वर्तमान में इन तीन सबसे प्रतिबंधित  देशों – रूस, चीन और इरान के बीच पश्चिमी धुरी को चुनौती देने वाला परस्पर सुविधाजनक अनौपचारिक गठबंधन स्पष्ट दिखायी दे रहा है।

पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे की सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं व मीडिया इन्हें भारी रोष से निरंकुशता की तिकड़ी (A troika of tyranny) या बदमाशों की तिकड़ी (Triad of bullies) नाम से पुकार रहा है। पहले अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने डोनाल्ड ट्रम्प के शासन के दौरान क्यूबा, निकारागुआ और वेनेजुएला को ऐसी ही तिकड़ी “ट्राएंगल ऑफ टेरर” नाम दिया था। बोल्टन ने ही “समाजवाद की तीन कठपुतलियां” (three Stooges of socialism) का नाम भी क्यूबा के डियाज, वेनेजुएला के निकोलस मदुरो और निकरागुआ के डेनियल ऑरटेगा को दिया गया था। बाद में इराक, ईरान और उत्तर कोरिया को एक्सिस ऑफ इविल (axis of evil) कहा गया। इसी प्रकार वार ऑन टेरर के नाम पर इस्लामी देशों के खिलाफ पूरी दुनिया में युद्ध का माहौल बनाया गया और इराक, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया, लेबनान, पैलेस्टाइन में हमलों द्वारा भारी ध्वंस किया गया। फ्रांस ने भी माली, आदि कई पश्चिम अफ्रीकी देशों में सैन्य दखलंदाजी की है और पूरे दक्षिण अमरीकी देशों में तो अमरीकी शह पर तख्तापलट की घटनाओं का एक पूरा इतिहास ही है। हालांकि इनमें से किसी भी देश ने पश्चिम के लिए कभी कोई गंभीर खतरा उत्पन्न नहीं किया, लेकिन विभिन्न देशों के खिलाफ इस अमरीकी बयानबाजी व ध्वंस की धमकियों ने बहुत से देशों को चौकस कर दिया। इसीलिए दक्षिण अमरीका, अफ्रीका से एशिया व यूरोप तक पुराने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सुर बदले हैं और नए संगठन अस्तित्व में आए हैं।

इस जी20 शिखर सम्मेलन में जुटे देशों में सोवियत खेमे के पतन के तथाकथित इतिहास के अंत के पश्चात अस्तित्व में आई अमरीकी प्रभुत्व वाली एकध्रुवीय दुनिया के तीन दशक में ही टूट जाने से उभर कर आए दो धुर विरोधी साम्राज्यवादी खेमे शामिल थे। ये खेमे सीरिया के बाद अब डेढ़ साल से अधिक से उक्रेन की भूमि पर युद्धरत हैं। पश्चिम अफ्रीका के सहेल क्षेत्र के पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश रहे विभिन्न देशों में भी एक के बाद एक फौजी तख्ता पलट के जरिए इनके बीच घोर रस्साकशी जारी है। भारत के पड़ोस में पाकिस्तान से लेकर मध्य एशिया और दक्षिण अमरीका तक के देशों में सत्ता की उठा पटक और सीमा पर तनाव झड़पों में इन दोनों खेमों के बीच तीव्र होती होड़ का प्रभाव देखा जा सकता है। ताइवान को लेकर इनके बीच तीव्र हो रहे तनाव से पहले से ही युद्ध के बादल घिर रहे थे। अब चीन को चिप (सेमीकंडक्टर) उत्पादन में आगे बढ़ने से रोकने हेतु अमरीकी खेमे द्वारा छेड़े गए चौतरफा आर्थिक युद्ध के भी असल सैन्य युद्ध में बदल जाने का खतरा मंडरा रहा है।

इस जी20 सम्मेलन से पश्चिमी खेमे का मकसद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने 11 सितंबर को हाउस ऑफ कॉमंस में साफ किया, “रूस पर कूटनीतिक दबाव बढ़ाना और काले सागर में वैश्विक खाद्य आपूर्ति में शर्मनाक व्यवधान की निंदा करना।” ऐसे दो विरोधी साम्राज्यवादी खेमों में दुनिया भर को अपने प्रभाव क्षेत्रों में पुनर्बंटवारे की तीव्र होड़ और इसके बीच अपने लिए लाभकारी सौदेबाजी के मौके ढूंढ रहे कुछ और उभरती शक्ति बनने के महत्वाकांक्षी पूंजीवादी देशों के इस शिखर सम्मेलन में आखिर किस बात पर सहमति बन सकती थी, जबकि साथ ही परमाणु युद्ध सहित हर मुमकिन तरीके से अंत तक लड़कर एक दूसरे को पूर्ण रूपेण ध्वस्त करने की धमकियां दी जा रही हों? इस खेमाबंदी व तनाव का पहला नतीजा तो यह था कि पश्चिम को चुनौती पेश कर रही धुरी के प्रमुख देशों चीन व रूस के सत्ता प्रमुखों ने पहले ही सम्मेलन में आने से इंकार कर दिया था।

संयुक्त घोषणापत्र का थोथापन

अतः इस बात में पहले से ही बेहद शक जाहिर किया जा रहा था कि इस शिखर सम्मेलन में कोई संयुक्त घोषणापत्र जारी किया जा सकेगा। किंतु उससे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सशक्त नेतृत्व और सम्मेलन की कामयाबी के दावों के कानफोड़ू प्रचार से हासिल होने वाले संभावित घरेलू राजनीतिक लाभ पर ही बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता, जिसके लिए अगले आम चुनावों के ठीक पहले जी20 की अध्यक्षता की बारी का मौका योजनाबद्ध ढंग से लेकर और 10 महीने की तैयारी व कई हजार करोड़ रुपये का भारी खर्च कर यह सम्मेलन आयोजित किया गया था।

अतः किसी तरह एक घोषणापत्र जारी करा लेना ही मुख्य लक्ष्य बन गया था। और, हुआ कुछ यूं कि एक घोषणापत्र पर सहमति का ऐलान कर वाहवाही लूट लेने के लिए सम्मेलन में किसी वास्तविक चर्चा व इसके औपचारिक निष्कर्ष की रस्म अदायगी वाले दिखावे तक का इंतजार नहीं किया गया, बल्कि सम्मेलन आरंभ होते ही सबसे पहले एक घोषणा पत्र ही जारी कर दिया गया! पर असल में तो इससे और अधिक स्पष्ट हो गया कि इस शिखर सम्मेलन में इन देशों के बीच किसी वास्तविक चर्चा व सहमति की कोई गुंजाइश थी ही नहीं। नरेंद्र मोदी के लिए जिस अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की उपस्थिति इतनी अधिक महत्वपूर्ण थी, वो तो सम्मेलन की समाप्ति की रस्म अदायगी तक पूरी न कर दूसरे दिन सुबह ही हनोई के लिए चलता बना। ऊपर से मोदी सरकार बाइडेन व अन्य नेताओं के भारत में रहते खुली पत्रकार वार्ता में कुछ अप्रत्याशित कह देने से इतनी भयभीत थी कि सभी सरकार प्रमुखों से पत्रकार वार्ता न करने की शर्त दिल्ली आने के पहले ही मनवा ली गई थी।

कमाल की बात तो यही है कि लाखों निर्दोष लोगों की हत्याओं, बड़े पैमाने पर बेघरी व प्रवास, खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में बाधा से अकाल, आदि के अमानवीय नतीजों वाले महाविनाशकारी युद्धों में रत व आगे इससे भी भयानक युद्धों की तैयारी में जुटे सभी पूंजीवादी साम्राज्यवादी देश ‘यह युद्ध का समय नहीं है’ की बात वाले घोषणा पत्र पर पूरी तरह सहमत हो गए! संयुक्त घोषणापत्र में इस बात पर भी सहमति घोषित हुई कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार सभी देशों की एकता अखंडता का पूरा सम्मान किया जाए! जो देश दुनिया भर के देशों में सैनिक हस्तक्षेप करते रहे हैं, विभिन्न देशों को हथियार बेच तनाव व युद्ध का माहौल बनाने में अगुआ हैं, जिनकी फौजें आज भी दर्जनों देशों में मौजूद हैं, जिन्होंने कई देशों के टुकड़े किए हैं या जिनसे अपनी एकता अखंडता की हिफाजत के लिए कुछ देशों को दसियों लाख जानों की कुर्बानी की भारी कीमत चुकानी पड़ी है, वे भी उपरोक्त महान ऐलान पर पूर्ण सहमत हुए।

साफ है कि इस कागजी सहमति से प्राप्त कामयाबी का कोई वास्तविक अर्थ ही नहीं है। सम्मेलन से निकलते ही कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों या प्रतिनिधियों ने अपने बयानों से इसकी पुष्टि कर दी कि इस ‘सहमति’ के अर्थ पर ही सब पूर्ण असहमत हैं। अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन, जो सम्मेलन पूरा होने के पहले ही दिल्ली से रवाना हो गए, ने वियतनाम जाकर प्रेस कॉन्फ्रेंस में और उनके विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन ने अमरीकी मीडिया के सवालों का सामना करते हुए घोषणापत्र को अपनी सफलता बताते हुए इसे रूस के खिलाफ सशक्त बयान तथा उक्रेन की अखंडता का समर्थन बताया। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने भी सफाई देते हुए दिल्ली में ही कह डाला कि जी20 उक्रेन युद्ध पर कूटनीतिक वार्ता का कोई मंच था ही नहीं, और “मुझे नहीं लगता कि यह रूस के अलगाव के अतिरिक्त कोई बड़ी कूटनीतिक जीत या कुछ और है।” उधर रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लाव्रोव ने कहा कि पश्चिमी देश जी20 सम्मेलन का उक्रेनीकरण करने में नाकाम रहे तथा ‘ग्लोबल साउथ’ उक्रेन पर उनके लेक्चर सुनने के लिए राजी नहीं है।

जापानी प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने इस घोषणापत्र का बचाव तो किया मगर सर्वाधिक ईमानदारी के साथ यह स्वीकार किया कि उक्रेन युद्ध ने ‘जी20 में सहयोग की पूरी बुनियाद ही हिला डाली है’। खुद ऋषि सुनक को ब्रिटिश संसद मे कहना पड़ा है कि यह जी7 की बैठक नहीं थी कि घोषणापत्र की भाषा पर उनका नियंत्रण होता। कनाडा के त्रूदो ने भी कहा कि उनका बस चलता तो भाषा कठोर होती।

जंग का खतरा कम नहीं हुआ

ऋषि सुनक के ऊपर उद्धृत पश्चिमी खेमे के मुख्य लक्ष्य के संदर्भ में भी लावरोव का बयान बड़ा स्पष्ट है, “जब हमारे अनाज व खाद के निर्यात की अड़चनों को दूर करने के लिए जरूरी कदम उठा लिए जाएंगे तो हम भी काले सागर के उक्रेनी भाग से होने वाली पहलकदमी के सामूहिक क्रियान्वयन के काम में वापस जुट जाएंगे।” साफ है कि नरेंद्र मोदी और उनके विदेश मंत्री जो भी बड़े-बड़े दावे कर रहे हों, दोनों खेमों में किसी प्रकार की कोई ऐसी सहमति नहीं हुई जिसे तनाव व युद्ध के जोखिम को कम करने वाला समझा जाए। 

पर असल सच्चाई बाहर आई भारत में जर्मनी के राजदूत फिलिप एकरमैन के 12 सितंबर के बयान से। उन्होंने इस बात से तो इंकार किया कि जी7 और यूरोपीय संघ ने उक्रेन पर अपने स्टैंड से समझौता किया है और दावा किया कि रूस को पूरी तरह अलग थलग कर दिया गया। किंतु उन्होंने यह भी माना कि जी20 उन अंतिम मंचों में से है जहां अभी भी सब एकत्र हो वार्ता कर सकते हैं। कोई संयुक्त घोषणापत्र जारी नहीं हो पाना तो जी20 की अकाल मृत्यु के समान होता क्योंकि तब अगले साल ब्राजील के लिए शिखर सम्मेलन कराना ही मुश्किल हो जाता। अतः इंडोनेशिया, भारत, ब्राजील व दक्षिण अफ्रीका ने मिलकर अल्टीमेटम के तौर पर जो प्रस्ताव दिया उसे शब्दशः मान लेने के अतिरिक्त दोनों खेमों के पास कोई चारा नहीं था क्योंकि दोनों की जरूरत है कि इन उभरते पूंजीवादी देशों को अपने पाले में लाए।  

साफ है कि इस सम्मेलन में वैश्विक तनाव व जंग के बढ़ते खतरे में उलझे दोनों खेमों और इनके बीच तनाव में दोनों ओर से व्यापारिक लाभ के मौके ढूंढने में जुटे एक तीसरे समूह के शासकों में परस्पर सहमति का कोई वास्तविक बिंदु था ही नहीं। हालांकि औपचारिक रूप से ये सभी ‘धार्मिक घृणा के मामलों की निंदा और इन्हें समाप्त करने’ पर सहमत थे। पर वास्तविकता में इनके बीच ऐसा तीक्ष्ण द्वंद्व था कि दो प्रमुख राष्ट्रों चीन व रूस के राष्ट्राध्यक्ष इसमें शामिल ही नहीं हुए और जो शामिल हुए वो एक सामूहिक फोटो हेतु भी एक साथ मित्रतापूर्वक दिखते खड़े होने को तैयार नहीं थे। कोई ग्रुप फोटो जारी न होने की बदनामी से बचने के लिए मेजबान को महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर सम्मान जताने का सहारा लेना मजबूरी बन गया, हालांकि गांधी के अहिंसावादी विचारों के लिए खुद नरेंद्र मोदी और युद्धरत व हथियार सौदागर देशों के इन नेताओं के मन में कितना सम्मान है यह सभी जानते हैं। ऐतिहासिक सच्चाई है कि महात्मा गांधी ने भारतीय पूंजीवाद की कई बार कठिन परिस्थितियों में महती सेवा की है और आज भी कर रहे हैं, हालांकि मौजूदा शासक समूह का उनके प्रति घनघोर विरोध जगजाहिर है।

साम्राज्यवादी होड़ व छीनाझपटी और जंगी तैयारी तेज होगी

ऐसी स्थिति में इस सम्मेलन में आए विभिन्न देशों के नेताओं-कूटनीतिज्ञों का एक ही काम बचा था जो आजकल वैसे ही उनकी सभी बैठकों का एकमात्र एजेंडा है अर्थात दो साम्राज्यवादी धुरियों द्वारा उभरते पूंजीवादी देशों में से अधिक से अधिक देशों को अपने पाले में लाने की सौदेबाजी करना। दोनों धुरियों के बाहर के उभरते पूंजीवादी देश भी इस सौदेबाजी में बेहद दिलचस्पी रखते हैं और दोनों ओर से अपने देश के पूंजीपति वर्ग के लिए कुछ फायदे पाने के लिए लालायित हैं।

इस दृष्टि से जी20 से निकला एकमात्र बड़ा ऐलान सामूहिक होने के बजाय इसकी साइडलाइन पर ही हुआ अर्थात भारत से यूएई, सऊदी अरब, जॉर्डन, इजरायल के जरिए भूमध्य सागर तट पर ग्रीस होते हुए यूरोप तक का इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप इकॉनामिक कॉरीडोर। इस समझौते में इन देशों के अतिरिक्त अमरीका, यूरोपीय संघ, इटली, फ्रांस व जर्मनी शामिल हैं। यह चीन की बेल्ट रोड परियोजना का ही नहीं भारत-रूस-इरान द्वारा लगभग दो दशक से ‘विकसित’ किए जा रहे मगर अभी भी अधूरे अरब सागर तट पर चाबहार (इरान) से मध्य एशिया होते हुए रूस तक के नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर का भी प्रतिद्वंद्वी है। इरान पहले ही चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत द्वारा धीमी गति की शिकायत जताते हुए इस समझौते को रद्द करने तक के संकेत दे चुका है। उधर चीन चाबहार से कुछ ही किलोमीटर दूर पाकिस्तान सीमा में ग्वादर से चीन तक चाइना पाकिस्तान इकॉनामिक कॉरिडोर को तेजी से विकसित कर रहा है। 

हालांकि अमरीकी पहलकदमी पर प्रस्तावित इस कॉरीडोर की सफलता पर तुरंत ही प्रश्नचिन्ह खड़े हो गए क्योंकि ये चीनी बेल्ट एंड रोड के प्रतिद्वन्द्वी जो बाइडेन की तीसरी घोषणा थी। पहली दोनों घोषणाओं के क्रियान्वयन में अब तक एक डॉलर का खर्च भी नहीं किया गया है। दूसरे, इंडियन शिपओनर्स एसोसिएशन सहित बहुत से विशेषज्ञों का कहना है कि भारत से सीधे यूरोप को समुद्री शिपिंग के बजाय सामान को दो बार शिपिंग और दो बार स्थल से लादना-उतारना कहीं अधिक महंगा व असुविधाजनक होगा। तीसरे, फिलहाल इस समुद्री व्यापार से मुख्य लाभ पाने वाले मिस्र और तुर्की को इससे सीधा नुकसान होगा और वो इसके विरोध में हैं। नाटो सदस्य होते हुए भी तुर्की पहले ही रूस के विरुद्ध अमरीकी मुहिम से खुद को अलग किए हुए है और इस कॉरीडोर से खुद को अलग रखे जाने पर उसके राष्ट्रपति अर्दोआन ने पहले ही नाराजगी जताते हुए कहा है कि तुर्की को किनारे कर इस क्षेत्र में व्यापारिक कॉरीडोर मुमकिन नहीं है।

हां, पश्चिम एशिया के देशों के लिए इससे कुछ लाभ हो सकता है। रूस चीन से रिश्ते सुधार रहे और हाल ही में ब्रिक्स के सदस्य बने सऊदी अरब व यूएई को इजरायल सहित अपनी ओर खींचना ही इस समझौते के पीछे अमरीकी मकसद है। उधर भारत के इसमें दिलचस्पी का कारण अडाणी समूह के इंफ्रास्ट्रक्चर पूंजी निवेश हैं क्योंकि इससे उसे भारी लाभ की संभावना है। यह कॉरिडोर भारत के पश्चिमी अरब सागर तट पर शुरू होगा जहां अडाणी के मुंदडा और विजिंझम बंदरगाह हैं। अरब देशों में रेल लाइन से यह कॉरिडोर पहुंचेगा इजरायल में हैफा बंदरगाह जो पिछले साल ही अडाणी के नियंत्रण में आ चुका है। हैफा से भूमध्य सागर पार यह पहुंचेगा ग्रीस। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी 25 अगस्त को ही ग्रीस की यात्रा पर गए थे और यूनानी मीडिया की रिपोर्ट है कि ग्रीस के कवाला, वोलोस या अलेक्जांड्रोपोली बंदरगाहों में से किसी एक या दो में गौतम अडाणी की कंपनी के संभावित पूंजी निवेश पर चर्चा इस यात्रा का एक प्रमुख विषय था।

किंतु दूसरी ओर से भी इस क्षेत्र में जवाबी प्रयास जारी हैं। अगस्त के अंतिम सप्ताह में ही प्रथम रूसी मालगाड़ी कजाखस्तान, तुर्कमेनिस्तान व इरान के रास्ते सऊदी अरब पहुंच चुकी है। अर्दोआन व पुतिन ने सोची में शिखर वार्ता की है। चीन ने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता दे वहां राजदूत की नियुक्ति कर दी है। 29 सितंबर को रूस के कजान में अफगानिस्तान पर वार्ता में भारत भी शामिल होगा। उधर जो बाइडेन के हनोई से रवाना होते ही चीन-वियतनाम ने पब्लिक सिक्युरिटी (इंटेलीजेंस) मंत्रियों ने समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। 

इस प्रकार देखें तो जिन घोषणाओं को जी20 के बीच सहयोग व विश्व के मानव केंद्रित विकास हेतु सम्मेलन की भारी सफलता बताया जा रहा है, वह असल में अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व वाले एकध्रुवीय वर्ल्ड ऑर्डर का अंतिम संस्कार ही अधिक था, जो नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कई हजार करोड़ रुपये के खर्च व शाकाहारी भोज के साथ संपन्न हुआ।

इस जी20 सम्मेलन ने स्पष्ट कर दिया है कि पश्चिमी व चीन-रूस साम्राज्यवादी खेमों के बीच किसी सहमति व युद्ध के खतरे को कम करने की कोई संभावना नहीं है। दोनों के बीच मुनाफे की छीना झपटी के लिए दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपना वर्चस्व व प्रभाव क्षेत्र कायम करने की होड़ निरंतर तेज हो रही है। भारत जैसे उभरते पूंजीवादी देश जिन्हें आजकल ग्लोबल साउथ के नाम से पुकारा जाने लगा है इसमें अपने पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने का मौका देखते हुए फिलहाल पूरी तरह किसी एक खेमे में जाने के बजाय दोनों ओर सौदेबाजी में लगे हैं।

साम्राज्यवादी खेमों के बीच होड़ व छीनाझपटी जितनी तेज होगी, अन्य पूंजीवादी देशों के शासकों द्वारा दोनों ओर सौदेबाजी या ‘तटस्थता’ का यह मौका निरंतर कम होता जाएगा तथा इन पर किसी एक साम्राज्यवादी धुरी के साथ खुद को जोड़ने का दबाव बढ़ता जाएगा। इसके लिए दोनों धुरियों की ओर से ‘कैरट्स व स्टिक्स’ की नीति अपनाई जा रही है अर्थात साथ में आने के लिए इन देशों के पूंजीवादी शासक वर्ग को लोभ के साथ दूसरी धुरी के साथ सौदेबाजी पर ‘दंड’ की धमकियां हैं (जिसमें सत्ता पलट भी शामिल है)। अमरीका नाटो समूह के देशों के मोदी सरकार के बारे में विभिन्न किस्म की बयानबाजी, जिसमें कनाडा के साथ संबंधों का घटनाक्रम शामिल है, भी इसी दबाव बनाने की नीति का एक हिस्सा है। पाकिस्तान में सरकार गिरा देना या बांग्लादेश में ऐन चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार पर पाबंदियां भी इसी नीति के दूसरे उदाहरण हैं।

साम्राज्यवादी देशों द्वारा दुनिया भर में जारी यह छीनाझपटी विनाशकारी जंग के खतरे को बढ़ा रही है। संयुक्त राष्ट्र या जी20 आदि मंचों से इसके समाधान का कोई उपाय नहीं है क्योंकि इसका बुनियादी कारण पूंजीवाद साम्राज्यवाद का निरंतर गहराता आर्थिक संकट एवं इसके तीक्ष्ण होते अंतर्विरोध हैं जो साम्राज्यवादी छीना झपटी के युद्ध को अनिवार्य बना रहे हैं। इस वैश्विक जंग के खतरे का वास्तविक समाधान एक ही है कि सभी देशों के मेहनतकश अवाम अपने अपने देश में पूंजी के जुए को उतार फेंकें।