फासीवाद के विरुद्ध वैचारिक-राजनीतिक एकता एवं व्यवहारिक एकजुटता कायम करें!

December 18, 2023 0 By Yatharth

(जनचेतना यात्रा के बिहार चैप्टर द्वारा जारी पर्चे को संदर्भ में लेते हुए एक त्वरित टिप्पणी)

जन चेतना यात्रा के बिहार चैप्टर द्वारा जारी पर्चे में यह बिल्कुल सही बात कही गई है कि आज हमारे देश भारत की पुरानी शक्ल-सूरत कहीं दिखाई नहीं देती है। बहुत कुछ इस तरह से बदल गया कि पुरानी शक्ल-सूरत पहचान से परे हो चुकी है। लेकिन यहां यह बात स्पष्ट की जानी चाहिए कि बात भूगोल या प्राकृतिक-भौगोलिक शक्ल-सूरत की नहीं की जा रही है। हम यहां मौजूदा समय में देश व समाज के राजनीतिक-वैचारिक ताने-बाने और खासकर इसके निर्णायक तत्व मौजूदा राज्यसत्ता के चरित्र की बात कर रहे हैं जो पूरी तरह और हर मायने में बदल चुका है और सुंदर भविष्य के लिए जरूरी हर न्यायसंगत, मानवोचित और प्रगतिशील चीज तथा मूल्य को नष्ट व ध्वस्त करता जा रहा है।

2014 में केंद्र में मोदी सरकार की ताजपोशी के बाद से पिछले एक दशक में पुरानी कांग्रेसनीत ‘जनतांत्रिक’ राज्यसत्ता, जिसका चरित्र भी घोर जनविरोधी था और बहुत ही तेजी से धुर-दक्षिणपंथी बनता जा रहा था (इसे हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए), और इसके बाहर आरएसएस द्वारा दशकों में बड़े जतन से खड़ा किये गये और विश्वपूंजीवाद की संकटग्रस्तता के कारण बने नये हालातों में गुणात्मक रूप से मजबूत बन चुके फासिस्ट तंत्र, का एक-दूसरे में विस्तार हो चुका है। इसलिए इस बात का कि फासिस्ट किस्म की मशीनरी खड़ी कर दी गई है का वास्तविक मर्म यही है कि जिस तरह मोदी सरकार कांग्रेस की मनमोहन सरकार का विस्तार साबित हुई, ठीक उसी तरह आज की फासिस्ट किस्म की खड़ी कर दी गई मशीनरी उपरोक्त पुरानी धुर-दक्षिणपंथी और फासीवाद का जमीन तैयार करने वाली कांग्रेसनीत ‘जनतांत्रिक’ राज्यसत्ता का विस्तार है। फासिस्ट मशीनरी एकाएक आसमान से नहीं टपकी है, और न ही शून्य से पैदा हुई है।

मोदी सरकार बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी खासकर बड़ी वित्तीय पूंजी की दूसरे चरण की पूर्ण वर्चस्वकारी यात्रा है जिसकी जमीन पिछले चार दशकों में स्वयं कांग्रेसनीत सरकारों ने बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाकर तैयार की है और जिसे अन्य विपक्षी दलों का समर्थन हासिल था और आज भी है। क्षेत्रीय दल भी कतई विरोध में नहीं है। इस तरह 2014 के बाद कल तक बाहर से कार्य कर रहे एक फासिस्ट संगठन व तंत्र का कांग्रेसनीत बुर्जुआ प्रबंधन के अंतर्गत धुर-दक्षिणपंथी बनती जा रही ‘जनतांत्रिक’ राज्यसत्ता के साथ एकाकार और विलय हो जाता है। यही इस बात का मुख्य कारण है कि आज हमारे देश की शक्ल-सूरत कुछ यूं बनती जा रही है कि पहचान पाना मुश्किल हो चुका है। यह इस बात का भी द्योतक है कि पुराने पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य पर फासिस्ट शक्तियों का भीतर से कब्जा हो चुका है। वे बाहर से अंदर ही नहीं आ गये, सारी राज्यसत्ता के नियंता बन गये। इसके सभी महत्वपूर्ण निकायों व इकाइयों पर अंदर ही अंदर इनका नियंत्रण हो चुका है।

यह सही है कि उनकी इस बढ़ी शक्ति का मुख्य स्रोत हिंदू सांप्रदायिक-राष्ट्रवादी तथा नृजातीय मुहिम और इसके बल पर संसद व विधान सभा चुनावों में लगातार मिल रही उनकी जीत है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र में दस सालों तक सत्ता में रहने के बाद उनकी इस शक्ति में गुणात्मक वृद्धि हुई है जो अपने आप में एक बड़ी छलांग है। जो लोग इसे समझते हैं वे इस संभावना से इनकार नहीं कर सकते हैं कि 2024 के आम चुनाव के बाद कुछ ऐसा हो सकता है जिसका अर्थ ‘जनतंत्र’ को पूरी तरह से दफनाना होगा या उसका इस तरह से गला घोंट देना होगा कि देश की पुरानी शक्ल-सूरत की तरह वह भी कहीं दिखने और पहचानने लायक भी नहीं बचे। वैसे भी हिंदू-राष्ट्र की मांग के बढ़ते शोर में जनतंत्र का तीन-चौथाई दम घुट चुका है। खुलकर कहें, तो 2014 से पहले वाली पुराने तरह की ‘जनतांत्रिक’ व्यवस्था नहीं रह जाएगी, उतनी भी नहीं जितनी आज ऊपर से दिखती है।

कुलमिलाकर यह पुराने राज्य के अंदर से एक फासिस्ट अधिग्रहण (take over) के घटित होने का परिदृश्य है। इसकी पूर्ण विजय वास्तविक शक्ल ले ही नहीं चुकी है दरवाजे पर दस्तक दे भी रही है। विश्वपूंजीवाद का अलंघनीय संकट इसे संसदीय चुनावी जीत-हार से परे की चीज बनाता है। यानी, संसदीय चुनावों के माध्यम से फासीवादी ताकतों को हराने की दृष्टि से यह बदलाव अनुत्क्रमणीय (irreversible) हो चुका है। विश्वपूंजीवाद आज आर्थिक संकट के एक ऐसे दलदल में फंसा हुआ है जिसका विस्तार विश्वपूंजीवाद के केंद्र (विकसित देशों) से लेकर परिधि के देशों (उभरती तथा विकासमान अर्थव्यवस्था वाले देशों) तक में हो चुका है। दुनिया का कोई भी देश इसके विकास का इंजन नहीं बन सकता है। इसलिए संक्षेप में कहें तो विश्वपूंजीवाद के मौजूदा संकट का संकट यह है कि इस स्थिति से बाहर निकलने के आसार बहुत कम हैं। एक तरफ हर दिन आशावाद का संचार करने की कोशिश की जाती है, लेकिन हर दूसरे दिन इसकी पोल खूल जाती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की नयी ग्रोथ स्टोरी का भी यही हुआ है। 

इस तरह पूरे विश्व में पूंजी संचय का पहिया दलदल में फंस चुका है। सरल भाषा में मुनाफे पर संकट के गहरे-काले बादल छाये हुए हैं। इसके परिणामस्वरूप श्रम व संपदा की लूट करने की बड़े पूंजीपति वर्ग की हवस ही नहीं, इसकी तीव्रता और अधिक बढ़ गई है जिससे जनसाधारण की आर्थिक तबाही व बर्बादी अतयधिक तेज हो चुकी है। इसका अर्थ यह है कि तबाह होती जनसाधारण का विक्षोप, विरोध और प्रतिकार बढ़ने वाला है। सच कहें, तो बिना किसी सच्चे केंद्र के ही विरोध तीव्र हो चला है, बात चाहे भारत की हो या किसी और देश की। पूंजीपति वर्ग की दृष्टि से देखें तो साफ है कि अगर जनता का ध्यान नहीं बांटा गया, उन्हें आपस में ही लड़ाया नहीं गया, उनकी न्याय और प्रगति की चाहत को कुचलने की रणनीति नहीं बनाई गई, तो जाहिर है कि पूंजीपति वर्ग के लिए शासन करना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन दूसरी तरफ जनता के लिए भी पुराने तरीके से रहना मुश्किल है और इसलिए अंततोगत्वा सड़कों पर उतरना उनकी मजबूरी है। तीव्र होते जा रहे शोषण को आगे झेलना और भी मुश्किल हो जाएगा। यह बिंदु के बाद यह असंभव हो जाएगा। भविष्य का ही नहीं, कमोबेश आज का भी यही परिदृश्य है।

जाहिर है, शासक वर्ग और जनता के बीच का टकराव अगर इस मोड़ पर पहुंचता है या पहुंचने वाला है, तो पूंजीपति वर्ग, खासकर बड़े पूंजीपति वर्ग का सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्सा, हर हालत में जनता की विरोध करने की स्वतंत्रता पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहेगा। अगर संकट बना रहता है या और अधिक गहराता है, तो यह टकराव तेजी से क्रांतिकारी संकट पैदा करने की तरफ बढ़ेगा और सरकार के साथ-साथ पूंजीपति वर्ग का शासन इस का शिकार हो सकता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि बड़े पूंजीपति वर्ग का सबसे मानवद्रोही हिस्सा पूरे विश्व में जनतंत्र का गला घोंट रहा है। इस तरह हम पाते हैं कि एकाधिकार के पैदा होने के बाद पूंजीवादी का (संकटजनित) सड़न पूंजीवादी विकास की एक अनिवार्य ऐतिहासिक प्रक्रिया है और अगर समाजवाद से इसकी प्रतिस्थापना नहीं की जाती है तो फासीवाद इसका अनिवार्य उत्पाद। फासीवाद की जीत के बाद कुछ पीछे हटकर पलटवार करना हमारी मजबूरी है लेकिन हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए कि आज के दौर में फासीवाद पर विजय के संक्रमणकालीन दौर से गुजरते हुए पूंजीवाद का खात्मा और समाजवाद की स्थापना ही एकमात्र उपाय है जो संकट, सड़न और पश्चगमन को हमेशा के लिए खत्म कर सकता है। अगर मजदूर वर्ग और फासीवाद से उत्पीड़ित वर्ग व तबका यह कदम नहीं उठाएगा तो फिर इसकी सजा फासीवादी पूंजीवादी अधिनायकत्व की पूर्ण जीत ही होगी। इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। मजदूर वर्ग द्वारा क्रांति न करने की स्थिति में यह चीज एक नियम के बतौर काम कर रही है। एकाधिकारी पूंजीवाद के उदय के बाद के पूंजीवाद के विकास की यही सामान्य दिशा  हो सकती है। पिछली सदी के 70 के दशक के बाद से संकट के लगातार बने रहने के रूप में, 90 के दशक में बड़ी वित्तीय पूंजी के शुरू हुए नग्न (तथाकथित नवउदारवादी) हमलों के रूप में तथा नयी सदी में फासीवादी उभार के चौतरफा वैश्विक उभार में इस दिशा को हम स्पष्टता से देख व पहचान सकते हैं। इसलिये यह स्वाभाविक है कि विपुल वित्तीय पूंजी के स्वामी पूंजीपति वर्ग फासीवादी शक्तियों को आगे ला रहा है एवं उनके लिए अपना खजाना खोल दिया है। मोदी सरकार को इलेक्टोरल बांड के जरिये कॉर्पोरेट से मिले हजारों करोड रुपये के चंदे इसका एक पुख्ता प्रमाण है। अगर आर्थिक संकट को हल करने का रास्ता ‘जनपक्षीय’ सुधारों से नहीं, क्योंकि इसके लिए अब जगह ही नहीं बची है, बल्कि अधिक से अधिक तबकों, वर्गों तथा जन समुदायों को लूटने तथा शोषण को और तीव्र करने से निकलता है, तो पूंजीपति वर्ग के लिए सबसे पहले जरूरी चीज यह है कि जनता व आम जनसाधारण को आपस में बांटने व लड़ाने का रास्ता निकाला जा सके तथा उनकी न्याय और प्रगति की चाहत को कुचलने के सारे औजार पहले से उपलब्ध हों।

यह सही है कि बड़ा पूंजीपति वर्ग को आज दुनिया के किसी कोने से मजदूर वर्ग से क्रांतिकारी चुनौती, खासकर जिससे पूंजीपति वर्ग को राज्यसत्ता की चुनौती प्रस्तुत हो सके, नहीं मिल रही है। लेकिन फिर भी संकट इतना गहरा, अटल और निर्णायक है कि पूंजीपति वर्ग डरा हुआ है। वह पुराने इतिहास से यह भलि-भांति समझता है कि चिरस्थाई संकट साम्राज्यवादियों के बीच गहरे टकराव को जन्म दे रहा है तथा आगे और बड़े टकराव पैदा करेगा। यानी, विश्वयुद्ध की परिस्थिति पैदा करेगा, बल्कि कर रहा है। तो फिर क्रांतियों का फूट पड़ना भी लाजिमी है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में फासीवाद के उभार की एक लगभग एक समान प्रक्रिया देखी जा सकती है। भारत की बात करें तो यह उभार निश्चित ही एक खतरनाक अवस्था में पहुंच चुका है। इसके बारे में हमने ऊपर संक्षेप में चर्चा की है। 

आइए, ऊपर कही बातों पर और गंभीरता एवं महीनी से बात करें ताकि कोई कन्फ्यूजन न हो। फासीवादियों की चारित्रिक विशेषता की बात करें, तो हम जानते हैं कि अगर इनका एक बार राज्यसत्ता पर पूर्ण कब्जा हो जाता है, भले ही यह चुनाव में जीत के माध्यम से हुआ हो, तो फिर चुनाव के माध्यम से हराकर, उपरोक्त वर्णित परिस्थिति के आलोक में, इन्हें राज्यसत्ता से बाहर करना लगभग असंभव है। इसी अर्थ में हम फासीवाद की भारत में विजय (अब तक जितनी भी हुई उसके मुतल्लिक भी हम इसे सही मानते हैं) को अनुत्क्रमणीय (irreversible) कह रहे हैं। लेकिन यह हर हाल में अजर-अमर है हम ऐसा नहीं कह रहे हैं। यह हो सकता है कि इनके हर तरीके से चुनाव जीतने एवं सत्ता में बने रहने की इनकी हठधर्मिता से देश में एक भीषण राजनीतिक जन-विस्फोट हो सकता है और फासीवाद की पूरे तौर पर पराजय या महज फासीवादियों के शासक वर्गीय विरोधियों की जीत[1] भी हो सकती है। आइए, इस पर थोड़ा गौर फरमायें। यहां से दो संभावनायें प्रकट होती हैं। एक, शासक वर्गीय विपक्ष जनता की लहर पर सवार हो सकता है (इसकी संभावना ही अभी ज्यादा दिखती है) और तब इस विस्फोट के परिणामस्वरूप शासक वर्गीय विपक्षी ताकतों (कांग्रेस सहित अन्य चुनावबाज पार्टियों) को फिर से सत्ता मिल सकती है। लेकिन इसमें भी जनांदोलन की भूमिका चुनाव से अधिक होगी। वह इसलिए कि फासीवादियों के राज्यसत्ता पर बहुत हद तक हो चुके कब्जे की वजह से चुनावी प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाली संस्थाओं के इनके द्वारा किये जा रहे दुरूपयोग का एकमात्र जनांदोलन की शक्ति के माध्यम से ही मुकाबला किया जा सकता है जिसकी परिणति विपक्षी ताकतों की चुनावी जीत में होगी या हो सकती है। लेकिन यह फासीवाद की हार नहीं, फासीवादियों की हार होगी। वह कितनी अधिक क्षणभंगुर होगी कहना मुश्किल है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि यह हार अस्थाई और क्षणभंगुर दोनों होगी। अगर फासीवादी उभार विश्वपूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में छाये संकट से नाभिनालबद्ध है, तो इसका परिणाम यही होगा कि फासीवादी अधिग्रहरण का खतरा जल्द ही, यहां तक कि चुनावी हार-जीत के ठीक बाद ही, फिर से सर उठा ले। वहीं, दूसरी संभावना यह हो सकती है कि अगर व्यापक आम मेहनतकश जन-समुदाय राजनीतिक-वैचारिक रूप से जागरूक होती है और एक शक्तिशाली ताकत के रूप में एक अलग राजनीति के साथ सामने आती है, तो पूंजीपति वर्ग का शासन ही संकट में फंस सकता है। यह फासीवाद की पूरे तौर पर हार की तरफ जा सकता है। तब क्रांतिकारी बन चुकी जनसमुदाय को कुचलने, फासीवाद एवं फासीवादियों के विरुद्ध इस तरह के उभार को पलटने और सर्वप्रथम पूंजीपति वर्ग के साझा लक्ष्य पूंजी की सत्ता को बचाने के लिए गैर-फासीवादी शासक वर्गीय विपक्ष का या इसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से का फासीवादियों के साथ तुरंत ही समझौता बन जा सकता है।

प्रत्येक क्रांतिकारी को दोनों संभावनाओं पर नजर रखनी चाहिए और उसके अनुरूप रणनीति व व्यवहारिक कार्यक्रम व नारा पेश करना चाहिए जिसका मुख्य लक्ष्य फासीवाद की हार को सुनिश्चित करना हो। हां, इसके लिए भी यह जरूरी है कि ऐसी रणनीति में फासीवादियों और फासीवादियों के शासक वर्गीय विरोधियों व तबकों के बीच के अंतर्विरोध का इस्तेमाल करने की जगह हो। लेकिन सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि मेहनतकश जनता क्या रूख अख्तियार करती है और वास्तविक फासीवाद विरोधी शक्तियां किस तरह का रणनीतिक एवं जनांदोलनात्मक-व्यवहारिक कार्यक्रम पेश करती हैं। 

इस तरह हम देख सकते हैं कि हम फासीवाद की विजय को किस अर्थ में अनुत्क्रमणीय कह रहे हैं। हम इसे गतिशीलता में देखने का आहृवान करते हैं। हम फासीवाद की विजय की अनुत्क्रमणीयता का सवाल फासीवाद को शासक वर्गीय विपक्षी ताकतों के चुनावी तोड़-जोड की रणनीति से अलग एक ऐसे अडिग जनांदोलन के माध्यम से उत्क्रमणीय बनाने की संभावना पर विचार करने के अर्थ में उठा रहे हैं जो इनके राज्यतंत्र पर नियंत्रण का मुकाबला करने में सक्षम हो। इसलिए इस पूरी गतिकी को द्वंद्ववादी-भौतिकवादी विधि से समझना जरूरी है। तब हम पाते हैं कि अनुत्क्रमणीयता की वजह चुनावी राजनीति की सीमा है जिस पर फासीवादियों को कब्जा है। इसलिए ही वर्तमान फासीवादी उभार का मुकाबला चुनावी जोड़-तोड़ के ठूंठ संसदीय तरीके से संभव नहीं है। जनता को अपने संगठन के माध्यम से अपनी ही लहर पर सवार होना होगा, अपने जल्द ही ही फूट पड़ने वाले जनांदोलन का नेता बनना होगा।

क्या यह आंकलन गलत है? नहीं, जिस तरह से सारी राज्य मशीनरी का उपयोग/दुरुपयोग सत्तासीन फासिस्ट कर रहे हैं उससे यह साफ है कि वे चुनावों के जरिये हारने वाले नहीं हैं। अगर हार हो भी जाए, जो कि फिलहाल मुमकिन नहीं दिखता है, तो भी वे सत्ता छोड़ देंगे इसे आसानी से स्वीकार करना मुश्किल है। निश्चय ही देश का जनमानस इसे लेकर संशय में है कि क्या होने वाला है, क्योंकि पूरा देश चौतरफा पश्चगमन की स्थिति है और मध्ययुगीन बर्बरता की दहलीज पर खड़ा पा रहा है। देश की शक्ल-सूरत पहचान में नहीं आने की बात का दरअसल यही मर्म है। सीधे-सीधे कहें तो हमारे देश की शक्ल–सूरत ही नहीं सीरत भी पूरी तरह पहचान से परे हो चुकी है। पुराने में जो भी सुंदर और मानवीय था यह फासीवादी उभार का ग्रास बन चुका है। जनचेतना यात्रा में पेपर व परचे में इसका जिस तरह से तथ्यगत वर्णन किया गया है हम उससे पूरी तरह सहमत हैं। उनके वर्णन से भी यही अर्थ निकालता है कि फासीवादी तानाशाही कायम होने की बात सुदूर भविष्य की चीज कतई नहीं है। हिंदू-राष्ट्र की तेज होती मांग, इसके लिए गूंजते नारों और  शनै: शनै: उसकी ओर बढ़ते कदमों की आहट से भी पता चलता है कि जनता के वोट देने के अधिकार भी जल्द ही खत्म हो सकते हैं और इसकी आड़ में बड़े वित्तीय थैलीशाहों एवं पूंजीपतियों की खुली-नंगी तानाशाही व लूट कायम हो सकती है।

परचे पर चर्चा

जन चेतना यात्रा के बिहार चैप्टर के पर्चे का पहला पैराग्राफ काबिलेगौर है –

”आज हमारे देश की शक्ल-सूरत कुछ यूं बनती जा रही है कि पहचानना मुश्किल हो गया है। आखिर क्यूं नहीं? जब देश के शीर्ष पर एक ऐसी ताकत बैठी हो जिसका ताल्लुक सभी तरह के रूढ़िवाद और धुर दक्षिणपंथ से हो, जो हर उस प्रगतिशील मूल्य के खिलाफ हो जिसे हमने आजादी के आंदोलन से विरासत में पाया है तो एक गुणात्मक फर्क दिखेगा ही। आज देश चौतरफा पश्चगमन की हालत में है। जब हमारे पूर्वज ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ रहे थे तो ये लोग हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की घिनौनी भावना के साथ ब्रिटिश शासन की ताबेदारी कर रहे थे। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देश में प्रगतिशील मूल्यों का विकास हुआ, चाहे वह जातीय उत्पीड़न के खिलाफ हो, महिला स्वतंत्रता के सवाल पर हो या फिर समानता और भ्रातृत्व के सवाल पर हो । एक समतामूलक समाज बनाना भगत सिंह से लेकर सभी अन्य शहीदों का अरमान रहा। लेकिन हिन्दू महासभा और भाजपा का पितृसंगठन आर.एस.एस. इन सभी मूल्यों के खिलाफ रूढ़िवादी मूल्यों के पोषक रहे हैं। देशप्रेम की ढकोसलेबाजी करने वाला आर.एस.एस. का निर्माण यूरोपीय फासीवाद से, मुसोलिनी और हिटलर से, प्रेरित रहा है। एक धुर दक्षिणपंथी ताकत होने के नाते यह सामाजिक रूप से यदि रूढ़िवादी और प्रगति विरोधी है तो इसका आर्थिक एजेण्डा भी प्रतिक्रियावादी यथास्थितिवादी व मेहनतकशों के खिलाफ रहा है। इसीलिए इन्हें हम मेहनतकशों के जनांदोलनों में नहीं देखते, उनके संघर्षों से इन्हें गायब पाते हैं। हम इन्हें केवल हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान के नाम पर भावना भड़काते देख सकते हैं। इसने ऐसी विभाजनकारी राजनीति का खेल खेला है कि आज एक पूरा राज्य मणिपुर महीनों से भ्रातृघातक नृजातीय हिंसा में जल रहा है। कोरोना काल के दौरान प्रधान मंत्री के अविवेकी हिटलरी फरमान, जिसके तहत 4 घंटे के अंदर देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई, के चलते मजदूरों के बीच अफरा-तफरी का माहौल बन गया। प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए पलायन की भयानक त्रासदी दिखाई पड़ी। यह मेहनतकशों के प्रति इनकी चरम संवेदनहीनता का ही द्योतक है। दूसरी ओर कॉरपोरेट घराने इस काल में और धनवान बन गए। हम जब भी इस ताकत पर नजर डालते हैं तो इसके शर्मनाक इतिहास और विरासत को नहीं भूल सकते। बड़ी पूंजी से वित्तपोषित होकर इसने आज एक भयंकर फासीवादी किस्म की मशीनरी खड़ी कर दी है जो समाज की पोर पोर में घुसकर इस समाज को अंदर से खाये जा रही है जहां हर कुछ जो मानवोचित है, सुंदर है और प्रगतिशील है, उसे खत्म किया जा रहा है। हर सच्चाई को या तो दबा दिया जाता है या उसे झूठ में बदल दिया जाता है। तभी तो जनता के मुद्दे इनकी तथाकथित मुख्यधारा में जगह नहीं पाते हैं और उस स्थान को साम्प्रदायिक राजनीति पूरी करती है। सभी विरोध को देशद्रोह की कोटि में डाल दिया जाता है।”

इसमें मौजूदा हालात के वर्णन, जैसा कि हमने पहले कहा, सही है। लेकिन इसकी कुछ बातों पर टिप्पणी करना जरूरी है। इसमें जो कहा गया है उससे प्रतीत होता है कि देश के शीर्ष पर जो शक्ति बैठी है वह फासीवादी शक्ति नहीं महज रूढि़वादी और धुर-दक्षिणपंथी शक्ति है। यानी, देश की शक्ल-सूरत में जो गुणात्मक फर्क आया है उसकी वजह फासीवादी शक्तियों का नहीं रूढि़वादी एवं धुर-दक्षिणपंथी ताकतों का सत्तासीन होना है। यहां कुछ शब्दों के माध्यम से घालमेल किया गया है। 

हम यहां यह दुहराना चाहते हैं कि अब तक यह सब कुछ भीतर से (पुराने पूंजीवादी जनतांत्रिक निकायों व संस्थाओं को उपयोग करते हुए) संपन्न हुआ है। इसलिए सतह पर एक ठहराव की परत दिखती है। इससे जनता के बीच जनतंत्र को लेकर निस्सारता का भाव पैदा होता है जो फासीवादियों के पक्ष में जाता है। जनता ऐसे जनतंत्र को बचाने के लिए क्यों नहीं आगे आती है या आएगी यह साफ दिखता है। इसके अतिरिक्त क्रांतिकारी शिविर में भी एक खास तरह की अस्पष्टता लंबे समय तक बनी रहती है। उदाहरण के लिए, फासीवादी शक्तियों की पकड़ वासतव में कितनी है और पुरानी अप्रत्यक्ष पूंजीवादी तानाशाही को खुली-नंगी एवं प्रत्यक्ष तानाशाही में बदलने में बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी की विजय किस हद तक संपन्न हो चुकी है, इन सबके बारे में पूरे शिविर में कन्फ्यूजन की कन्फ्यूजन है। फासीवादियों को महज रूढि़वादी और धुर-दक्षिणपंथी कहा जा रहा है यह भी इसी का परिणाम है। इससे जनता के बीच भ्रम की एक और परत बैठेगी। फासिस्ट शक्तियां रूढि़वादी और दक्षिणपंथी भी होती हैं यह सही है, लेकिन सभी रूढि़वादी और धुर-दक्षिणपंथी शक्तियां फासिस्ट भी हों यह जरूरी नहीं हैं। इस सच्चाई को – कि आरएसएस एक फासिस्ट विचारधारा पर खड़ा संगठन है – पर्चे में (हीले-हवाले के साथ) कुछ इस तरह से स्वीकार किया गया है कि ‘आर.एस.एस. का निर्माण यूरोपीय फासीवाद से, मुसोलिनी और हिटलर से, प्रेरित रहा है।’ बात गलत नहीं है, लेकिन इतनी ही नहीं है।

इस तरह, हम पाते हैं कि फासीवादी शक्ति को फासीवादी कहने में हिचकिचाहट साफ दिखती है। इसी तरह यह भी पाते हैं कि फासीवादी शासन को फासीवादी कहने में असमंजस की स्थिति अभी भी मौजूद है। इस संबंध में आज किसी भी क्रांतिकारी का पहला सवाल होगा; क्या फासीवादियों ने पुरानी राज्य मशीनरी पर कब्जा कर लिया है? हम पाते हैं कि इस प्रश्न का सीधा जवाब देने से बचने की प्रवृत्ति है, जबकि माहौल व स्थिति का वर्णन या चरित्र-चित्रण करते वक्त इस वस्तुगत सच्चाई को स्वीकारना मजबूरी बन गया है। इस तरह परिस्थिति के बारे में ठोस सुत्रीकरण और परिस्थितियों के वर्णानात्मक पक्ष में स्पष्ट गैप दिखता है। हम मानते हैं कि ठोस सच से इनकार करना मुश्किल ही नहीं असंभव है। लेकिन बात यह है कि हमारा सुत्रीकरण भी इसी आधार पर होना चाहिए। हम पाते हैं कि यह गैप परचे में मौजूद है।

कहा गया है – ”आज देश चौतरफा पश्चगमन की हालत में है … बड़ी पूंजी से वित्तपोषित होकर इसने आज एक भयंकर फासीवादी किस्म की मशीनरी खड़ी कर दी है जो समाज की पोर पोर में घुसकर इस समाज को अंदर से खाये जा रही है जहां हर कुछ जो मानवोचित है, सुंदर है और प्रगतिशील है, उसे खत्म किया जा रहा है।”

सबसे पहले तो इसे फिर से रेखांकित किया जाना जरूरी है कि ये फासीवादी सिर्फ बड़े पूंजीपतियों द्वारा वित्तपोषित ही नहीं केंद्र की सत्ता में भी विराजमान हैं, और एक दशक से विराजमान हैं। इस खास बात का बहुत महत्व है। इसका भी काफी महत्व है कि ये आगे भी केंद्रीय सत्ता में विराजमान रहने वाले हैं ऐसी संभावना है। अगर हम इनके शासन में रहने के महत्व को किसी तरह से इनकार करते हैं तो अवश्य ही हम खतरे की ठोस गंभीरता को संपूर्णता में समझने में भूल करेंगे।

”फासीवादी किस्म की मशीनरी” का भारत के संदर्भ में क्या अर्थ है इस पर भी बात करनी चाहिए। गौर से देखें तो फासीवादी मशीनरी और तंत्र तो इनके पास पहले से मौजूद था। आरएसएस का भगवा ब्रिगेड एक पूरा का पूरा तंत्र और मशीनरी ही तो है। हां, 2014 से पहले इसे केंद्रीय राज्यसत्ता का खुला व प्रत्यक्ष समर्थन नहीं था। लेकिन इसे जोर देकर कहने की जरूरत है कि इसे राज्यसत्ता का परोक्ष समर्थन अवश्य था। तो नया क्या हुआ है? नया यह हुआ है वह यह है कि इन्होंने दस सालों में पुरानी राज्यमशीनरी पर लगभग पूर्ण नियंत्रण कायम कर लिया है और इनके अपने तंत्र व मशीनरी का इनके द्वारा कब्जाये गये राज्य मशीनरी में विस्तार हो गया है और परिणामस्वरूप दोनों मिलकर लगभग एक हो गये हैं। यह एकाकार इतना स्पष्ट और खुला है कि इसे स्वीकार किया जाना चाहिए कि कुल मिलाकर एक फासीवादी regime कायम हो चुका है या कम से कम इसका तीन-चौथाई कायम हो चुका है। लेकिन हम पाते हैं कि इतनी सीधी सरल वस्तुगत बात को लेकर भी कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन है। सीधी भाषा में बात करने के बजाय कि फासीवादी ताकतों ने पुरानी राज्य मशीनरी पर नियंत्रण करने में सफलता पायी है या नहीं, बहुधा इस पर अलग से बात की जाती है : क्या फासीवादी शासन कायम हो गया है? क्या फासीवादी राज्य बन गया है?

यहां याद रखने की जरूरत है कि फासीवाद राज्य एकमात्र पुराने पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य को ध्वस्त करके, एकबारगी संसद को भंग करके या इस पर सैन्य चढ़ाई करके, जैसा कि जर्मनी में हिटलर की अगुआई में किया गया था और उससे भी पहले इटली में मुसोलिनी के द्वारा किया गया था, ही स्थापित नहीं किया जा सकता है। इसे भूला नहीं देना चाहिए कि फासीवाद अंदर से अर्थात चुनाव जीतकर पुराने राज्यतंत्र एवं इसकी मशीनरी पर शनै: शनै: कब्जा करके भी कायम किया जा सकता है। निस्संदेह, इससे इसके बाह्य स्वरूप में फर्क पड़ेगा। लेकिन यह फर्क एक सीमित समय तक और खास तरह के हालातों में ही बना रहेगा। इस तरह हम यहां यह सुत्रबद्ध कर सकते हैं कि अगर फासीवादी ताकतें (हम यहां रूढि़वादी या धुर-दक्षिणपंथी राजनीतिक ताकतों की बात नहीं कर रहे हैं, हालांकि वे भी विश्वपूंजीवाद के अत्यंत विषम व अहर्निश रूप से जारी आर्थिक संकट के काल में सुगमता से फासिस्ट बन सकते हैं) पुराने सामान्य पूंजीवादी या पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शासन के अंतर्गत कायम राज्य मशीनरी, जो एक अप्रत्यक्ष ही सही लेकिन तानाशाही की मशीनरी ही होती है, पर कब्जा कर लेती हैं, तो भले ही ऊपर से ठहराव प्रतीत हो, वह अवश्य ही फासीवादी शासन (regime) कायम करने की ओर जाएगा। ऊपर-ऊपर संसद वगैरह के मौजूद रहते हुए भी शासन का चरित्र फासीवादी हो जा सकता है। हमें भारत के संदर्भ में ठोस परिस्थिति का ठोस आंकलन करते हुए इसके बारे में निर्णय करना चाहिए कि फासीवादियों ने राज्य मशीनरी पर अंदर से ही सही लेकिन कब्जा करने का काम कर लिया है या नहीं। एक अप्रत्यक्ष फासीवादी राज्य भी उचित अवसर और जरूरत पड़ने पर खोखले हो चुके पुरानी संस्थाओं को खत्म भी कर देगा या कर दे सकता है और नग्न अवस्था में आ जाएगा। क्या हमारे देश में संसद भी अब सत्तासीन फासीवादी शक्तियों की चेरी नहीं बन गई है?

ऐसी परिस्थिति में फासीवादी मशीनरी को किस तरह से परिभाषित किया जा सकता है? हम कह सकते हैं कि जब कोई फासिस्ट शक्ति केंद्र की सत्ता में पिछले दस सालों से काबिज हो और फासिस्ट (वैचारिक-राजनीतिक) आंदोलन का, जो प्राय: बिना अपवाद के बाह्य लंपटतंत्र को जन्म देता है, फासिस्टों द्वारा कब्जाये राज्य के साथ एकाकार हो गया हो, तथा एक का दूसरे में विस्तार एवं विलय हो गया है, जैसा कि भारत में हो चुका है, तो राज्य के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर जो शासन की मशीनरी होती है वह आपस में गुंथी हुई फासीवादी मशीनरी के अंग ही होती है, और तब राज्य भी एक ऐसा अंतवर्ती फासीवादी राज्य बन जाता है जो तीन-चौथाई से भी अधिक फासिस्ट राज्य (पहले ही) बन चुका होता है । इसकी पूर्ण जीत तब दस्तक दे रही होती है।

फासीवाद को फासीवाद कहने से लंबे समय तक परहेज करने की यह प्रवृत्ति हमारे आंदोलन की खास विशेषता बन गई है। इसके पीछे पिछली सदी के 20 और 30 के दशक में आये यूरोपीय फासीवाद (जर्मन व इतालवी) का एक खास स्वरूप है (जबकि ध्यान अंतर्य पर केंद्रित होना चाहिए जो अलग-अलग रूप धारण कर सकता है) जो आंखों पर परदा बन चीजों को गति में देखने से अक्सर रोकता है। यह मान लिया जाता है कि जब तक संसद भंग नहीं कर दिया जाता है और अत्यंत ऊंचे स्तर के आतंकी दमन का नजारा सर्वव्यापी और आम नहीं बन जाता है या जब तक हमारे अधिकार पूरी तरह फौजी बुटों के द्वारा कुचल नहीं दिये जाते हैं, या फिर गेस्टापो के बूटों की आहट घर के दरवाजे पर महसूस नहीं होने लगती और गैस चैंबर में लोगों को डालकर मारने की प्रक्रिया शुरू नहीं हो जाती है, तब तक हमें नहीं मानना चाहिए कि फासीवाद कायम हो चुका है। कई सालों तक फासीवाद के उभार को महज मजदूर वर्ग की जीत की प्रतिक्रिया में उभरी परिघटना के रूप में देखा गया और इस आधार पर इसके होने से इनकार किया गया। इसी तरह की अन्य चीजें भी हैं जो हमें फासीवाद को फासीवाद नहीं मानने मानने के लिए प्रेरित या बाध्यम करती रही हैं। जाहिर, इससे इसे परास्त करने की रणनीति में दिक्कतें आएंगी और आ रही हैं।

जहां तक फासीवादी शक्ति को रूढ़िवादी और धुर-दक्षिणपंथी के रूप में चित्रित करने की बात है, तो हम पाते हैं कि इसका चलन इन दिनों काफी बढ़ा है और नोम चोमस्की–बर्नी सैंडर्स से लेकर क्रांतिकारी सर्किल तक में इस शब्दावली का प्रयोग काफी बढ़ा है। इसमें फासीवाद का नया नामकरण करने की कोशिश भी शामिल है। हमें इससे खास दिक्कत नहीं है बशर्तें रणनीति बनाने में इसके अंतर्य को पकड़े रखा जाये और मुख्य चीज चीज ध्यान में हो। अगर नहीं, तो फिर सका मकसद दरअसल फासीवाद के खतरे को कम करके आंकने व देखने से प्रेरित ही माना जाएगा। खासकर इसकी पूर्ण विजय के अत्यधिक आसन्न खतरे से भी इनकार करने की ओर यह प्रवृत्ति इंगित है, ऐसा माना जा सकता है।

अंत की ओर बढ़ते हुए पर्चा कहता है

”सम्पूर्ण वर्चस्व – यही है फासीवादियों का नारा। और यह नारा बड़े पूंजीपतियों के सम्पूर्ण वर्चस्व के लिए ही है। यह राजनीति धुर दक्षिणपंथी राजनीति है जो मेहनतकशों के किसी भी वाजिब मांग व आंदोलन को बर्दाश्त नहीं कर सकती। यह राजनीति केवल और केवल कॉरपोरेट वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ही है। फासीवादी शक्तियां भले ही समाज पर अपना नागपाश कस रही हैं लेकिन हम भी प्रतिरोध खड़ा करने में कमी नहीं दिखायेंगे जैसा कि पूर्व में भी हमने दिखाया है। आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ और जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष, पूंजीपति मालिकों और प्रशासन के तमाम हमलों को झेलते हुए देश के विभिन्न हिस्सों में हो रहीं संगठित एवं असंगठित मजदूरों की हड़तालें, लगातार चल रहे विभिन्न छात्र प्रतिरोध संघर्ष दिखाते हैं कि जनसंघर्षों का तांता खत्म नहीं होनेवाला। भीषण परिस्थितियों में भी किसानों ने संघर्ष को टिकाये रखा और नौजवानों का गुस्सा अग्निवीर योजना से लेकर बेरोजगारी के सवाल पर मुखर होता रहा है। साम्प्रदायिक आधार पर लाये गये नागरिकता कानून सी.ए.ए. का जमकर विरोध हुआ जिससे उसे ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। फासीवादी हमले को झेलकर आगे बढ़ने की ताकत इस देश की जनता में है। संसदीय क्षेत्र का संघर्ष बहर जा सकता है, समझौतापरस्त हो सकता है लेकिन जुझारू जनसंघर्षों का क्षेत्र ही है जहां फासीवादियों को मुंह की खानी पड़ेगी। तमाम व्यवधानों को दूर करके लोग लड़ रहे हैं और हमें विश्वास है कि आम जनता की एकजुटता बनेगी और सही दिशा में लड़ाई जायेगी। इतिहास गवाह है कि दमन का चक्का जितनी भी तेजी से चले, अंतिम विजय जनता की ही होती है। आज की जरूरत है हमारे आजादी के आंदोलन के शहीदों के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने यानी एक शोषणविहीन-उत्पीड़नविहीन समाज बनाने की ओर अपने संघर्षों को ले चलने की। फैज़ अहमद फैज़ ने जनगोलबंदी पर सही ही कहा है – जब दरिया झूम के उद्धे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे।”

संपूर्ण वर्चस्व – यही है फासीवादियों का नारा! शानदार बात है! लेकिन यहां इसे अभी तक अमूर्त बात या सिद्धांत के रूप में ही रखा गया है प्रतीत होता है। इस पर हमारा बुनियादी विरोध कुछ भी नहीं है। लेकिन सवाल तो यह है कि हम ठोस परिस्थितियों के संदर्भ में भी इसके कहना चाहते हैं या नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां मूर्त और ठोस रूप से यह नहीं बताया गया है कि हम किस दुनिया और देश की बात कर रहे हैं। क्या हम भारत के बारे में बात कर रहे हैं? अगर हां, तो हमें यह पूछना ही पड़ेगा कि क्या यह नारा मात्र है या सच में फासीवादियों ने अपने इस नारे को मूर्त रूप भी दिया है? हमें नहीं भूलना चाहिए कि अगर सच में आप भारत के फासीवादियों के बारे में बात कर रहे हैं, तो हमें यह मानना चाहिए कि ये वे फासीवादी हैं जो नारा भर नहीं लगा रहे हैं, अपितु पिछले दो टर्म से यानी दस सालों से सत्ता के शीर्ष पर हैं और उन्होंने सच में अपने नारे के अनुसार अपना पूरा वर्चस्व कायम किया हुआ है। क्या हमें इसे ठोस शक्ल और रूप में स्वीकार करने से बचना चाहिए?

एक और महत्वपूर्ण बात है। ऊपर के पैराग्राफ में फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में संसदीय और चुनावी संघर्षों की सीमा को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि ”संसदीय क्षेत्र का संघर्ष बहर जा सकता है, समझौतापरस्त हो सकता है लेकिन जुझारू जनसंघर्षों का क्षेत्र ही है जहां फासीवादियों को मुंह की खानी पड़ेगी।” पूरी बात यह है कि संसदीय संघर्ष में शासक (पूंजीपति) वर्ग की ही अन्य पार्टियां मैदान में हैं और वे फासीवाद को नहीं फासीवादियों की पराजय भर चाहते हैं। इसके बारे में हम ऊपर काफी कुछ कह चुके हैं।

पर्चे में चुनावी संसदीय संघर्ष के बल पर, यानी चुनावी जोड़-तोड़ या जीत-हार से फासीवादियों की वास्तविक हार को सुनिश्चित करने वाली रणनीति की सफलता से इनकार किया गया है। कम से कम संसदीय संघर्ष पर निर्भरता के खतरों के बारे में इशारा किया गया है और हम सहमत हैं। लेकिन बात महज इतनी नहीं है। यहां हम अपने ऊपर कही गई बात को और आगे बढ़ाते हुए यह कहना चाहते हैं कि अगर फासीवाद को परास्त करने के लिए (न कि महज फासीवादियों को सत्ता से बाहर करने और फिर से शासक वर्ग के अन्य दलों को बैठाने के लिए) क्रांतिकारी जनांदोलन की सही रणनीति एवं कार्यनीति पर निर्भरता की बात है, जो निस्संदेह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, तो इसके बारे में जनता तक सही से राजनीतिक संदेश ले जाने के लिए एक सही राजनीतिक व आंदोलनात्मक-व्यवहारिक नारा भी दिया जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी नारा, जो सही भी हो, क्या हो इस पर बिल्कुल ही चुप्पी साध ली गई है जिसका मतलब यह है कि हम अंततोगत्वा विपक्षी शासक वर्गीय विपक्ष के लिए ही जगह बना रहे हैं। ”नो वोट टू बीजेपी” का क्या राजनीतिक हस्र हुआ है या आगे भी इसका क्या हस्र हो सकता है, इसके आंदोलन के भागीदार जानते हैं। यह नारा व्यहवार में क्रांतिकारी या मजदूर वर्गीय राजनीति को कितना बढ़ाता है या कितना नुकसान करता इस पर हमें गंभीरता से बात करनी चाहिए। हमारा मानना है कि इससे न तो फासीवाद के विरुद्ध जनता का जनमानस ही तैयार किया जा सकता है और न ही हम मजदूर वर्गीय राजनीति को ही आगे बढ़ा सकते हैं।

इसलिए, हमें किसी वैकल्पिक नारे पर विचार करना होगा और उसके ही इर्द-गिर्द जनता को लामबंद करने की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के लिए हम ये नारा दे सकते हैं कि फासीवाद की मुकम्मल और स्थायी हार बुर्जुआ सरकार की सामान्य अदला-बदली से नहीं होने वाली है। इसके लिए मजदूर–मेहनतकश वर्ग के नेतृत्व में सच्चे फासीवाद विरोधियों की सरकार कायम करनी होगी जो फासीवाद को उसकी जड़मूल और उसके फिर से फन उठाने की संभावना को जन्म देने वाली ऐतिहासिक परिस्थितियों सहित तात्कालिक कारकों को परास्त करने का काम जीत के बाद भी करेगी। जाहिर है, हमें किसी ऐसे नारे के बारे में विचार करना चाहिए और उसके तहत ही फासीवाद को हराने का आहृवान जनता से करना चाहिए। क्यों? इसलिए कि यह नारा हमें एक जीत से अगली जीत की राजनीति व रणनीति बनाने के तरफ ले जाती है और एक अस्थायी जीत को स्थाई जीत बनाने के लिए हम उचित नारा मुहैया कराता है। इससे एक जीत को अगली जीत की मंजिल तक ले जाने की रणनीति को बल मिलता है। उसी के साथ यह फासीवादी शोषण से उपजे हालातों में बुर्जुआ विपक्ष की राजनीतिक बढ़त व अग्रगति पर भी लगाम लगाती है। इसलिए हम इसे क्रांतिकारी व्यवहारिक-आंदोलनात्मक  नारा कह सकते हैं, जो फासीवादियों को सरकार से हटाने के बाद भी समाज को फासीवाद नामक बीमारी से निर्मूल करने में हमारा मार्ग प्रशस्त करने का काम करेगा। हम यहां इस बहस को छोड़ सकते हैं कि फासीवाद की यह हार तथा हमारी जीत मजदूर वर्ग के नेतृत्व वाली किस तरह के शासन तक जाएगी। इसके बरक्स हम पाते हैं कि यह नारा फासीवाद को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाले क्रांतिकारी कार्यक्रम आधारित और जनांदोलन के गर्भ से निकलने वाली एक सच्ची अंतरिम गैर-फासीवादी सरकार के गठन की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करने की ओर जाता है। जाहिर है, यह सभी तरह के सच्चे क्रांतिकारियों, जनवादियों, प्रगतिशीलों की अधिकतम साझा कार्यक्रम की मांग करता है तथा इस पर आधारित हम सबकी एकजुटता पर आधारित अग्रिम मोर्चे के नारे को पेश करता है।

अगर हम यह नारा, या इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु अन्य नारा, नहीं पेश करते हैं, तो क्या होगा? इसका अर्थ यही होगा कि हम चाहे जो भी बात कर लें और चाहे जितना संघर्ष कर लें, हमारा संघर्ष, यहां तक कि हमारा जीता हुआ राजनीतिक संघर्ष भी, कांग्रेस सहित बड़े पूंजीपतियों के ही अन्य दलों के लिए सत्ता में आने का रास्ता मात्र प्रशस्त करेगा। अगर हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि फासीवाद के विरुद्ध जनता का राजनीतिक आंदोलन विजयी होता है तो हमें अपने-आपसे यह पूछना चाहिए कि; फासीवादियों को हराने के बाद क्या हम सरकार बनाने का काम कांग्रेस या अन्य विपक्षी पार्टियों के लिए छोड़ देंगे और हम स्वयं अपने-अपने पुराने जंग लगे ठौर पर वापस आ जाएंगे? क्या फिर से क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत क ख ग से करेंगे? क्या इस बीच शासक वर्ग की ही अन्य पार्टियों के लिए सरकार बनाने का काम छोड़ देंगे? यह वास्तव में फासीवाद विरोध की राजनीति का अराजनीतिकरण है। 

इसलिए ही हम यह कह रहे हैं कि जनांदोलन के वास्तविक मैदान में (चुनाव के अतिरिक्त, लेकिन चुनाव भी अंतत: जनता का ही मैदान है) वास्तविक जनांदोलन की ताकत से, जो साथ में चुनाव में जीत तक भी जा सकता है, फासीवाद को हराने की बात का कोई मतलब तभी निकलता है जब हम इसमें मिली जीत से निकले परिणामों को सही ठौर तक ले जाने के लिए फासीवादी की पूर्ण पराजय से मेल खाने वाले अन्य नारे भी पेश करते हैं। अन्यथा, हमारा शानदार से शानदार संघर्ष भी अंतत: शासक वर्ग की विपक्षी पार्टियों को सत्ता तक पहुंचाने का रास्ता ही साफ करेगा।

हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? इसका कारण एक हद तक पर्चे में ही इसके कमजोर बिंदुओं के रूप में मौजूद है। पर्चे में हम पाते हैं कि कांग्रेस तथा अन्य शासक वर्गीय विपक्षी पार्टियों की कहीं कोई आलोचना या फासीवाद के उभार में उसकी भूमिका की कोई समीक्षा नहीं की गई है – न तो फासीवाद के उभार में परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से मदद पहुंचाने के संदर्भ में, न ही इस संदर्भ में कि पूंजीवाद के संकट के काल में वे किस तरह की नीतिगत भूमिका लेते हैं। इनके बारे में एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखा है। हम देखते हैं कि नवउदारवादी हमले की बात पर्चे के मस्तुल शिखर पर अंकित बिंदुओं में शामिल है, लेकिन जरा कल्पना कीजिये, क्या नवउदारवादी हमलों की आज की बौछार, जिसकी राजनीतिक परिणति ही फासीवाद का उभार है, के लिए कांग्रेस को छोड़ कर कोई सार्थक बात की जा सकती है? अगर महज पार्टियों व सरकार के संदर्भ में ही बात करें, तो क्या नवउदारवाद की नींव कांग्रेस की सरकार में मनमोहन सिंह के वित मत्रीत्व काल में ही नहीं नहीं हुआ था? क्या कांग्रेस जिसके सर्वोच्च नेता राहुल गांधी हैं उसे आज भी गलत मानती है? क्या किसी भी क्षेत्रीय दलों ने इन नवउदारवादी नीतियों का विरोध किया? इसलिए, क्या फासीवाद का रास्ता प्रशस्त करने में अन्य विपक्षी पार्टियों, खासकर कांग्रेस प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार नहीं है? इस पर चुप्पी का आखिर क्या मतलब माना जाए?

इसी तरह, सबसे ज्यादा आश्चर्य तो तब होता है जब फासीवाद के सर्वमुख्य कारण – विश्वपूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट – के बारे में कोई छोटी चर्चा तक पर्चे में मौजूद नहीं है। क्या यह कलम की चूक है? हम नहीं जानते या नहीं कह सकते। बात इतनी ही नहीं है। इसके बारे में भी एक पंक्ति नहीं लिखी गई है कि आज का फासीवादी उभार विश्वपूंजीवाद के लगातार गहराते (छोटे-मोटे और अल्पकालिक ग्रोथ को छोड़कर) संकट के मद्देनजर एक विश्वव्यापी वैचारिक-राजनीतिक व आर्थिक परिघटना है और सभी देशों में यह उभार तेजी से लगभग एक साथ प्रकट हुआ है। साथ में इस पर भी एक शब्द तक नहीं कहा गया है कि सभी देशों में शासक वर्ग की विपक्षी पार्टियां फासीवादी उभार से लड़ने में बुरी तरह अक्षम साबित हुई हैं और हो रही हैं। आखिर, हम अमेरिका में बाइडेन और ट्रम्प की सरकार में कितना फर्क कर सकते हैं? इस तरह की सत्ता में सरकार की अदला-बदली से जनता व मजदूर वर्ग को क्या मिला, सिवाय इसके कि हड़ताल करने पर फौजी कार्रवाई करने की धमकी और इस संबंध में नया कानून? इसका सीधा अर्थ है, फासीवादी और यहां तक कि धुर-दक्षिणपंथ (आज के निर्णायक संकट में फंसे विश्वपूंजीवाद की परिस्थिति में हर बुर्जुआ दल को धुर-दक्षिणपंथ ही बनना होगा) का मुकाबला एकमात्र मजदूर वर्ग के नेतृत्व में वास्तविक फासीवाद विरोधी वर्गों, तबकों व उत्पीड़ित समूहों का नयी तरह की सरकार बनाने के नारे के इर्द-गिर्द खड़ा होने वाला संघर्ष ही कर सकता है और इसलिए मजदूर वर्ग को फासीवाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई में सभी वास्तविक फासीवाद विरोधी शक्तियों को विपक्ष की जीत के लिए आह्वान करने के बदले एक सच्ची फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी सरकार के गठन का आह्वान करना चाहिए। तभी हम मजदूर वर्गीय राजनीति को इस दौर में आगे बढ़ा पाएंगे।

हम पहले ही कह चुके हैं कि इसका अर्थ यह नहीं है कि हम शासक वर्ग के अंतर्विरोधों के इस्तेमाल के विरोधी हैं। नहीं, बिल्कुल ही नहीं। उल्टे, हम यह चाहते हैं कि यह सबसे अच्छे तरीके से हो जिसके लिए जरूरी है कि इसे मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति को केंद्र में रख कर किया जाये। इस अर्थ में हमें हर तरह के लचीलेपन, कभी-कभी हैरत में डालने वाले लचीनेपन का प्रदर्शन करना हो सकता है। इस अर्थ में हम नुकीले से नुकीले मोड़ पर सफलतापूर्वक और तेजी से बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप नए कार्यनीतिक नारे अपनाने व लागू करने के पक्षधर हैं। साथ में हम इसके लिए मजदूर वर्ग की तमाम शक्तियों की केंद्रीकृत कार्यवाही के सिद्धांत, जिसके बिना यह लचीनापन असंभव है, के पक्ष में खड़े हैं।          

[13 दिसंबर 2023 को जनचेतना यात्रा द्वारा पटना में आयोजित कन्वेंशन में आयोजक संगठनों को पीआरसी सीपीआई (एमएल) द्वारा उनके बिहार चैप्टर के पर्चे पर एक टिप्पणी पेश की गयी थी। यह लेख उसी टिप्पणी का विकसित रूप है। 17.12.23 को जारी]


[1] हम यहां फासीवाद की हार और फासीवाद विरोधियों की जीत को हम एक ही चीज नहीं मान रहे हैं।