जाति उन्मूलन कार्यक्रम की दिशा में कुछ विचार

December 18, 2023 2 By Yatharth

पूंजीपति व सर्वहारा के बीच मुख्य अंतर्विरोध के साथ ही भारतीय समाज में जाति, पुरुष प्रधानता, धर्म, राष्ट्रीयता व भाषाई बहुसंख्यकवाद आधार सहित अन्य कई प्रकार के उत्पीड़न भी मौजूद हैं। जातिगत उत्पीड़न का सर्वप्रमुख शिकार दलित-वंचित जातियों के मेहनतकश ही होते हैं। भारतीय पूंजीवाद के नवउदारवादी दौर में इसके द्वारा आगे बढ़ाई गई हिंदुत्ववादी फासीवादी विचारधारा ने भी सवर्णवादी प्रतिक्रिया का एक बड़ा उभार पैदा किया है। नतीजन मोदी सरकार के आने के बाद जातीय उत्पीड़न में भी वृद्धि हुई है। हालांकि सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी सांसद बीजेपी के ही पास हैं पर उनका मुख्य काम जातीय उत्पीड़न के दागों को धोना ही है। इस सरकार के पीछे खड़ी शक्तियों (आरएसएस एवं इसके दर्जनों अनुषंगी हिंदुत्ववादी,  ब्राह्मणवादी-मनुवादी संगठन) की विचारधारा जातीय, सांप्रदायिक एवं धार्मिक विभाजन को गहरा बनाने तथा इस आधार पर दबे-कुचले एवं अल्पसंख्यक समुदायों का उत्पीड़न है, हालांकि इनकी आड़ में इसकी मुख्य पक्षधरता हिटलर-मुसोलिनी के फासिस्टों की ही तरह कॉर्पोरेट या बड़ी वित्तीय पूंजी के प्रति है।

जाति व्यवस्था के संदर्भ में अंबेडकर की बात को ही आगे बढ़ाते हुए कहें तो यह श्रम विभाजन के साथ ही वंशानुगत तौर पर रूढ बन गया श्रमिकों का विभाजन है। सामंती उत्पादन प्रणाली में पेशागत श्रम विभाजन उत्पादन प्रणाली अर्थात उत्पादन संबंधों और तदनुरूप संपत्ति संबंधों एवं वितरण प्रणाली का आधार था। इसका मूल आधार है अल्प संख्या में संपत्ति मालिकों द्वारा शेष बहुसंख्यक संपत्तिहीन मेहनतकशों के श्रम द्वारा उत्पादित सरप्लस का दोहन। अर्थात यह एक अल्पसंख्या द्वारा बहुसंख्यक मेहनतकशों पर शोषण व शासन की व्यवस्था है। इसमें कबीलाई गोत्र आधारित विवाह पद्धति तथा शुद्धता-अशुद्धता के ब्राह्मणवादी स्मृतियों के नियमों के मेल ने जाति व्यवस्था का ऊपरी ढांचा निर्मित किया जिसके साथ जोड़ दिए गए धार्मिक नैतिकता व दंड के नियमों ने इस सामंती विभाजन को स्थाई व अत्यंत अमानवीय बना दिया।

मानव इतिहास में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच श्रेष्ठता व हीनता का बोध, ऊंच व नीच का भेद पैदा होने का मूल कारण निजी संपत्ति का जन्म, उसके आधार पर वर्ग भेद का उदय और शोषक वर्ग के शोषण को बनाए रखने के औजार के रूप में राज्य के आविर्भाव की देन है। वर्ग विभाजित समाज की ऐतिहासिक प्रक्रिया ने ही श्रेष्ठ-हीन या ऊंच-नीच के भेद के विभिन्न रूपों – पुरुष प्रधान समाज, जाति व्यवस्था, नस्लवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद, भाषागत भेदभाव, आदि को पैदा किया है। इस वर्ग भेद व शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था को स्थाई बना देने के लिए खुद शोषितों से इसे स्वीकृति दिला देना इसके लिए सबसे बड़ी मजबूती देने वाला काम था। अतः धर्म आधारित विचारधारा के नीति-कायदों, पवित्रता – अपवित्रता के सिद्धांतों और इनके उल्लंघन पर दंड के विधान ने सामाजिक असमानता को मजबूती दी। जाति व्यवस्था की ब्राह्मणवादी विचारधारा का बुनियादी काम शोषण की इस व्यवस्था को स्वयं उत्पीड़ितों द्वारा वैचारिक नैतिक कानूनी स्वीकृति दिलाना रहा है ताकि इसका ‘धार्मिक-नैतिक’ दंड विधान विद्रोह की संभावना को न्यून कर राजतंत्र पर वास्तविक दंड व्यवस्था के बोझ को कम कर दे। अतः राज्य तंत्र का संचालक शुंग, गुप्त, पाल, चोल, चालुक्य, शक, हूण, तुर्क, अरब, मुगल, मराठा से अंग्रेजों तक कोई भी रहा हो यह विचारधारा उसी का संरक्षण पाने में कामयाब रही। हर राज्य तंत्र ने इसे अपने शोषणचक्र के लिए सहायक माना। ठीक इसी वजह से नाथ-सिद्धों व लिंगायतों से लेकर रैदास-कबीर होते हुए नानक तक इसके खिलाफ भक्ति आंदोलन के रूप में जो भी धार्मिक-नैतिक सुधारवादी विरोध खड़े हुए वे इसे तोड़ने में नाकाम रहे क्योंकि सामाजिक विकास के तत्कालीन स्तर पर उनके लिए इसके आधार के रूप में मौजूद वर्ग समाज का अतिक्रमण संभव नहीं था।

इस बात पर जोर देना जरूरी है कि धार्मिक नैतिकता, प्रतीकों, मिथकों व शुद्धता-अशुद्धता के विचारों के एक जटिल जाल के इसके साथ जोड़ दिए जाने के बावजूद जाति व्यवस्था का मूल आधार यह नैतिकता, मिथक, प्रतीक व शुद्धता-अशुद्धता के विचार नहीं, तत्कालीन उत्पादन प्रणाली में उत्पादन के मुख्य साधन भू संपदा पर एक अल्प संख्या का मालिकाना था। यह जाति व्यवस्था भू मालिकाने के आधार तथा सामंती राज्य की दमनकारी शक्ति के बल पर कायम एक भौतिक शक्ति रही है। अतः प्रतीकों व मिथकों के खिलाफ संघर्ष की एक अहम भूमिका होते हुए भी जाति उन्मूलन का प्रश्न जाति उत्पीड़न की शिकार जनता के भौतिक जीवन में परिवर्तन अर्थात शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति का संघर्ष है। इस संघर्ष के साथ जुड़कर ही प्रतीकों व मिथकों के खिलाफ संघर्ष की भूमिका बनती है। शोषण से मुक्ति के इस संघर्ष के बगैर मात्र मिथकों-प्रतीकों के क्षेत्र में टकराव अलग रूप-रंग होते हुए भी बुनियादी तौर पर गांधी के हृदय परिवर्तनवादी विचार का ही एक ‘गरम’ संस्करण मात्र है।  

जोतिबा फुले प्रथम थे जिन्होंने अपने ढंग से जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में उत्पादन संबंधों और इसके ऊपरी ढांचे के तौर पर शासक वर्ग व ब्राह्मणवादी विचारधारा के रिश्ते पर पहली बार विचार आरंभ किया, और किसान-मजदूरों सहित मेहनतकश जनता की मुक्ति हेतु संघर्ष के आरंभिक विचार पेश किए। पर अंततः वे एक नए सुधारवादी ‘सत्यशोधक’ धर्म के विचार में ही उलझ गए। तत्पश्चात अंबेडकर ने दलित जातियों की उत्पीड़न से मुक्ति के सवाल को भारत के राजनीतिक एजेंडा पर ला खड़ा किया। अंबेडकर के चिंतन में जीवन भर जाति उन्मूलन का लक्ष्य एक क्रांतिकारी पहलू के रूप में बना रहा। उन्होंने महाड़ के चावदार तालाब के जातिभेद विरोधी जनवादी अधिकारों के शानदार जनसंघर्ष को नेतृत्व भी दिया। इसके आगे बढ़ने में ही जाति उन्मूलन के जुझारू संघर्ष का बीज छिपा था। मगर इसके बाद उन्होंने उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी आधारित प्रतिरोध के बजाय राज्य प्रायोजित सुधारों का प्रयोजनवादी रास्ता चुन लिया। अगर महाड़ का उत्पीड़ित जनता का संघर्ष आगे बढ़ता तो जाति उन्मूलन के कार्यक्रम को जुझारू वर्ग संघर्ष आधारित जनवादी क्रांति के कार्यक्रम तक ले जाना तार्किक रूप से अनिवार्य हो जाता। मगर अंबेडकर का प्रयोजनवादी दृष्टिकोण उन्हें पूंजीवादी सत्ता के साथ सहयोग व सुधारों के मार्ग पर ले गया। किंतु उन्हें जाति उन्मूलन तो दूर जाति उत्पीड़न से राहत के सीमित सुधारों तक के क्षेत्र में भारत के बुर्जुआ नेतृत्व वाले राज्य व उसमें सहयोजित दलित प्रतिनिधियों दोनों ओर से ही घोर हताशा का सामना करना पड़ा। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बौद्ध धर्म का पलायनवादी विकल्प चुना।  

किसी भी समाज में क्रांति के नेतृत्वकारी वर्ग के लिए आवश्यक है कि वह खुद को उस समाज के सभी उत्पीड़ित वर्गों का प्रतिनिधि व नेता सिद्ध करे और उसके मुक्ति के कार्यक्रम को सभी उत्पीड़ित वर्ग-समुदाय अपनी मुक्ति का कार्यक्रम मानें। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अगर मार्क्सवाद के वर्ग संघर्ष के विचार के आधार पर एक क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाती तो उसके लिए भी जाति उन्मूलन का एक क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश करना तार्किक रूप से अनिवार्य हो जाता। किंतु इस पार्टी ने भारत में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रांति का कार्यक्रम बनाया ही नहीं, तो जाति उन्मूलन का क्रांतिकारी कार्यक्रम ही कैसे बनाती? यह पार्टी कई बलिदानी संघर्षों के बावजूद अपने बुनियादी चरित्र में कांग्रेस का सोशल डेमोक्रेटिक वाम पक्ष ही बनी रही। और जब इसने 1951 में पहली बार ‘जनवादी क्रांति का कार्यक्रम’ बनाया तो वह एक सर्वहारा वर्गीय क्रांतिकारी कार्यक्रम नहीं राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को ही प्रगतिशील व समाजवाद की ओर ले जाने वाला स्वीकार कर उसके साथ वर्ग समन्वय का सुधारवादी कार्यक्रम था। जब क्रांतिकारी कार्यक्रम का सवाल ही इस पार्टी के एजेंडा पर नहीं रहा, तो जाति उन्मूलन का कार्यक्रम ही उस एजेंडा पर कैसे रहता? नक्सलबाड़ी के उभार ने क्रांति के प्रश्न को एक बार फिर सर्वहारा राजनीतिक पटल पर ला खड़ा किया, लेकिन वह भी भारतीय क्रांति के लिए एक सुविचारित कार्यक्रम बनाने का काम हाथ में लेने में असमर्थ रहा।

आज का भारत एक पूंजीवादी राज्य वाला समाज है। यह पूंजीवादी राज्य औपनिवेशिक शासन तथा सामंती प्रतिक्रिया से समझौता-सौदेबाजी की लंबी प्रक्रिया के जरिए अस्तित्व में आया है। लगभग 1980 तक विस्तार व कंसोलिडेशन के पश्चात इसने एक इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी को जन्म दिया और इसके लिए आर्थिक सुधारों व उदारीकरण-वैश्वीकरण के नाम पर नवउदारवादी पूंजीवादी आर्थिक नीतियों द्वारा मजदूर वर्ग पर प्रत्याक्रमण तथा पूंजी संचय को तीव्र करने का विकल्प चुना, जो 1990 के दशक में अपनी पूर्ण तेजी पर पहुंचा। इस तरह भारतीय पूंजीवाद विस्तार करते पूंजीवाद के बजाय संकटग्रस्त पूंजीवाद में रूपांतरित हो गया और तदनुसार इसने फासीवादी मुहिम को भी आगे बढ़ाना शुरू किया। फासीवादी विचारधारा पर आधारित संघ 1925 से ही एक विकल्प के तौर पर मौजूद था। अब वह भारतीय पूंजीपति वर्ग का भरोसा व संरक्षण प्राप्त कर प्रमुख शक्ति बनने लगा। इसी की परिणति मौजूदा फासिस्ट शासन है।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों व फासीवादी प्रतिक्रिया की इस जुड़वां पूंजीवादी प्रवृत्ति ने एक और पूंजी के अत्यधिक संकेंद्रण के द्वारा भारतीय समाज के शीर्ष पर एक अति धनाढ्य तबके को जन्म दिया है जो आज देश की संपदा के 80% से अधिक का मालिक है, तो दूसरी ओर इसने इसके आधार पर एक बहुसंख्यकवादी हिंदुत्ववादी प्रतिक्रिया को खड़ा किया है जिसके कोर में जन्म आधारित जातिगत श्रेष्ठता आधारित सवर्णवादी प्रतिक्रिया मौजूद है। इसी ने जाति अत्याचारों को फिर से बढ़ाने का रूझान पैदा कर दिया है।

जाति भेद निजी संपत्ति व वर्ग भेद के आधार पर पैदा व टिका हुआ विचार है। अतः कोई भी वर्ग समाज, जैसा पूंजीवादी समाज है, इस विचार के उन्मूलन का आधार नहीं बन सकता। हर वर्ग समाज में शासक वर्ग इतिहास के सभी वर्ग समाजों के श्रम विभाजन व प्रतिक्रियावादी विचारों को मिटाने के बजाय उन्हें मात्र अपनी जरूरत मुताबिक तरमीम कर अपने हित में प्रयोग करता है ताकि वे उसके वर्ग शोषण-शासन को मजबूती व स्थायित्व दें। भारतीय पूंजीवाद ने भी जाति व्यवस्था को अपने हितों के मुताबिक तरमीम, परिष्कृत व अनुकूलित किया है। उसने अपनी उत्पादन प्रणाली में बाधा बनते छुआछूत के विचार को सार्वजनिक जीवन से लगभग बाहर कर दिया है, हालांकि निजी पारिवारिक दायरे में वह अब भी बहुत हद तक बना हुआ है, क्योंकि वहां वह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के लिए कोई अड़चन नहीं बनता। इसी तरह जातिगत श्रेष्ठताबोध आधारित भेदभाव, संपत्ति पर कुछ जातियों का प्रभुत्व और अंतर्विवाह की प्रथा पूंजीवादी व्यवस्था के लिए कोई रुकावट नहीं बनते हैं। चुनांचे पूंजीवाद उन्हें तोड़ने के लिए कोई प्रयास भी नहीं करता, हालांकि पूंजीवादी जीवन इन्हें धीरे-धीरे कमजोर जरूर करता है, खास तौर पर खुद पूंजीपति वर्ग में ऐसे भेद निरंतर कमजोर होते जाते हैं।

पूंजीवाद उत्पादन के साधनों की मालिक अल्पसंख्या द्वारा बहुसंख्यक मेहनतकशों पर शोषण-शासन की ही व्यवस्था है। पूंजीपतियों का पूंजी संचय भी श्रमिकों की श्रमशक्ति के दोहन से ही होता है। पूंजीवाद सामंतवाद से मात्र इतना भिन्न है कि वह मेहनतकशों को एक सामंत से बलपूर्वक बांधे रखने के बजाय उन्हें वैधानिक रूप से ‘स्वतंत्र’ कर श्रमशक्ति की बिक्री के मंडी में लाकर खड़ा कर देता है। कहने को इस मंडी में विक्रेता और क्रेता के समान अधिकार हैं पर संपत्तिहीन सर्वहारा का जीवन चलाने की शर्त ही खुद को किसी पूंजीपति को बेच पाना है। जब भी यह संपत्तिहीन सर्वहारा खुद के विक्रय के बजाय वास्तविक समानता की मांग उठाता है पूंजीवादी राज्य समांतवादी राज्य की ही तरह वास्तविक सत्ता को स्थापित करने में अपनी पूरी दमनकारी शक्ति के साथ प्रकट हो जाता है। अतः पूंजीवाद में समानता का अधिकार दरअसल में वास्तविक रूप से गुलाम के लिए हर रोज/सप्ताह/महीना आदि पर अपने लिए किसी मालिक के चुनाव का अधिकार ही है, गुलामी से मुक्त होने का अधिकार नहीं।

इसके बावजूद पूंजीवाद इस वंशानुगत पेशागत विभाजन को कुछ हद तक तोड़ने की संभावना रखता है बशर्ते वह सामंती व्यवस्था के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष करते हुए उत्पादक शक्तियों के चौतरफा विकास की राह खोल दे। लेकिन पूंजीवाद जातिगत भेदभाव को निर्मूल नहीं कर सकता क्योंकि वह भी सामंती व्यवस्था की ही तरह निजी संपत्ति आधारित है और सामंती अभिजात्य से उसका संघर्ष पूंजीवादी उत्पादन की बाधाओं को हटाने हेतु राज्य व्यवस्था पर आधिपत्य के लिए ही होता है। तत्पश्चात वह सामंती अभिजात्य को पूंजीपति वर्ग मे तब्दील होने का पूरा मौका दे अपने में सम्मिलित-सहयोजित कर लेता है। सभी विकसित पूंजीवादी देशों में सामंती अभिजात्य आज पूंजीवाद का हिस्सा है और सामंती उत्पीड़न के शिकार रहे अधिकांश पूर्व किसान-दस्तकार आज भी संपत्तिहीन सर्वहारा ही बने रह गए हैं। वर्ग विभाजन का ही नया रूप पूंजीवाद न सिर्फ सामंती पूर्वाग्रहों व संकीर्णताओं को बनाए रखता है बल्कि अपने संकटकाल में इन्हें पुनः पालता-पोसता भी है।

भारत में तो पूंजीवाद का यह रूप भी नहीं रहा। उसका विकास औपनिवेशिक पूंजी की दासता में हुआ। औपनिवेशिक शासन ने अपने हित में न सिर्फ देशी सामंतों और प्रतिगामी विचारों-शक्तियों के साथ गठजोड़ किया बल्कि उसके भूमि बंदोबस्त तथा व्यापारिक नीतियों ने किसानों व दस्तकारों पर जमींदारी-साहूकारी जुल्म का एक भयानक अध्याय रचा और जल-जंगल-जमीन पर उनके परंपरागत सामंती अधिकार भी समाप्त कर उन्हें भयंकर कंगाली, कर्ज व भुखमरी के भंवर में धकेल दिया। मध्यकाल में व्यापार व उद्योग के विकास से बने जिस शहरी दस्तकारी तबके ने ग्रामीण सामंती जीवन से छुटकारे की सांस ले जाति व्यवस्था के खिलाफ, भक्ति आंदोलन के धार्मिक स्वरूप में ही, आवाज उठाना आरंभ किया था, उन उद्योगों को नष्ट कर इन्हें भी वापस गांवों में सामंती जुल्म के कोल्हू में धकेल दिया गया।

अगर भारत की जनवादी क्रांति सर्वहारा व किसानों के नेतृत्व में जुझारू संघर्षों के मध्यम से होती तो वह नीचे से कृषि क्रांति के जरिए भूमि मालिकाने पर सवर्ण जातियों के भूस्वामियों का प्रभुत्व तोड़ जाति अत्याचार के एक बड़े आधार को मिटा देती। इससे भारतीय समाज के जनवादीकरण की प्रक्रिया अत्यंत तेज हो जाती। किंतु निजी संपत्ति आधारित व्यवस्था के फिर भी बने रहने से इससे भी जाति उन्मूलन का कार्य सम्पूर्ण नहीं होता। उस काम को अंतिम तौर पर संपन्न करना फिर भी समाजवादी क्रांति के जिम्मे ही रह जाता। भारत में सर्वहारा-किसान संश्रय में जनवादी क्रांति संपन्न होने के बजाय पूंजीपति वर्ग को सत्ता हस्तांतरण के जरिए यह चरण पूरा हुआ। इस पूंजीवादी राज्य ने भूमि सुधारों के वादे को धता बता कर सामंती भूस्वामियों को अपनी भूसंपदा को बचाकर पूंजीपति फार्मर वर्ग में रूपांतरित होने का मौका दिया और भू-मालिकाना सवर्ण जातियों (कुछ मध्यवर्ती जातियों सहित) के हाथ में ही रह जाने से ग्रामीण भारत में जाति अत्याचार का आधार लगभग पूरी तरह अटूट ही बना रह गया।

पूंजीपति वर्ग ने पूंजीवादी जनतंत्र के हस्बेमामूल सभी नागरिकों को औपचारिक संवैधानिक समानता का अधिकार देकर औपचारिक वैधानिक तौर से जाति व्यवस्था को समाप्त कर दिया। साथ ही इसने ऐतिहासिक तौर पर वंचित रही जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व, उच्च शिक्षा व सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण का अत्यंत सीमित अधिकार देकर जाति उन्मूलन आंदोलन के अगुआ तत्वों को भी शासक वर्ग में सहयोजित कर लिया। इसके बदले में अनिवार्य सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सार्वत्रिक व्यवस्थाओं की मांगों को जाति विरोधियों ने भी छोड़ देना स्वीकार किया, हालांकि तब तक कई पूंजीवादी जनतंत्रों में भी इन्हें बतौर जनवादी अधिकार मंजूर कर लिया गया था। यहां तक कि विवाह के क्षेत्र में भी (जो जाति के साथ गहराई से अंतरसंबंधित है) स्त्री-पुरूष को विवाह व तलाक की अबाध स्वतंत्रता तक देने से इंकार कर दिया गया। विवाह कानूनों में तमाम ‘सुधारों’ के बावजूद अभी तक भी स्त्री-पुरूष को अपनी इच्छा से विवाह व तलाक का अधिकार प्राप्त नहीं है क्योंकि राज्य के पुलिस, अफसरशाही व न्यायपालिका जैसे अंग इसमें कार्यवाही के स्तर पर बाधा डालने के तमाम नियमों के साथ एक प्रकार से अनुमति देने वाले की भूमिका अदा करते हुए प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों के सहायक बने रहे हैं। अन्तर्जातीय-अंतरधार्मिक विवाहों को रोकने में इस अधिकार का वर्तमान फासीवादी सत्ता अपनी प्रतिगामी मुहिम में पूर्ण उपयोग कर रही है। इस प्रकार भारतीय पूंजीवादी जनतंत्र आरंभ से ही कई अन्य समकालीन पूंजीवादी जनतंत्रों की तुलना में भी कहीं बहुत कम जनवादी था।

भारत में आरक्षण का सीमित अधिकार जिस प्रकार दिया गया उस पर भी गौर करना बेहद जरूरी है। सैकड़ों-हजारों साल तक प्रताड़ित-वंचित रहे समुदायों को उसके लिए कुछ मुआवजा (compensation) देने के तौर पर आरक्षण का विचार बुर्जुआ जनवाद में आया। यह विचार आधुनिक सभ्यता के एक न्यूनतम स्तर का परिचय देते हुए स्वीकार करता है कि कुछ समुदायों के साथ इतिहास में अन्याय हुआ है और इसकी प्रतिपूर्ति के तौर पर उनके साथ सकारात्मक भेदभाव अर्थात उनकी कुछ संख्या को नियमित पंक्ति के बजाय आगे ला खड़ा करना एक न्यायोचित बात है। गौर करने की बात है कि इसमें अन्याय व वंचना के बुनियादी ढांचे को समाप्त करने की बात नहीं है। वह तो एक अल्पसंख्या द्वारा शोषण की किसी भी व्यवस्था में नामुमकिन ही है। इसमें बस अन्याय के शिकार समुदाय में से एक सीमित संख्या को प्राथमिकता में आगे कर देने की बात है। फिर भी न्यूनतम सभ्यता की बात इसलिए है कि अन्याय को स्वीकार कर कुछ संख्या को आगे लाने को सामाजिक न्याय के रूप में स्वीकृति दी जा रही है। इसके उलट भारत में आरक्षण के इतिहास को देखें तो तिलक-गांधी से मोदी-भागवत तक भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों ने जाति व्यवस्था को कभी ऐतिहासिक अन्याय के रूप में स्वीकार नहीं किया। उनके सबसे ‘सुहृदय प्रतिनिधि’ गांधी भी जाति व्यवस्था को अन्याय नहीं मानते, बस वे हिंदू समाज की एकता की कूटनीति बतौर सवर्णों को ‘हरिजनों’ पर दया भाव के रूप में आरक्षण को स्वीकार करने के लिए कहते हैं। संविधान सभा में भी अंबेडकर को शुरू में जगह तक नहीं मिली थी। बाद में जाति उत्पीड़न के विरोधियों को सहयोजित करने की कूटनीति के तौर पर उन्हें न सिर्फ शामिल कर लिया गया बल्कि संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इसका लाभ पूंजीपति वर्ग बुर्जुआ संवैधानिक व्यवस्था को समाज की सर्वाधिक उत्पीड़ित जनता से स्वीकृति की कीमत बतौर अब तक भुना रहा है।

आरक्षण अगर अपने सर्वोत्तम बुर्जुआ जनवादी रूप में अन्याय की स्वीकृति व न्याय के तौर पर उसके मुआवजे के सिद्धांत की स्वीकृति द्वारा समाज को इसके लिए एक सामाजिक आंदोलन द्वारा तैयार कर प्रदान किया जाता तब भी यह जातिगत अन्याय में कुछ ढील ही दे सकता था, इसे मिटाने का कार्यक्रम नहीं बन सकता था। मगर यहां तो यह कूटनीति के तौर पर इस उत्पीड़न विरोधी संघर्ष को सहयोजित करने के लिए दिया गया और जातिगत अन्याय को अन्याय स्वीकार किया ही नहीं गया। अतः यह बुर्जुआ जनवाद के तौर पर भी एक न्यूनतम सभ्यता का परिचायक नहीं था। चुनांचे इसके बदले में दलितों के प्रतिनिधि बतौर अंबेडकर को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी – शिक्षा, आवास, पोषण, स्वास्थ्य, आदि के सार्वत्रिक सार्वजनिक कार्यक्रमों और उसमें प्राथमिकता के प्रावधानों के जरिए दलितों-वंचितों के वास्तविक जीवन में कोई भौतिक सुधार का कार्यक्रम लिए बगैर ही मात्र आरक्षण दे देने से इसका जितना लाभ संभव था, उतना भी मिलने की गुंजाइश नहीं रह गई, क्योंकि वास्तव में ऐसा लाभ पहुंचाने का कोई इरादा कभी था ही नहीं। दूसरी बात, संवैधानिक व्यवस्था में स्वयं दलितों को जातिगत उत्पीड़न के प्रतिकार का कोई अधिकार तो दूर, इसके लिए किसी प्रकार की कानूनी सुधार की व्यवस्था तक नहीं की गई। औपनिवेशिक शासन से विरासत में मिली राज्य की घोर प्रतिगामी संस्थाओं पर ही जातिगत उत्पीड़न के अपराधियों को सजा देने की उम्मीद पर बात समाप्त हो गई। मात्र इस आरक्षण के बदले जाति अन्याय विरोधी आंदोलन की सारी मांगें नामंजूर कर दी गईं।       

फिर भी, जब तक पूंजीवादी व्यवस्था अपने सीमित विस्तार के दौर में थी, शिक्षा-रोजगार के अवसरों की सकल तादाद में इजाफा होने के कारण वंचित जातियों के लिए आरक्षण से सुरक्षित अवसरों को सवर्ण जातियों के अत्यंत उग्र प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि आरक्षण के बावजूद उनके लिए भी उपलब्ध अवसर बढ़ रहे थे। वृद्धि करते पूंजीवाद को शिक्षित श्रमिकों की बढ़ती संख्या की भी आवश्यकता थी। अतः रोजगार की संख्या के साथ ही मजदूरी दर में भी वृद्धि हुई क्योंकि सार्वत्रिक शिक्षा-स्वास्थ्य व्यवस्था के अभाव में कुशल-स्वस्थ श्रमिकों की आपूर्ति सीमित ही बनी रही। अतः आरक्षण का कुछ सीमित लाभ वंचित जातियों की एक छोटी संख्या को जरूर मिला। इससे उनमें भी एक छोटा मध्य व अति न्यून संपन्न वर्ग निर्मित हुआ। किंतु अधिसंख्य दलित-वंचित जनता ग्रामीण कृषि में अत्यंत सरप्लस श्रमिक आपूर्ति के परिणामस्वरूप मानवीय जीवन की अत्यंत न्यूनतम आवश्यकताओं से भी निम्न स्तर की मजदूरी दर पर दरिद्रता का जीवन जीने को ही मजबूर रही और सवर्ण जातियों के भूस्वामियों के अमानवीय जुल्म का शिकार भी बनती रही।

आरक्षण के दायरे को देखें तो भारत में सभी प्रकार के सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र में 1.96 करोड़ रोजगार का शिखर 1996-97 में ही पहुंच चुका था। उसके बाद इस संख्या में निरंतर गिरावट आई है और 2011-12 में ही यह संख्या गिरकर 1.76 करोड़ रह गई थी (स्रोत – रिजर्व बैंक, हैंडबुक ऑफ स्टेटिस्टिक्स ऑन द इंडियन ईकानमी 2022-23)। इसके बाद की संख्या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में नहीं दी गई है, लेकिन निजीकरण, सरकारी भर्तियों की स्थिति एवं रेलवे-बैंकिंग जैसे बड़े रोजगार वाले सेक्टरों के नवीन आंकड़े बताते हैं कि यह संख्या तब से और भी गिरी है। अर्थात आरक्षण की श्रेणी में आने वाले कुल रोजगारों की संख्या में विभिन्न तरह से कटौती जारी है, और इसी के साथ आरक्षण को खत्म करने के लिए अन्य तमाम तरह की कोशिशें भी जारी हैं जिनके जरिए इसे पहले ही बेहद खोखला किया जा चुका है।    

तर्क दिया जा सकता है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग इसका उत्तर है। पर सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार सीमित होने के साथ ही निजी क्षेत्र में भी नियमित रोजगारों की संख्या में वृद्धि अत्यंत धीमी है क्योंकि निजी क्षेत्र के बहुसंख्य रोजगार पूर्ण असुरक्षित बिना किसी कांट्रैक्ट वाले कैजुअल, दिहाड़ी, ठेका रोजगार हैं। रिजर्व बैंक की उपरोक्त रिपोर्ट के ही मुताबिक 1983-84 में संगठित निजी क्षेत्र में नियमित वेतन वाले रोजगार 73.60 लाख थे। 2011-12 में ये बढ़कर मात्र 119.70 लाख तक ही पहुंचे हैं। इसके बाद की संख्या इस रिपोर्ट में नहीं है। पर स्पष्ट है कि निजी क्षेत्र आरक्षण लागू करा लिए जाने के बाद भी आरक्षण के जरिए रोजगार में भागीदारी के संघर्ष के दायरे की उच्चतम सीमा यही लगभग 3 करोड़ रोजगार तक ही पहुंच सकती है, हालांकि पुराने दलितवादी आंदोलन का ऐसी मांग पर जोर देने का कोई इरादा नहीं है। उनका बड़ा हिस्सा आज निजीकरण के पक्ष में ही खड़ा है क्योंकि आरक्षण का लाभ लेकर बना उनका संपन्न तबका भी सवर्णों की ही तरह इसे अपने वर्गहित में मानता है। इसके बरक्स भारत में मौजूदा कुल हर प्रकार के भुगतान पाने वाले रोजगाररत व्यक्तियों की संख्या 40 करोड़ से कुछ अधिक है और काम करने की उम्र के सभी व्यक्तियों की संख्या लगभग 100 करोड़ है।

स्पष्ट है कि आरक्षण के संघर्ष का दायरा कितना सीमित है और इसमें पूर्ण कामयाबी प्राप्त करने के बाद भी इसका जाति उन्मूलन जैसे लक्ष्य पर कितना प्रभाव पड़ने वाला है। इसके बावजूद भी दलित वंचित जातियों के सर्वहारा को उत्पादन के साधनों के मालिकों के पास अपने शरीर की श्रम करने की क्षमता का विक्रय ही जीवन का एकमात्र उपाय बना रहने वाला है और जब तक उन्हें खेत-खलिहानों, खदानों से लेकर शहरों-कस्बों के लेबर चौकों पर खुद को नीलाम करने की मजबूरी है तब तक उन्हें सामाजिक समानता हासिल हो जाने की बात मात्र एक हसीन भुलावा है। जो कार्यक्रम इन श्रमिकों के प्रश्न को विचार के दायरे में ही नहीं लेता, उस कार्यक्रम से जाति उन्मूलन का मकसद कभी हासिल नहीं हो सकता।     

इसका ही दूसरा अहम पहलू प्रयोजनवादी दलित नेतृत्व द्वारा जाति अत्याचार के प्रतिरोध व प्रतिकार के प्रश्न को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाना था। संविधान में औपचारिक समानता की घोषणा के अतिरिक्त जातिगत उत्पीड़न को रोकने का कोई प्रावधान ही नहीं किया गया, बल्कि जातिगत प्रताड़ना के शिकारों को उसके प्रतिकार के लिए कार्रवाई का कोई अधिकार देने के बजाय संविधान की स्वीकृति के समय 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में उनके अंतिम भाषण में अंबेडकर से ही हर प्रकार के अवज्ञा व असहयोग तक को छोड़ने का आह्वान करा लिया गया –

“यदि हम लोकतंत्र को न केवल रूप में, बल्कि वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से पहली चीज़ जो हमें करनी चाहिए वह है अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को मजबूती से अपनाना। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को त्यागना होगा। इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए।

जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का कोई रास्ता नहीं बचा था, तब असंवैधानिक तरीकों का औचित्य बहुत अधिक था। लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता। ये तरीके और कुछ नहीं बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।”

पर जाति उत्पीड़न के प्रतिकार के उद्देश्य को पूरा करने का कोई संवैधानिक तरीका था कहां? हरित क्रांति के बाद के दौर में जाति के साथ ही उभरे उजरती मजदूरी के अंतर्विरोध के परिणामस्वरूप सामूहिक दलित हत्याओं व उनके प्रतिरोध के एक दौर के पश्चात एससी एसटी (प्रीवेन्शन ऑफ अट्रोसिटीज) कानून, 1989 के जरिये जातिगत उत्पीड़न के सवाल को पूरी तरह पुलिस द्वारा विशेष धाराओं व विशेष अदालत के कानूनी-प्रशासनिक दायरे में बांधकर इसके विरुद्ध उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी को पूरी तरह कानून-व्यवस्था भंग के दायरे में ले आया गया। पुलिस और अदालत जो धनशक्ति से संचालित होती है और जिनमें वही जातिवादी अफसर-जज भरे हुए हैं, इनमें जाति उत्पीड़न के किसी शिकार को न्याय मिलना कैसे मुमकिन है? यह बस उन्हें थकाकर हताश हो बैठने के लिए मजबूर करने का तरीका है। यह अंबेडकर के बुर्जुआ जनवाद के वैचारिक प्रभाव में राज्य को वर्गोपरि मानने के विचार से प्रभावित था जबकि ऐसा कोई वर्गोपरि राज्य होता ही नहीं है। राज्य हमेशा ही शासक वर्ग के दमन का औजार होता है। भूमि संबंधों में क्रांतिकारी बदलाव के बगैर कृषि के पूंजीवादी बन जाने पर भी धनी किसानों और सवर्ण जातियों के बीच काफी हद तक एक अतिच्छादन या ओवरलैप की स्थिति बनी रह गई तो स्वाभाविक तौर पर इसे सवर्णवादियों के दमन का औजार बनना ही था। अतः जाति अत्याचार के खिलाफ उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी वाले प्रतिरोध के बजाय इसे पुलिस-अदालती नौकरशाही तक महदूद बना देने से यह एक ओर तो जाति अत्याचार करने वाले वास्तविक अपराधियों को बचाने का तंत्र बन गया है तो दूसरी ओर बुर्जुआ दलितवादी राजनीति के लिए सौदेबाजी का जरिया भी। 

पूंजीवादी संवैधानिक व्यवस्था ने अपने चरित्र के मुताबिक सभी नागरिकों को उनके सामंती वर्ग विभाजन वाले जातिगत पेशा विभाजन के बंधन से वैधानिक तौर पर मुक्त कर दिया है। परंतु पूंजीवादी जनवाद मात्र औपचारिक वैधानिक स्वतंत्रता ही दे सकता है। इस वैधानिक स्वतंत्रता को वास्तविक स्वतंत्रता बना देना उसके बुनियादी चरित्र के विपरीत है क्योंकि संपत्तिहीन सर्वहारा का उजरती श्रम ही पूंजीवाद की बुनियाद है। औपनिवेशिक शासन की गुलामी में पले भारतीय पूंजीवाद में चौतरफा औद्योगिक विकास के जरिए बड़े पैमाने पर गैर कृषि गैर देहाती रोजगार के मौके उपलब्ध कराने की सामर्थ्य नहीं थी, जिससे वह सामंती जातिगत श्रम विभाजन को एक झटके में तोड़ सके। अतः वंशानुगत पेशा विभाजन के टूटने की प्रक्रिया भी बहुत धीमी रही है।

1980 के दशक में चमड़ा उद्योग के कुल कामगारों में अनुसूचित (एससी) जातियों के श्रमिकों का अनुपात आबादी में उनके अनुपात का 4 गुना से अधिक था। 2021 में यह कम होकर 2 गुना ही रह गया। इसी प्रकार 1980 के दशक में सफाई, मैला, सीवरेज आदि क्षेत्र में एससी श्रमिकों का कुल कामगारों में अनुपात आबादी में उनकी संख्या के अनुपात से 5 गुना था अर्थात ऐसे लगभग सभी श्रमिक एससी जातियों के ही थे। किंतु 2021 में यह अनुपात भी 2 गुणा से अधिक बचा रह गया है। (स्रोत – स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी)। परंतु इसमें भी गौर किया जाए तो पाया जाएगा कि इन क्षेत्रों में भी दलित जातियों के कामगार सबसे निचले सबसे कठिन सबसे कम मजदूरी वाले रोजगारों में केंद्रित हैं और नए बेहतर यंत्रीकृत रोजगार में अन्य जातियों के लोग प्रवेश पा रहे हैं। 

स्पष्ट है कि आज वैधानिक रूप से सभी नागरिक अपने पसंद का पेशा अपनाने के लिए आजाद हैं। कुछ हद तक यह परिवर्तन हुआ भी है। मगर संपत्तिहीन सर्वहारा के सामने आरंभ से ही श्रमिकों की आपूर्ति की तुलना में बहुत सीमित मांग की समस्या मुंह बाये खड़ी है अर्थात बेरोजगारों की विशाल फौज मौजूद है, तथा बड़ी संख्या में बेरोजगार श्रमिक अत्यंत कम मजदूरी पर काम के लिए उपलब्ध हैं। अतः बड़ी तादाद में औद्योगिक रोजगार के अभाव में दलित जातियों के बहुत से अत्यंत गरीब मेहनतकश अभी भी अपने परंपरागत पेशों से निकल पाने में असमर्थ हैं। साथ ही कम मजदूरी पर इतनी विशाल संख्या में मजदूरों की आपूर्ति के कारण बहुत से क्षेत्रों में पूंजीपतियों के लिए यंत्रीकरण कम लाभप्रद है और आज भी सिर पर मैला ढोने जैसे कामों को पुराने अमानवीय ढंग से ही किया जा रहा है, हालांकि इनके लिए यांत्रिक विकल्प दशकों नहीं एक सदी से अधिक से मौजूद हैं।

भारत में जाति विरोधी व कम्युनिस्ट आंदोलन दोनों में ही पूंजीवादी जनवाद के चरित्र के बारे में भारी भ्रम मौजूद हैं। बहुतों का मानना है कि पूंजीवादी जनवाद मनुष्य-मनुष्य के बीच बराबरी व भ्रातृत्व स्थापित करता है। अक्सर तर्क दिया जाता है कि भारत में अभी सामंती या अर्ध सामंती व्यवस्था मौजूद है क्योंकि अगर भारत में बुर्जुआ जनतंत्र कायम हुआ होता तो वंचित जातियों व स्त्रियों को स्वतंत्रता-समानता जरूर हासिल हो गई होती, और जाति व पितृसत्ता आधारित जुल्म, जो बहुत हद तक परस्पर अंतर्गुंथित हैं, समाप्त हो गए होते। उनका मानना है कि बुर्जुआ जनतंत्र के अंतर्गत जातिगत भेदभाव व जुल्म से मुक्ति उपरांत ही भारत में मजदूर वर्ग नेतृत्व में समाजवादी समाज के लिए संघर्ष मुमकिन है। जाति उन्मूलन कार्यक्रम के नजरिए से इस तर्क पर गौर करना आवश्यक है।

पूंजीवाद में शोषण का चरित्र सीधे बलपूर्वक सरप्लस हस्तगतकरण न रहकर उजरती श्रम के बेशी मूल्य या सरप्लस वैल्यू को हड़पने के जरिए हो जाता है। अतः यह सामंती व्यवस्था की शोषण की वैधानिक व्यवस्था पर चोट कर वैधानिक स्वतंत्रता व समानता का नारा बुलंद जरूर करता है, पर वास्तव में यह समानता व स्वतंत्रता पूंजीवाद में कहीं नहीं मिली है। ‘स्वतंत्रता समानता भ्रातृत्व’ वाले परचम के बावजूद पूंजीवाद निजी संपत्ति आधारित वर्ग विभाजित शोषक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधनों पर एक अल्प संख्या का निजी मालिकाना मौजूद है। निश्चय ही दास व सामंती सामाजिक व्यवस्था की तुलना में पूंजीवाद उत्पादन की शक्तियों में क्रांति लाकर उत्पादित सरप्लस की मात्रा में बड़ी वृद्धि करता है और पुरानी दोनों व्यवस्थाओं की तुलना में इस सरप्लस में हिस्सा बंटाने वाली आबादी की तादाद कुछ हद तक बढ़ जाती है अर्थात यह शोषित मेहनतकश तबके के कुछ अगुआ व्यक्तियों को शासक वर्ग या उसके प्रबंधकों में शामिल कर लेने की क्षमता रखता है। किंतु इससे इसका शोषक चरित्र नहीं बदलता।

यूरोपीय-अमरीकी विकसित पूंजीवादी देशों को भी देखें जिनका पूंजीवादी विकास ऐसे दौर में हुआ जब न उस पर औपनिवेशिक शासन का बंधन था, न उभरते सर्वहारा के क्रांतिकारी विद्रोह का भय। उसके लिए यह भी सुविधा थी कि पहले कृषि भूमि से बेदखली और बाद में औद्योगीकरण के दौरान सरप्लस बनी मेहनतकश आबादी को वह अमरीकी – अफ्रीकी – ऑस्ट्रेलियाई उपनिवेशों में निर्वासित कर सकता था। अतः उसके लिए सामंती निरंकुशता व संकीर्णता से अधिक जुझारू व क्रांतिकारी रूप से लड़ना मुमकिन था। किंतु इन देशों में भी सत्ता प्राप्त करते ही बुर्जुआ वर्ग ने सामंती अभिजात्य से समझौता किया और सामंती अवशेषों, संकीर्णताओं व पूर्वाग्रहों को सुरक्षित रखा। ब्रिटेन में राजशाही, वंशानुगत लॉर्ड्स एवं भू संपदा पर सामंती मालिकाना बरकरार है। आज भी उसके अधिकांश प्रधानमंत्री, मंत्री, उच्च अफसर, जज, पत्रकार, प्रोफेसर, आदि सामंती अभिजात्य द्वारा संचालित 9 ‘पब्लिक’ स्कूलों से ही आते हैं जिनके छात्रों के लिए कैंब्रिज-ऑक्सफोर्ड में सीधे दाखिला पाने के बहुत से तरीके आज आज भी आरक्षित हैं। एक अत्यंत छोटे हिस्से को छोड़कर 2 सदी पहले के अधिकांश मजदूर परिवार आज भी मजदूर वर्ग में ही हैं।

इसकी तुलना में कहीं मुकम्मल जनवादी क्रांति वाले अमरीकी पूंजीवाद में काले अफ्रीकी, मूल निवासी, हिसपैनिक, आदि के साथ गहरा नस्ली भेदभाव व शोषण आज भी जारी है। अल्पसंख्या को शासक वर्ग में स्थान मिलने के बावजूद ये आज भी संपत्तिहीन सस्ते श्रमिक ही हैं जिन पर राज्य का दमनचक्र बेहद नृशंस है। इसके विपरीत अमरीकी पूंजीवाद के शिखर पर आज भी यूरोप से गए श्वेत आंग्ल-सैक्सन प्रोटेस्टेंट (WASP) समुदाय के लोग ही कायम है। इनमें सबसे पुराने अपनी विशिष्ट प्रिविलेज्ड स्थिति के कारण वहां ‘बोस्टन ब्राह्मण’ कहलाते हैं, और हावर्ड, कोलम्बिया, आदि इवी लीग यूनिवर्सिटियों में आज भी इनके लिए दाखिले में आरक्षण की व्यवस्था है (कितने पूर्वज यूनिवर्सिटी में पढे उसके लिए दाखिला प्रक्रिया में अतिरिक्त अंक दिए जाते हैं ताकि ये पीढ़ी दर पीढ़ी इनमें प्रवेश के अधिकारी बने रहें)। अमरीकी राजनीति, अर्थव्यवस्था, न्याय पालिका, अकादमिक, मीडिया, आदि क्षेत्रों में आज भी ये बोस्टन ब्राह्मण और पुराने दास प्रभु ही शिखर पर हैं। रायटर्स के एक अध्ययन अनुसार इस वक्त जीवित सभी राष्ट्रपति दास मालिकों के सीधे वंशज हैं (ओबामा भी अपनी मां की ओर से), डोनाल्ड ट्रंप को छोड़कर, क्योंकि उसका परिवार दासता समाप्ति पश्चात जर्मनी से आया था। संसद सदस्यों में भी 20% से अधिक दास प्रभुओं के सीधे वंशज हैं।

ऐसी ही स्थिति फ्रांस, जर्मनी, इटली, ऑस्ट्रिया, जापान, कनाडा, बेल्जियम, हॉलैंड, ऑस्ट्रेलिया, आदि अन्य विकसित पूंजीवादी देशों की है। इन सभी में नस्लवाद का न सिर्फ उन्मूलन नहीं हुआ, बल्कि पूंजीवाद के मौजूदा दौर में उसमें वैसी ही वृद्धि हो रही है जैसे भारत में फासीवादी उभार के दौरान जातिगत जुल्म में वृद्धि देखी जा सकती है। वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था ने कहीं भी मेहनतकश जनता को जनवादी अधिकार प्रदान नहीं किए। इन देशों में सभी अधिकारों के लिए संपत्ति मालिकाने की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई थी। सार्विक मताधिकार तक रूसी बोल्शेविक मजदूर क्रांति के बाद मिलना आरंभ हुआ और लिंग व नस्ल के किसी भेदभाव बगैर सार्वत्रिक मताधिकार फ्रांस में 1945, अमरीका में 1965 तथा स्विट्जरलैंड में 1990 तक जाकर मिला। इसके पहले सभी विकसित पूंजीवादी देशों में मताधिकार मात्र एक छोटे संपत्तिशाली तबके तक सीमित था। पूंजीवादी जनतंत्र ने संपत्तिहीनों को कहीं भी नागरिक अधिकारों के योग्य मंजूर नहीं किया। सभी पूंजीवादी देशों में 19-20 वीं सदी में मिले सभी राजनीतिक व आर्थिक जनवादी अधिकार दीर्घकालिक मजदूर वर्गीय संघर्षों व बलिदानों की देन हैं, इस सबक को भूल पूंजीवादी जनतंत्र के वैधानिक सुधारों के भरोसे रहना भारत के जाति विरोधी व मजदूर आंदोलन के बड़े हिस्से की भारी गलती रही है और इसने भारत में जाति-उन्मूलन सहित जनवादीकरण की पूरी प्रक्रिया को पीछे धकेल दिया है। 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की तात्कालिक परिस्थिति में विध्वंस पश्चात पुनर्निर्माण की जरूरत का नतीजा अस्थाई तीव्र पूंजीवादी वृद्धि थी। इसने पूंजीवादी देशों में सरप्लस की जिस मात्रा को उत्पादित किया उससे तुरंत रोजगार व मजदूरी दर में इजाफा हुआ और मजदूरों का जीवन स्तर भी ऊंचा उठा। इसकी चमक-दमक ने इन देशों में तात्कालिक तौर पर बहुत सी समस्याओं व उत्पीड़न पर पर्दा डालने का काम किया। किंतु वास्तव में नस्लवाद की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही और 1980 के दशक में पूंजीवाद के इस अल्पकालिक स्वर्ण युग के समाप्त होते ही नवउदारवाद के रूप में मजदूर वर्ग पर पूंजीवादी प्रत्याक्रमण शुरू हो गया और ब्लैक, हिस्पानिक आदि पर नस्लवादी अत्याचार भी। ठीक जिस वक्त ओबामा राष्ट्रपति चुने गए, उसी वक्त नस्लवादी अत्याचार के खिलाफ ‘ब्लैक लाईव्ज मैटर’ विद्रोह आवश्यक बन गया, और उत्पीड़ित नस्लों में से शासक वर्ग में शामिल हुई अल्पसंख्या का वर्ग चरित्र भी पूरी तरह जाहिर हो गया।           

नवउदारवाद के दौर का पूंजीवाद पूंजी के अति संचय और वित्तीय इजारेदारी का पूंजीवाद है। इस अति पूंजी संचय ने एक और अति धनाढ्यों का एक वर्ग (जिसमें अधिकांशतः पुराने संपत्तिशाली ही हैं, भारत के मामले में बहुसंख्या मध्यवर्ती जातियों सहित सवर्णों की है) तैयार किया है तो दूसरी ओर छोटे मालिकों-उत्पादन की बरबादी व बेदखली द्वारा बेरोजगारों की एक विशाल फौज को जन्म दे दिया है। इससे प्रभावी मजदूरी दर अत्यधिक गिर गई है और श्रमिकों का अधिकांश हिस्सा किसी तरह जीवन चलाने के लिए दिहाड़ी व गिग इकॉनमी के अस्थाई व असुरक्षित रोजगारों में परस्पर तीक्ष्ण होड़ के लिए विवश कर दिया गया है।

अपने मौजूदा अति संचय के दौर में पूंजीवाद उत्पादक क्षेत्र में रोजगार सृजन के बजाय अतुलनीय पूंजी संचय से अस्तित्व में आए अति-धनाढ्यों के वर्ग के लिए खिदमतगार किस्म के रोजगार ही अधिक पैदा कर रहा है जैसे वाचमैन, ड्राइवर, डिलीवरी-कूरियर कर्मी, मेड, सफाई कर्मी, आदि। अति-धनाढ्यों व उनका खाया-अघाया प्रबंधक-मुनीम तबका ही आज भारतीय समाज में सवर्णवादी प्रतिक्रिया का आधार है। अति-धनाढ्यों व खिदमतगार श्रेणी के कामगारों का यह विभाजन अपने आप में ही पुरानी जाति व्यवस्था के भेदभाव का पूंजीवाद द्वारा एक नए रूप में पुनरूत्पादन है। ऐसे सड़ते हुए पूंजीवाद में चौतरफा रोजगार सृजन द्वारा वंचित जातियों के मेहनतकशों का सवर्णवादी चंगुल से निकलना और भी मुश्किल हो गया है। विस्तार के दौर में पूंजीवाद ने उत्पीड़ित जातियों की जनता को जो थोड़ा बहुत सांस लेने का मौका दिया था, सड़ते हुए पूंजीवाद अर्थात फासीवाद के दौर में सवर्णवादी प्रतिक्रिया उनसे वो मौका भी छीन रही है। साथ ही खुद दलितों में से मध्य/संपन्न तबके में शामिल हुआ हिस्सा पूरे सवाल को अपने वर्ग हित अनुसार आरक्षण या भागीदारी तक सीमित कर इस सवर्णवादी प्रतिक्रिया में मदद दे रहा है। हालांकि आलोचना पर इसका तर्क होता है कि दलित ही वास्तविक सर्वहारा हैं तो जाति की भागीदारी ही वास्तविक सर्वहारा संघर्ष है। मगर धनाढ्यों का खिदमतगार बनने के लिए मजबूर किए जा रहे इस दलित सर्वहारा के लिए यूनियन बनाने के अधिकार, रोजगार गारंटी, न्यूनतम मजदूरी, 8 घंटे काम का दिन, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आदि के सवाल पर इनकी चुप्पी इनके वर्ग चरित्र और उभरते फासीवाद के साथ इनके पूर्ण हो चुके विलय को जाहिर कर देती है।

अतः निजी संपत्ति और वर्ग भेद पर आधारित जाति उन्मूलन का कार्यक्रम मात्र सर्वहारा वर्ग का क्रांतिकारी कार्यक्रम ही हो सकता है, क्योंकि मात्र सर्वहारा वर्ग ही निजी संपत्ति और वर्ग भेद को समाप्त करने का कार्यक्रम ले सकने वाला इतिहास का एकमात्र वर्ग है। सर्वहारा वर्ग पूंजीवाद विरोधी क्रांति को तभी मजिल पर पहुंचा सकता है जब उसके शोषण मुक्ति के कार्यक्रम में समाज के सभी वर्गों की शोषण मुक्ति का कार्यक्रम शमिल हो और वह पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध सभी उत्पीड़ित वर्गों/समुदायों का नेतृत्व हासिल कर सके या कम से कम उन्हें पूंजीपति वर्ग का सहयोगी बनने से रोक सके। अतः सर्वहारा वर्ग के समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम के लिए ही मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जाति उन्मूलन का क्रांतिकारी कार्यक्रम एक अनिवार्य आवश्यकता है।              

पूंजीवादी जनतंत्र ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व, उच्च शिक्षा व सार्वजनिक रोजगार हेतु भर्ती में भेदभाव समाप्त करने हेतु आरक्षण का अधिकार दिया था। इससे निश्चय ही दलित जातियों की एक अल्प संख्या को इन क्षेत्रों में भागीदारी का अवसर मिला है। अतः बुर्जुआ जनवाद द्वारा प्रदत्त आरक्षण के इस अधिकार पर मौजूदा फासीवादी प्रतिक्रियावादी रूझान द्वारा किए गए आक्रमण का विरोध सभी जनवादी अधिकारों के फासीवादी हनन के विरोध की तरह एक जरूरी कार्य है, इसमें कोई दो राय नहीं। किंतु क्या आरक्षण का अधिकार किसी जाति उन्मूलन कार्यक्रम का आधार बन सकता है?

आर्थिक आधार पर आरक्षण (EWS) जैसे नितांत प्रतिक्रियावादी कदम को छोड़ भी दें तो बुनियादी तौर पर आरक्षण समान अवसर के लिए होड़ करने वालों के बीच जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव पर रोक हेतु एक सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) की नीति है। उदाहरणार्थ, इसका अर्थ है कि आईएएस बनने की योग्यता रखने वालों के बीच उस पद पर नियुक्ति में भेदभाव न किया जाए या जैसा आजकल मांग उठाई जाती है कि सचिव पद पर नियुक्ति की अर्हता रखने वाले आईएएस अधिकारियों के बीच जाति के आधार पर भेद न किया जाए या प्रोफेसर/जज बनने की अर्हता रखने वालों के बीच इन पदों पर नियुक्ति के लिए उनकी जाति के आधार पर संभावित भेदभाव रोकने हेतु एक सकारात्मक भेदभाव की व्यवस्था बना दी जाए। स्पष्ट है कि यह आईएएस, प्रोफेसर, जज, सचिव, आदि से लेकर क्लर्क, अफसर, चपरासी, आदि हर पद हेतु जरूरी योग्यता के साथ होड करने वालों के बीच जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकने की सकारात्मक भेदभाव की नीति है। इस रूप में इसका एक बुर्जुआ जनवादी चरित्र है, जिसको समाप्त करने का प्रयास बुर्जुआ जनवाद द्वारा प्रदत्त अधिकारों के हनन का प्रयास है और उसका विरोध निश्चय ही उचित व जरूरी नीति है।

अपने बुनियादी चरित्र में ही आरक्षण मात्र एक निश्चित क्षमता वालों के बीच भेदभाव की रोकथाम का उपाय है।  किंतु आरक्षण के अधिकार में जाति के आधार पर उत्पीड़न को रोकने का कोई प्रावधान मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि इस निश्चित क्षमता न रखने वालों के लिए यह कुछ नहीं कर सकता। अभी बिहार के जाति सर्वेक्षण का तथ्य है कि 80% से अधिक परिवार 20 हजार रु महाना से कम आय वाले हैं। इसी तरह देश में तमाम सर्वेक्षण बता चुके हैं कि 90% से अधिक परिवारों की आय 25 हजार रु महीना से नीचे है। फिलहाल शिक्षा के निजीकरण व व्यवसायीकरण से जो स्थिति बन चुकी है उसमें क्या 25 हजार रु महीना से भी कम आमदनी वाले परिवार का कोई युवा तीनों आरक्षित क्षेत्रों में से किसी का लाभ उठाने की वास्तविक स्थिति में है? या भारत के 90% अनौपचारिक क्षेत्र के कर्मियों, जिनमें बड़ी तादाद में वंचित जातियों कामगार शामिल हैं, के लिए इसका क्या अर्थ है? इस मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के पास तो संविदा, ठेका, कैजुअल, दिहाड़ी, खेत या ईंट भट्टा, आदि पर मजदूरी वाले रोजगार भी मिल पाना मुश्किल बन गया है, यही वास्तविकता है। अतः जो मुद्दा इस मेहनतकश जनता के जीवन से संबंधित नहीं है वह किसी मजदूर वर्गीय राजनीतिक धारा का कार्यक्रम कैसे बन सकता है?

पूंजीवादी व्यवस्था ने दलित जातियों में जिस संपन्न व मध्य वर्ग का निर्माण किया है आरक्षण का सवाल उसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर ही उपलब्ध अवसरों की होड़ में अपने हितों की हिफाजत के जनवादी अधिकार का मुद्दा है। इसे वह अपनी जाति की संख्या शक्ति के मोबीलाइजेशन के बल पर हासिल करना चाहता है। अतः यह जाति उन्मूलन के कार्यक्रम के ठीक विपरीत जाति के कंसोलिडेशन का मुद्दा है क्योंकि वही इसके लिए सौदेबाजी का औजार है। ठीक इसीलिए उप्र, बिहार, मप्र, राजस्थान जैसे राज्यों का ही अनुभव बताता है कि सामान्य आलसी विश्लेषण के ठीक विपरीत यह संघ/बीजेपी की फासीवादी मुहिम में कोई अनुल्लंघनीय बाधा नहीं है और दलित/ओबीसी जातियों के अपने अंतर्विरोधों को बीजेपी ने अपने हित में इस्तेमाल करने की रणनीति का कुशलता से प्रयोग किया है।

अतः आरक्षण आधारित सुधार कार्यक्रम से उभरे संपन्न/दरमियाने दलित तबके के लिए अब जाति उन्मूलन न सिर्फ कोई सवाल नहीं रह गया है, बल्कि जाति गौरव का प्रचार उसके लिए मुख्य रुझान बन गया है। वह बता रहे हैं कि उनकी जाति प्राचीन इतिहास में राजाओं की जाति थी, जिसे बाद में ब्राहमणवादी साजिश से ‘नीच’ बना दिया गया। किंतु अगर सभी जातियां प्राचीन गौरव से परिपूर्ण शासकों की जातियां थीं, तो फिर जाति व्यवस्था में अन्याय कहां बचा? फिर तो इसके उन्मूलन का नहीं, मात्र इतिहास, साहित्य, पुराण, आदि में की गई ब्राह्मणवादी विकृतियों की सफाई कर जाति के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करना ही मुख्य सवाल बन जाता है! मौजूदा दौर में तथाकथित जाति अन्याय विरोधी मुहिम के इस चरित्र को स्पष्ट देखा जा सकता है जो मात्र इन ग्रंथों से अ’गौरव’ की बातों की ‘सफाई’ चाहता है। सर संघ चालक मोहन भागवत भी इसके लिए सहमति जता ही चुके हैं क्योंकि इससे तो उनका जाति समरसता का लक्ष्य और भी आसान बन जाता है। अतः जीवन भर जाति उन्मूलन प्रश्न को उठाते रहने वाले अंबेडकर के सम्मान में ‘जय भीम’ बोलते रहने के बावजूद तमाम जाति ‘विरोधियों’ के लिए भी संघ-बीजेपी का फासीवाद अब दूरी बनाए रखने की चीज नहीं रहा!  

इसके ठीक उलट मजदूर वर्ग राजनीति के नजरिए से मात्र वह सवाल जाति-उन्मूलन कार्यक्रम का आधार बन सकते हैं जो एक और खुद वंचित जातियों की जनता के लिए आरक्षण की आवश्यकता को ही समाप्त करने की ओर बढ़ सकें, तो दूसरी ओर गैर दलित सर्वहारा के साथ उनकी वर्गीय एकता भी कायम कर सकें, अर्थात मात्र कुछ सीमित अवसरों में समान क्षमता वालों की होड़ के बजाय सार्वत्रिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं व अधिकारों की गारंटी के सवाल। इसके साथ जाति अत्याचारों के प्रतिरोध व प्रतिकार के लिए नौकरशाही पर निर्भरता के बजाय उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी पर आधारित व्यवस्था जिसमें मजदूर वर्ग संगठन दलित जातियों के साथ ही गैर दलित सर्वहारा को भी जुटाएं।

जाति व्यवस्था व इसके प्रतिरोध की धाराओं के उपरोक्त चरित्र के आधार पर जाति उन्मूलन के एक क्रांतिकारी कार्यक्रम का मकसद न सिर्फ जातिगत अत्याचार व श्रमिकों के विभाजन को निर्मूल करना होगा बल्कि इसकी अंतिम मंजिल श्रमिकों के विभाजन के मूल आधार श्रम विभाजन का ही उन्मूलन होगा अर्थात पुरुष-स्त्री,  शारीरिक-मानसिक, शहरी-ग्रामीण, उद्योग-कृषि आदि के सभी सामाजिक श्रम विभाजनों को पूर्ण निर्मूल करना इसका अंतिम लक्ष्य होगा ताकि व्यक्ति व व्यक्ति के बीच शोषण व भेद का सम्पूर्ण आधार ही मिटा देना होगा।

ऐसे क्रांतिकारी जाति-उन्मूलन कार्यक्रम मेँ दो अनिवार्य हिस्से होंगे – एक, फौरी कार्यभार अर्थात मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में ही जातिगत भेदभाव व अत्याचार के खिलाफ जनवादी अधिकारों का संघर्ष; दो, क्रांतिकारी कार्यभार अर्थात जाति जैसे भेदभाव के पुनरूत्पादन करने वाली निजी संपत्ति का खात्मा जो पूंजीवादी व्यवस्था के क्रांतिकारी उन्मूलन के द्वारा स्थापित मजदूर वर्ग राज्य ही कर सकता है। यह मजदूर राज्य ही समाजवादी निर्माण द्वारा श्रम विभाजन की समाप्ति द्वारा जाति जैसे सभी भेदों को हमेशा के लिए कालातीत बना देगा। इन फौरी कार्यभारों में से कुछ सर्वाधिक महत्वपूर्ण की चर्चा हम यहां करेंगे, जिसमें प्रथम मजदूर आंदोलन का आंतरिक कार्य है और अन्य जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष से संबंधित हैं। यह कोई अंतिम सूची नहीं और इसमें अन्य कार्यभार जोड़े जा सकते हैं।

जाति उन्मूलन कार्यक्रम के फौरी कार्यभार

1. मजदूर वर्ग आंदोलन में जाति पूर्वाग्रह से संघर्ष

मजदूर वर्ग के सभी संगठनों व आम तौर पर पूरे मजदूर वर्ग में जाति पूर्वाग्रहों (सवर्णवादी पूर्वाग्रहों) व भेदभाव के खिलाफ अथक व बिना समझौता संघर्ष – सवर्णवादी पूर्वाग्रह की हर अभिव्यक्ति की पहचान, पड़ताल और उसे सख्ती से मिटाने का सक्रिय कार्यक्रम और दलितवादी पूर्वाग्रह को मिटाने हेतु धैर्यपूर्वक वर्ग चेतना का प्रसार व राजनीतिक शिक्षा।[1] 

2. जाति उत्पीड़न के प्रतिकार का अधिकार

जाति अत्याचार के प्रतिरोध एवं दंड की व्यवस्था को मौजूदा पुलिस-अदालत की नौकरशाही पर भरोसे के दायरे में सीमित न रख इस प्रतिरोध को उत्पीड़ित जनता की सामूहिक पहलकदमी/कार्रवाई पर आधारित करने के लिए सभी स्थानों पर इस संघर्ष हेतु आवश्यक संघर्ष के सामूहिक मंच (स्थानिक/पेशागत जन पंचायत) गठित करना जो जाति अत्याचार के प्रत्येक रूप (सार्वजनिक सुविधाओं-अधिकारों से वंचित करना, छुआछूत, हत्या, बलात्कार, मार-पीट से लेकर अन्तर्जातीय विवाहों में बाधा, आदि) पर संबंधित पक्षों की सुनवाई और दोष निर्धारण की जनवादी पद्धति और इसके फौरी प्रतिकार के सभी सामाजिक व वैधानिक उपायों को सुनिश्चित करें। इस व्यवस्था को जनवादी अधिकार के रूप मेँ स्वीकृति के लिए संघर्ष चलाना होगा। ऐसी व्यवस्था ही जाति अत्याचार के खिलाफ एक सशक्त सामाजिक प्रतिरोध के उभार का आधार बन सकती है जो ऐसे अत्याचार करने वालों में इसके परिणाम का समुचित भय उत्पन्न करे।    

3. कृषि भूमि – समान वितरण नहीं, समाजीकरण

जनवादी क्रांति के चरण में क्रांतिकारी भूमि सुधार जाति उन्मूलन की दिशा में एक अहम अग्रगामी कदम होता। यह भी सही है कि भू संपदा का कुछ जातियों के हाथ में केंद्रित होना आज भी जातिगत अत्याचारों में एक प्रमुख कारक है और सबसे भयानक जातिगत जुल्म आज भी ग्रामीण भूमिहीन खेत व अन्य मजदूरों के साथ ही होते हैं। मजदूरी की दर, काम की दशाओं और मजदूरी के भुगतान का सवाल इनमें प्रमुख भूमिका अदा करता है, परंतु इसे जाति का रूप देकर मुख्यतः सवर्ण भूस्वामियों-धनी किसानों के लिए एक ओर तो अपने पक्ष में जातिगत मोबीलाइजेशन करना आसान होता है, दूसरी ओर, दलित जातियों की जीविका पर भूमि आधारित हमला उन्हें झुकाने का मजबूत उपाय बन जाता है। 

अतः भू मालिकाने पर सवर्ण भू स्वामियों का नियंत्रण समाप्त करना जरूरी है। किंतु इस हेतु समान भूमि वितरण की मांग आज एक प्रतिगामी मांग है जो दलित जातियों के सर्वहारा को जमीन के इन छोटे-छोटे टुकड़ों की गुलामी में बांध देना होगा जो उन्हें कंगाली के सिवा कुछ नहीं दे सकते। मौजूदा पूंजीवादी कृषि में पूँजी निवेश व लाभप्रदता मुख्य सवाल बन चुका है जिसमें छोटी जोत का कोई भविष्य नहीं। जिन मजदूरों को जमीन के यह छोटे टुकड़े मिलेंगे उन्हें यह पूरे परिवार की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी भूख और दरिद्रता के सिवा कुछ नहीं देंगे क्योंकि न तो उनके पास इतनी पूंजी होगी, और ऊंचे सूद पर कर्ज लेकर पूंजी लगाने के बाद भी ये छोटी जोत लाभकारी न होने से ये टुकड़े उन्हें कर्जदार बनाकर जलद ही उनके हाथ से निकल जाएंगे, एवं इनमें से बहुतों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देंगे। आज भू मालिकाने पर कुछ जातियों के भू स्वामियों का नियंत्रण समाप्त करने हेतु सटीक व उपयुक्त मांग कृषि व आवासीय भूमि सहित समस्त भू संपदा का बिना मुआवजा राष्ट्रीयकरण है। इसके बाद इस कृषि भूमि पर श्रम करने वालों को उनके श्रम के अनुपात में उत्पाद में हिस्सेदारी के आधार पर सामूहिक/सहकारी फार्म विकसित करना ही उपयुक्त है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जीवन में छोटे स्तर के उत्पादन व सभी सामंती अवशेषों को मिटाने की दिशा में ठोस कदम होगा।

4. ग्रामीण आवासीय भूमि का समान वितरण व सभी के लिए आवास की गारंटी

ग्रामीण आवासीय भूमि के पूर्ण समाजीकरण द्वारा गांव के सभी निवासियों की पारिवारिक जरूरत के अनुपात में आवास के लिए आबंटित करना ही अग्रगामी कदम होगा।

5. शहरी आवास में जातिगत भेदभाव – सभी आवासीय संपत्ति का समाजीकरण

शहरी क्षेत्रों में भी आवास के मामले में जाति-धर्म आधारित भेदभाव बड़ी समस्या है। किंतु ‘हृदय परिवर्तन’ शैली का नैतिक उपदेश आधारित जाति भेद मिटाओ अभियान इसका कोई समाधान नहीं है। इसका समाधान हर परिवार की जरूरत के एक आवास के अतिरिक्त सभी आवासीय संपत्ति का बिना मुआवजा पूर्ण राष्ट्रीयकरण और आवश्यकतानुसार न्यूनतम भाड़े पर आबंटन है। जहां इसके बाद भी कमी हो वहां इस सार्वजनिक भूमि पर आवासीय निर्माण और आवश्यकता मुताबिक आबंटन ही जाति-धर्म एवं अन्य भेदभाव को मिटाने का जरिया है।

6. सार्वत्रिक सार्वजनिक सुविधाओं (आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, मनोरंजन) की गारंटी का अधिकार

सीमित सार्वजनिक सुविधाओं/ व्यवस्थाओं में आबादी के अनुपात में भागीदारी जनवादी प्रतीत होने वाला मगर विशिष्टता का विचार है जो इन सुविधाओं को एक सीमित संख्या के लिए रिजर्व करता है। खास तौर पर नवउदारवादी पूंजीवाद द्वारा व्यापक निजीकरण-व्यवसायीकरण के दौर में यह विशेषाधिकार प्राप्त आबादी के बीच इन विशेषाधिकारों की हिस्सेदारी के फॉर्मूले का संघर्ष है, इन विशेषाधिकारों की समाप्ति का नहीं। समाज में सामंती अवशेषों और संपत्ति व प्रभुत्वशाली अभिजात्य के प्रिविलिज को मिटाने हेतु स्कूली एवं उच्च शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं, यातायात, खेल-मनोरंजन, आदि सभी क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से समान सुलभ सार्वत्रिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं का होना आवश्यक है। खास तौर पड़ोस के स्कूल की व्यवस्था (neighbourhood schools) अर्थात सभी के लिए बिना किसी भेद और रियायत के पड़ोस के समान स्कूल में शिक्षा व नाश्ता-मध्याह्न भोजन की अनिवार्य व्यवस्था होना जरूरी है। इससे ही प्रभुत्वशाली तबकों/जातियों के मौजूदा सामाजिक विशेषाधिकारों की समाप्ति मुमकिन है जो समाज के सर्वांगीण जनवादीकरण के लिए आवश्यक है।

7. साल भर रोजगार गारंटी व जीवन निर्वाह योग्य न्यूनतम मजदूरी  

बढ़ती बेरोजगारी और गिरती मजदूरी सभी मजदूरों को प्रभावित करती है लेकिन दबे-कुचले समुदायों की मेहनतकश जनता को सर्वाधिक। यह उन्हें बहुत से जातिगत अन्याय को बिना प्रतिकार सहन करने के लिए विवश करती है, जैसे सिर पर मैला ढोने या सीवर में उतरने का अमानवीय काम इनकी जिंदा रहने की विवशता बना हुआ है और बिना न्यूनतम मजदूरी के पूंजीपतियों को इन कार्यों के यंत्रीकरण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः रोजगार गारंटी और न्यूनतम मजदूरी दबे-कुचले समुदायों की जनता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल है।

8. विवाह-तलाक के अबाध निजी अधिकार हेतु संघर्ष

वर्तमान पर्सनल कानून में पुलिस-न्यायपालिका की भूमिका इन्हें इसका नियामक बना प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों का सहायक बनाए हुए है। विवाह व तलाक प्रत्येक स्त्री-पुरूष का अपनी निजी रूचि व निर्णय से किया जाने वाला जनवादी अधिकार होना चाहिए जिसमें राज्य की भूमिका अनुमति/अड़चन की नहीं मात्र एक पंजीयक की हो अर्थात वह वयस्क स्त्री-पुरूष के इस संबंधी निर्णय को मात्र रजिस्टर करे।


[1] इसके एक उदाहरण बतौर पढ़ सकते हैं इसी अंक में एक अलग लेख ‘अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी में नस्लवाद से कैसे लड़े’। http://yatharthmag.com/2023/12/18/communists-fight-racism/