अनुच्छेद 370 का फैसला – सरकार के आगे नतमस्तक होने के लिए तर्क गढ़ती न्यायपालिका

December 18, 2023 0 By Yatharth

सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 के निरस्त किए जाने तथा जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा छीन कर उसे विभाजित कर दो केंद्र-शासित प्रदेशों में तबदील करने के कदम पर मोहर लगाते हुए विगत 11 दिसंबर को फैसला सुनाया है। इस फैसले का निचोड़ अगर एक वाक्य में कहें, तो वह है – जिसकी लाठी उसकी भैंस! लगभग 500 पन्नों के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय मोदी सरकार की काली करतूतों पर मोहर लगाने के लिए तर्क गढ़ती हुई दिखती है। यह यूं ही नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने फैसला आते ही उसे “ऐतिहासिक” और “आशा की किरण” जैसे विशेषणों से नवाज़ा है। विगत एक दशक से भाजपा-आरएसएस के नेतृत्व वाली मोदी सरकार के जनतंत्र को खोखला करने व जनतांत्रिक निकायों पर कब्ज़ा करने वाले लगातार उठाए गए कदमों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई मौन या प्रत्यक्ष सहमति की कड़ी में ही यह फैसला आया है। विदित है कि फैसले के कुछ दिन पहले तक भी क्रांतिकारी तबका ही नहीं बल्कि जनवादी व लिबरल जमात ने भी इसके उलट कोई प्रतिवादी फैसला आने की कोई बड़ी उम्मीद नहीं दिखाई थी। यह लेख इसी फैसले पर एक संक्षिप्त टिप्पणी है।

घटनाक्रम

2019 में 5 से 9 अगस्त के बीच मोदी सरकार ने जबरन संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया तथा जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा छीन कर उसे विभाजित कर दो केंद्र-शासित प्रदेशों में तबदील कर दिया था। एक दिन बाद ही यानी 10 अगस्त को देश के सर्वोच्च न्यायालय में सरकार के इस गैर-जनतांत्रिक कदम के विरुद्ध याचिकाएं दायर हुईं परंतु, जैसा कि अपेक्षित था, कोर्ट ने कोई भी कार्रवाई या टिप्पणी करने के बजाए मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया और 4 साल से अधिक बीत जाने और गंगा में बहुत पानी बह जाने के बाद 2023 में जाकर विगत 11 दिसंबर को इसपर फैसला जारी किया। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर चार जज बैठे और सेवा-निवृत्त हुए!

गौरतलब है कि नवंबर 2018 में मोदी सरकार ने, पुरानी सरकारों की तरह ही, जम्मू-कश्मीर में राज्य आपात्काल घोषित कर वहां की सरकार व विधान सभा को भंग कर दिया था। यह कदम कोई नया नहीं था लेकिन इसी आपात्काल के दौरान अगस्त 2019 में जो ख़तरनाक कदम उठाए गए वे अभूतपूर्व थे। 5 और 6 अगस्त को राष्ट्रपति के ज़रिए “संवैधानिक आदेश (CO) 272 व 273” जारी हुए जिनकी बदौलत संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया। 9 अगस्त को संसद में “जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019” पारित हुआ जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र-शासित प्रदेशों में तोड़ दिया गया – एक जम्मू-कश्मीर और एक लद्दाख।

लेकिन यह घटनाक्रम नई दिल्ली में संसद और राष्ट्रपति भवन की “साफ़-सुथरी” कागज़ी कार्रवाइयों तक सीमित नहीं था। वास्तविक कार्रवाई कश्मीर की धरती पर हुई जहां उपरोक्त घटनाक्रम शुरू होने के ठीक पहले ही कश्मीर को एक खुली जेल बना दिया गया। 40 हज़ार से ज़्यादा जवानों को अचानक वहां तैनात किया गया[1], हज़ारों नेताओं-कार्यकर्ताओं-आमजनों को गिरफ्तार किया गया, इंटरनेट और संचार के सभी साधन बंद कर दिए गए[2], और एक बर्बर लॉकडाउन की स्थिति पैदा कर दी गई। फौजी बूटों के तले और बंदूकों की नोक पर कश्मीर की जनता को कैद कर के मोदी सरकार ने “कश्मीर के लिए यह ऐतिहासिक कदम” उठाया!

ऐतिहासिक संदर्भ को देखें तो जम्मू-कश्मीर को भारत में शामिल करने की एक शर्त के रूप में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किया गया था, जिसके तहत संविधान के प्रावधान वहां राज्य सरकार के साथ परामर्श के बाद ही लागू किए जा सकते थे। यही उस राज्य का “विशेष दर्जा” था। इस शर्त का आधार था भारतीय शासकों और कश्मीर की जनता, जिसका प्रतिनिधित्व करने वाला औपचारिक निकाय उस वक्त शेख अब्दुल्लाह का संगठन और 1951 के बाद उनके नेतृत्व में वहां की संविधान सभा थी, के बीच कायम हुए आपसी भरोसे का विकास। इसी के तहत अनुच्छेद 370 में लिखा गया कि यह अनुच्छेद राष्ट्रपति द्वारा निरस्त किया जा सकता है परंतु “जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा” की रज़ामंदी के साथ ही। हालांकि 1956 में जम्मू-कश्मीर का संविधान पारित हो जाने पर संविधान सभा तयशुदा रूप से भंग हो गई।[3] इसके साथ ही यह सवाल सामने आया कि संविधान सभा की अनुपस्थिति में क्या अनुच्छेद 370 अब संविधान का एक स्थाई प्रावधान बन गया है क्योंकि उसकी रज़ामंदी से ही इसे रद्द/निरस्त किया जा सकता था।[4]

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

उपरोक्त सवाल को अपने लिए हल करने के लिए मोदी सरकार ने 5 अगस्त 2019 को CO 272 लाकर सबसे पहले अनुच्छेद 370 में “संविधान सभा” को “विधान सभा” से प्रतिस्थापित कर दिया।[5] इस संशोधन के तहत अब अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर की विधान सभा की रज़ामंदी पर भी निरस्त किया जा सकता था। तो क्या विधान सभा ने ऐसा कोई निर्णय लिया? नहीं! मोदी सरकार ने इसके एक साल पहले ही राज्य आपात्काल घोषित कर वहां की विधान सभा और राज्य सरकार को भंग कर दिया था और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। इसी डिज़ाइन को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने राष्ट्रपति शासन में राष्ट्रपति को ही विधान सभा मान लिया और उसके ज़रिए अगले ही दिन CO 273 जारी कर अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया।

इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में CO 272 और 273 को वैध घोषित किया है और सरकार से भी एक कदम आगे बढ़ते हुए तर्क दिया कि राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 को निरस्त या रद्द करने के लिए ना ही संविधान सभा की रज़ामंदी की ज़रूरत थी और ना ही विधान सभा की। उसके तहत राष्ट्रपति (केंद्र सरकार) के पास शुरुआत से ही अनुच्छेद 370 पर कोई भी निर्णय लेने की पूर्ण और एकतरफा ताकत थी और उसे राज्य सरकार के साथ कोई परामर्श या सहभागिता की कोई दरकार नहीं थी।[6] मानो न्यायालय मोदी सरकार से यह पूछ रहा हो कि – आपने संवैधानिक आदेश जारी करने का भी कष्ट क्यों उठाया महानुभावों, जबकि आपके गैर-जनवादी लक्ष्य को पूरा करने के लिए तो इस न्यूनतम औपचारिकता की भी ज़रूरत नहीं थी?

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की रज़ामंदी को ही महत्वहीन घोषित कर दिया जबकि अनुच्छेद 370(3) में उसकी रज़ामंदी को “अनिवार्य” बताया गया है। स्पष्ट लिखा है –

“… President may … declare that this article shall cease to be operative … Provided that the recommendation of the Constituent Assembly of the State shall be necessary…”

हालांकि महज़ लिखित कानूनी प्रावधानों से आगे बढ़ कर उनके नैतिक आधार को देखें, तो अनुच्छेद 370 यानी जम्मू-कश्मीर के “विशेष दर्जा” को निरस्त करने में “संविधान सभा” की रज़ामंदी का अर्थ जम्मू-कश्मीर की “जनता” की रज़ामंदी से है, क्योंकि उस वक्त जम्मू-कश्मीर में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वश्रेष्ठ स्वीकृत औपचारिक निकाय संविधान सभा थी। इसी भरोसे के तहत जम्मू-कश्मीर की जनता ने भारतीय राज्य का हिस्सा बनने और आगे उसे पूरी तरह अपनाने की प्रक्रिया शुरू की थी व आगे भी बढ़ाई थी। मोदी सरकार ने एक तरफ तो संविधान सभा की रज़ामंदी को खुद की रज़ामंदी में बदल कर इसे जनता पर थोप दिया, और दूसरी तरफ जनता को खुली जेल में कैद कर के राजकीय दमन के बल पर इस कार्रवाई को अंजाम दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तर्कों में कानून के इस नैतिक पक्ष को बिलकुल नज़रंदाज़ कर दिया गया है! सिर्फ यही नहीं, सरकार के इन जन-विरोधी कदमों (फ़ौज तैनाती, गिरफ्तारियां, इंटरनेट/संचार बैन, लॉकडाउन) पर भी कोर्ट ने कोई ठोस टिप्पणी नहीं की है।[7] यानी एक राष्ट्रीयता व राज्य की जनता के अधिकारों को फौजी बूटों के तले रौंदने के लिए मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने के बजाए, उसे क्लीन चिट थमा दी गई है।

जहां तक जम्मू-कश्मीर को विभाजित कर दो केंद्र-शासित प्रदेश बना देने का सवाल है (वह भी राज्य आपात्काल घोषित कर राष्ट्रपति शासन के दौरान) तो सुप्रीम कोर्ट ने संसद में पारित “जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम” की कानूनी वैधता पर टिप्पणी करने से साफ़ इनकार कर दिया, जबकि इसकी वैधता तय होना इस मामले का एक अहम मुद्दा था। अर्थात इसपर भी कोर्ट ने मौन सहमति जता दी। कारण – सोलिसिटर जेनरल (केंद्र सरकार के वकील) द्वारा कोर्ट को दिया गया आश्वासन कि केंद्र सरकार आगे जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा पुनर्स्थापित कर देगी। संसद (विधायिका) में पारित कानून को बदलने का आश्वासन कार्यपालिका अर्थात सरकार (वह भी सरकारी वकील) आखिर किस हैसियत से दे सकती है? परंतु न्यायाधीशों ने यह सवाल करना शायद ज़रूरी नहीं समझा और इस अवैध आश्वासन के आधार पर ही सरकार को क्लीन चिट दे दी।

गौरतलब है कि पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश रोहिंटन नरीमन ने उपरोक्त मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी आलोचना करते हुए मोदी सरकार के इस “असंवैधानिक कदम” को खुली अनुमति देने का आरोप लगाया है। बड़ी अच्छी बात है। लेकिन जस्टिस नरीमन तो स्वयं 2021 तक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश थे, यानी इस असंवैधानिक कदम के उठने के दो साल बाद तक भी। अपने कार्यकाल में उनके या किसी भी न्यायाधीश द्वारा सरकार के एक असंवैधानिक कदम पर मौन रहना और कोई ठोस कदम (यहां तक कि टिप्पणी) भी नहीं उठाना व्यक्तिगत न्यायाधीशों से अधिक पूरी न्यायपालिका पर बड़े सवाल खड़ा कर देता है, जिस जनतांत्रिक संस्था को इस संविधान पर राजकीय व गैर-राजकीय हमलों से रक्षा करने और उसे कायम (uphold) करने के लिए खड़ा किया गया है।

यह अफसोसजनक लेकिन सच है कि सर्वोच्च न्यायालय का इस तरह का फैसला, जो केंद्र सरकार के असंवैधानिक ही नहीं जनवाद-विरोधी व दमनकारी कदम को प्रत्यक्ष रूप से क्लीन चिट देता हो और उसके किए-धरे पर “संवैधानिक” होने का मोहर लगाता हो, शायद किसी के लिए अप्रत्याशित या चौकने वाला नहीं था। फासीवादी आरएसएस-भाजपा की केंद्र सरकार ने जिस तरह पिछले एक दशक से जनतांत्रिक निकायों व संस्थाओं को अंदर से खोखला कर उनपर कब्ज़ा करने की बेतहाशा मुहिम चलाई है उसमें सर्वोच्च न्यायालय ना ही अछूता रहा है और ना ही उसने इसे रोकने के लिए कोई भी साहसिक या अर्थपूर्ण कदम उठाया है। बीते वर्षों में जब न्यायपालिका को इस जनतंत्र व उसके संविधान की रक्षा करने के अपने ऐतिहासिक कर्तव्य का पालन करने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी और है, तो वह जनतंत्र को ध्वस्त करने वाली ताकत के सामने नतमस्तक नज़र आई है। यह फैसला भी उसी कड़ी का एक और उदाहरण है। हालातों की गंभीरता यहां है कि अब ऐसे उदाहरण चौंकाने के बजाए new normal (अपेक्षित) बन चुके हैं।

Inputs: Bar and Bench, IndConLawPhil


[1] विदित है कि कश्मीर पहले से ही दुनिया का सबसे अधिक सैन्यीकृत (militarized) क्षेत्र है। भारतीय सेना के ही अनुसार कश्मीर में आतंकवादियों की संख्या करीब 400 है, और इसके नाम पर भारत सरकार ने वहां 3 लाख जवानों को तैनात कर रखा है! इसके ठीक संदर्भ में देखें तो कश्मीर में हर 30 आमजनों पर एक जवान की तैनाती है।

[2] इंटरनेट पर यह अमानवीय बैन डेढ़ साल तक चला (4 अगस्त 2019 से 5 फरवरी 2021)। इस बीच बैन के खिलाफ तुरंत दायर हुई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पांच महीने बीतने पर फैसला सुनाया था (अनुराधा भासिन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, 10 जनवरी 2020)। फैसले में इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार घोषित करने की “बड़ी” बातों के बावजूद वर्तमान बैन को हटाने या इसपर कोई भी कार्रवाई का आदेश नहीं दिया गया!

[3] इस संविधान की प्रस्तावना में जम्मू-कश्मीर को “भारत का अभिन्न हिस्सा” के रूप में उल्लिखित किया गया था।

[4] गौरतलब है कि 1968 में सुप्रीम कोर्ट के “संपत प्रकाश बनाम जम्मू कश्मीर राज्य” फैसले में कोर्ट ने यह कहा था कि संविधान सभा की अनुपस्थिति के बावजूद अनुच्छेद 370 बरकरार रहेगा, अर्थात कोर्ट ने उसके स्थायित्व को इंगित किया था।

[5] सुप्रीम कोर्ट के पूरे फैसले में मोदी सरकार के बस इस कदम (CO के माध्यम से “संविधान सभा” को “विधान सभा” में तबदील करना) को गलत बताया गया है, और वह भी तकनीकी व प्रक्रियात्मक आधार पर।

[6] फैसले का उद्धरण – “recommendation of the Constituent Assembly was not binding on the President to begin with” (para 346). “principle of consultation and collaboration are not required to be followed” (para 427).

[7] पीठ के एक न्यायाधीश द्वारा जम्मू-कश्मीर में 1980 के बाद से हुए मानवाधिकार उल्लंघनों पर एक “truth and reconciliation commission” (सत्य और सुलह आयोग) गठित करने की बात की गई है परंतु इस आम संदर्भ के अलावा अगस्त 2019 में मोदी सरकार द्वारा की गई अभूतपूर्व जन-विरोधी कार्रवाइयों, जो इस मामले का तत्काल संदर्भ था, पर यहां भी कोई टिप्पणी नहीं की गई है।