विनाशकारी साम्राज्यवादी जंग का खतरा बढ़ा
May 4, 2024पूंजीवाद के वैश्विक संकट जनित दुनिया को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेने की गला काटू होड़ युद्ध का निरंतर विस्तार कर रही है
एम असीम
फलस्तीन में जारी जायनिस्ट जनसंहार, पश्चिम एशिया के ईरान, सीरिया, लेबनान, इराक, आदि पर अमरीका-नाटो की मदद से इजरायली हमले, ईरान व उसके हिजबुल्लाह जैसे सहयोगियों द्वारा इसका प्रत्युत्तर, यमन के हूथी शासकों द्वारा पश्चिमी देशों के लिए लाल सागर व स्वेज नहर की बंदी, उक्रेन में रूस-नाटो जंग, ताईवान पर चीन-अमरीका में बढती तनातनी, अमरीका-नाटो द्वारा इजरायल, उक्रेन, ताईवान आदि को सैन्य मदद के ऐलान, मैक्रों-सूनक के बारंबार जंगखोर उन्मादी ऐलान, अफ्रीका के सहेल क्षेत्र के देशों में रूसी मदद से फ्रांस-अमरीका को बाहर खदेड़ने की कोशिशें, उत्तर व दक्षिण कोरिया में तेज होती जबानी जंग व लाइव गोलाबारूद वाले जंगी अभ्यास, दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा फिलीपीनी नौकाओं को रोकने, अजरबैजान-आर्मिनिया-जार्जिया आदि में रूस, अमरीका, तुर्की की दखलंदाजी, वेनेजुएला-गुयाना में संभावित पेट्रोलियम उत्पादक क्षेत्र पर दावों का टकराव, आदि मिलकर एक नये विश्व युद्ध के लिए स्थिति को पूरी तरह तैयार कर चुके हैं। हालांकि फिलहाल इस जंग को कुछ क्षेत्रों तक सीमित रखने की कोशिशें जारी हैं। पर ये टकराव जिस प्रकार बढ़ रहे हैं, इसके कभी भी अनियंत्रित हो पूर्ण युद्ध में बदल जाने का जोखिम बढ़ता ही जा रहा है।
7 अक्टूबर को हमास व अन्य फलस्तीनी संगठनों द्वारा हमले के बाद गजा पट्टी में दशकों से सख्त दमनचक्र चलाते आ रहे इजरायली जायनिस्टों ने उस पूरे क्षेत्र से फलस्तीनी आबादी का नस्ली सफाया कर देने के मकसद से वहां नृशंस जनसंहार आरंभ कर दिया। इस जनसंहार को अमरीकी नेतृत्व वाले पश्चिमी साम्राज्यवाद का खुला समर्थन व हर तरह की मदद हासिल है। किंतु इससे इजरायल के खिलाफ दुनिया भर में जो रोष व्याप्त हुआ है उसने उसकी स्थिति बेहद कमजोर बना दी है। 1 अप्रैल को इजरायल द्वारा दमिश्क (सीरिया) स्थित ईरानी कौंसुलेट पर हमले में आठ वरिष्ठ ईरानी फौजी अफसरों की मृत्यु हो गई। इसके जवाब में ईरान द्वारा इजरायल पर 300 ड्रोन व मिसाइलों द्वारा हमला किया गया। यह हमला एक प्रकार से अग्रिम चेतावनी व धीमी गति के हथियारों से किया गया था। इजरायल ने अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस व जॉर्डन की मदद से इनमें से अधिकांश को मार गिराया, पर इजरायल के आइरन डोम हवाई सुरक्षा को तोडते हुए कुछ मिसाइल निशाना बनाए गए फौजी हवाई अड्डों को नुकसान पहुंचाने में सफल हुईं। अधिकांश विश्लेषकों द्वारा माना जा रहा है कि बेंजामिन नेतन्याहू दुनिया भर में गजा पट्टी में इजरायली जनसंहार के प्रति बढते विरोध के कारण इससे ध्यान हटाने एवं घरेलू राजनीतिक असंतोष से खुद की सत्ता बचाने दोनों ही वजहों से ईरान के साथ जंग छेड़ने की कोशिश में था। ऐसी जंग छिड़ने पर उसमें अमरीकी नेतृत्व वाले अमरीकी सैन्य खेमे को शामिल होना जरूरी हो जाता। उधर ईरान भी इस पश्चिमी साम्राजी खेमे के खिलाफ पश्चिम एशियाई खासकर अरब अवाम में भारी रोष मगर अरब मुल्कों के शासकों द्वारा पश्चिम के फौजी एजेंट इजरायल के साथ सहयोग से उत्पन्न स्थिति का लाभ उठाकर इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिशों में जुटा है।
इस बीच अमरीकी साम्राज्यवाद ने दुनिया में पश्चिमी हितों के लिए युद्धरत देशों को 95 अरब डॉलर की ‘मदद’ का ऐलान किया है। यह रकम अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों को मिलेगी जो इससे उक्रेन, इजरायल, ताईवान जैसे देशों को और नये घातक अस्त्र शस्त्रों की आपूर्ति करेंगे। पश्चिमी खेमे के अन्य देश जैसे जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जापान, ऑस्ट्रेलिया, आदि भी हथियारों की आपूर्ति के इस काम में शामिल हैं और इन सभी में सैन्य बजट तेजी से बढाया जा रहा है। उक्रेन को लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें तथा एफ 16 युद्धक विमान भी भेजे जा रहे हैं जिससे वह रूस के सुदूर अंदरूनी क्षेत्रों तक पर हमला कर सके। अमरीकी संसद के दोनों सदनों में डेमोक्रेटिक व रिपब्लिकन दोनों पार्टियों ने जिस भारी बहुमत से इस कानून को पारित कर इजरायल, उक्रेन व ताईवान तीनों को एक ही साथ जोड़ दिया है वह बताता है कि पश्चिमी साम्राजी धुरी के लिए यह तीनों अलग-अलग नहीं, एक ही बड़ी वैश्विक जंग के ही तीन मोर्चे हैं और यह जंग चीन, रूस व ईरान की पश्चिम को चुनौती देने वाली विरोधी साम्राजी धुरी के खिलाफ है। ऊपर हमने जिन अन्य जंगी मैदानों का जिक्र किया, वे सब भी इन दोनों विरोधी साम्राजी धुरियों के बीच दुनिया भर की बंदरबांट की कोशिशों के ही नतीजे हैं।
इसके उत्तर में रूस ने न सिर्फ उक्रेन के पूर्वी व दक्षिणी भाग पर कब्जे का अभियान तेज कर दिया है बल्कि पूरे उक्रेन पर ही मिसाइलों व ड्रोन हमले तेज कर उसके ऊर्जा इंफ्रास्ट्रक्चर का ध्वंस आरंभ कर दिया है। फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों उक्रेन में रूस से भिड़ने हेतु नाटो फौज भेजने की बात कर रहा है और ब्रिटेन में सूनक भी युद्ध की तैयारी के गर्म बयान दे रहा है। पहले रूसी धनिकतंत्र के प्रभाव क्षेत्र में रहे उक्रेन में 2014 में अमरीकी दखलंदाजी से कराए गए तख्तापलट पश्चात इन सभी पश्चिमी देशों की वित्तीय पूंजी ने वहां की उपजाऊ कृषि जमीन, खानों व उद्योगों पर नियंत्रण के लिए भारी पूंजी लगाई है। हालांकि उक्रेन युद्ध के असली कारण को छिपाते हुए इसे मात्र पुतिन नामक खलनायक की व्यक्तिगत तानाशाही और विस्तारवादी नीति के तहत किया आक्रमण बताया जाता है, पर रूस द्वारा सोवियत संघ के पूर्व गणराज्यों को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखने और पश्चिम द्वारा इन्हें यूरोपीय संघ व नाटो में शामिल कर अपने प्रभाव क्षेत्र में ले आने के प्रयासों के टकराव का परिणाम यह युद्ध है जिसे रूस के खिलाफ नाटो की ओर से उक्रेन की जनता की जानों की कीमत पर लड़ा जा रहा है।
चीन-ताईवान, उत्तर-दक्षिण कोरिया के बीच भी जबानी जंग व लाइव गोलाबारी सहित सैन्य कार्रवाइयों का अभ्यास तेज होता जा रहा है। जंगी तनाव का एक और नया मोर्चा दक्षिण अमरीकी महाद्वीप में वेनेजुएला व गुयाना के बीच खुला है जो पेट्रोलियम के नये भंडार वाले क्षेत्र पर अपना दावा ठोंक रहे हैं, हालांकि दोनों ही इसके दोहन का काम अमरीकी कंपनी एक्जन मोबिल को सौंपने को राजी हैं।
साम्राजी पूंजी के बीच विश्व की पुनः बंदरबांट जंग का कारण है
तीसरे विश्व युद्ध की इन ‘शुरूआती’ झड़पों की वजह है कि लगभग अंतहीन हो चुके आर्थिक संकट और मुनाफा दर में आ रही गिरावट की वजह से वैश्विक पूंजीवाद एक बार फिर से अपने तथाकथित उदार जनतंत्रवादी मुखौटे को अपने हाथों ही नोंच कर फेंक चुका है। इस तरह यह एक बार फिर से अपने असली नग्न खूंखार रक्तपिपासु मानवभक्षी रूप में सामने आ गया है। एक ओर तो यह सभी देशों में मजदूर वर्ग व समस्त मेहनतकश जनता पर शोषण का शिकंजा बेरहमी से कस रहा है और एकाधिकारी पूंजी बिचले तबकों के छोटे मालिकों को बेदखल करने की खूनी मुहिम छेड़ चुकी है। वहीं दूसरी ओर विभिन्न देशों के एकाधिकारी पूंजीपति दुनिया भर के देशों में उपजाऊ जमीन, जल-जंगल, खनिजों जैसे कच्चे मालों व ऊर्जा के स्रोतों पर अपना कब्जा जमाने और अपने उत्पादों की बिक्री के लिए बाजारों से दूसरे पूंजीपतियों को बाहर करने का अभियान चला रहे हैं। नतीजा है कि इन पूंजीपतियों के समूहों के अलग-अलग साम्राज्यवादी गिरोह अस्तित्व में आ गए हैं जो इस मुहिम में एक दूसरे को पछाडने के लिए दुनिया के हर कोने में साजिशों और जोर आजमाइश में लगे हैं। दुनिया के हर कोने को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में शामिल करने की इस जोर आजमाइश में ये साम्राज्यवादी दो मुख्य धुरियो या खेमों में बंट गए हैं। एक ओर अमरीकी नेतृत्व में नाटो प्लस या पश्चिमी धुरी है जो 1991 में सोवियत संघ के पतन पश्चात बने तथाकथित एक-ध्रुवीय संसार में प्रमुख साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर अपना प्रभुत्व कायम किए हुए थी जिसे इन्होंने नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था का नाम दिया था अर्थात पश्चिमी साम्राज्यवाद के हित में दुनिया की लूट के नियमों की व्यवस्था। इस दौर में पूंजीवादी बुद्धिजीवी बता रहे थे कि अब ‘इतिहास का अंत’ हो चुका है और एक-ध्रुवीय विश्व में अमरीका के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र, आईएमएफ, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, आदि के जरिए सभी पूंजीपतियों की जगह निर्धारित रहेगी तथा जो इससे इधर उधर होने की जुर्रत करेगा, उसे सबक सिखा दिया जाएगा। इस प्रकार एक नियम संचालित शांतिपूर्ण ढंग से अमरीकी चौधराहट चलती रहेगी।
किंतु सर्वहारा वर्ग के महान विचारक व शिक्षक लेनिन एक सदी पूर्व ही बता चुके थे एक नियम संचालित वैश्विक साम्राज्यवादी व्यवस्था की बात वास्तविकता नहीं कल्पना व भ्रममात्र है। एकाधिकारी पूंजी जनित साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद में उत्पादक शक्तियों के असमान विकास की लाक्षणिक विशिष्टता और भी अधिक तीव्र हो जाती है। पूंजीवादी विकास कहीं तुलनात्मक रूप से धीमा पड़ जाता है तो कहीं तीव्र हो जाता है। इस प्रक्रिया में विभिन्न पूंजीवादी देशों की पूंजी की परस्पर तुलनात्मक स्थिति बदल जाती है और एक समय के पिछड़े देश उत्पादक शक्तियों व पूंजी संचय में आगे निकल जाते हैं। इससे वैश्विक कच्चे माल के स्रोतों, माल निर्यात बाजारों और घरेलू उत्पादक निवेश में न खप सकने वाली पूंजी के निर्यात हेतु प्रभाव क्षेत्रों का मौजूदा विभाजन पुराना पड़ जाता है और नये अधिक विकसित देश इसके पुनः बंटवारे की मुहिम छेड़ देते हैं। एकाधिकारी पूंजी व साम्राज्यवाद के दौर की असमान पूंजीवादी विकास की यह लाक्षणिकता एकध्रुवीय नियम संचालित व्यवस्था की जड़ खोद देती है और विश्व के पुनः बंटवारे की यह होड़ अनिवार्य रूप से सैन्य शक्ति की आजमाइश वाली जद्दोजहद पैदा करती है। इस प्रकार पूंजीवाद की अपनी गति युद्ध को अनिवार्य बना देती है।
1991 पश्चात के अमरीकी नेतृत्व वाले एक-ध्रुवीय नियम संचालित विश्व का भी इससे बच पाना नामुमकिन था। पुराने एकछत्र प्रभुत्वशाली पश्चिमी साम्राज्यवाद को कई ओर से चुनौती मिल ही रही थी। पश्चिमी साम्राज्यवाद ने इस चुनौती से निपटने के लिए जिन देशों पर निशाना साधा, जिनके प्रभाव क्षेत्रों पर काबिज होने का प्रयास किया, उन पर पाबंदियां लगाईं, उन देशों का एक विरोधी धुरी के तौर पर उभर आना इसका एक स्वाभाविक नतीजा था। इसी क्रम में रूस, चीन, ईरान जैसे देश काफी समय से अपने अपने हितों के लिए पश्चिमी साम्राजी खेमे को चुनौतियां पेश कर रहे थे। अब ये तीनों एक पश्चिम विरोधी साम्राज्यवादी धुरी के रूप में उभर आए हैं जो वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव क्षेत्र कायम करने के लिए स्थापित पश्चिमी धुरी को चुनौती पेश कर रही है। इन लुटेरी साम्राज्यवादी धुरियों में दुनिया भर पर प्रभुत्व की हवस व छीना झपटी, खास तौर पर अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा अपने प्रभुत्व को हर कीमत पर बचाए रखने की हरचंद कोशिश, ही अलग-अलग स्थानों पर जंग को जन्म दे रही है और अब यह पूरी दुनिया को ही एक महाविनाशकारी जंग के मुहाने पर खींच लाई है।
इसे स्पष्ट करने हेतु अपनी ओर से ज्यादा कुछ कहने के बजाय हम पोलैंड में तैनात ब्रिटिश फौजी रेजीमेंट के सामने वारसा में 23 अप्रैल को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सूनक के भाषण का एक अंश प्रस्तुत करते हैं जो सारी बात का निचोड़ पेश कर देता है –
“मैं आपके समक्ष वह बात कहना चाहता हूं जो आपको एक अधिक खतरनाक बनते विश्व में अपने कर्तव्य के निर्वाह के लिए तैयार करेगी। रूस, ईरान, उत्तर कोरिया, और चीन जैसे हमसे भिन्न मूल्यों वाले अधिनायकवादी मुल्कों की एक धुरी अधिकाधिक दबंगई दिखा रही है। उनके द्वारा खड़ा किया गया जोखिम नया नहीं है। नया यह है कि ये देश, और इनके परोक्ष एजेंट, एक साथ अधिक स्थानों पर, अधिक तेजी से, अधिक अस्थिरता पैदा कर रहे हैं। और वे अधिकाधिक मिल कर कार्रवाई कर रहे हैं … विश्व व्यवस्था को नवीन शक्ल देने के अपने प्रयास को उन्होंने एक साझा स्वार्थ बना लिया है।”
यह बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि स्थापित पश्चिमी प्रभुत्व वाली वैश्विक व्यवस्था को बदलने का यह टकराव साम्राजी पूंजी की धुरियों के बीच दुनिया को अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों में लेने की बंदरबांट का टकराव है। इनमें से कोई भी पक्ष साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष नहीं कर रहा है और मजदूर वर्ग द्वारा इनमें से किसी एक को ‘कम बुरा’ या साम्राज्यवाद विरोधी मानकर की गई हिमायत चरम मौकापरस्ती होगी। इस युद्ध को रोकने का एकमात्र तरीका सभी जंगखोर देशों के मजदूर वर्ग द्वारा अपने देश की पूंजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंकना ही है क्योंकि यह पूंजीवाद ही है जो युद्ध के खतरे को निरंतर पैदा करता है।
युद्ध का निर्णायक न हो पाना पूंजीवादी संकट को और गहन कर रहा है
अगर यह युद्ध अभी तक एक तीव्र गति वाली फैसलाकुन जंग में परिवर्तित नहीं हुआ है तो उसका एक ही कारण है कि दोनों खेमों के पास विशाल तादाद में परमाणु हथियारों व इंटरकांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलों का भारी जखीरा मौजूद है और इनका इस्तेमाल जंग के फैसलाकुन चरित्र को एक नूतन रूप दे सकता है अर्थात धनाढ्य पूंजीपतियों के जन्नत रूपी स्थान भी ध्वंस का शिकार हो सकते हैं और इस बार कोई भी साम्राज्यवादी मुल्क इस विनाश से बच पाने में नाकाम साबित होगा। दूसरे, मौजूदा दौर में सभी साम्राजी देश पूंजीवादी आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं और दुनियाभर की लूट के बावजूद गिरती मुनाफा दर के संकट की वजह से वे पहले दोनों विश्व युद्धों की तरह अपने मजदूर वर्ग के एक हिस्से को रिश्वत देकर साम्राज्यवाद के पक्ष में खड़ा करने में निरंतर नाकाम साबित हो रहे हैं। इन देशों में वैश्विक आर्थिक संकट पश्चात बढती बेरोजगारी, आसमान छूती महंगाई व गिरती प्रभावी मजदूरी दर का परिणाम मजदूर वर्ग के जीवन स्तर में भारी व तीव्र गिरावट है। कोविड ने इस स्थिति को बेहद गंभीर कर दिया और इन तथाकथित विकसित पूंजीवादी स्वर्गों में मजदूर वर्ग के जीवन का अधिकाधिक नारकीय रूप जगजाहिर हो गया। इसने इन देशों में मजदूर आंदोलनों की एक नई लहर पैदा की है और दुनिया भर में युद्धों पर होने वाला विराट खर्च अत्यंत अलोकप्रिय बन गया है, विशेषकर युवा पीढी में जिसके सामने जीवन की कटु वास्तविकताएं मुंह बाये खड़ी हैं। 30 वर्ष से कम आयु के 76% अमरीकी युवा इजरायल को पूर्ण बिना शर्त हिमायत की नीति के खिलाफ हैं और अमरीकी विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में यह विरोध वियतनाम युद्ध विरोधी आंदोलन की तरह एक विद्रोह का रूप लेता जा रहा है जिसकी चिंगारियां यूरोप में भी पहुंच गई हैं। अतः पश्चिमी साम्राजी खेमा अभी तक युद्ध को अपने परोक्ष एजेंटो (proxies) के जरिए लड़ने की कोशिश कर रहा है।
किंतु साम्राजी पूंजी के लिए युद्ध का पूरा लाभ इसके निर्णायक ढंग से एक पक्ष की विजय में बदले बिना संभव नहीं है। इसलिए यह युद्ध वैश्विक पूंजीवादी संकट का तात्कालिक समाधान भी कर पाने के बजाय इस संकट को और अधिक गहरा रहा है। तय है कि इस जंग का खात्मा भी पिछले दोनों महायुद्धों की तरह मेहनतकश जनता के एक और भी बड़े इंकलाबी उभार में ही होगा, जो पहले दोनों से कहीं बड़ा होगा। दुनियाभर का अवाम पहले ही देख रहा है कि सारे किस्म के पूंजीवादी शासक अपने देश के सरमायेदारों के लिए अपनी जनता को कत्लेआम के मुंह में धकेल रहे हैं। इनमें से कोई भी अमन चैन नहीं चाहता।
युद्ध सभी देशों को अधिनायकवाद-फासीवाद की ओर धकेल रहा है
इन देशों का साजिशों व तिकड़मबाजी का सबसे तजुर्बेकार उस्ताद पूंजीवादी शासक वर्ग इस खतरे को भांप चुका है। यही वजह है कि ‘विकसित’ पूंजीवाद के ये तथाकथित जनतांत्रिक स्वर्ग अभिव्यक्ति की आजादी एवं मानवाधिकारों के चैंपियन होने के अपने दावों को तेजी से पानी में बहा ये सभी कमोबेश फासीवादी-अधिनायकवादी रूख अख्तियार कर रहे पुलिसी राज्यों में तब्दील होते जा रहे हैं। विश्वविद्यालय व अन्य स्थानों पर विरोध कर रहे छात्रों, शिक्षकों व आम लोगों पर आतंकवाद निरोधक पुलिस के जरिए निपटा जा रहा है। इजरायल की आलोचना मात्र से नौकरियों से निकाला जा रहा है। हॉल के अंदर तक फलस्तीन समर्थक आयोजनों को रोका जा रहा है, बिजली काट दी जा रही है, मोबाइल फोन चेक कर बंद करवाए जा रहे हैं। और, आधी रात में दरवाजे तोड़ गिरफ्तारियों का दौर चालू है। कुल मिलाकर इन देशों की द्विदलीय बुर्जुआ ‘जनतांत्रिक’ प्रणाली के विकल्पों में से ‘कम बुरा’ विकल्प ही समाप्त हो ये सभी दल एकाधिकारी पूंजी व साम्राज्यवाद की हिफाजत हेतु नस्लवाद, सैन्यवाद, जंगखोरी, अधिनायकवाद व फासीवादी प्रवृत्तियों के वाहक के रूप में जाहिर हो गए हैं।