मौजूदा दौर में देश के छात्रों-युवाओं के नाम अपील

May 4, 2024 0 By Yatharth

साथियों,

विश्वविद्यालय परिसर, आलोचनात्मक शिक्षा और सोच के उद्गम स्थल होने के साथ-साथ समाज का एक हिस्सा हैं। चूँकि वे आलोचनात्मक शिक्षा के उद्गम स्थल हैं, वे अन्यायपूर्ण, जन-विरोधी अत्याचारी शासन के खिलाफ छात्रों के प्रतिरोध के केंद्र भी हैं। इतिहास गवाह है कि एक बौद्धिक केंद्र होने के नाते उनमें, एक बार सच्चाई का पक्ष लेने का निर्णय करने के बाद, समाज को अपने पीछे लाने की शक्ति होती है। और सच्चाई आम जनता के साथ होती है।

विश्वविद्यालय परिसर हमारे समाज का केंद्र हैं जो हर समय धड़कता रहता है। बड़े पैमाने पर समाज में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन उसकी नब्ज में बदलाव लाता है। यदि हमारा समाज अशांत है, तो हमारे विश्वविद्यालय भी अशांत होंगे। इस प्रकार छात्र क्रांतिकारी प्रैक्टिस का पहला पाठ अपने विश्वविद्यालय परिसरों में सीखते हैं। वे न केवल अकादमिक डिग्री प्राप्त करते हैं बल्कि वैज्ञानिक सोच में भी प्रशिक्षित होते हैं और न्याय और समानता की वैज्ञानिक-प्रगतिशील दृष्टिकोण को आत्मसात करते हैं जो वर्गों के उन्मूलन की वकालत करता है। इस प्रकार वे सामाजिक प्रगति के विचार के वाहक बनते हैं। यह उन्हें एक तानाशाह के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनाता है जो समाज और उसके लोगों पर शोषक वर्गों के छोटे हिस्से का पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना चाहता है। इससे शासकों के मन में भय के साथ-साथ रोष भी पैदा होता है। तब विश्वविद्यालय परिसरों, विशेषकर प्रगतिशील छात्रों और युवाओं पर राज्य का गंभीर हमला होना स्वाभाविक हो जाता है। यह हम आज अपने देश में नग्न रूप में देख रहे हैं। लेकिन छात्र और युवा अकेले नहीं हैं। जो भी अन्यायी शासन के खिलाफ आवाज उठा रहा है, उस पर हमला किया जा रहा है। मजदूर, किसान और अन्य सभी वर्गों की मेहनतकश जनता अगर अन्याय के खिलाफ अपना मुंह खोलता है, तो वह भी हमले का शिकार हो जाती है।  

उल्लेखनीय बात यह है कि हमले चौतरफा प्रकृति के हैं क्योंकि वे देश में अब तक स्थापित सबसे प्रतिगामी शासन द्वारा किये जा रहे हैं। यह हमला अकादमिक स्वतंत्रता के साथ-साथ परिसरों की प्रगतिशील ताकतों पर भी है, चाहे वे कोई भी हों। ट्यूशन, परीक्षा और छात्रावास शुल्क आदि में ज़बरदस्त और कई गुना वृद्धि के रूप में आर्थिक हमले भी किए जा रहे हैं। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का तेजी से निजीकरण हो रहा है। इसके अलावा, पिछले दस वर्षों में विचारों को दबाने और इसे व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर रोक लगाने के लिए एक प्रणालीगत कदम उठाया गया है जिसके तहत कैंपस को फासीवादी गुंडों और गिरोहों की मुट्ठी में कर दिया गया है जो कैंपस यानी क्लास रूम, व्याख्यान कक्ष और प्रशासनिक क्षेत्र, आदि के अंदर भी बिना किसी डर के प्रगतिशील छात्र-छात्राओं के खिलाफ मार-पीट और हमले करते हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन अक्सर कोई कार्रवाई नहीं करते। वे या तो आतंकित हैं या हाथ में हाथ डाले बैठे हैं, जबकि ये हमले दिन-रात जारी रहते हैं।

याद रहे। इन हमलों को नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के गठजोड़ के रूप में अंजाम दिया जा रहा है, यह वे नीतियां हैं जो बड़ी और एकाधिकारी वित्तीय पूंजी का पक्ष में है और ‘जनतंत्र’ से फासीवादी शासन की ओर बदलाव का संकेत देती हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह बड़ी पूंजी का वह वर्ग है जो अपने अतिलाभ के लिए समाज के हर वर्ग का शोषण और दमन कर रहा है और इसे बनाए रखने के लिए किसी न किसी तरह से अपना नग्न तानाशाही-निरंकुश शासन थोप रहा है। इस प्रकार मानवता को मध्ययुगीन बर्बरता के युग में ले जाया जा रहा है। हालाँकि आर्थिक नीतियों के मामले में सत्तारूढ़ आरएसएस-भाजपा और अन्य दलों के बीच अंतर करना मुश्किल है, फिर भी राजनीतिक और वैचारिक रूप से आरएसएस बड़ी पूंजी की इस परियोजना के लिए सबसे उपयुक्त है और इसी एकमात्र उद्देश्य के लिए 2014 से इसे शीर्ष स्थान पर लाया गया है। मेहनतकश जनता से आने वाले छात्रों और युवाओं को अत्यधिक हाशिए पर धकेलना, उन्हें रोजगार के साथ-साथ सामान्य रूप से शिक्षा और विशेष रूप से उच्च शिक्षा से वंचित करना इस फासीवादी व्यवस्था का परिणाम है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 क्या है? यह उपर्युक्त प्रतिगामी बदलाव का एक घोषणापत्र मात्र है। इसे स्कूलों और विश्वविद्यालयों के भगवाकरण और निजीकरण-कोमोडीफिकेशन (HEFA के माध्यम से) को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है। इसका उद्देश्य विश्वविद्यालय परिसरों में सांप्रदायिक-जातिवादी-पितृसत्तात्मक-अंधराष्ट्रवादी विचारों और गतिविधियों के प्रचार-प्रसार को सक्षम बनाना है।

यद्यपि यह दर्दनाक है, फिर भी यह तर्कसंगत है क्योंकि यदि पूंजी के तर्क को स्वतंत्र रूप से अपना रास्ता अपनाने की अनुमति दी जाती, तो केवल यही परिणाम हो सकता था। पूंजी का तर्क, अंततः, शिक्षा के मूल (अंतर्निहित) उद्देश्य के विपरीत है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि केंद्र में मोदी के सत्ता में आने के साथ ही पाठ्यक्रमों को उसी के अनुरूप ढाला जा रहा है। इतिहास को फिर से लिखा जा रहा है ताकि वैज्ञानिक सार के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ सत्य को भी छीन लिया जाए और इसलिए व्यक्तिपरक सोच पर आधारित मिथक को इतिहास के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसके दुष्परिणाम हम देख सकते हैं कि अदालतें इसके आधार पर किस तरह ‘न्याय’ के तहत फैसले दे रही हैं।

यह भारत में छात्रों और युवाओं को बेहद अनिश्चित स्थिति में ले जा रहा है। 2017-18 के दौरान बेरोजगारी दर 45 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने 2020 में बताया कि हर 42 मिनट में एक छात्र ने अपनी जान ले ली, यानी प्रति दिन 34 से अधिक छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। यह मैकिन्से रिपोर्टों में से एक के अनुरूप है जिसमें रेखांकित किया गया है कि केवल एक चौथाई भारतीय इंजीनियर ही रोजगार के योग्य हैं और 2021-22 (स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2023) में 25 वर्ष से कम आयु के भारत के 42% से अधिक स्नातक बेरोजगार थे। ये सब क्या दर्शाता है? यह इंगित करता है कि पूंजीवाद के तहत, अंततः, छात्रों और युवाओं का कोई भविष्य नहीं है, सिवाय इसके कि उनमें से अधिकांश को अपनी श्रम शक्ति पूंजीवादी आकाओं को बहुत सस्ती दर पर बेचनी होगी। इस घोषित गौरव, कि हमारा देश मुख्य रूप से युवा आबादी वाला देश है, के पीछे की वास्तविकता यही है! चार श्रम संहिताओं का आना विश्वविद्यालयों से स्नातक करने वाले युवाओं को अधिकारहीन गुलामों में तब्दील करने की तैयारी का ही हिस्सा है।

एनएसएस रिपोर्ट (2017-18) कहती है कि माध्यमिक विद्यालयों में 14.6% की वार्षिक ड्रॉपआउट दर के साथ लगभग 30 मिलियन बच्चे स्कूल से बाहर हैं (यूडीआईएसई रिपोर्ट, 2021)। गांवों में बच्चों के लिए सरकारी देखभाल केंद्रों के बंद होने से बच्चे स्कूली शिक्षा के साथ-साथ पोषण और स्वास्थ्य देखभाल से लगातार वंचित हो रहे हैं। ग्रामीण स्कूलों में कक्षा 5 के 50% बच्चे कक्षा 2 के स्तर की पढ़ाई-लिखाई या अंकगणित नहीं कर सकते (एएसईआर रिपोर्ट)। 2015 और 2019 के बीच, निजी विश्वविद्यालयों ने विश्वविद्यालय नामांकन में 55% की भारी वृद्धि की है। शिक्षा के निजीकरण के कारण इसी अवधि में शिक्षा पर परिवारों द्वारा प्रति व्यक्ति व्यय 50% से अधिक बढ़ गया है। 2021-22 में, 1 करोड़ 87 लाख युवा उम्मीदवारों ने भारत में केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए आवेदन किया, जिनमें से केवल 38,850 को शामिल किया गया, यानी सफलता दर केवल 0.2% थी!

कुल मिलाकर, स्थिति यह आ गई है जहां इस शासन का विरोध करना और उसके चेहरे पर साहसपूर्वक सच बोलना तत्काल आवश्यक हो गया है, चाहे कुछ भी हो. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नरक जैसे समाज में हमें स्वर्ग जैसा विश्वविद्यालय नहीं मिल सकता है। चूंकि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो लगातार मानवता के लिए नरक बनता जा रहा है; इसलिए, विश्वविद्यालय परिसर भी दिन-प्रतिदिन ऐसे ही होते जा रहे हैं। यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में सही मायने में स्वतंत्रता हो और वे आलोचनात्मक शिक्षा या सोच का केंद्र बने तो हमें समाज को बदलने में योगदान देना होगा।

छात्र और युवा समाज और मानवता का सबसे गतिशील और ऊर्जावान वर्ग हैं। इस हिस्से के एक बहुत छोटे हिस्से को छोड़कर, हमारे दिल सभी के लिए न्याय और सुखी जीवन के सपनों से भरे हुए हैं। इसी तरह, उनमें उन सपनों को पूरा करने के लिए लड़ने का जोश, ऊर्जा और साहस भी होता है। यदि हमारे विचार वैज्ञानिक स्वभाव के साथ मिश्रित हों और दिमाग तार्किक और आलोचनात्मक सोच से ओत-प्रोत हो, ताकि हम अपने दुख और पीड़ा के कारणों को समझ सकें और उसके अनुसार कार्य कर सकें, यानी यदि हम क्रांतिकारी बन जाएं, तो हम किसी भी अत्याचारी की रूह कंपा सकते हैं। हम चाहें तो किसी भी तानाशाह को कुछ ही समय में घुटनों पर ला सकते हैं। एक तरफ हम इस धरती को आसमान तक उठा सकते हैं। दूसरी ओर, हम स्वर्ग को धरती पर भी ला सकते हैं। इसके बावजूद कि वर्ग विभाजित समाज में शासक हमेशा हर तरह के हथकंडों और तरीकों का इस्तेमाल करके हमारे दिमाग और विचार प्रक्रिया को भ्रष्ट करने की कोशिश करते हैं, जैसा कि वर्तमान अंधेरे समय में हम देख रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद हमारे दिल अभी भी मानवजाति की भलाई के लिए जुनून से प्रज्वलित हैं। जो भी अस्थायी विचलन हों, अंततः हमने दिखाया है कि हम इतिहास के पहियों को पीछे की दिशा के बजाय आगे की दिशा में ले जाने के लिए दृढ़ता से खड़े हैं। अंततः हम स्पष्टता के साथ समझते हैं कि समग्र रूप से बेहतर समाज के लिए संघर्ष ही हमारे अपने सुंदर सपनों की पूर्ति की एकमात्र गारंटी है।

आइए हम सब भगत सिंह बनें। जब छात्रों और युवाओं का भविष्य खतरे में हो तो हमें चुप नहीं रहना चाहिए; जब बेरोजगारी अपने उच्चतम और व्यापक स्तर पर हो; जब बढ़ती महंगाई और बहुत कम वेतन वाली अनुबंध नौकरियों के दोहरे हमले ने हमारे जीवन को बहुत ही अनिश्चित स्थिति में डाल दिया हो। जैसे विश्व पूंजीवाद के आर्थिक संकट का कोई अंत नहीं दिखता, वैसे ही इस हमले की भी कोई सीमा नहीं है। यही हाल उन सभी मेहनतकश तबकों का भी है, जिन्होंने देश की संपत्ति बनाई और बना रहे हैं। वही धन बड़े पूंजीपतियों, वित्तीय पूंजी के बड़े व्यवसायियों और जमींदारों द्वारा चोरी और लूटा जा रहा है। हमें इस पर चुप नहीं रहना चाहिए। वर्तमान बुर्जुआ पार्टियां और नेता इसके विरोधी नहीं हैं। इसके विपरीत, वे उन्हें मेहनतकशों द्वारा बनाई गई संपत्ति इकट्ठा करने में मदद करते हैं। यह स्थिति एकतरफा यातायात व्यवस्था जैसी है, जहां शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच धन की बंदरबांट हो रही है, जबकि पृथ्वी पर रहने वालों के लिए केवल गरीबी, अत्यधिक दरिद्रता, कर्ज और अंत में मौतों का साम्राज्य बना हुआ है। हमें इन सब के प्रति अंधा नहीं होना चाहिए। आज हम जो देख रहे हैं उससे बदतर हालात पहले कभी नहीं हुए।

ऐसे तानाशाह दौर में भगत सिंह के ये शब्द अधिक सटीक लगते हैं – “हम समझते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य कार्य पढ़ाई करना है, उन्हें उस पर पूरा ध्यान देना चाहिए; लेकिन क्या यह शिक्षा का हिस्सा नहीं है कि वे, हमारा देश जिस स्थिति में है उसके बारे में ज्ञान इकट्ठा करे और उसे सुधारने के उपायों के बारे में सोचने की क्षमता विकसित करे?” (‘स्टूडेंट्स एंड पॉलिटिक्स’ उनके द्वारा 1928 में लिखी गई) इसलिए, अब समय आ गया है कि हम भगत सिंह का अनुकरण करें और उनकी शिक्षाओं को अपनाएं। अब समय आ गया है कि हम छात्रों और युवाओं की एकजुट ताकत से प्रतिरोध करें और मशाल वाहक बनें। आइए स्पष्ट रूप से कहें – ‘हमें महज़ रियायतें नहीं चाहिए। हम चाहते हैं आलोचनात्मक शिक्षा, वैज्ञानिक-धर्मनिरपेक्ष शिक्षा और सभी के लिए सम्मानजनक रोजगार और हम इसी के लिए लड़ते हैं। आइए हम इसे किसी भी स्थिति में पाने के लिए तैयार रहें।’