विरासत कर नहीं, निजी संपत्ति के उन्मूलन से ही गैरबराबरी खत्म होगी
May 4, 2024फिर भी विरासत कर से डर क्यों और किसको?
एम असीम
विरासत कर या इनहेरिटेंस टैक्स के मुद्दे पर पिछले दिनों बीजेपी व उसके समर्थक मीडिया में जो हायतौबा मचाई गई वह उसकी फासिस्ट मुहिम की फौरी जरूरत के मुताबिक है। विरासत व संपदा कर (वैल्थ टैक्स) पहले भारत में भी रहे हैं और बहुत से पूंजीवादी मुल्कों में आज भी हैं। निश्चित रूप से ही धनिकतंत्र ऐसे करों का विरोध करता है, पर मात्र इन करों के होने से ही पूंजीवादी व्यवस्था व धनिकतंत्र को कोई बुनियादी दिक्कत नहीं होती। डिब्बे के अंदर डिब्बे के अंदर ….. डिब्बे वाले जादुई खेल की तरह उनकी पूंजी व संपत्ति प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों, अनिवासी स्टेटस, मनी लांड्रिंग, विदेशी निवेश, ट्रस्टों, फाउंडेशनों, बेनामी संपत्तियों, धर्मादा संस्थाओं, आदि के बहुत विस्तृत व अति जटिल जाल की ऐसी तहों के पीछे अंधेरी कोठरियों में दबी छिपी रहती है जहां ऐसे टैक्स उसका कुछ खास नहीं बिगाड़ पाते।
अतः इन टैक्सों से किसी धनिक को कभी कभार दिक्कत जरूर हो सकती है लेकिन इनके बावजूद किसी देश में धनिकों के पूंजी संचय में कोई अडचन नहीं आई और गैरबराबरी आज ऐतिहासिक रूप से रिकॉर्ड स्तर पर है। बीजेपी खुद भी कभी कभी पूर्व में विरासत कर लगाने की बात करती रही है क्योंकि जनता के एक हिस्से को इससे धनिकतंत्र का विरोधी होने के भ्रम में फंसाया जा सकता है जबकि असल में धनिकों को इससे दिक्कत नहीं है। वैसे भी जब तक राजसत्ता पूंजीपतियों के हाथ में है तब तक इन करों के जरिए इकट्ठा किया गया टैक्स भी उनके ही हित में खर्च किया जाता है। अतः कुछेक धनिकों को कठिनाई हो भी, तब भी एक वर्ग के तौर पर यह उनके लिए दिक्कत का सबब नहीं है।
किंतु पिछले दिनों की फासिस्ट मुहिम का निशाना धनिकतंत्र को आश्वासन देना नहीं था। असल में तमाम तरह के टटपुंजिया या छोटे मालिक समूह इस प्रचार मुहिम का केंद्र हैं। इनकी संपत्ति चाहे कितनी भी थोड़ी सी क्यों न हो, चाहे वह इतनी कम भी हो कि लाभदायक के बजाय दुखदाई ही क्यों न बन चुकी हो, उस संपत्ति के साथ इनका लगाव जबरदस्त होता है और उसके छिन जाने का डर पैदा कर इन्हें फासिस्ट अभियान के पीछे जुटाया जा सकता है। खासकर अगर समाज में मजदूर वर्गीय व प्रगतिशील शक्तियां कमजोर हों तो यह दुष्प्रचार भयानक ढंग से काम करता है कि पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण पहले ही दिवालिया होने व सर्वहारा बन जाने के खतरे का सामना कर रहे इस टटपुंजिया वर्ग की संपत्ति को छीनकर मजदूरों मेहनतकशों व फासिस्ट मुहिम द्वारा अन्यीकरण का निशाना बने समुदायों में बांट दिया जाएगा। भारत जैसे देश में संघी फासिस्ट यही मुहिम चलाते हैं कि इनकी संपत्ति छीन कर या सार्वजनिक नियमित नौकरियां आरक्षण के जरिए मुसलमानों व अन्य वंचित समुदाय की जनता को दे दी जाएगी। टटपुंजिया तबकों में फैलाया गया यह फर्जी डर उन्हें नफरती फासीवादी अभियान के पीछे जुटाने में सहायक होता है।
गैरबराबरी इस वक्त चरम पर है
पिछले सालों में ऐसी तमाम रिपोर्ट आती रही हैं कि इस देश में जितनी धन-दौलत 70 करोड़ मेहनतकश लोगों के पास है, उतनी ही धन-दौलत पर सिर्फ 21 लोगों ने कब्जा जमा लिया है। इस आंकड़े को थोड़ा और आगे बढ़ाएं तो पाते हैं कि 10% भारतीयों के पास कुल राष्ट्रीय संपदा का लगभग 80% केंद्रित हो गया है। भारत में इस समय करीब 200 खरबपति हैं। 2023 में इनकी संख्या 169 थी। सिर्फ 2024 में 31 नये खरबपति पैदा हो गए हैं। इनकी कुल संपदा 954 खरब डॉलर है।
गत वर्ष (2023) में खरबपतियों की कुल संपदा 675 खरब डॉलर थी। इसका साफ मतलब है कि सिर्फ एक वर्ष में इनकी संपदा में 41 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है। भारत के सिर्फ एक प्रतिशत लोगों ने देश की 40 प्रतिशत संपदा पर कब्जा जमा लिया है। एक दशक में खरबपतियों की संपदा में 10 गुने की वृद्धि हुई है। दूसरी तरफ नौकरीपेशा और श्रमिकों की तनख्वाह और मजदूरी में वृद्धि होना बंद हो गया है और बड़ी संख्या में लोग रोजगार से वंचित हैं।
ये 70 करोड़ लोग मजदूर, गरीब सीमांत किसान, ठेला-खोमचा-रेहड़ी लगाने वाले, छोटे-मोटे दुकानदार और विभिन्न तरह के हाड़तोड़ मेहनत करने वाले लोग हैं। ये हाड़तोड़ मेहनत करने वाले 70 करोड़ लोग एक तरफ हैं और दूसरी तरफ मात्र 21 लोग और व्यापक रूप से 10 प्रतिशत हैं, जो देश के समस्त संसाधनों व सार्वजनिक धन-संपदा पर राजनेताओं से साठ-गांठ करके और मेहनतकशों के श्रम का इस्तेमाल करके काबिज हो गए हैं। लब्बोलुआब यह कि एक तरफ सिर्फ 21 लोगों या 10 प्रतिशत लोगों का शोषक वर्ग है, दूसरी तरफ 70 करोड़ मेहनतकश वर्ग है। इनके बीच में एक मध्यवर्ग है।
देश की राष्ट्रीय संपदा के 70 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा जमाए ये 21 लोग या 77 प्रतिशत पर कब्जा जमाए 10 प्रतिशत लोग पहले तो जायज और नाजायज तरीके से घूस या चंदा देकर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को खरीद लेते हैं, खासकर सत्ताधारी दल या अपने मनोनुकूल (उनके हितों के प्रति पूरी तरह समर्पित) पार्टी को, जैसे आज मुख्यतया नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को। उस पार्टी को न केवल चुनाव लड़ने और जीतने के लिए पैसा देते हैं, बल्कि सांसद-विधायक या नेता खरीदने के लिए भी पैसा देते हैं, अपने पैसे से बनी-बनाई सरकारों को गिराते हैं या बनाते हैं। ये इन्हें उस हद तक धन देते हैं जितना पार्टी या नेता को जरूरत हो।
यह सब कुछ हम पिछले 10 वर्षों में नरेंद्र मोदी और भाजपा की कारगुजारियों में देख रहे हैं। बदले में नरेंद्र मोदी और भाजपा इन 21 लोगों या 200 खरबपतियों या 10 प्रतिशत लोगों के लिए वह सब कुछ कर रहे हैं, जो वे चाहते हैं। इसका प्रमाण यह है कि सिर्फ एक साल (2023 से 2024 के बीच) उनकी संपत्ति 41% बढ़ गई है। खरबपतियों की तादाद सिर्फ एक साल में 169 से बढकर 200 हो गई।
ये 21 लोग या 200 लोग सिर्फ चंदा नहीं देते हैं, बल्कि मीडिया को बहुलांश हिस्से को अपने मनोनुकूल नेता या पार्टी के लिए दिन-रात प्रचार करने में लगा देते हैं, सीधे मीडिया घरानों के मालिक बनकर या उन्हें बड़े पैमाने पर विज्ञापन देकर। वे गोदी मीडिया खड़ी कर देते हैं या बहुलांश मीडिया और पत्रकारों को गोदी मीडिया या गोदी पत्रकार बना देते हैं। जैसा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के पक्ष में गोदी मीडिया या गोदी पत्रकारों का दल खड़ा कर दिया है।
21 लोगों या 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में धन-दौलत के इस तरह संग्रहित हो जाने के खिलाफ आवाज उठाने की सबसे पहली घोषित जिम्मेदारी वामपंथी पार्टियों-नेताओं की थी, जो वर्गीय अन्तर्विरोध या वर्गीय शोषण को मुख्य मुद्दा मानते रहे हैं। लेकिन संसदीय राजनीति के जंजाल में फंसकर उन्होंने इस बारे में न तो कोई पुरजोर आवाज उठाई और न ही इस धन-संग्रह के खिलाफ कोई जन गोलबंदी और जनांदोलन करने की कोशिश की। ये पार्टियां या नेता सिर्फ इस या उस सरकार को हराने और जिताने की बातों में पूरी तरह मशगूल हैं। इन सवालों से मुंह मोड़ कर ये उम्मीद कर रहे हैं कि मेहनतकशों के हितों की रक्षा इन सवालों पर चुप्पी साध कर की जा सकती है या संघ भाजपा के हिंदुत्ववादी फासीवाद को सिर्फ राजनीतिक जोड़-तोड़ या कुछ सतही नारों से हराया जा सकता है।
फिर विरासत या संपदा कर पर सही रूख क्या हो?
यह बात सही है कि पूंजीवादी शोषण व बढ़ती गैरबराबरी का उन्मूलन तो समस्त उत्पादन के साधनों पर निजी संपत्ति की समाप्ति व समाजीकरण ही है। लेकिन विरासत जैसे इन करों के सुधारवादी चरित्र को जानते समझते और इनकी सीमा को मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के सामने साफ बताते हुए भी जनवादी आंदोलनों के मुद्दे बतौर मजदूर मेहनतकशों की राजनीति करने वालों को विरासत, संपदा, आयकर सहित संपत्ति व आय पर लगने वाले सभी प्रत्यक्ष करों का न सिर्फ समर्थन करना चाहिए बल्कि इनकी ऊंची दर की मांग करनी चाहिए, तथा इन करों की चोरी करने वालों की संपत्ति की जब्ती का सवाल भी उठाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपने निवास के अतिरिक्त इकट्ठा की गई समस्त आवासीय संपत्ति का समाजीकरण और इसके द्वारा बेघर लोगों या झुग्गी बस्तियों में रहने वाले गरीब लोगों के लिए बिना धर्म जाति क्षेत्र के भेदभाव के जरूरत के क्रम में सार्वजनिक आवासीय सुविधा हेतु प्रयोग की मांग भी उठाना जरूरी है।
इसके बरक्स जीएसटी, एक्साइज, कस्टम, चुंगी, जैसे गरीबों पर लगने वाले सभी अप्रत्यक्ष करों को खत्म करने की मांग रखनी चाहिए क्योंकि ये मजदूरों की मजदूरी व अन्य मेहनतकशों की थोडी सी आय का भी एक हिस्सा उनकी जेब से खींच लेते हैं।
इसके साथ ही फासिस्ट मुहिम की तार्किक काट के लिए प्रत्यक्ष करों से प्राप्त रकम के किसी समुदाय विशेष में वितरण या किसी के इन पर कम-ज्यादा अधिकार की बातों के बजाय पूरे समाज अर्थात सभी के लिए अनिवार्य रूप से समान सुलभ निशुल्क या सस्ती सार्वत्रिक सेवाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, खाद्य सुरक्षा, यातायात, स्वच्छता, मनोरंजन, आदि पर खर्च करने की मांग उठानी चाहिए। यह हमारे समाज में व्याप्त जातिगत धार्मिक भेदभाव के खिलाफ भी एक बडी मुहिम का आधार बनेगा जो फासीवादी विचार की जडों पर एक सशक्त प्रहार होगा।
यह भी समझना जरूरी है कि कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियों व लिबरल बुद्धिजीवी तबके के वर्ग चरित्र की सीमा है कि बीजेपी का विरोध करते हुए और उसकी नीतियों के नतीजे में बढती गैरबराबरी पर भाषण देते हुए भी वे इस बात को उठा ही नहीं सकतीं। अगर चुनावी राजनीति के नजरिए से उनकी ओर से गलती से भी कोई ऐसा जिक्र उठ जाए तो वे इसके खिलाफ खडे हुए कटु फासिस्ट प्रोपेगैंडा के समक्ष तुरंत सुरक्षात्मक रूख अख्तियार कर लेते हैं कि उन्होंने तो कभी ऐसा कहा ही नहीं था, उनका मतलब ऐसा नहीं था, पार्टी का नहीं एक व्यक्ति का बयान था, वगैरह वगैरह।