मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच
ये कानून जहां तात्कालिक तौर पर मजदूर आंदोलन के अंदर कई तरह की बाधायें खड़ा कर रहे हैं और करेंगे, वहीं दूरगामी तौर पर मजदूर आंदोलन की क्रांतिकारी जमीन को भी ये सिंचित तथा पुष्ट कर रहे हैं। जरूरत है कि मजदूर वर्गीय ताकतें ‘तात्कालिक’ में ‘दूरगामी’ के बीज बोने में सक्षम हों और मोदी सरकार हमें मजदूर आंदोलन में इसके लिए (तात्कालिक से दूरगामी को जोड़ने के लिए) जो उत्तम अवसर दे रही है उसे दोनों हाथों से थाम लेने की है। जाहिर है, हम अगर पूरे परिदृश्य को तात्कालिकता की नजर से नहीं, समग्रता में देखना शुरू कर देते हैं तो हम जल्द ही देखेंगे कि आज की मायूसी खत्म हो रही है, मजदूर आंदोलन का नया सूर्य चमक रहा है और इससे पूरे समाज में एक नया ज्वारभांटा उठ रहा है।
आज अर्थव्यवस्था का अत्यंत बुरा हाल है। मोदी सरकार की बदइंतजामी, नाकामी तथा पूंजी की खुली-नंगी तरफदारी ने आर्थिक संकट को और बढ़ा दिया है। आम लोगों की खस्ताहाल स्थिति बढ़ती जा रही है। पहले की तुलना में एक बहुत बड़ी आबादी भुखमरी के कगार पर पहुंच गयी है।
बात साफ है कि गरीबों और मेहनतकशों को अपने वर्ग हित के लिए आवाज बुलंद करनी होगी और संघर्ष की राह पर चलते हुए एक नयी दुनिया व समाज बनाने के लिए कमर कसना होगा।
हालांकि नस्लवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद, आदि अलग-अलग समस्याएं हैं और इनकी अपनी अलग विशिष्टतायें हैं, परंतु नीचे दिया गया अंश इस बात का एक प्रेरणादायक उदाहरण है कि एक क्रांतिकारी पार्टी को अपने भीतर इन प्रभुत्ववादी प्रवृत्तियों से निपटने के लिए कैसे एक सजग एवं सिद्धांत पर दृढ़ पार्टी के रूप में संघर्ष चलाना चाहिए। यह इसलिए भी खास है कि भारतीय समाज में ये सभी प्रवृत्तियां अभी गहराई तक मौजूद हैं
जिस तरह से नागरिकों, जजों, मंत्रियों, सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री से जुड़े अधिकारियों, पत्रकारों, चुनाव आयुक्त और सुप्रीम कोर्ट के जजों के नाम पेगासस जासूसी के टारगेट सूची में उजागर हो रहे हैं उसे देखते हुए, इस मामले की जांच सरकार द्वारा करा ली जानी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं पर क्या निर्णय लेता है यह तो बाद में ही पता चलेगा, फिलहाल यह एक ज्वलंत बिंदु है और सरकार द्वारा इस मामले में की गयी कोई भी नजरअंदाजी घातक हो सकती है।
1855 का संताल हुल आदिवासियों के साहस और प्रतिशोध की गाथा है; शोषण के प्रतिकार और अपने अस्तित्व को बचाने की कहानी है। इतिहास के पन्नों में हुल को एक ऐसी घटना के रूप में अंकित किया जाता है जिसकी एक निश्चित शुरुआत हुई और फिर एक निश्चित अंत हुआ। प्रस्तुत लेख का मानना है कि हुल की शुरुआत तो हुई, लेकिन उसका अंत नहीं हुआ।
एकाधिकारी पूंजीवादी एसोसिएशन, कार्टेल, सिंडिकेट और ट्रस्ट पहले देश के पूरे बाज़ार को आपस में बाँट लेते हैं और अपने देश के कमोबेश पूरे बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा जमा लेते हैं। देशी और विदेशी बाज़ार एकीकृत हो जाता है। जैसे जैसे पूंजी का निर्यात बढ़ता जाता है और विदेशी तथा औपनिवेशिक संबंधों द्वारा प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जाता है, विशालकाय एकाधिकारी एसोसिएशन का और विस्तार होता जाता है, परिस्थितियां ‘स्वाभाविक’ रूप से अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन की ओर बढ़ती हैं और अंतर्राष्ट्रीय कार्टेल अस्तित्व में आते हैं।