जर्मनी के नाज़ी फासीवाद-विरोधी योद्धा जो अपनी मौत से लड़े

May 9, 2022 0 By Yatharth

एस वी सिंह

म्यूनिख का प्रतिरोध  स्मारक 

सत्ता का मूल स्वरूप दमनकारी होता है. फासीवाद एक भयानक आततायी और हिंसक सत्ता- व्यवस्था का नाम है. फासीवादी कहर का सबसे वीभत्स स्वरूप 1930 के दशक में हिटलर की जर्मनी में देखने को मिला. जर्मनी में भी उसका सबसे विकराल स्वरूप जर्मनी के एक राज्य बावेरिया में दर्ज हुआ. म्यूनिख इस राज्य की राजधानी है जहाँ 1933 में जर्मनी का चांसलर बनने से पहले के 10 साल हिटलर स्वयं रहा. न्युरेम्बेर्ग भी इसी राज्य का एक प्रमुख शहर है जहाँ ये विष-बेल जन्मी और फैलती गई. नाजियों की वो आतंकवादी, दहशत पैदा करने वाली कुख्यात रैलियां और परेड़ें न्युरेम्बेर्ग में ही हुईं. बे-इन्तेहा दमन और आतंक के उस वक़्त में नाजियों के विरुद्ध मुंह खोलने पर ही कोई व्यक्ति क़त्ल किया जा सकता था. क़त्ल से अगर बच भी जाए और कंसंट्रेशन कैंप पहुँच जाए तो वो अपनी मौत को भी तरस जाता था. ऐसे दमघोटू माहौल में भी अनेकों लोग अपनी जान अक्षरसह हथेली पर रखकर नाज़ी दमन से लड़े. ऐसे कुछ चुनिन्दा लोगों को सम्मान देते हुए, उनकी गौरवशाली विरासत को आने वाली नस्लों का प्रेरणा स्रोत बनाने के लिए, म्यूनिख महानगर में ‘लैंडशूटर ऐली’ के प्रसिद्ध चौक पर सुन्दर बगीचे में एक स्मारक है. बीचोंबीच एक खम्बा है, एक ओर गड़े शिलालेख पर लिखा है; “राष्ट्रीय समाजवाद के विरुद्ध लड़े पीड़ित’ (DEN OPFERN IM WIDERSTAND GEGEN DEN NATIONAL SOZIALISMUS/ THE VICTIMS IN THE RESISTANCE AGAINST NATIONAL SOCIALISM’). एक गोलाकार दायरे में नाज़ी हैवानियत के विरुद्ध अपनी मौत से बे-खौफ़ लड़े जांबाजों की तस्वीरों के साथ जर्मन भाषा में संक्षेप में उनकी गौरव गाथा लिखी हुई हैं. प्रस्तुत लेख उन्हीं जर्मन संदेशों का हिंदी अनुवाद कर संकलित किया गया है. इन बहादुर आन्दोलनकारियों के ज़ज्बे को सलाम करते हुए ये संकलन इस उम्मीद से दिया जा रहा है कि ये मौजूदा फासीवादी घटाटोप के विरुद्ध संघर्ष का प्रेरणा स्रोत बनेगा. 

  1. मिखाइल इवानोविच कोनदेंको (1906-1944)

  मिखाइल इवानोविच कोनदेंको सोवियत लाल सेना में मेजर थे. उनकी गिनती सोवियत लाल सेना के सबसे बेहतरीन खिलाडियों में होती थी. 1938 में हुई लाल सेना की अखिल सोवियत खेल-कूद प्रतियोगिता में उन्हें मज़दूर-किसान रेड आर्मी का चैंपियन बनने का गौरव हांसिल हुआ था. नाजियों के विरुद्ध सोवियत संघ के 1942 में सेवस्तीपोल में हए भीषण युद्ध में उन्होंने सोवियत लाल सेना की 109 वीं राइफल बटालियन का नेतृत्व किया था. बहुत सारे रुसी सैनिकों की तरह उन्हें भी नाज़ी सैनिकों ने बन्दी बना लिया गया था.  सोवियत संघ के नाज़ियों द्वारा क़ब्ज़े में लिए गए कई कैम्पों में रखने के बाद, उन्हें म्यूनिख के पास श्वेनस्ट्रासे ऑफिसर बंदी गृह में भेज दिया गया था. 

वहां पहुंचकर मिखाइल कोनदेंको ने नाज़ी विरोधी गोपनीय संगठन ‘बिरादराना युद्ध-बन्दी संघ’ (BSW) बनाने में अहम भूमिका निभाई. ये संगठन नाजियों के हथियार उत्पादन कारखानों में, जहाँ ले जाकर उनसे दास-मज़दूर की तरह काम कराया जाता था, उन्होंने तोड़-फोड़ की कई वारदातों को अंजाम दिया, वहाँ की संवेदनशील गोपनीय जानकारियाँ हांसिल कीं और हथियारबंद विद्रोह की तैयारियां शुरू कर दीं. इस समूह का उद्देश्य था कि सभी युद्ध बंदियों को संगठित किया जाए भले वे किसी भी देश के रहने वाले क्यों ना हों और जहाँ भी वे काम करें वहाँ हो रहे हथियार उत्पादन को विखंडित करें. साथ ही, जर्मनी में जो लोग नाजियों का विरोध कर रहे हैं उनसे संपर्क बनाएं जिससे आखिर में मित्र देशों की सेनाओं की मदद हो सके. 

इस भूमिगत बीएमडब्लू संगठन में कई सौ युद्ध बंदी जुड़ गए थे और इतना ही नहीं इस ग्रुप ने विएना, बर्लिन और हैम्बर्ग के युद्ध बंदियों से भी संपर्क स्थापित कर लिया था और उनका ‘नाज़ी-विरोधी जर्मन जन-मोर्चा’ से भी संपर्क व ताल-मेल प्रस्थापित हो चुका था. तभी, नाज़ी ख़ूनी पुलिस गेस्टापो को उसकी भनक लग गई. मिखाइल कोनदेंको को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें बे-इन्तेहा मारा-सताया गया और डखाओ कंसंट्रेशन कैंप (मतलब मानव बूचड़खाना) भेज दिया गया जहां BSW संगठन के 91 सदस्यों के साथ उन्हें 4 सितम्बर 1944 को फांसी पर लटका दिया गया. 

  1. एमा हुज़लमेन (1900-1944) और हैंस हुज़लमेन (1906-1945)

एमा हुज़लमेन अकाउंटेंट और उनके पति हैंस हुज़लमेन मैकेनिकल इंजीनियर थे. वे दोनों इसाई धर्म को मानते थे लेकिन दोनों को प्रगतिशील, वामपंथी विचार भी पसंद आते थे. इसलिए वे दोनों हिटलर की ‘राष्ट्रवादी समाजवादी’ और  अंधराष्ट्रवादी नस्लवादी नीतियों का विरोध करने वाली जर्मनी की संस्था ‘लाल मदद’ (Red Aid) से जुड़ गए. जर्मनी के कम्युनिस्ट नेता कार्ल ज़िम्मेट और उनके साथी, पर्चे लिखकर प्रतिरोध आन्दोलन चलाते थे कि हिटलर की नीतियाँ तबाही लाने वाली हैं और देश एक विनाशकारी युद्ध की ओर बढ़ रहा है. एमा और हैंस भी 1942 में उनसे जुड़ गए. ‘युद्ध के विरुद्ध’ भाषण देने के आरोप में हिटलर की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन म्यूनिख की विशेष अदालत ने उन्हें बेक़सूर पाया और बरी कर दिया. 

जनवरी 1943 में स्टालिनग्राद में सोवियत लाल सेना के हाथों हिटलर की नाज़ी फौज की करारी हार के बाद एमा और हैंस दोनों ‘नाज़ी विरोधी जर्मन जन मोर्चा (Anti-Nazi German People’s Front)’ से जुड़ गए. कार्ल ज़िम्मेट इस मोर्चे के प्रधान, हैंस हुज़लमेन उप-प्रधान तथा एमा हुज़लमेन उसकी कोषाध्यक्ष चुनी गईं. हैंस हुज़लमेन ‘डेकेल’ नाम की जर्मन कंपनी में काम करते थे और एमा हुज़लमेन ‘फेत्फेब्रिक सौम्वेबेर’ में. सोवियत युद्ध बंदियों और नाज़ी क़ैद में बंद दूसरे कैदियों पर हो रहे बर्बर अत्याचारों और हत्याओं से वे हर वक़्त बहुत दुखी रहते थे. (4000 सोवियत युद्ध बंदियों को म्यूनिख के पास डखाओ कंसंट्रेशन कैंप में एक ही रात गोलियों से भून डाला गया था). जर्मनी के मज़दूरों ने सोवियत युद्ध बंदियों की मदद के लिए ‘रुसी युद्ध बंदी सहयोग भाईचारा’ (Brotherly Cooperation of Russian Prisoners of War) नाम से एक गुप्त संगठन बनाया. एमा भी उस संगठन से जुड़ गईं. उन्होंने अपनी कंपनी से बड़ी तादाद में फैट चुराई और उसे बेचकर युद्ध बंदियों के लिए कपडे, खाने का सामान ख़रीदा और उस समान और बाकी बचे पैसे की मदद से रुसी युद्ध बंदियों को छुड़ाने की योजना बनाई. 

कार्ल ज़िम्मेट का फ़्लैट में मिलने की गुप्त जगह थी जहाँ प्रतिबंधित ‘सोवियत रेडियो’ सुना जाता था. ये सभी साथी सोवियत युद्ध बंदियों को नाज़ियों की क़ैद से छुड़ाने की योजना बनाने में लग गए. 1944 के शुरू में ही प्रतिबंधित ‘नाज़ी विरोधी जर्मन जन मोर्चे’ के बारे में हिटलर की खूंख्वार ख़ुफ़िया पुलिस गेस्टापो को पता चल गया. मोर्चे के सभी साथियों के साथ एमा और हैंस को भी गेस्टापो ने गिरफ्तार कर लिया. एमा को क़ैद में रखना आसान नहीं था. वे अपना मिशन छोड़ना नहीं चाहती थीं और वे उसी साल जुलाई के महीने में स्तेदलहिएम की जेल पुलिस को चकमा देकर फरार हो गईं. दुर्भाग्य से वे जहाँ छुपी हुई थीं, वहाँ हुई मित्र देशों की सेनाओं की बमबारी में वे मारी गईं. 

हैंस हुज़लमेन को 15 जनवरी 1945 को फांसी पर लटका दिया गया. 

  1. जोसेफा मैक (1924-2006)

जोसेफा मैक बावेरिया राज्य के एक छोटे से गांव मोकेनलोहे के एक बढई की बेटी थीं. वे बचपन से ही बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और चर्च में सिस्टर (सन्यासिन) बनना चाहती थीं. इसलिए उन्होंने 1940 में म्यूनिख शहर की एंगरक्लोस्टर चर्च में ग़रीब बच्चों के लिए चलाए जाने वाले स्कूल में दाखिला लिया और बाद में सिस्टर बनकर चर्च की सेवा में लग गईं. 1942 में उन्हें फ्रेज़िंग स्थित सेंट क्लारा चर्च में चल रहे गरीब व अनाथ बच्चों के ‘चिल्ड्रेन होम’ में बच्चों की मदद के लिए भेज दिया गया. 

मई 1944 के मध्य में उन्हें नाजियों के डखाओ कंसंट्रेशन कैंप के बाहर के जंगल में स्थित बगीचे से फूल और सब्जियां लाने को भेजा गया. वहां उन्होंने सैकड़ों सर-मुंडे, चीथड़ों में लिपटे, टूटी चप्पलें पहने, बीमार, दयनीय, मुरझाए पीले चेहेरे वाले अनेक कैदियों को देखा जिन्होंने धारीदार पाजामा और कुरता पहना हुआ था, जो उनकी ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे. उन्हें देखकर वे सन्न रह गईं. उन्हें  लगा मानो वे किसी दूसरी ही दुनिया से हैं. उन्हीं कैदियों में मौजूद एक नवयुवक पुजारी ने उनसे कहा कि वे चर्च से कुछ पानी और खाने के लिए कुछ ला सकती हैं क्या? अगले हफ्ते तक उन्होंने वहाँ क़ैद, पोलैंड और रूस के कैदियों के बारे में बहुत सी जानकारी इकट्ठी कर ली थी. नाज़ी एसएस दस्तों द्वारा कैदियों पर वहाँ ढाए जा रहे बे-इन्तेहा ज़िल्लत, जुल्मों और यातनाओं का अब उन्हें पता चल चुका था. उस दिन के बाद जोसेफा हर हफ्ते ‘डखाओ कंसंट्रेशन कैंप’ जाने लगीं. पहले वे लोकल ट्रेन से जाती थीं. बाद में जब पैसे नहीं होते थे तो वे पैदल भी गईं . उसके बाद वहाँ जाने के लिए वे चर्च की साइकिल ले जाने लगीं. वे अपने साथ खाने-पीने का सामान ले जाती थीं. उनके हाथ में कुछ पत्र भी होते थे जिससे ख़ुफ़िया पुलिस को लगे कि वे डाक देने आई हैं. जो काम वो कर रही थीं उसकी सज़ा मौत है, ये बात जोसेफा को मालूम थी. इस तरह की कोई सामान चोरी-छुपे ले जाने वाले को नाज़ी पुलिस ‘मैक’ कहती थी. वहाँ की सारी  असलियत जोसेफा जान चुकी थीं.

साइकिल पर वे अधिक से अधिक सामान ले जाना चाहती थीं. अपनी जान की बाज़ी लगाकर, वे इस थकाने वाले निहायत ही खतरनाक काम को बेहद चौकसी और पूरी गोपनीयता के साथ उस वक़्त तक करती गईं ,जब 29 अप्रैल 1945 को डखाओ कंसंट्रेशन कैंप अमेरिकी फौजों ने मुक्त कराया. 

1946 में वे म्यूनिख की एंगर चर्च में वे सिस्टर मारिया इम्मा बन गईं, जो काम वे बचपन से ही करना चाहती थीं. उनकी मृत्यु 2006 में हुई.

  1. सिल्विया क्लार (1885-1942) तथा मैक्स क्लार (1875-1938)

सिल्विया क्लार और मैक्स क्लियर शांतिवादी थे. मैक्स क्लार ने म्यूनिख जर्मन शांति समाज (Munich German Peace Society) द्वारा संचालित हड्डी रोग अस्पताल में कई साल काम किया. अपनी ड्यूटी के साथ ही वे ‘यहूदी-घृणा से सुरक्षा (Defense of Anti-Semitism)’ नामक संस्था में भी सक्रीय थे. इन दोनों संस्थाओं को नाजियों ने बरखाश्त कर दिया था. 

सिल्विया क्लार और उनके पति जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (SPD) के अपने कई राजनीतिक साथियों जैसे विल्हेल्म होएगनेर के साथ इन दोनों संस्थाओं से जुड़े थे. साथ ही वे नाजियों की ज़हरीली राजनीति के विरुद्ध मौजूद सामाजिक जनवादी प्रतिरोध ग्रुप ‘न्यु बेगिंनें (Neu Beginnen) के साथ भी जुड़े हुए थे. जुलाई 1933 में, जब बावेरिया राज्य की राजनीतिक पुलिस विल्हेल्म होएगनेर को किसी मामलें में ढूंढ रही थी तब सिल्विया क्लार ने उन्हें कुछ दिन जुटा रोड म्यूनिख स्थित अपने फ़्लैट में छुपाया था. इतना ही नहीं, 11 जुलाई 1933 को सिल्विया क्लार होएगनेर को अपने पति की कार में बिठाकर मित्तेन्वाल्ड ले गईं जहाँ से होएगनेर जंगल में भाग गए और गिरफ़्तारी से बच गए. 

9 नवम्बर 1938 को राइखस्क्रिसतल्लानाच्त (नाजियों की अदालत) ने सिल्विया क्लार के पति मैक्स क्लार को गिरफ्तार कर विचाराधीन कैदी के रूप में ‘डखाओ कंसंट्रेशन कैंप’ भेजने का हुक्म सुनाया. 8 नवम्बर 1938 को उन्हें डखाओ नाम के उस भयानक यातना और मौत के जेलखाने में डाल दिया गया. वे डायबिटीज के मरीज थे, 20 दिन बाद उनकी मौत हो गई. सिल्विया क्लार ने अपने पति के अन्तिम संस्कार के वक़्त उनके मृत शरीर के गले में वेइमेर राज्य के प्रतीक काले, लाल और सुनहरे रंग का फीता पहनाया. सिल्विया क्लार ये जानती थीं कि उनके ऐसा करने के क्या खतरनाक परिणाम होंगे. उनके पास जो भी संपत्ति थी उसे उन्होंने उन यहूदियों के लिए भेज दिया जो ब्रिटिश दूतावास की मदद से दूसरे देश भागने में सफल हो गए थे. दिसम्बर 1939 में हिटलर की जल्लाद पुलिस गेस्टापो ने सिल्विया क्लार को देशद्रोह और विदेशी मुद्रा हेरा-फेरी के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया. जनवरी 1940 में उन्हें राजनीतिक क़ैदी के रूप में रवेंसब्रुक्क महिला कंसंट्रेशन कैंप भेज दिया गया. जून 9, 1942 को बेम्बेर्ग के गैस द्वारा किए गए नरसंहार में सिल्विया क्लार भी शामिल थीं. 

  1. कार्ल शोरघोफर (1907-1981)

कार्ल शोरघोफर का जन्म जर्मनी के बावेरिया प्रान्त में हैलीन नामक शहर में हुआ था. उन्होंने पत्थर के राज-मिस्त्री का काम सीख लिया था. 1923 में यहूदी समुदाय ने उन्हें म्युनिख में बनने जा रहे नए यहूदी कब्रिस्तान का प्रशासक बना दिया था. वहाँ उन्होंने एक बगीचा और नर्सरी भी बना ली थी. वे कथोलिक धर्म मानने वाले इसाई थे लेकिन उन्होंने यहूदी धर्म का भी अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया था. उनके चार बच्चे थे. 

नाज़ी शासन में कार्ल शोरघोफर परिवार को अनेक यातनाएं झेलनी पड़ीं. उनके बगीचे में मालियों और कब्रिस्तान के शव-वाहनों के डाइवरों ने काम करने से मना कर दिया. खूंख्वार गेस्टापो कार्ल शोरघोफर के परिवार पर नज़र रखने लगी. फिर भी वे बिलकुल नहीं घबराए और नाजियों की वहाँ सड़क के विस्तार की विघटनकारी योजना जिसके तहत यहूदी कब्रिस्तान का काफी हिस्सा, प्राचीन ऐतिहासिक यहूदी मक़बरे ध्वस्त हो जाने थे, उसका विरोध करते रहे. इतना ही नहीं, उसके बाद जब यहूदीयों का दमन बढ़ा और वे लोग देश छोड़कर जाने लगे तब उनके द्वारा सौंपे गए हर धार्मिक और बहुमूल्य सामान की रक्षा कार्ल शोरघोफर ने अपनी जान पर खेलकर की. उनकी बेटी भी एक 12 वर्षीय यहूदी लड़की को अपने साथ सुरक्षित रखने में सफल रही.   

1944 के बाद जब यहूदियों की परिस्थिति जर्मनी में सबसे भयानक हुई तब भी कार्ल शोरघोफर ने उस कब्रिस्तान में छुपने की एक भूमिगत जगह बनाकर वहाँ सात यहूदियों को छिपाया और उनके खाने-पीने की व्यवस्था की. 1945 के फरवरी महीने में छुपने की उस गोपनीय जगह का पता नाज़ी ख़ुफ़िया एजेंसी को चल गया लेकिन कार्ल शोरघोफर ने भी पता लगा लिया कि नाज़ी वहाँ हमला करने वाले हैं. उन्होंने उन सातों यहूदियों को सही-सलामत वहाँ से बाहर निकालकर एक और सुरक्षित जगह पहुंचा दिया. उसके बाद लेकिन कार्ल शोरघोफर और उनके बेटे को गिरफ्तार कर लिया गया. गेस्टापो से भी वे अपनी और अपने बेटे की जान बचाने में सफल रहे, उन पर 800 जर्मन रुपये का जुर्माना लगा और आगे ऐसा करने पर उन्हें डखाओ कंसंट्रेशन कैंप में  डाल दिया जाएगा, इस धमकी के साथ छोड़ दिया गया. उसके दो दिन बाद ही उन्होंने फिर से दो यहूदियों को उसी जगह छुपाया और अपनी और अपने परिवार की जान अक्षरसह हथेली पर रखकर उन्हें निश्चित रूप से मौत के जबड़ों से बाहर खींच लिया. 

कार्ल शोरघोफर परिवार को 1967 में याद वशेम मेमोरियल पर इजराइल सरकार द्वारा विशेष पुरष्कार दिया गया.

  1. मार्टिना पार्स्च (1896-1968)

कैथोलिक इसाई धर्म मानने वालीं मार्टिना पार्स्च 1924 में बाइबिल छात्रा बन गईं. 1933 में अपनी शादी के बाद वे और उनके पति, नाजियों द्वारा प्रतिबंधित कैथोलिक इसाई संस्था जहोवा की गतिविधियों में भाग लेने लगे. 1936 में मार्टिना पार्स्च ने गैरकानूनी तरीक़े से लुसेमा की कांग्रेस में भाग लिया जहाँ जर्मनी में हो रहे नस्लीय दमन के विरुद्ध एक प्रस्ताव पारित हुआ. उसी साल दिसम्बर में उन्होंने अपने पति रिचर्ड पार्स्च के साथ मिलकर उस प्रस्ताव की प्रतियाँ नाज़ी प्रभुत्व वाले कई राज्यों में बांटीं. पांच दिन बाद ही वे दोनों गिरफ्तार हो गए. म्यूनिख थाने में कुछ वक़्त साथ गुजारने के बाद वे फिर कभी एक-दूसरे से नहीं मिल पाए. पुलिस ने नाज़ी विरोधी तीखे विचार रखने वाले रिचर्ड को एगाल्फिंग यातना गृह भेजा और मार्टिना पार्स्च को स्तादेलहिएम जेल में डाल दिया. 4 मई 1937 को उन्हें 6 महीने की सज़ा हुई. जेल से वापस लौटने पर भी उन्होंने नाज़ी-विरोध की वही गतिविधियाँ ज़ारी रखीं. इस बार उन्हें गिरफ्तार कर लिस्तेंबेर्ग कंसंट्रेशन कैंप भेज दिया गया. वहाँ उन्होंने युद्ध के विरोध स्वरूप सैनिकों की वर्दियां सिलने से मना कर दिया इसलिए उन्हें 14 दिन तक एक अँधेरी कोठरी में अकेले बंद रखने की सज़ा सुनाई गई. उसके बाद भी जब उन्होंने नाज़ी युद्ध का विरोध करना बंद नहीं किया तब 1940 में भयंकर सर्दी के मौसम उन्हें कई दिन बाहर शीत लहर में बाहर खड़े रहने की सज़ा सुनाई. वे फिर भी अपने विचारों पर अडिग रहीं तब नाज़ी एसएस दस्ते ने उन्हें तीन महीने के लिए एक बहुत ठंडी कोठरी में डाल दिया. उनके पति रिचर्ड को तो पहले ही दूसरे कंसंट्रेशन कैंप में बंद कर दिया गया था. 

मार्टिना पार्स्च द्वारा पूरे 8 साल नाज़ी कंसंट्रेशन कैंप में बिताने के बाद 1945 में उन्हें दूसरे कैदियों के साथ रैवेनस्बेर्क कंसंट्रेशन कैंप से बर्लिन, 86 किमी पैदल चलकर ले जाया गया. लाल सेना द्वारा बर्लिन की मुक्ति के बाद वे म्यूनिख आईं और अपने पति रिचर्ड के बारे में पता किया तो उन्हें मालूम पड़ा कि उन्हें भयंकर यातनाओं के बाद 1943 में ही फांसी दे दी गई थी. उन्हें जीवित बचे युद्ध बंदियों की पेंसन भी नहीं मिली.    

  1. ओटो कोहलोफर (1915-1988) 

ओटो कोहलोफर पांच भाई-बहन थे. वे नूहौसेन, म्यूनिख में रहते थे. 1932 में रोदनस्टॉक कंपनी में मेकेनिक-मज़दूर की ट्रेनिंग के वक़्त ही उन्होंने महज 17 साल की उम्र में, कंपनी से बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छंटनी के ख़िलाफ़ ट्रेनिंग-मज़दूरों की हड़ताल संगठित की थी. इसके लिए उन्हें कंपनी से तुरंत निकाल दिया गया. उसके बाद वे ‘कम्युनिस्ट यूथ लीग’ के सदस्य बन गए. 1933 में महज 18 साल की उम्र में ही वे ‘कम्युनिस्ट प्रतिरोध ग्रुप’ की नेतृत्वकारी समिति के सदस्य बने और पर्चे निकालकर उन्होंने लोगों से नाजियों का विरोध करने और संगठित हो जाने का आह्वान किया. इस सारे प्रतिबंधित प्रतिरोध आन्दोलन और गैरकानूनी प्रचार सामग्री का केंद्र उनके घर के पास वाला गार्डन था. नाज़ी ख़ुफ़िया एजेंसी ने अपने एक सिपाही को इस ग्रुप का सदस्य बना दिया और इस आन्दोलन की सारी जानकारी खूंख्वार गेस्टापो को मिल गई. 29 जून 1935 को ओटो कोहलोफर को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने देशद्रोह के आरोप में ढाई साल नाज़ी जेल की तन्हाई कोठरी में काटे.

फरवरी 1938 में उन्हें डखाओ कंसंट्रेशन कैंप में डाल दिया गया. वहाँ एकदम मौत के जबड़ों में रहते हुए भी उन्होंने कैदियों पर ढाए जा रहे जुल्मों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की. फरवरी 1945 में उन्हें इस शर्त पर छोड़ा गया कि वे नाज़ी सेना की सेवा करेंगे. उन्होंने ऐसा जान पूछकर किया था. वे सेना में भर्ती हुए और वहाँ से भाग गए और फिर नाज़ी जल्लादों के हाथ नहीं आए. 

1945 में नाजियों के खात्मे के बाद वे अपने अज्ञातवास से प्रकट हुए और उन्होंने ‘नाज़ी राज्य द्वारा प्रताड़ित व्यक्तियों की एसोसिएशन’ बनाई, नाजियों के विरुद्ध अनेकों मुकदमों में डटकर गवाही दी और जालिमों को फांसी के फंदों तक पहुँचाया. डखाओ कंसंट्रेशन कैंप में मारे गए व्यक्तियों के परिवारों को मदद पहुँचाने के लिए अपने एक मित्र के साथ उन्होंने एक संस्था भी बनाई.     

  1. वाल्टर क्लिंगनबेक (1924-1943) 

वाल्टर क्लिंगनबेक म्यूनिख के एक कैथोलिक इसाई परिवार में पले-बढे. ‘कैथोलिक यूथ एसोसिएशन’ के युवकों को नाज़ी- दमन झेलना पड़ा था इसलिए वे बचपन से ही सरकार से क्षुब्ध रहते थे (जर्मनी में अधिकतर लोग और सरकार प्रोटेस्टेंट इसाई धर्म को मानने वाले हैं). वे अपने पिता के साथ कैथोलिक धर्म प्रचार ‘वेटिकेन रेडियो’ सुना करते थे. नाजियों ने उस वेटिकन रेडियो को ‘दुश्मन रेडियो’ बताकर गैरकानूनी घोषित कर दिया. उसके बाद उनके पिताजी  ने वेटिकेन रेडियो सुनना बंद कर दिया लेकिन वाल्टर क्लिंगनबेक सुनते रहे. 

वाल्टर क्लिंगनबेक कार मिस्त्री बन गए. वहाँ उनकी मुलाकात तीन युवकों से हुई. वे भी उनके साथ वेटिकेन रेडियो सुनने लगे और इस तरह वे चारों नाज़ी हुकूमत से नफ़रत करने लगे. बीबीसी प्रसारण से प्रेरित होकर उन्होंने 1941 की गर्मियों में एक बहुत ही दिलेरी का काम किया. वाल्टर क्लिंगनबेक ने अपने तीनों साथियों के साथ मिलकर बाल्टियों में काला पेंट लिया और म्यूनिख की बीसियों दीवारों, चौराहों, लाल बत्तियों और नाज़ी अड्डों पर अपना विजय चिन्ह ‘V’ बना दिया. इतना ही नहीं उन 16-17 साल के उत्साही युवकों ने एक रिमोट से चलने वाला ड्रोन जैसा उपकरण भी बना लिया जिसकी मदद से वे अपने लिखे नाज़ी-विरोधी पर्चे जगह-जगह गिराने लगे. इसके भी आगे बढ़ते हुए वे अपने एक ट्रांसमीटर जैसे माइक के ज़रिए धार्मिक लेकिन नाज़ी विरोधी प्रचार भी करने लगे. उस समय का प्रसिद्ध नाज़ी विरोधी फ़्रांसिसी पॉप संगीत भी बजाने लगे. 

वाल्टर क्लिंगनबेक ने उत्साह में ये सब एक जगह बोल दिया कि उसने नाजियों के दफ्तरों की दीवारों पर भी अपनी विजय का प्रतीक ‘V’ निशान बनाकर दिखाया है. नाज़ी पुलिस गेस्टापो के दरिंदों ने 26 जनवरी 1942 को वाल्टर क्लिंगनबेक और उनके तीनों साथियों को गिरफ्तार कर लिया. उन पर राष्ट्र द्रोह का आरोप लगाया जिसकी सज़ा फांसी थी. मास्टरमाइंड बताते हुए वाल्टर क्लिंगनबेक को फांसी हुई और उनके तीनों साथियों को 8-8 साल की कैद कि सज़ा सुनाई गई. 

5 अगस्त 1943 को वाल्टर क्लिंगनबेक को फांसी पर लटका दिया गया. 

  1. मैरी लुई शुल्त्ज़ जॉन (1918-2010)

 मैरी लुई शुल्त्ज़ जॉन पूर्वी प्रुशिया और पोलैंड में पलीं-बढीं. फरवरी 1940 में उन्होंने म्यूनिख विश्वविद्यालय में केमिस्ट्री में दाखला लिया. नोबेल पुरष्कार विजेता प्रोफ़ेसर हीनरिख वेईलैंड के भाषण के प्रोग्राम में उनकी मुलाकात हैम्बर्ग के रहने वाले हैंस लेइपेल्ट से हुई और वे उनकी दोस्त बन गईं. मेरी लुई की मा यहूदी थीं. इस ‘गुनाह’ के कारण उन्हें उस प्रोग्राम में हीनरिख वेईलैंड के हस्तक्षेप के बाद ही लिया जा सका था. 

शोल और क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट बंधुओं की फांसी के कुछ ही दिन पहले हैंस लेइपेल्ट को एक पर्चे के रूप में उनका आख़री सन्देश प्राप्त हुआ था जिसे बाँटने के ज़ुल्म में उन्हें मार डाला गया था. जॉन और लेइपेल्ट ने उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने का फैसला किया. उन्होंने वही परचा एक नए शीर्षक ‘और उनका ज़ज्बा जिंदा रहेगा’ से छपवाया. उन दोनों, मैरी जॉन और लेइपेल्ट ने उस पर्चे को म्यूनिख में खूब बांटा, उसे जर्मनी के दूसरे बड़े शहर हैम्बर्ग भी ले गए और उस संघर्ष की ओर लोगों का ध्यान खींचा. अपने दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने उस आन्दोलन को विस्तार देने की योजना बनाई. 

म्यूनिख में उन्हें प्रोफ़ेसर ह्यूबर की फांसी के बाद उनके परिवार पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों की जानकारी मिली. अपने दोस्तों-परिचितों के साथ मिलकर उन्होंने उन ज़ुल्मों के विरुद्ध संघर्ष किया. सभी सावधानियां बरतने के बाद भी गेस्टापो पुलिस को इसका पता चल गया.  8 अक्टूबर 1943 को हैंस लेइपेल्ट को गिरफ्तार कर लिया गया और उसके दस दिन बाद ही गेस्टापो ने मैरी लुई शुल्त्ज़ जॉन को भी गिरफ्तार कर लिया. उन दोनों और उनके पांच अन्य मित्रों पर एक साथ मुक़दमा चला. नोबेल पुरष्कार विजेता प्रोफ़ेसर हीनरिख वेईलैंड उनके बचाव में गवाह के रूप में उपस्थित हुए. फिर भी हैंस लेइपेल्ट को फांसी की सज़ा हुई और जॉन को 12 साल की क़ैद. 

मई 1945 में मित्र देशों की सेना ने उन्हें जेल से मुक्त किया. मैरी लुई शुल्त्ज़ जॉन ने मेडिकल की पढाई की. नाजियों के ख़िलाफ़ कई मुकदमों में उन्होंने गवाही दी जिसकी बदौलत कई हत्यारे नाज़ी जल्लाद फांसी चढ़े.          

  1. फ्रान्ज़ फेलनर (1922-1942)

फ्रान्ज़ फेलनर अपने तीन भाई-बहनों के साथ जर्मनी में म्यूनिख के मज़दूर वर्ग बहुल इलाक़े गिएसिंग में अत्यंत ग़रीबी में पले-बढे. उन्होंने बेकरी कारीगर बनने की ट्रेनिंग ली और जीवन-यापन के लिए कई जगह मज़दूरी की. उनके पिता और पिता के कई दोस्त कम्युनिस्ट थे. फ्रान्ज़ फेलनर को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन वे हिटलर की आरती उतारने वाले और उसकी जय-जयकार करने वाले नाजियों से चिढ़ते थे. 

मार्च 1941 में उन्हें नेवी की आवश्यक सेवा योजना के तहत भर्ती कर लिया गया. ट्रेनिंग के बाद उन्हें फिलोतिला में 152 डिविज़न वाली फौज की कैंटीन में वेटर के काम में लगा दिया गया. फौजी मार्च करना, ऑफिसर के सामने झुककर सलूट करना, उनकी टेबल के पास जाकर इन्तेज़ार करना, जल्दी ही उनके लिए असह्य हो गया. उनका मन अपने घर जाने को करने लगा क्योंकि उन्हें बारूदी सुरंग हटाने के काम में भी लगा दिया गया था. 1 जुलाई 1941 को वे बिना अनुमति के ही उस फौजी कैंप से अपने घर के लिए निकल लिए. घर पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वे चकमा देकर उनके चंगुल से निकलने में क़ामयाब रहे. उन्होंने अपनी फौजी वर्दी गटर में फेंक दी और अपने एक दोस्त के घर में छुप गए. नाज़ी ख़ुफ़िया पुलिस ने उन्हें ढूंढ लिया और गिरफ्तार कर म्यूनिख की वेहमर जेल में डाल दिया. उन्होंने वहाँ से भी भागने की कोशिश की लेकिन पकड़ लिए गए और फिर उनकी टांगों में बेड़ियाँ डाल दी गईं. जब उन्हें अदालत ले जाया जा रहा था तब उन्होंने फिर भागने की नाकाम कोशिश की. 

फ्रान्ज़ फेलनर ने चूँकि दो बार जेल से भागने की कोशिश की थी इसलिए दिसम्बर 1941 में नाज़ी अदालत ने उन्हें दो बार मौत की सज़ा सुनाई. उन्हें 7 मार्च 1942 को गोली मार दी गई. 

जो लोग नाजियों की फौज से भागने के आरोपी थे उनका पुनर्वास जर्मन संसद बुँदेस्टाग द्वारा मई 2002 में ही हुआ!!

  1.  लुडविग लिंसर्ट (1907-1981)

‘धातु मज़दूर एसोसिएशन’, पर्यावरण योद्धाओं की संस्था ‘प्रकृति के मित्र’ तथा SPD पार्टी का सदस्य होने के साथ, लुडविग लिंसर्ट ने 1930 में कम्युनिस्टों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘इंटरनेशनल सोशलिस्ट कैम्प्फौंड (ISK)’ का सदस्य बनने का फैसला किया. ISK वामपंथी पार्टी ने एक स्वतन्त्र संस्था बनाने का फैसला किया था जो उन लोगों को पार्टी के नज़दीक लाने का प्रयास करेगी जो जीवन में ब्रह्मचर्य और शाकाहार की वकालत करते थे. हिटलर की नाज़ी पार्टी (National Socialist Party of German Workers) जिसे NSDAP नाम से जाना जाता था, की बढ़ती लोकप्रियता के मद्देनज़र म्यूनिख सम्मलेन में मज़दूरों की आपस में लड़ रही दोनों पार्टियों SPD और KPD ने एक होने का फैसला किया. मज़दूरों के दो और दल SAP और ISK भी ऐसे ही प्रयास कर रहे थे लेकिन उनका दायरा सिमटता जा रहा था. दुर्भाग्य से मज़दूरों की ये चारों पार्टियाँ आखिर तक एक नहीं हो पाई, उनमें बस कुछ आपसी ताल-मेल ही बन पाया. 

1933 में जब ISK को प्रतिबंधित कर दिया गया तब लुडविग लिंसर्ट और उनकी पत्नी मर्गोट, जो एक छोटा किराना दुकान चलाते थे और मज़दूर-पार्टियों में एकता चाहते थे, म्यूनिख से भागकर लाइम शहर पहुँच गए और उनका घर सभी पार्टियों के कार्यकर्ताओं और समान विचार रखने वालों के मिलने का एक गुप्त अड्डा बन गया. वहाँ पहुँचने के कुछ दिन बाद लुडविग लिंसर्ट ने एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता लुडविग कोच के साथ मिलकर अपने विचार एक पर्चे में लिखकर बांटने शुरू कर दिए. उन्होंने एक फांसी का फंदा बनाया और उस पर नाजियों के आतंक का प्रतीक स्वास्तिक का चिन्ह चिपका कर एक प्रमुख स्थान पर लटका दिया मानो वे नाजियों को फांसी देना चाहते हों. 

1938 में नाजियों के ख़ुफ़िया विभाग को लुडविग लिंसर्ट की सारी गतिविधियों का पता चल गया. उन्हें गिरफ्तार कर LANDSBERG जेल में डाल दिया जहाँ से अगस्त 1940 में उन्हें ज़बरदस्ती फौज में भर्ती कर लिया गया और 1943 में उन्हें पूर्वी मोर्चे, मतलब रूस वाले मोर्चे पर भेज दिया गया. वे रुसी लाल सेना द्वारा बंदी बनाए गए नाज़ी फौजियों के साथ 1944 से 1947 तक रूस में युद्ध बंदी रहे. उसके बाद वे म्यूनिख लौट कर राजनीतिक गतिविधियों में सक्रीय रहे. 

  1. एअर्न्स्त लेओर्चेर (1907-1991)

1 मई 1933 को म्यूनिख के उपनगरीय क्षेत्र के एक बगीचे में लगभग एक दर्ज़न लोग गोपनीय सभा के लिए इकट्ठे हुए. ये सभी मज़दूर वर्ग की विभिन्न ट्रेड यूनियनों से सम्बद्ध थे. मुख्य वक्ता ने मुखौटा पहना हुआ था. उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों की व्याख्या की और कहा कि इन कठिन हालात में भी हमें अपने संघर्ष को नहीं छोड़ना है. प्रमुख वक्ता, जो पहले से ही गेस्टापो की हिट लिस्ट में थे, हैट विक्रेता 26 वर्षीय एअर्न्स्त लेओर्चेर थे. 1921 में 14 वर्ष की उम्र में ही एअर्न्स्त लेओर्चेर ‘समाजवादी युवा मज़दूर’ नमक संस्था से जुड़ गए थे. वे महज 15 वर्ष के ही थे जब उनके पिता जो उनके राजनीतिक हीरो भी थे, का देहांत हो गया. म्यूनिख के लेहेल इलाक़े में पिताजी की जिस हैट की दुकान पर अब उन्हें बैठना था, को तोड़ दिया गया था क्योंकि उनके पिताजी ने दुकान के सामने एक बोर्ड लगाया हुआ था जिस पर लिखा था; ‘USPD पार्टी को वोट दीजिए. क्रांतिकारी पार्टी को वोट दीजिए’. 

1928 में एअर्न्स्त लेओर्चेर को फ़्रंकफ़र्ट में जाकर पढ़ने और सीखने का अवसर मिला. अपनी प्रेमिका गेर्त्रुद सैंडर जो यहूदी थीं और अपने मित्र और सहपाठी वोल्फगंग अबेन्द्रोथ के साथ वे कम्युनिस्ट संगठन ‘रेड स्टूडेंट’ से जुड़ गए. हिटलर की नाज़ी पार्टी की जीत के बाद उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया. एअर्न्स्त लेओर्चेर वापस म्यूनिख चले आए. अपने भाईयों के साथ उन्होंने अपनी प्रतिबंधित पार्टी KPD के नाज़ी-विरोधी पर्चे बांटने शुरू कर दिए. नाज़ी दमन के चलते उन्हें म्यूनिख छोड़ना पड़ा और वे फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड और नेदरलैंड भटकते रहे लेकिन म्यूनिख में हो रही राजनीतिक घटनाओं से संपर्क बनाए रखा. वे 1935 में गोपनीय तरीक़े से वापस म्यूनिख के रोहर इलाक़े में पहुँच गए. 1936 में गेस्टापो ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. पहले उन्हें एबेंसी जेल में भेजा लेकिन बाद में उन्हें मौथ्हौसेन कंसंट्रेशन कैंप में डाल दिया गया जहाँ से वे 1945 में नाजियों की पराजय के बाद ही छूट पाए. उसके बाद भी उन्होंने ऐल्प्स पर्वतमाला की तराई क्षेत्र में एक पत्रकार और कॉफ़ी शॉप के अपने व्यवसाय के साथ फासीवाद के विरुद्ध जागरूकता अभियान ज़ारी रखा.