हुंडई मोबिस (धारूहेड़ा, हरियाणा) मजदूरों की कार्यबहाली के लिए संघर्ष जारी!
April 4, 2022कंपनी के सभी यानी 105 मजदूर 28 फरवरी 2022 से गैरकानूनी छंटनी के खिलाफ आंदोलनरत हैं और कंपनी गेट के सामने धरना दे रहे हैं।
हुंडई मोबिस इंडिया लिमिटेड, हरियाणा के रेवाड़ी जिला स्थित धारूहेड़ा में एक ऑटो पार्ट्स वेयरहाउस है। यह हुडा औद्योगिक क्षेत्र में प्लाट न. 31 पर स्थित है जहां हुंडई और कीया (KIA) कंपनी की गाड़ियों के स्पेयर पार्ट्स के इन्वेंटरी, स्टोरेज, और डिस्पैच का कार्य होता है। वेयरहाउस/कंपनी 2010 से धारूहेड़ा में है जो कि गुड़गांव से 40 किमी की दूरी पर है। इसके पहले यह रामपुरा में थी जो कि मानेसर के निकट है, और उससे पहले दिल्ली में। वेयरहाउस के मजदूरों को हरियाणा के न्यूनतम वेतन रेट के हिसाब से पीएफ, इएसआई सहित बेसिक पे मिलता है, लेकिन न्यूनतम वेतन काफी कम होने के कारण मजदूर महीने में 100 घंटों से भी अधिक ओवरटाइम करने के लिए मजबूर हैं, यानी प्रतिदिन 12-13 घंटे का काम। सभी मजदूर पुरुष हैं।
28 फरवरी 2022 को कंपनी में कार्यरत सभी मजदूरों, जिनकी कुल संख्या 105 थी, की अचानक बिना कोई पूर्व सूचना के गेटबंदी कर दी गई। गौरतलब है कि इन सारे मजदूरों ने न्यूनतम 6 से लेकर अधिकतम 22 सालों तक इसी कंपनी में काम किया हुआ था लेकिन यह सभी ठेका मजदूर थे, यानी कंपनी में एक भी परमानेंट/स्थाई मजदूर नहीं था। 26 फरवरी (शनिवार) तक मजदूरों ने सामान्य रूप से काम किया। रविवार की छुट्टी के बाद जब वे 28 फरवरी (सोमवार) को कंपनी गेट पर पहुंचे तो उन्हें अंदर घुसने से मना कर दिया गया। गेट पर ही नोटिस चिपका मिला जिसमें सूचना थी कि कंपनी ने ठेकेदार (SRS लॉजिकेयर) के साथ अपना ठेका समाप्त कर दिया है और किसी भी मजदूर को अब काम पर नहीं आना है।
नोटिस देख आक्रोशित मजदूरों ने गेट पर ही अपने बीवी-बच्चों-परिवार सहित प्रदर्शन शुरू कर दिया और वह कंपनी गेट पर ही बैठ गए। हालांकि पुलिस ने बेरहमी से उन्हें वहां से हटा दिया जिसमें महिलाओं के साथ भी बदसलूकी की गई। हालांकि मजदूरों ने अपनी एकजुटता के दम पर पुलिस दबाव के बावजूद कंपनी गेट के सामने (100 मीटर के अंदर ही) अपना धरना शुरू कर दिया जो अब तक जारी है। जल्द ही 50 से अधिक लाल झंडे और 5 बैनर भी धरनास्थल के इर्द-गिर्द लगा दिए गए। इसके साथ ही निर्णय के तहत मजदूर प्रतिदिन संपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र व नेशनल हाईवे पर जोशपूर्ण जुलूस प्रदर्शन कर रहे हैं, एवं धरनास्थल पर नियमित रूप से नारेबाजी कर रहे हैं। जुलूस का रूट लगभग 6-7 किमी लंबा रहता है और तमाम फैक्ट्रियों से होते हुए गुजरता है।
इसके साथ ही असिस्टेंट लेबर कमिश्नर, रेवाड़ी (ALC) के समक्ष मजदूरों, प्रबंधन व ठेकेदार की अनिवार्य त्रिपक्षीय समझौता वार्ता भी चल रही है जिसकी 5-6 सुनवाइयां हो चुकी हैं हालांकि वहां भी मजदूरों को निराशा ही हाथ लग रही है। प्रक्रिया को लंबा खींचने और अंततः लेबर कोर्ट ले जाकर सालों साल केस चलाने की मंशा रखने वाले प्रबंधन ने 5 तारीखों तक जरूरी कागजात (संविदा अग्रीमेंट, सर्विस रिकॉर्ड आदि) तक पेश नहीं किए थे और ALC की ओर से इसके खिलाफ नई तारीखें देने के अलावा कुछ भी ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। अंततः प्रबंधन ने जो सीमित दस्तावेज पेश किए वह भी फर्जी निकले हैं।
छंटनी की पृष्ठभूमि और घटनाक्रम
कुछ महीने पहले ही प्रबंधन की ओर से एक अधिकारी ने इनमें से एक मजदूर को थप्पड़ मार दिया था जिसका मजदूरों द्वारा मुखर विरोध किया गया और पुलिस में भी शिकायत की गई, हालांकि पुलिस ने दोनों पक्षों में समझौता करवा दिया था। इसके बाद से ही प्रबंधन की साजिश की शुरुआत हुई जिसके तहत प्रबंधन ने 11 अगुआ मजदूरों के खिलाफ कंपनी के कार्य में बाधा डालने का आरोप लगाते हुए सितंबर 2021 में रेवाड़ी सिविल कोर्ट में केस कर दिया। मजदूर इसके प्रतिपक्ष में स्थाई रोजगार, वेतन बढ़ोतरी, यूनियन गठन आदि मांगों के साथ एक डिमांड नोटिस फाइल कर चुके हैं। मामला अभी भी लंबित है जिसके दौरान ही सभी मजदूरों को फरवरी 2022 को अचानक काम से निकाल दिया गया।
मजदूरों को निकालने की तैयारी कंपनी ने पहले ही कर ली थी जिसके तहत आखिरी महीने में कंपनी ने करीब 200 नए मजदूरों की भर्ती लेकर 2 शिफ्टों में काम कराना शुरू किया। यह 105 मजदूर पहले की तरह डे शिफ्ट में काम करते और नए मजदूर नई खुली नाईट शिफ्ट में। फरवरी के अंत में पुराने सभी मजदूरों को निकाल कर नए मजदूरों को उनकी जगह कर दिया गया और नाईट शिफ्ट समाप्त कर दी गई। गौरतलब है कि नए मजदूरों को कंपनी ने 3-4 महीने के फिक्स्ड-टर्म कॉन्ट्रैक्ट (FTE) पर रखा है, जो कि गैर-कानूनी है (हालांकि नई श्रम संहिताओं के लागू होते ही इसे अनुमति मिल जाएगी)। धीरे-धीरे उन मजदूरों को भी निकाला जा रहा है और अब करीब 140 नए मजदूर ही कार्यरत हैं।
बर्खास्त मजदूरों ने अपने कार्यकाल में कोई यूनियन नहीं बनाई। हालांकि प्रबंधन की मजदूर-विरोधी कार्रवाइयों, खास कर मनमाने ढंग से मजदूरों को बैठाने (दंड के तौर पर अवैतनिक अवकाश), के खिलाफ सभी मजदूर 2016 से ही लगातार एकजुट कार्रवाइयों (यहां तक कि हड़ताल) को अंजाम देते रहे जिसके कारण 2016 से एक भी मजदूर को प्रबंधन अवैध रूप से बैठा नहीं पाया था। किसी के भी परिवार में कोई स्वास्थ्य संबंधित या अन्य आपातकालीन स्थिति होने पर मजदूरों ने आपसी सहयोग से हजारों रुपये अनेकों बार जुटाए हैं। मजदूरों के बीच मजबूत आपसी भाईचारा कायम है। प्रबंधन द्वारा मजदूरों को निकाले जाने का एक प्रमुख कारण इनकी मजबूत आपसी एकता ही थी।
ठेका प्रथा का ‘बखूबी’ इस्तेमाल
पिछले 22 सालों में इन निकाले गए मजदूरों के कार्यकाल में 4 ठेकेदार कंपनी में आए और गए लेकिन इससे मजदूरों के कार्य में कोई असर नहीं पड़ा। जैसा कि सार्वभौम है, ठेकेदार को केवल मजदूरों को स्थाई न करने के लिए रखा जाता रहा है, जिसे कानूनी भाषा में शैम कॉन्ट्रैक्ट (फर्जी संविदा) कहते हैं और जो गैर-कानूनी (लेकिन सार्वभौम भी) है।
शुरू से ही पूरा ‘कंट्रोल और सुपरविजन’ कंपनी प्रबंधन का रहा है, और यहां तक कि ठेकेदार को मजदूरों की सूची कंपनी ही दिया करती रही है। लेकिन जैसा हर जगह होता रहा है, सालों से स्थाई काम कर रहे मजदूरों को निकालने के लिए ठेका प्रथा का इस्तेमाल किया गया। अब कंपनी यह ढोंग कर रही है कि वह इन मजदूरों को जानती तक नहीं, केवल ठेकेदार को जानती है और इन मजदूरों को सारा लेना-देना SRS ठेकेदार से ही था और है।
संघर्षरत मजदूरों की अवस्थिति
हुंडई मोबिस के मजदूरों के लिए एक संगठित और व्यापक संघर्ष का यह पहला अनुभव है। इसके पहले मजदूरों ने जो लड़ाइयां लड़ी हैं वह सीमित दायरे में बिना संगठनबद्ध हुए लड़ी गई हैं। इस संघर्ष की शुरुआत में ही मजदूरों ने ‘हुंडई मोबिस मजदूर संघर्ष समिति’ के निर्माण कर लिया है। साथ ही कुछ दिनों बाद अपनी एक 9-सदस्यीय कार्यकारिणी का भी गठन कर लिया है जिसमें 4 पदाधिकारी हैं। कार्यकारिणी सदस्य आगे के रास्ते तलाशने में सक्रिय हैं और उनपर मजदूरों का एक आम भरोसा कायम रहता है।
इस रूप के संघर्ष का कोई तजुर्बा न होने और धारूहेड़ा व पूरे इंडस्ट्रियल बेल्ट में मजदूर आंदोलन के लगातार कमजोर होने व बिखराव के कारण कार्यकारिणी का ध्यान फिलहाल जमीनी संघर्ष के रास्ते तलाशने के बजाए व्यवस्थागत व अवसरवादी रास्ते तलाशने पर है। लेबर विभाग की प्रक्रिया में लगातार निराशा मिलने के बाद भी उससे ही एक हल निकलने की उम्मीद बनी हुई है। इसमें मजदूरों ने जिसे वकील के रूप में रखा है, उस वकील के घोर समझौतापरस्त होने और प्रबंधन के पक्ष तक में खड़े हो जाने की रिपोर्ट भी सामने आई हैं, हालांकि मजदूरों का विश्वास फिलहाल अपने वकील पर भी बना हुआ है।
इसके अलावा मजदूरों में यह आस लगातार बनी रहती है कि कोई बड़ा नेता/पार्टी आकार उनकी समस्या का निवारण कर दे। इसी आस में मजदूर कई दिन तक भाजपा के धारूहेड़ा नगरपालिका चेयरमैन प्रत्याशी के पीछे लगे रहे जब तक उसने खुद ही हाथ खड़े नहीं कर दिए। उसके पहले पूर्व विधायक अजय कप्तान (कांग्रेस) के धरनास्थल पर आने से मजदूरों की उम्मीद जगी थी लेकिन उसके बाद नेताजी की तरफ से कोई रिस्पॉन्स नहीं आया। हाल ही में मजदूरों को आरएसएस के हिंदू जागरण मंच से समर्थन का आश्वासन मिला जिसके बदले में मजदूर भगत सिंह शहादत दिवस यानी 23 मार्च के दिन धारूहेड़ा शहर में उनकी तिरंगा यात्रा (बाइक रैली) में भी शामिल हो लिए।
जमीनी संघर्ष के रूप में मजदूरों का धरना प्रतिदिन सुबह से शाम यानी कंपनी में छुट्टी होने तक जारी रहता है। रविवार के दिन भी मजदूर धरना जारी रखते हैं। यहां तक कि होली में भी मजदूर बिना होली खेले ज्यादातर संख्या में धरनास्थल पर उपस्थित थे। लेबर विभाग से मिल रही निराशा के कारण मजदूर संघर्ष को धीरे धीरे और व्यापक बनाने की तरफ बढ़े हैं। औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिदिन जुलूस इसका ही नतीजा है। मजदूरों ने कंपनी गेट के ठीक सामने जाकर दिन में 4 बार संगठित नारेबाजी की भी योजना बना ली है।
हालांकि मजदूर संघर्ष को अब तक पुलिस की सहमति व अनुमति के अनुसार ही चलाते आए हैं। जैसे प्रतिदिन धरना शुरू व अंत होने पर धरनास्थल की फोटो पुलिस को भेजना, रैली की शुरुआत की फोटो पुलिस को भेजना, पुलिस के रोकटोक पर रैली का निर्धारित रूट बदल देना, माइक का इस्तेमाल नहीं करना इसके उदाहरण हैं।
लगभग सभी मजदूरों का यह मानना है कि उनकी यह दशा धारूहेड़ा प्लांट प्रबंधन के कारण है, और उच्च (कोरियन) प्रबंधन मजदूरों के पक्ष में हैं जिन्हें लोकल प्रबंधन ने गुमराह किया हुआ है। मजदूरों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे नारे सबसे अधिक लोकल प्रबंधन व उसके कर्मचारियों के खिलाफ केंद्रित रहते हैं। सरकार, प्रशासन, उच्च प्रबंधन व अन्य कंपनियों के खिलाफ नारे नहीं लगाने पर आम सहमति बनी हुई है। हालांकि नारों में ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘ठेका प्रथा बंद करो!’, ‘धारूहेड़ा/दुनिया के मजदूरों एक हों!’, ‘मजदूर-मजदूर भाई भाई, ले कर रहेंगे पाई पाई’, ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ जैसे नारे भी शामिल हो चुके हैं।
धारूहेड़ा औद्योगिक क्षेत्र और मजदूर आंदोलन
धारूहेड़ा औद्योगिक बेल्ट ऑटोमोबाइल उद्योग के लिए प्रमुख है। यहां ऑटोमोबाइल व ऑटो पार्ट्स उत्पादन और स्पेयर पार्ट्स के स्टोरेज/डिस्पैच के लिए अनेक प्लांट व वेयरहाउस हैं व और भी बन रहे हैं। मजदूरों के अनुसार यहां सैकड़ों प्लांट हैं लेकिन यूनियन केवल करीब 20 कंपनियों में ही है। मुख्यतः यूनियनें एटक तथा एचएमएस से संबद्ध हैं।
इन यूनियनों में से अधिकतर से हुंडई मोबिस संघर्ष समिति के नेतृत्व की बातचीत हुई है और सबने समर्थन व्यक्त किया है, हालांकि जमीन पर यह समर्थन अब तक नहीं दिख पाया है। कुछ ही दूरी पर मालपुरा में ऑटोफिट और रिको कंपनियों के मजदूर भी महीनों से समान मुद्दों पर ही फैक्ट्री गेट के सामने आंदोलन कर रहे हैं, मानेसर में जेएनएस के मजदूर भी फैक्ट्री गेट के बाहर दिन-रात धरना दे रहे हैं। हालांकि अब तक इन संघर्षों में कोई तालमेल नहीं बन पाया है।
ठेका मजदूरों के साथ अब स्थाई मजदूरों की भी छंटनी आम हो गई है जिसके कारण ऐसे मजदूर संघर्ष फूट पड़ते हैं। लेकिन आंदोलन का नेतृत्व केंद्रीय ट्रेड यूनियनों (CTU) की समझौतापरस्त व अवसरवादी ताकतों के हाथ में होने के कारण कोई भी संघर्ष आगे नहीं बढ़ पाता या बढ़ने नहीं दिया जाता है, बल्कि संघर्ष को, मजदूरों के हित से परे, समझौते की तरफ मोड़ने के प्रयास जारी रहते हैं। CTU नेतृत्व द्वारा संघर्षरत मजदूरों को यही सलाह मिलती है कि धरना शांतिपूर्ण ढंग से जारी रखो, संख्या बढ़ा सकते हो तो बढ़ाओ और कानूनी प्रक्रिया पर ध्यान दो। इसके अलावा प्रतिदिन के संघर्षों में तो CTUs नदारद ही रहते हैं। उनकी भूमिका महज यूनियन के एफिलिएशन के पहले तक सीमित रहती है। यहां तक कि मजदूरों द्वारा बिना समझौता किए चलाए गए आरपार के संघर्षों को CTU नेतृत्व नकारात्मक दृष्टि से देखता है और यह ‘चिंता’ व्यक्त करता है कि समझौता नहीं होने से कंपनियां बंद हो जाएंगी और मजदूरों का रोजगार समाप्त हो जाएगा। आरपार की लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारी यूनियनों व मजदूरों को इनके द्वारा मजदूर विरोधी बताया जाता है। वहीं लेबर विभाग या सीधे द्विपक्षीय रास्ते से समझौता, जो लगभग हर बार ठेका मजदूरों के मामले में कुछ हिसाब के रूप में होता है न कि कार्यबहाली के रूप में, से मजदूरों को जो राशि मिलती है उसका कट समझौतापरस्त यूनियन व वकील दोनों ही के पास जाता है।
वहीं क्रांतिकारी ताकतें मजदूरों के हित को सामने रखते हुए जुझारू व आरपार का संघर्ष तो चलाती हैं लेकिन इन संघर्षों का सकारात्मक परिणाम लगभग न के बराबर है और अंततः यह मामले कोर्ट केस में तब्दील होकर सालों साल चलते रहते हैं और चल रहे हैं। हालांकि ज्यादातर मामलों में क्रांतिकारी ताकतों के नेतृत्व में ये संघर्ष तब आते हैं जब संघर्षरत मजदूरों के पास हर प्रत्यक्ष विकल्प आजमाने के बाद निराशा हाथ लगी हो।
मजदूर आंदोलन की इस अवस्थिति और प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप मजदूरों में भी संघर्ष को व्यापक रूप देने और चुनौतियों का सामना करने की प्रवृत्ति और साहस कम होती जा रही है। बिना किसी माकूल संघर्षशील विकल्प के, महंगाई और गरीबी से जूझते बेरोजगार मजदूर जल्द से जल्द अपनी नौकरी वापस पाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध विकल्पों, जिसमें ज्यादातर शासक वर्ग की ताकतें सामने हैं, को चुनने के लिए मजबूर हैं। मजदूर आंदोलन में लगातार बिखराव और हावी होती जा रही समझौतापरस्त व अवसरवादी नीतियों का मजदूरों पर पड़ रहे असर का एक उदाहरण हमें हुंडई मोबिस के ही मजदूरों से मिलता है, जो कि हर वर्ष मजदूर दिवस (1 मई) पर मिलने वाली छुट्टी का इस्तेमाल धारूहेड़ा के एक मोहन बाबा के पास जुलूस के रूप में जाने और सामूहिक आर्थिक सहयोग से उनके नाम पर भंडारा लगाने में किया करते हैं। ऐसे ही भिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में विभिन्न बाबा स्थापित कर दिए गए हैं।
चुनौतियां और आगे का रास्ता
हुंडई मोबिस मजदूर संघर्ष एवं इस औद्योगिक बेल्ट के अन्य संघर्षों के अनुभव से यह पुनः स्थापित होता है कि औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर आंदोलन आज एक विकल्पहीन परिस्थिति में जाकर फंस चुका है। मजदूर अगर आंदोलन करने की तरफ बढ़ें तो उनके सामने एक हद तक ही सही लेकिन अधिक प्रत्यक्ष रूप से केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का समझौतापरस्त व अवसरवादी नेतृत्व रहता है, जिसकी कार्रवाई संघर्ष को पूंजीपक्षीय समझौते की ओर ही ले जाने की होती है। वहीं मजदूर आंदोलन में हावी मौकापरस्ती व हताशा और स्वतःस्फूर्तता व साहस की कमी के सन्दर्भ में, स्वतंत्र मजदूर संघर्षों में सफलता नहीं मिल पाने के कारण निराश मजदूर शासक-शोषक वर्ग की ताकतों की ओर झुकने और अक्सर उनके प्यादे बन जाने अथवा खुद ही समझौते की तरफ बढ़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
वहीं दूसरी तरफ मजदूरों के वर्ग हित को प्राथमिकता में रखने वाले क्रांतिकारी ताकतों के नेतृत्व में जब ऐसे संघर्ष (खास कर जहां ठेका मजदूरों की बर्खास्तगी का मुद्दा हो) आते हैं तो ज्यादातर संघर्ष विजयी नहीं हो पाते हैं, और कोर्ट केस में तब्दील होकर सालों साल चलते रहते हैं। इसका मुख्य कारण है हमारी सीमित संख्या और उसपर भी हमारे बीच मौजूद भारी बिखराव की स्थिति जिसके होते हुए मजदूर वर्ग के एक निरंतर, जुझारू व निर्णायक क्रांतिकारी उभार को जगाने व उसका नेतृत्व करने में हम फिलहाल अक्षम हैं। इसे पलटने के लिए वास्तविक मजदूर-वर्गीय एवं क्रांतिकारी ताकतों को आज तात्कालिक रूप से आपसी दूरियां कम करने की कार्रवाइयों में लगना होगा। इसके लिए आपसी तालमेल को बढ़ाते हुए इलाकों से लेकर देशव्यापी स्तर पर मुद्दा-आधारित संयुक्त मोर्चों का गठन करना जरूरी है। 2016 से शुरू हुई मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान की प्रक्रिया भी इसी ओर एक सार्थक व प्रभावी कदम है। वहीं दूरगामी तौर पर सांगठनिक विलय व राजनीतिक एकता के लक्ष्य को सामने रखते हुए हमें आज अपने आपस के राजनीतिक मतभेदों को भी ठोस रूप से सामने रखने और उनपर चर्चा कर उन्हें हल करने की एक जनवादी प्रक्रिया में जाना होगा, ताकि हम मजदूर आंदोलन को एक सही केंद्रीय क्रांतिकारी दिशा दिखा सकें।
आई.एफ.टी.यू. (सर्वहारा) हुंडई मोबिस संघर्ष के पहले हफ्ते से ही उसमें सक्रिय रूप से शामिल रहा है और मजदूरों की एक तात्कालिक मांग (कार्यबहाली) पर चल रहे इस संघर्ष को एक जुझारू क्रांतिकारी दिशा देने और मजदूरों के बीच क्रांतिकारी प्रचार ले जाने का लगातार प्रयास कर रहा है। हालांकि मजदूर आंदोलन व संघर्ष के नेतृत्व की उपरोक्त सीमाओं, और उसके साथ-साथ हमारी सीमित सांगठनिक क्षमता, के कारण संघर्ष अब तक एक जुझारू रूप नहीं ले सका है। उपरोक्त परिस्थितियों के मद्देनजर हमनें धैर्यपूर्वक लेकिन स्पष्ट रूप से मजदूरों व उनके नेतृत्व के समक्ष चर्चा-विचार के लिए अपनी लाइन हर बार रखी है और नेतृत्व को उसे स्वीकारने व नकारने की उचित स्वतंत्रता भी दी है। हालांकि हर पड़ाव पर नेतृत्व द्वारा तय लाइन की समीक्षा करने और उसके तहत नीति/लाइन में उचित बदलाव करने की संस्कृति को भी हमनें बढ़ावा दिया है, ताकि क्रांतिकारी नेतृत्व न होने के बावजूद हर पड़ाव पर संघर्ष को तेज करने एवं मजदूरों के क्रांतिकारी चेतना प्राप्त करने की जमीन लगातार तैयार होती रहे। केवल धरना से बढ़कर औद्योगिक क्षेत्र में जुलूस, और फिर प्रतिदिन जुलूस निकालने और उसके बाद कंपनी गेट पर जाकर नारेबाजी करने तक के निर्णयों का कालक्रम इसका एक प्रमाण भी है। ठीक-ठीक कहें तो फिलहाल हम इन संघर्षरत मजदूरों को इस तरह का पहला संघर्ष लड़ रहे मजदूरों के रूप में ही देखते हैं, न कि अपने सांगठनिक कैडर की तरह (जैसा कुछ संगठन देखते हैं)।
हमारा आकलन है कि धारूहेड़ा अथवा इर्द-गिर्द के भी औद्योगिक क्षेत्रों में सरगर्मी पैदा किए अथवा प्रबंधन को इसके खौफ से अवगत कराए बिना संघर्ष की विजय असंभाव्य है। संघर्षरत मजदूरों के लिए भी तमाम मजदूर-वर्गीय संघर्षों की एकता कायम कर वर्गीय एकता, चाहे मजदूर ठेका मजदूर हो या स्थाई, की ओर बढ़ना एक फौरी कार्यभार है। तत्काल रूप से धारूहेड़ा के हुंडई मोबिस संघर्ष को ऑटोफिट एवं रिको के मजदूर संघर्षों, और मानेसर के जेएनएस संघर्ष, नीमराना के डाइडो मजदूर संघर्ष आदि से जोड़ा जाना चाहिए। गुड़गांव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल, नीमराना व इस बेल्ट के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों के मजदूरों की सक्रिय एकता कायम करने के लक्ष्य से जो सिर्फ मौखिक समर्थन व आश्वासन तक सीमित न रह कर जमीनी एकता व संघर्ष के रूप में प्रकट होती हो। [इस रिपोर्ट के तथ्य 24 मार्च 2022, यानी संघर्ष के 25वें दिन, तक के घटनाक्रम पर आधारित हैं।]
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[…] in Hindi in the March and April-May 2022 issues of Yatharth which can be read online by clicking here and here […]