स्‍त्री गुलामी का इतिहास और इससे मुक्ति का रास्‍ता

April 4, 2022 0 By Yatharth

8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर

निजी संपत्ति के उदय के साथ स्त्री गुलामी का इतिहास जुड़ा है। इसके उदय के साथ ही औरतें गुलाम होती गईं । एक ऐसा समय था जब न तो निजी संपत्ति थी, न स्त्रियां गुलाम थीं और न ही कोई राज्यसत्ता थी। निजी संपत्ति के उदय के पूर्व स्त्री-उत्पीड़न धरती पर मौजूद नहीं था। तब आदिम साम्यवाद का युग था। हम इसे मातृसत्ता का काल भी कह सकते हैं। इसके अवशेष आज भी इस दुनिया में कहीं न कहीं पाये जाते हैं। परंतु, मातृसत्ता कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे हम पितृसत्ता का वैपरीत्य कह सकते हों। न ही पितृसत्ता का जन्म मातृसत्ता के वैपरीत्य के रूप में हुआ। अर्थात इतिहास में जिसे मातृसत्ता के नाम से जाना जाता है, उसमें स्त्रियों का पुरूषों के ऊपर आधिपत्य जैसी कोई शोषणकारी चीज या उसका पर्याय नहीं थी। इतिहास में ऐसी कोई अवस्था कभी नहीं रही है, न भविष्य में इसके होने की कोई संभावना ही है। हम जिसे मातृसत्ता कह रहे हैं, उससे सिर्फ यह प्रकट होता है कि निजी संपत्ति के प्रादुर्भाव (जन्म) के पहले के तमाम युगों में स्त्रियों की भी समाज में उतनी ही हैसियत व इज्जत थी जितनी कि मर्दों की। लेकिन प्राचीन युग के एक लंबे काल में, ठीक-ठीक कहें तो बर्बर युग के अंत में, निजी संपत्ति का उदय हुआ और इसी के साथ स्त्रियों को पुरुषों की संपत्ति जैसा दर्जा दे दिया गया। वे मुख्यतः ”निजी संपत्ति की वारिस” पैदा करने और उनकी परवरिश करने वाली मशीन बन गई। इस तरह पितृसत्तात्मक समाज अस्तित्व में आया, जो आज के आधुनिक वर्ग-विभाजित समाज में भी मौजूद है।

मातृसत्ता के काल में स्त्रियां घर का काम नहीं करती थीं ऐसी कोई बात नहीं है। ऐसा मानना बिल्‍कुल ही गलत होगा। फर्क उसके सामाजिक और निजी चरित्र में निहित है। उन दिनों अनेक दंपति और उनकी संतानों से मिलकर बने पुराने सामुदायिक कुटुम्ब में स्त्रियां घर के प्रबंध का जो काम करती थीं वह काम भी उतना ही महत्वपूर्ण और सामाजिक दृष्टि से आवश्यक काम माना जाता था जितना कि पुरूषों द्वारा भोजन जुटाने के लिए किया जाने वाला काम। पितृसत्तात्मक परिवार की स्थापना के बाद से, और एकनिष्‍ठ (मूलत: स्त्रियों के लिए) वैयक्तिक परिवार (आधुनिक व्यक्तिगत परिवार) की स्थापना के बाद से तो इसमें और भी बड़ा परिवर्तन हो गया। घर के काम का सामाजिक रूप खत्म हो गया। अब घर का काम समाज की चिंता का विषय भी नहीं रह गया है। यह एक निजी काम बन गया है। पत्नियां सार्वजनिक उत्पादन के क्षेत्र से बहिष्कृत होकर घर की मुख्य दासी बन गईं । पूंजीवाद ने (खासकर बड़े पैमाने के अत्याधुनिक उद्योगों ने) स्त्रियों के लिए सार्वजनिक उत्पादन के दरवाजे फिर से जरूर खोले (आज उसमें भी काफी प्रतिगामी चीजें हो रही हैं जिन पर अभी बात नहीं करेंगे), लेकिन इसमें दिक्कत यह हुई कि ”जब नारी अपने परिवार की निजी सेवा के अपने कर्तव्य का पालन करती है, तब उसे सार्वजनिक उत्पादन के बाहर रहना पड़ता है और वह कुछ कमा नहीं सकती, और जब वह सार्वजनिक उत्पादन में भाग लेना और स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका कमाना चाहती है, तब वह अपने परिवार के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने की स्थिति में नहीं होती। और जो बात कारखाने में काम करने वाली स्त्री के लिए सत्य है, वह डाक्टरी, या वकालत करने वाली स्त्री के लिए भी पूरी तरह सत्य है।”

    इसीलिए यह सच है कि ”आधुनिक वैयक्तिक परिवार नारी की खुली या छिपी घरेलू दासता पर आधारित है।” पूंजीवादी समाज में एक सर्वहारा वर्ग, जिसमें पुरुष और स्त्री दोनों जीविका कमाते हैं, को छोड़कर दूसरे तमाम वर्गों में ज्यादा से ज्यादा पुरुष ही जीविका कमाता है और परिवार का पेट पालता है। इससे बिना किसी कानूनी विशेषाधिकार के ही परिवार के अंदर उसका आधिपत्य कायम हो जाता है। इस तरह के परिवारों में पति बुर्जुआ यानी पूंजीपति होता है, पत्नी सर्वहारा की स्थिति में होती है। जनवादी से जनवादी जनतंत्र में भी, जहां कानून में स्त्रियों को पुरूष के बराबर दर्जा प्राप्त है यही स्थिति मौजूद है। इस मायने में यही कहा जा सकता है कि जिस तरह जनवादी से जनवादी जनतंत्र ने मजदूर और पूंजीपति के विरोध को मिटाया नहीं है, बल्कि, वह उनके लड़कर फैसला कर लेने के वास्ते, यानी वर्ग-संघर्ष के वास्ते मैदान साफ कर दिया है, उसी प्रकार जनवादी जनतंत्र के तहत आधुनिक परिवार में पुरुष और नारी की कानून की नजर में मौजूद औपचारिक समानता से नारी पर पुरुष का आधिपत्य मिटा नहीं है। इसके विपरीत, इसने आज नारी पर पुरुष के आधिपत्य के विशिष्ट रूप को पूरी स्पष्टता के साथ प्रकट कर दिया है। दोनों के बीच वास्तविक सामाजिक समानता की क्या आवश्यकता है और यह कैसे स्थापित की जा सकती है, उसका ढंग क्या होगा, इन सबकी पूरी स्पष्टता आज के जनवादी जनतंत्र में ही हुई है। आधुनिक जनवादी जनतंत्र ने नारी-पुरुष के बीच जो कानूनी समानता कायम की है उसका महत्व बस यह है कि इसने बीच के सारे झाड़-फानूस साफ कर के अधिकाधिक रूप से यह स्पष्ट कर दिया है कि स्त्रियों की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि ”पूरी नारी जाति फिर से सार्वजनिक उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश करे, और इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज की आर्थिक इकाई होने का वैयक्तिक परिवार का गुण नष्ट कर दिया जाए।” इस तरह, इससे उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व का और निजी संपत्ति के खात्मे का प्रश्न स्वतः आ जुड़ता है।

    पूंजीवादी उत्पादन-व्यवस्था में पितृसत्ता किस तरह काम करती और जीवन-शक्ति पाती है, इसकी व्याख्या को लेकर मतभेद है। सवाल है, क्या एकमात्र प्राक-पूंजीवादी ढांचे में ही पितृसत्ता पायी जाती है? ऐसा मानने वालों का कहना है कि (विकसित) पूंजीवादी देशों में लिंगभेद पर आधारित नारी-उत्पीड़न महज ”पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों” के रूप में ही मौजूद रहता है, यानी एकमात्र अधिरचना में मौजूद रहता है। क्‍या यह मानना सही है कि पूंजीवाद में पितृसत्तात्‍मक शोषण का आधार एकमात्र अधिरचना में ही मौजूद रहता है? आइए, इस पर थोड़ा गहन सैद्धांतिक दृष्टि से विचार करें। 

इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा के अनुसार ”इतिहास में निर्णायक तत्व अंततोगत्वा तात्कालिक जीवन का उत्पादन और पुनरूत्पादन है। लेकिन यह स्वयं दो प्रकार का होता है। एक ओर तो जीवन निर्वाह के भोजन, परिधान और आवास – के साधनों तथा इन चीजों के लिए आवश्यक औजारों का उत्पादन होता है, तो दूसरी ओर स्वयं मनुष्यों का उत्पादन, यानी जाति प्रसारन होता है।” पूंजीवाद के अंतर्गत यह श्रमशक्ति के उत्पादन एवं पुनरूत्पादन का रूप ले लेता है। इस तरह समूचा माल-उत्पादन अंततोगत्वा परिवार पर निर्भर है, एक ऐसे माल के लिए, जिस पर पूरा पूंजीवादी समाज निर्भर है अर्थात श्रमशक्ति के लिए। श्रमशक्ति का मूल्य श्रमशक्ति के संपूर्णता में उत्पादन व पुनरूत्पादन में निहित आवश्यक सामाजिक श्रम की मात्रा से तय होता है। संक्षेप में, एक इकाई के रूप में पूरे परिवार का श्रम (जिसमें नयी श्रमशक्ति अर्थात नये सर्वहाराओं के साथ-साथ मौजूदा श्रमशक्ति के पुनरूत्पादन में लगा तमाम घरेलू श्रम निहित है, जिसकी पुरुषों को आराम करने, अपनी शक्ति को दोबारा प्राप्त करने और अपने कल के श्रम के लिए स्वयं को मजबूत बनाने के लिए दरकार होती है) किसी मजदूर की श्रमशक्ति का वास्तविक मूल्य तय करता है। पुरुषों की संस्थाबद्ध प्रभुता अर्थात पितृसत्ता, जिसकी जड़ें आज के पूंजीवाद के अंतर्गत आर्थिक इकाई के रूप में बने नाभिकीय परिवार की सामाजिक बनावट में हैं, यह आभासी स्थिति पैदा करके मजदूरी के असली प्रकृति और श्रमशक्ति के मूल्य के असली निर्धारक तत्वों पर इस तरह पर्दा डालती है कि महिलाओं का घरेलू (आवश्यक सामाजिक) श्रम श्रम-शक्ति का उत्पादन और पुनरूत्पादन के लिए नहीं, उनके पतियों के लिए की गई एक निजी सेवा है या प्रतीत होती है। यह पूंजी की बहुत बड़ी सेवा है, क्योंकि यह न सिर्फ महिलाओं के सस्ते श्रम को पूंजीपतियों के लिए सुनिश्चित करता है (क्योंकि पत्नियों की श्रमशक्ति के वास्तविक मूल्य को इस कारण विशेष रूप से अदा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती है), अपितु यह पत्नियों के गुस्से और आक्रोश से भी पूंजी की रक्षा करता है। पत्नियों के गुस्से और आक्रोश को यह पतियों के खिलाफ मोड़ देता है। इस तरह पति और पत्नी दोनों पूंजी द्वारा पूंजी के हित में मूर्ख बनाए जाते हैं। यह पतियों को अनजाने ही अपनी-अपनी पत्नियों को दबाने और शोषण करने में पूंजी का सहअपराधी बना देती है।

       यही कारण है कि घरेलू श्रम के लिंगीकरण को लेकर पूंजीवाद के अंदर अंतर्विरोधी प्रवृत्तियां शुरू से ही मौजूद रही हैं, जो आज के समय में और भी अंतर्विरोधी और दमनकारी हो गयी हैं। एक तरफ, पूंजीवाद सभी को – मर्दों, महिलाओं और बच्चों तक को – उत्पादन प्रक्रिया में खींचता है, वहीं दूसरी तरफ, वह उपर वर्णित पुनरोत्पादक श्रम (Productive Labour) को पहले की तरह ही महिलाओं का निजी कार्य बनाए रखना चाहता है। इससे पूंजीपति वर्ग को इस तरह के श्रम की कीमत को न्यूनतम स्तर पर बनाए रखने में या उसके एक बड़े हिस्से को अवैतनिक बनाए रखने में अपार मदद मिलती है। इस तरह हम देखते हैं कि यह घरेलू अवैतनिक श्रम की लूट ही वह असली वजह है, जो पूंजीवाद में पितृसत्ता को टिकाये रखने की मुख्य प्रेरणा है। इस तरह उपरोक्‍त वर्णन से हम एकनिष्ठ विवाह की प्रथा और पितृसत्तात्मक परिवार की नींव किस तरह पड़ी और आज इसकी अवस्था क्या है इसमे बारे में एक राय या समझ बना सकते हैं।      

       क्या पूंजीवाद के ध्वंस की ओर लक्षित इस युग की भावी मजदूर वर्गीय सामाजिक क्रांति इसके और इसकी अनुपूरक वेश्यावृत्ति के वर्तमान आर्थिक आधार को पूरी तरह मिटा देगी? हमारा जवाब है – हां, पूरी तरह मिटा देगी। ”पितृसत्तात्मक परिवार और एकनिष्ठ विवाह की प्रथा एक व्यक्ति के, और वह भी एक पुरुष के, हाथों में बहुत सारा धन एकत्रित हो जाने के कारण और इस इच्छा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थी कि वह यह धन किसी दूसरे की संतान के लिए नहीं, केवल अपनी संतान के लिए छोड़ जाए। इस उद्देश्य के लिए स्त्री की एकनिष्ठता आवश्यक थी, पुरुष की नहीं। इसलिए नारी की एकनिष्ठता से पुरुष के खुले या छिपे बहुपत्नीत्व में कोई बाधा नहीं पड़ती थी। लेकिन भावी सामाजिक क्रांति स्थाई दायाद्य धन-संपदा के अधिकतर भाग को अर्थात उत्पादन साधनों को सामाजिक संपत्ति बना देगी और ऐसा करके संपत्ति की विरासत के बारे में उपरोक्त सारी चिंता को अल्पतम कर देगी या खत्म कर देगी।” इसके परिणामस्वरूप उजरती

श्रम और सर्वहारा वर्ग भी मिट जाएगा और वेश्यावृत्ति का आज का आधार भी। उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व हो जाने से आधुनिक पूंजीवादी वैयक्तिक परिवार समाज की आर्थिक इकाई नहीं रह जाएगा। घर का निजी प्रबंध एक सामाजिक कार्य बन जाएगा। बच्चों का लालन-पालन और शिक्षा एक सार्वजनिक विषय हो जाएगा। समाज सभी बच्चों का समान रूप से पालन करेगा, चाहे वे विवाहित की संतान हों या अविवाहित की। हम साथ में एंगेल्‍स की यह बात भी जोड़ देना चाहते हैं कि इससे न सिर्फ पितृसत्ता और वेश्यावृत्ति का खात्मा हो जाएगा, अपितु, इस धरती पर पहली बार वास्तव में एकनिष्ठ परिवार का जन्म होगा और पुरुष भी प्रथम बार वास्तव में एकपत्निक हो जाएंगे। लेकिन, पूंजीवाद के भावी (आसन्न) विनाश के बाद बने वर्गविहीन समाज में यौन संबंधों का स्वरूप ठीक-ठीक क्या होगा, उसके बारे में आज ही सब कुछ बताना असंभव है। हम सिर्फ इतना कह सकते हैं, जैसा कि एंगेल्‍स ने कहा है, कि वह पूर्णत: प्रेम पर आधारित होगा, और प्रेम के अतिरिक्त किसी अन्य चीज पर आधारित नहीं होगा। जाहिर है, तब हमें यह भी समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि ऐसे समाज में स्वाभाविक तौर से बलात्कार और यौन हिंसा के लिए भी कोई जगह नहीं होगी, और न ही स्त्री को महज एक यौन-वस्तु के रूप में परोसने वाली प्रवृत्ति ही जीवित रहेगी।

       इस तरह यहां आकर हम पाते हैं कि नारी मुक्ति आंदोलन स्वाभाविक तौर पर मजदूर वर्ग के द्वारा वर्गविहीन समाज बनाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई के साथ एकाकार हो जाता है। हम देख सकते हैं कि महिला आंदोलन की स्वाभाविक गति किस तरह वर्ग विहीन समाज बनने की गति से संबद्ध, उसकी ओर प्रवृत्त तथा उसका ही एक अनन्‍य हिस्‍सा है। इन्हीं बातों का ख्याल रखते हुए, जब 1910 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन (जिसके अगले वर्ष से ही 8 मार्च महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई) हुआ, तो यह प्रस्ताव रखा गया था कि समाजवाद और साम्यवाद के लिए संघर्षरत मजदूर वर्ग के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में महिलाओं की भी इस संघर्ष में भागीदारी होनी चाहिए, जिसे सर्वसम्मति से पारित कर लिया गया था। (कामरेड अजय सिन्हा द्वारा लिखित लेख का एक अंश)