मई दिवस व मौजूदा संदर्भ में मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन
May 9, 2022संपादकीय अप्रैल-मई 2022
1 मई को मजदूर वर्ग का सबसे खास ऐतिहासिक दिन व त्यौहार अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पूरी दुनिया के कोने-कोने में मजदूरों द्वारा रैली, प्रदर्शन, सभा, मीटिंग के रूपों में मनाया गया। मई दिवस पूंजीवादी शोषण और गुलामी के खात्मे तक मजदूर वर्ग के संघर्ष को जारी रखने के संकल्प को दोहराने का दिन है। मई दिवस हमें याद दिलाता है कि ‘8 घंटे का कार्य-दिवस’ सहित मजदूरों के सभी अधिकार कोई तोहफे या खैरात में नहीं मिले थे, बल्कि बड़ी कुर्बानियों वाली लड़ाइयां लड़कर जीते गए थे। मई दिवस इसका भी परिचायक है कि जब मजदूर वर्ग एकजुट और सचेत हो जाता है, तो वह बड़ी से बड़ी लुटेरी शक्तियों को चकनाचूर कर सकता है। आज हम इसी मई दिवस के मौजूदा संदर्भ में मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन की चर्चा कर रहे हैं।
मई दिवस की क्रांतिकारी विरासत
19वीं सदी के मध्य में पूरी दुनिया में मजदूरों के काम की कोई समय-सीमा नहीं थी और उनसे 14-16 घंटे तक काम करवाया जाता था। इसके खिलाफ पूरी दुनिया, खास कर अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, में कई सालों से छोटे-बड़े आंदोलन हो रहे थे। लेकिन अमेरिका के मजदूरों ने पहली बार ‘8 घंटे काम’ की मांग पर अक्टूबर 1884 में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 1 मई 1886 से 8 घंटे काम को लागू करवाने का दिन चुना गया जिसकी परिणति शिकागो के सुविख्यात संघर्ष में हुई।
अमेरिका के इस आंदोलन से उठी चिंगारी जल्द ही पूरी दुनिया में फैल गई। 1889 में मजदूरों के अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘द्वितीय इंटरनेशनल’ के पेरिस में हुए स्थापना सम्मेलन में ही सभी देशों में एक ही दिन 8 घंटे के काम की मांग व वर्ग संघर्ष में मजदूर वर्ग की चेतना, अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता व वर्गीय शक्ति प्रदर्शन के लिए एक साथ विरोध करने का फैसला किया गया। अमरीकी मजदूर पहले ही 1 मई को ऐसे प्रदर्शन का फैसला कर चुके थे अतः अंतर्राष्ट्रीय विरोध के लिए यह तारीख ही चुनी गई। 1 मई 1890 को ‘8 घंटे काम’ की मांग पर कई देशों में जबरदस्त प्रदर्शन हुए तथा इस पहले ही मई दिवस में विभिन्न देशों में लाखों मजदूर काम छोड़कर विरोध रैलियों में शामिल हो गए। इसके बाद कई देशों के मजदूरों की मांग पर 1891 में इंटरनेशनल के ब्रसेल्स अधिवेशन में मई दिवस को हर साल मनाने का फैसला हुआ। ब्रसेल्स में ही 8 घंटे के कार्य दिवस की मांग व अंतर्राष्ट्रीय वर्गीय शक्ति प्रदर्शन के साथ ही मई दिवस के साथ अन्य के अतिरिक्त श्रमिक अधिकार कानूनों के पक्ष में व युद्ध के खिलाफ संघर्ष की दो अत्यंत महत्वपूर्ण बातों को जोड़ा गया। यहीं मई दिवस के लिए सेलिब्रेशन या उत्सव शब्द का प्रयोग किया गया जिससे इसका राजनीतिक व सर्वहारा सांस्कृतिक अर्थात दोहरा महत्व जाहिर हुआ। इस प्रकार मई दिवस सिर्फ पूंजीपति वर्ग की उजरती गुलामी के खिलाफ मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष का ही नहीं, शासक वर्ग की शोषक पतनशील संस्कृति के खिलाफ मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण-उत्पीड़न से रहित भावी बेहतर समाज में एक सुंदर जिंदगी के निर्माण की लड़ाई लड़ने वाले सर्वहारा वर्ग की आशाओं-उमंगों-ऊर्जा भरी उन्नत संस्कृति का भी प्रतीक बन गया। शासक वर्गों के धार्मिक, सामंती, बुर्जुआ प्रतीकों वाले उत्सवी कैलेंडर को चुनौती देते हुए मई दिवस लिंग, नस्ल, धर्म, जाति, आदि के तमाम भेदभाव से परे दुनिया के मजदूर वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता का विश्व का सबसे बड़ा सेकुलर उत्सव बन गया।
तब से संघर्ष का यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा, 8 घंटे काम के साथ तमाम कानूनी हक मजदूरों ने हासिल किए। इन संघर्षों से मजदूरों में जो वर्ग चेतना पैदा हुई, उससे मजदूर वर्ग की विचारधारा और परिपक्व हुई तथा दुनिया भर में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टियां बनीं। सन् 1917 में रूस के मजदूरों ने अपनी बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में अक्तूबर क्रांति कर पूंजीवादी सत्ता को पलट कर मजदूरों का राज तक स्थापित किया, और धीरे-धीरे दुनिया के एक चौथाई हिस्से पर मजदूर वर्ग की सत्ताएं काबिज हुईं। तब से लेकर आज तक 1 मई दुनिया भर के मजदूरों के बीच एकता और पूंजीपति वर्ग के खिलाफ मुक्तिकामी संघर्ष का प्रतीक दिवस बना हुआ है।
मजदूर वर्ग पर आज लगातार बढ़ते हमले
136 साल के उतार-चढ़ाव भरी एक लम्बी यात्रा से गुजरते हुए मई दिवस आज एक बेहद मुश्किल समय में उपस्थित है। बाद के वर्षों में जैसे-जैसे मजदूर आंदोलन पीछे हटता व बिखराव की ओर बढ़ता चला गया, वैसे-वैसे ही पूंजीपति वर्ग अपने हमले बढ़ाता रहा। मई दिवस की परंपरा 8 घंटे काम की मांग से शुरू हुई थी, लेकिन आज कम वेतन पर काम के घंटे 12 से 14 होना भी आम बात हो गई है। एक तरफ बेरोजगारी नए रिकॉर्ड तोड़ रही है, तो दूसरी तरफ हर सेक्टर में ठेका प्रथा लागू है। नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है। फिक्स-टर्म रोजगार (यानी एग्रीमेंट के तहत कुछ घंटों तक के समय के लिए काम पर रख कर निकाल देना) तथा हायर-फायर नीति लागू की जा रही है। छंटनी-बंदी का नया दौर गति पकड़ चुका है जिसमें परमानेंट मजदूर भी सुरक्षित नहीं रहे। यही नहीं, मोदी सरकार ने महामारी व लॉकडाउन के बीच “आपदा को अवसर” में बदलते हुए 44 श्रम कानूनों को ध्वस्त कर 4 नए श्रम कोड लाए जो पूरी तरह मजदूर-विरोधी और मालिक के पक्ष में हैं। इनके लागू होते ही हायर-फायर व्यवस्था लागू होगी, ठेका प्रथा और मजबूत बनेगी, मालिक मनमानी छंटनी-गेटबंदी कर पाएगा, यूनियन बनाने व एकजुट संघर्ष का अधिकार खत्म हो जाएगा, 8 घंटे और न्यूनतम वेतन के कानून भी समाप्त हो जाएंगे, आदि।
एक तरफ जहां महंगाई आसमान छू रही है, वहां वेतन में नाम-मात्र बढ़ोतरी होती है। सरकारी संपत्तियों व कंपनियों (जैसे रेल, विमान, एयरपोर्ट, बैंक, LIC, BSNL, कोयला, बिजली, तेल-गैस, स्टील आदि) को सरकार अपने आकाओं (पूंजीपतियों) को औने-पौने दामों पर सौंप रही है। मोदी सरकार ने रक्षा उपकरण बनाने वाली ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों को भी 7 निगमों में बांट कर निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर ली है। इसके खिलाफ जब कर्मचारी हड़ताल पर गए तो सरकार ने उसपर ‘एस्मा’ यानी आवश्यक सेवा अनुरक्षण कानून लागू कर हड़ताल को गैर-कानूनी बना दिया। यह सब कैसे हुआ इसके लिए हमें मौजूदा वैश्विक परिस्थिति के संदर्भ को जानना होगा।
बदलती वैश्विक परिस्थिति की चुनौतियां
1945 में फासीवादी विरोधी महान युद्ध पश्चात उपनिवेशवाद की समाप्ति ने सही मानों में पूंजीवाद को विश्व व्यवस्था बना दिया क्योंकि इन नव-स्वाधीन देशों में सत्ता इनके राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के हाथ में आई जिसने वहां पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को गहन व विस्तृत करने का काम आरंभ किया, जो 1970 का दशक आते आते अपनी मुमकिन मंजिल पर पहुंच गया। युद्ध पश्चात के पुनर्निर्माण तथा पूंजीवादी व्यवस्था के वैश्विक विस्तार ने लगभग तीन दशक के इस काल को पूंजीवाद का स्वर्ण युग बना दिया। वैश्विक वर्ग शक्ति संतुलन के इस बदलाव व अपनी आंतरिक कमजोरियों के चलते यके बाद दीगरे समाजवादी देशों में भी सत्ता संशोधनवादी गिरोह के हाथ में चली गई और समाजवादी खोल के भीतर पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के क्रमिक ‘विकास’ के बाद अंततः 1980 के दशक में पूरा समाजवादी खेमा पतित होकर नग्न पूंजीवादी लुटेरी व्यवस्था में शामिल हो गया। इसी दौर में रोजगार में विस्तार व मजदूरी के कुछ हद तक बढ़ने की संभावनाओं के दौर में अधिकांश ट्रेड यूनियन आंदोलन भी इन्हीं अर्थवादी संघर्षों तक सीमित हो गया।
किंतु पूंजीवाद का यह ‘स्वर्ण युग’ तीन दशक भी पूरा नहीं कर सका। 1873 के पहले आम संकट के बाद से विकसित पूंजीवादी देशों के बाहर परिधि के देशों में अधिकाधिक तीव्रता से पूंजी निर्यात अर्थात नृशंस लूट-खसोट के साथ पूंजीवादी संबंधों का विस्तार ही पूंजी के लिए संकट के चक्रव्यूह से निकलने का द्वार रहा था और इसके लिए ही साम्राज्यवाद ने दो-दो बार विश्व को युद्ध के संहार में धकेला था। किंतु दुनिया के चप्पे-चप्पे में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के विस्तृत व गहन हो जाने के बाद यह मुक्तिद्वार भी अत्यंत संकुचित होता गया है और 21वीं सदी में आकर पूंजीवादी आर्थिक संकट लगभग अंतहीन बन गया है। गंभीर आर्थिक संकट की इस भंवर में फंस पूंजीवाद ने नवउदारवाद की राह पर आगे बढना शुरू किया। अति संक्षेप में हम यहां इसके 3 विशिष्ट लक्षणों का जिक्र करेंगे –
1. हालांकि ऊपरी तौर पर नवउदारवाद राज्य को छोटा व उसके नियंत्रण को कम कर निजी पूंजी के खुले खेल की बात करता है पर वास्तव में राज्य और भी मजबूत व निरंकुश होकर निजी पूंजी खास तौर पर एकाधिकारी पूंजी का सीधा एजेंट बन उसके डीलर, सेल्समैन, एकाउंटैंट तथा बाउंसर की भूमिका में खडा हो जाता है। मिलीटरी इंडस्ट्रियल कांपलेक्स, विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट व सेंट्रल विस्टा जैसे रियल एस्टेट प्रोजेक्ट, आदि इसके ही लक्षण हैं। इनके जरिये राज्य एकाधिकारी पूंजी के सुपर मुनाफों को सुनिश्चित करने हेतु न सिर्फ उसके लिए मांग, बिक्री व वित्त का प्रबंधन करता है बल्कि राजसत्ता की पूरी शक्ति से इसकी वसूली भी कराता है। फिर भी दिवालिया होने का संकट खड़ा हो जाए तो निजी पूंजी को बेलआउट भी करता है।
2. एक ओर, वित्तीय पूंजीवाद के केंद्र कर्ज के विराट विस्तार से मांग सृजित करते हैं तो दूसरे देशों के पूंजीपति निर्यातोन्मुखी वृद्धि के नाम पर इस मांग को पूरा करने के लिए सस्ते मूल्य पर उत्पादन को बढावा देते हैं। लेकिन सस्ते मूल्य का पूंजीवाद में एक ही उपाय है – कम मजदूरी पर अधिक उत्पादन। जर्मनी, जापान से होते हुए चीन ने इस में कुशलता हासिल की है अर्थात तुलनात्मक रूप से पिछड़े इलाकों से लाये गए प्रवासी श्रमिकों को अर्ध-दासता में रखकर 12-14 लंबे घंटे कार्य दिवस व उत्पादकता स्तर की तुलना में अत्यंत नीची मजदूरी के बल पर उत्पादित सस्ते उत्पादों से बाजारों को पाट देना। संक्षेप में कहें तो इन देशों का पूंजीपति वर्ग अपने श्रमिकों से शोषण की अत्यधिक ऊंची दर पर उगाही गई सरप्लस वैल्यू का एक हिस्सा वित्तीय पूंजीवाद के केंद्रों के साथ बांटकर पूंजी को निवेश के लिए आमंत्रित करता है। भारत में मोदी सरकार के मेक इन इंडिया के पीछे भी यही विचार है। इस नीति के संचालन के लिए राज्य की दमनकारी ताकत के बल पर श्रमिकों के संगठन व अन्य अधिकारों को कुचलना जरूरी हो जाता है। 4 नवीन लेबर कोड जैसे हमले इसके परिचायक हैं।
3. दुनिया के साम्राज्यवादी पूंजीवादी गिरोहों के बीच प्राकृतिक संसाधनों, उत्पादक शक्तियों, बाजारों, यातायात/संचार माध्यमों व वित्तीय संचरण चैनलों पर आधिपत्य व लूट खसोट की बढती होड जो विश्व में नये-नये युद्धों का कारण है। ‘इतिहास की समाप्ति’ के दंभी ऐलान के तीन दशक में ही हालत यह है कि विश्व भर के पूंजीपति वर्ग के हर समूह को इस खेमेबंदी में पोजीशन लेना कारोबारी जरूरत व अस्तित्व की शर्त दोनों बन गया है। अंधराष्ट्रवाद, जंगखोरी, मजबूत नेतृत्व, शक्तिशाली राज्य, असहमति व विरोध पर पाबंदी, अधिकाधिक सैन्यीकृत राज्य, आदि इसके ही वैचारिक-राजनीतिक नतीजे हैं।
अंतहीन संकट के दौर में उपरोक्त तीनों लक्षण पूरे विश्व पूंजीवाद में बढते अधिनायकवादी-फासीवादी रूझान की बुनियादी वजह है। खुली होड के दौर के पूंजीवादी राज्य की तुलनात्मक स्वायत्तता खत्म होने से अभी स्थिति यह है कि फासीवाद को बुर्जुआ जनतांत्रिक राज्य के ढांचे पर चोट करने की कोई जरूरत नहीं पड रही है बल्कि संसद, कोर्ट, अफसरशाही सहित पूरा बुर्जुआ राज्य ही फासीवादी शक्तियों का सहायक बन गया है।
आज मई दिवस की चर्चा हम इसी ऐतिहासिक परिस्थिति में कर रहे हैं जिसका दूसरा पहलू यह भी है कि आज इतिहास में पहली बार विश्व भर के पैमाने पर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद व लगभग हर देश की आबादी का आधे से भी अधिक हो चुका सर्वहारा-अर्ध सर्वहारा वर्ग आमने-सामने हैं। साथ ही किसान, छोटे व्यापारी व निम्न मध्य वर्ग जैसे तमाम माध्यमिक वर्ग भी एकाधिकारी पूंजी की मार से बरबादी की कगार पर हैं। उनके जीवन की वस्तुगत स्थितियां उन्हें अब और अधिक पूंजीपति वर्ग का रिजर्व फोर्स नहीं बने रहने देंगी। इतिहास के भावी शासक वर्ग के तौर पर आज सर्वहारा वर्ग को पूंजीपति वर्ग के चंगुल से पूरे समाज के मुक्तिदाता के रूप में खुद को नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में सोचना, पेश करना और हर राजनीतिक घटनाक्रम में तदनुरूप कार्यक्रम के साथ दखलंदाजी करना जरूरी है। यह वास्तव में विश्व क्रांति की स्थिति है। यही विश्वव्यापी क्रांति सर्वहारा वर्ग व मेहनतकश जनता को ही नहीं, पूरी मानवता को सर्वनाशी पूंजीवादी शोषण के चंगुल से मुक्त करेगी। यही सर्वहारा वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है।
आज मई दिवस का महत्व
आज पूरी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था अपने ही कारणों से जिस गंभीर आर्थिक संकट में फंस गई है उससे मजदूरों के शोषण से पैदा होने वाले इसके मुनाफे का पहिया रुक गया है। इसी कारण से यह अब मजदूर वर्ग के खून-पसीने का आखिरी कतरा तक चूस लेने के लिए बेताब है, और इसलिए मजदूर अधिकारों पर हमले बढ़ते जा रहे है। यही नहीं, असली मुद्दों पर से ध्यान भटकाने तथा हमारी एकता तोड़ने के लिए आज पूंजीपतियों की सरकारें पूरे देश में सांप्रदायिक जहर फैला कर जगह-जगह पर दंगे करवा रही है। मीडिया को भी आग भड़काने के काम में लगा दिया गया है। आम सरकारों से बात नहीं बनी तो अब फासीवादी व घोर मजदूर विरोधी भाजपा सरकार को लाया गया है जो कि मेहनतकश जनता के हक और न्याय की आवाज उठाने वालों पर फर्जी मुकदमे थोप कर उन्हें गिरफ्तार कर ले रही है। जनांदोलनों पर लाठी-डंडा-बंदूक चलाना आम हो गया है। मुनाफाखोरी के चलते साम्राज्यवादी ताकतों के बीच युद्ध की स्थिति बन गई है, जिसका दंश अभी उक्रेन की आम जनता झेल रही है। फिर भी पूंजीवादी मुनाफे का पहिया बढ़ नहीं पा रहा। यह साबित कर रहा है कि पूंजी का साम्राज्य बहुत दिनों का मेहमान नहीं है। इसे उखाड़ फेंक कर मजदूरों का राज यानी बराबरी, भाईचारे पर टिका शोषणविहीन समाज, जिसे समाजवाद कहते हैं, स्थापित करने के लिए बस जरूरत है तो मजदूर वर्ग के एकजुट होकर इसे आखिरी धक्का मारने की। अपने इस ऐतिहासिक मिशन के संदर्भ में ही मजदूर वर्ग को मई दिवस के इस खास दिन को हर किस्म की रस्मअदायगी वाले रवैये से मुक्त कर अपने मुक्तिकामी आर्थिक राजनीतिक संघर्षों व मजदूर वर्ग की संस्कृति के उत्सव के प्रतीक के रूप में स्थापित करते हुए इसे फिर से अपनी अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता व वर्गीय शक्ति का ऐसा प्रदर्शन बनाना होगा जिसे देखकर दुनिया भर का पूंजीपति वर्ग अपने शोषण के राज्य की समाप्ति के भय से थरथर कांपने लगे।
मई दिवस का पैगाम, जारी रखना है संग्राम!
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की क्रांतिकारी विरासत और पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाएं!
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस अमर रहे!
दुनिया के मज़दूरों, एक हो! पूंजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!