पूंजीवाद का संकट इसके उन्मूलन से ही मिटेगा

May 9, 2022 0 By Yatharth

श्रीलंका

एम असीम

28 अप्रैल की पहली आम हडताल के बाद श्रीलंका के मजदूर वर्ग ने 6 मई को फिर से एक पूरे आर्थिक व रोजाना के जनजीवन को ठप करने वाली आम हडताल कर गहन आर्थिक संकट के मद्देनजर मौजूदा सरकार के हटाये जाने की मांग की है। छात्रों ने भी इसी दिन संसद के बाहर प्रदर्शन किया जिसके बाद संसद को 17 मई तक के लिए स्थगित कर दिया गया। छात्रों ने उस दिन फिर प्रदर्शन का ऐलान किया है। इसके बाद ही राजपक्षे सरकार ने ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ के नाम पर इमर्जेंसी लागू कर सुरक्षा बलोंको फौरी कार्रवाई के अधिकार दे दिए हैं। साथ ही जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) व अन्य वामपंथी दलों द्वारा बडे विरोध प्रदर्शनों की भी खबरें हैं। इससे पहले 28 अप्रैल की आम हडताल में 1000 से अधिक यूनियनों व दसियों लाख श्रमिकों ने हिस्सा लिया। यूं तो श्रीलंका में जारी मौजूदा आर्थिक संकट के खिलाफ जनता के विरोध प्रदर्शन कई हफ्तों से ही जारी है पर इसके पहले इसमें माध्यमिक वर्ग ही प्रमुख नजर आ रहे थे। श्रीलंकाई मजदूर वर्ग द्वारा 28 अप्रैल की आम हडताल के जरिए सीधा हस्तक्षेप पहला मौका था जब विरोध की वजह से श्रीलंकाई जन जीवन का लगभग हर क्षेत्र पूरी तरह ठप हो गया। चाय-रबर बागान मजदूर, औद्योगिक श्रमिक, बैंक, अस्पतालों, स्कूल-कॉलेज शिक्षकों व सरकारी कर्मचारियों के साथ ही मुक्त व्यापार क्षेत्रों – जहां मजदूरों को यूनियन बनाने का अधिकार नहीं है – के हजारों मजदूर भी इस हडताल में शामिल हो गए। बहुत से गरीब किसान व छोटे-मंझले दुकानदार भी अपना काम व दुकानें बंद कर मजदूर हडताल में शामिल हुए। 

गौरतलब है कि श्रीलंकाई मजदूरों की 1980 की आखिरी आम हडताल के वक्त जयवर्धने की सिंहली बहुसंख्यकवाद व नवउदारवादी आर्थिक नीति वाली अधिनायकवादी सरकार ने इमर्जेंसी के ऐलान के साथ ही फौज तैनात कर मजदूरों पर नृशंस दमन किया था। उस हडताल के बुरी तरह कुचल दिये जाने के बाद मजदूर आंदोलन बिखराव व कमजोरी का शिकार हो गया था। बहुत सारी यूनियनों पर भी चुनावी पार्टियों का नियंत्रण हो गया था। उसके बाद 42 साल तक श्रीलंकाई मजदूर वर्ग आम हडताल जैसी कार्रवाई की स्थिति में नहीं आ पाया था। अतः मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक संकट में मजदूर वर्ग का यह हस्तक्षेप निश्चित तौर पर आर्थिक संकट की गंभीरता व  मजदूर वर्ग संघर्षों के आगे बढ़ने दोनों का ही अहम लक्षण है।

हालांकि संकट की छाया तो बहुत पहले से ही मौजूद थी, पर पिछले 2 महीने से तो श्रीलंका अत्यंत गहन आर्थिक-राजनीतिक संकट में फंसा हुआ है जिससे वहां की आम जनता की जिंदगी भारी तकलीफों से घिर गई है और उसका गुस्सा लगभग हर रोज सरकार विरोधी विशाल प्रदर्शनों में व्यक्त हो रहा है। खुद राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के निवास की घेराबंदी लगातार जारी है और कई प्रदर्शनकारी उसकी दीवारें फांदकर उसके अंदर तक घुस चुके हैं। 31 मार्च की घेराबंदी के बाद तो इमर्जेंसी का ऐलान कर दिया गया। श्रीलंका की सत्ता को अपने परिवार और उसके दायरे में समेट लेने वाले अधिनायकवादी राजपक्षे परिवार पर जनता का गुस्सा फूट रहा है जिसके दबाव में उनके पक्ष के कई मंत्रियों-सांसदों ने भी उनका साथ छोड़ दिया है। आंदोलन के दबाव में पहले तो राष्ट्रपति राजपक्षे ने सभी राजनीतिक दलों को साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय सरकार (या कहें सभी शासक वर्गीय पार्टियों में सत्ता का बंटवारा) बनाने के लिए भी आमंत्रित किया था पर ताजा जानकारी के अनुसार राजपक्षे सरकार सत्ता छोडने को कतई राजी नहीं है। सत्ताधारी दल से निकला समूह भी अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर पूरे संकट की जिम्मेदारी सिर्फ राजपक्षे परिवार पर डाल सत्ता परिवर्तन की कोशिश में हैं। लेकिन राजपक्षे परिवार की नीतियां मूलतः पूंजीवादी उत्पादन संबंधों व नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दायरे में ही हैं जिनके साथ इन विपक्षियों व पूर्व राजपक्षे सहयोगियों की भी पूर्ण सहमति है। अतः जनता के बड़े हिस्से का गुस्सा इन सभी के खिलाफ भी है और विरोध प्रदर्शनों में लगने वाला एक नारा ‘सारे 225 नहीं’ भी है अर्थात संसद के सभी 225 सदस्य और उनके दल आम जनता के एक बड़े हिस्से को स्वीकार्य नहीं हैं।

किंतु इतना विशाल व ताकतवर विरोध आंदोलन भी अचानक ही उठ खड़ा नहीं हुआ है। पिछले साल से ही उठ खड़े हो रहे कई आंदोलन जनता के विक्षोभ को व्यक्त कर रहे थे – उत्तर में तमिल न्याय की मांग कर रहे थे, किसान खाद पाबंदी पर क्षुब्ध थे, सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षक और बागान मजदूर बेहतर वेतन मांग रहे थे, रोजमर्रा के जीवन में बढ़ती कठिनाइयों की वजह से शहरी, मध्यम वर्ग के लोग भी विभिन्न शहरों में सड़क पर उतरने के लिए मजबूर हो रहे थे। छोटे धरने, जुलूस, मोमबत्ती मार्च, आदि के जरिए यह बढ़ता गुस्सा अभिव्यक्त हो रहा था।  किंतु मार्च का महीना आते जब बुनियादी तौर पर जीवन चलाना नामुमकिन बनने लगा तो बुर्जुआ जनतंत्र के नागरिकों में सामान्य तौर पर चुनी हुई सरकार की जो नैतिक-वैचारिक स्वीकृति रहती है वह भी पूरी तरह चुक गई, यहां तक कि खुद उसके समर्थक भी विक्षुब्ध हो उससे विच्छिन्न हो गए। 

इस स्थिति में 31 मार्च को राष्ट्रपति के निवास पर हुई सीधी एवं स्वतः स्फूर्त जन कार्रवाई की बड़ी भारी अहमियत है। इसने एक झटके में ही श्रीलंका में 40 साल से बहुसंख्यकवाद एवं उग्र राष्ट्रवाद पर टिके उस निरंकुश-अधिनायकवादी शासन की जड़ों को पूरी तरह हिल दिया है जिसके सामने अब तक एक तरह से कोई चुनौती ही नहीं थी, जिसे अब तक भारी अटूट चट्टान की तरह मजबूत माना जा रहा था। नतीजा है कि एक और यह निरंकुश सत्ता जन दबाव में पीछे हट कुछ औपचारिक रियायतों की पेशकश करती नजर आ रही है तो वहीं इस जन कार्रवाई के बल पर प्रभावी रूप में हासिल जनवादी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए अब तक चुप निष्क्रिय नागरिकों के तमाम तबके-हिस्से एकदम से बेहद सक्रिय हो गए हैं, शहरों-गांवों की सड़कों, गलियों, चौराहों पर राजनीतिक बहसें हो रही हैं। जनता के विभिन्न हिस्से स्थापित सत्ता व्यवस्था व राजनीतिक दलों के प्रति नामंजूरी जाहिर करते हुए (‘सारे 225 नहीं’) इसमें बुनियादी परिवर्तनों की मांग उठा रहे हैं हालांकि ये मांगें अभी तक सचेत ठोस रूप प्राप्त नहीं कर पाईं हैं। मगर जनता का बडा हिस्सा परिवर्तन चाहता है, और इस चलते उम्मीदों के साथ ही आशंकाओं से भी भरा है। असल में इस संक्रमण काल में सभी वर्ग बदलती स्थितियों में अपने-अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए सचेत हो रहे हैं। कहें तो औपचारिक रूप से अभी पुराना ढांचा ढहा नहीं है, पर सभी वर्ग नया क्या बनेगा इसके लिए जोर आजमाइश के मैदान में हैं, कुछ बेहद सचेत ढंग से तो कुछ अभी तक चाहे भ्रमित ही सही।

इस विरोध आंदोलन का एक और गौरतलब पहलू है कि इसने श्रीलंकाई समाज में दशकों से कायम सांप्रदायिक-राष्ट्रीयतावादी सिंहली बहुसंख्यकवाद के वैचारिक वर्चस्व पर गहरी चोट की है। हालांकि 31 मार्च को राष्ट्रपति आवास पर हुई जनकार्रवाई के बाद सत्ता पक्ष की ओर से इसके पीछे संगठित आतंकवादी ताकतों की साजिश की बात उठाकर इसे हवा देने के कोशिश की थी, लेकिन इसे समर्थन हासिल नहीं हुआ और अभी तक आंदोलन के नारों से नजर आता है कि इसका आधार सांप्रदायिक-राष्ट्रीयतावादी बंटवारे के परे जनता के व्यापक हिस्सों में है। 

संकट का तात्कालिक घटनाक्रम 

श्रीलंकाई पूंजीपति शासक वर्ग की दशकों से जारी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की वजह से बढ़ते घरेलू व विदेशी कर्ज ने उसे दिवालिया कर दिया है। कुल कर्ज बढ़कर सालाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से भी अधिक, उसका 119% हो चुका है जिसमें से आधे से अधिक अर्थात 68% विदेशी कर्ज है। कोविड व कुछ अन्य वजहों से निर्यात, पर्यटन व विदेशों में काम करने वाले श्रमिकों द्वारा भेजी जाने वाली राशि सभी में गिरावट से विदेशी मुद्रा भंडार घटकर 2 अरब डॉलर ही रह गया।  यह कर्ज की किश्त व ब्याज चुकाना तो दूर सिर्फ एक महीने के आयात के लिए ही मुश्किल से पर्याप्त है। 12 अप्रैल को श्रीलंका ने आईएमएफ़ से बेल आउट न मिलने तक अपने 51 अरब डॉलर के विदेशी ऋण को चुकता करने में चूक अर्थात डिफ़ॉल्ट का ऐलान कर दिया और कहा कि कर्जदाता अपने ब्याज को मूल में बदल सकते हैं या श्रीलंकाई रुपये में भुगतान प्राप्त कर सकते हैं। इस बीच भारत व चीन दोनों ने लगभग 5 अरब डॉलर का कर्ज व कुछ अन्य मदद श्रीलंका को दी है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। 

अब श्रीलंका न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज मांग रहा है बल्कि रॉथशील्ड व लजार जैसे इनवेस्टमेंट बैंक के जरिए सार्वजनिक संपदा बिक्री या कर्ज से वित्त प्राप्त करने की कोशिश में भी है। पर आईएमएफ या अन्य वित्तीय पूंजीपति ऐसा कर्ज किसी देश को देने के पहले उसकी जनता के खून की आखिरी बूंद तक निचोड़ने वाली शर्तें लगाते हुए पक्का वचन लेते हैं कि वह शिक्षा, चिकित्सा, खाद्य सुरक्षा, सार्वजनिक यातायात जैसे जनकल्याण के मदों पर होने वाला कोई भी खर्च बंद कर इन सबका निजीकरण कर देगी। इस कर्ज की शर्तों को तय करने वास्ते सौदेबाजी अभी जारी है। आईएमएफ कर्ज के साथ कर्जदार देश के शासक वर्ग द्वारा धुर दक्षिणपंथी/फासिस्ट राजनीति को आगे बढ़ाने का संबंध भी श्रीलंका में ही नहीं, भारत व अनेक देशों में देखा जा सकता है क्योंकि इस कर्ज की शर्तों मुताबिक जो नवउदारवादी आर्थिक नीतियां लागू की जाती हैं, उनसे जन जीवन में आने वाले विकराल संकट जनित संभावित रोष से निपटने के लिए न सिर्फ राज्य द्वारा दमन बल्कि धार्मिक/राष्ट्रीय अंधता आधारित राजनीतिक मुहिम भी जरूरी हो जाती है। खुद श्रीलंका में सिंहली उग्र राष्ट्रवाद व तमिल विरोधी गृहयुद्ध के पीछे आईएमएफ कर्ज का इतिहास देखा जा सकता है। याद रहे श्रीलंका और नवउदारवादी आर्थिक नीतियां अपनाने वाले पहले देशों में से था और अभी उसने आईएमएफ से कर्ज लिया तो यह 1965 से अब तक का 17वां ऐसा कर्ज होगा। भारत में भी 1981 में आईएमएफ से कर्ज के बाद इंदिरा गांधी सरकार व भारतीय शासक वर्ग द्वारा संघ/विश्व हिंदू परिषद की फासिस्ट मुहिम को आगे बढ़ाने का इतिहास सुविज्ञात है। 

संकट का जन जीवन पर प्रभाव  

इस संकट ने जन जीवन को भारी कष्टों में डाल दिया है। डॉलर के मुकाबले श्रीलंकाई रुपये के मूल्य में तीव्र गिरावट हुई है, 200 रुपये से गिरकर यह 26 मार्च को डॉलर के मुकाबले 292 रुपये पर पहुँच गया। आयात का भुगतान करने के लिए कोष नहीं है। खाद्य वस्तुओं, ईंधन, दवाइयों, कागज, दूध, आदि बहुत सी जरूरी चीजों का भारी अभाव हो गया है। दूध, संतरे, मांस, क्रीम, घरेलू उपकरणों जैसे 367 सामानों को गैर जरूरी घोषित कर उनके आयात पर नियंत्रण लगा दिया गया है। बाकी सामानों की कमी के चलते उनकी कीमतें आसमान छू रही हैं। कुकिंग गैस 5 महीने पहले की तुलना में 3 गुनी महंगी हो चुकी है। महंगाई की आधिकारिक दर फरवरी में 15.1% और खाद्य वस्तुओं की महंगाई 25.7% तक पहुंच गई है (गैर आधिकारिक अनुमान 55% तक के हैं) और केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरों को दोगुना कर दिया है। चावल के दाम पिछले साल के मुकाबले 30% बढ़े हैं। टमाटर जैसी सब्जियों के दाम 5 गुने हो गए हैं जबकि सेव-संतरा जैसे फल तो ऐश्वर्य का प्रतीक ही बन गए हैं।  पेट्रोल-डीजल, केरोसीन आदि के लिए मीलों लंबी लाइनें लगी हैं जिनमें खड़े-खड़े गर्मी व हिंसा से कुछ व्यक्तियों की मौत भी हो गई। अंततः पेट्रोल पंपों पर फौज को तैनात करना पड़ा है। बिजली की कमी से 12-14 घंटे तक की कटौती करनी पड़ रही है। सब्जी-फल जैसी चीजें अधिकांश जनता की पहुंच से बहुत दूर हो चुकी हैं। कागज की कमी की वजह से स्कूलों के इम्तहान तक रद्द करने पड़े हैं और अखबारों की छपाई बंद करनी पड़ रही है। दवाइयों व अन्य जरूरी चिकित्सा वस्तुओं की कमी से बीमारों की स्थिति खराब है और अस्पतालों को गंभीर मरीजों की जरूरी सर्जरी तक रद्द करनी पड़ रही हैं। इस सबका सर्वाधिक कहर मेहनतकश जनता खास तौर पर दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ रहा है। उनके लिए न सिर्फ महंगाई की समस्या है बल्कि जरूरी वस्तुओं के लिए लंबी लाइनों में खड़े होकर उन्हें मजदूरी से भी हाथ धोना पड़ रहा है। बहुतों के लिए अधपेट रहना मजबूरी बन गया है। स्कूली बच्चों को मिलने वाले मिड डे मील में अंडा-मछली ही नहीं चावल तक की मात्रा को 75 ग्राम प्रति दिन से घटाकर 60 ग्राम कर दिया गया है।  

पेट्रोल के दाम मार्च 2021 के 177 श्रीलंकाई रुपये से 71% बढकर 303 रुपये (भारतीय रुपये में 45 से 77) हो गये हैं। कुकिंग गैस की कमी से लोग केरोसीन व लकड़ी का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं पर केरोसीन के लिए भी लंबी लाइनें हैं। कुछ लोग बिजली की हॉट प्लेट इस्तेमाल कर रहे हैं पर इनकी कमी से दाम दोगुने हो गए हैं और बिजली की कटौती की समस्या भी है। बढ़ती तकलीफों की वजह से खुद राजपक्षे के समर्थक भी रोष में हैं। 3 मार्च को प्रकाशित वेरिटे रिसर्च के सर्वेक्षण मुताबिक सिर्फ 10% ही सरकार के समर्थन में हैं हालांकि 2019 में ही राजपक्षे को 52% वोट मिले थे।

संकट के तात्कालिक कारण 

बुनियादी वजहों पर आने से पहले हम इस संकट की आग में चिंगारी बनी कुछ तात्कालिक घटनाओं को जान लेते हैं। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था मुख्यतः वस्त्र उद्योग, रबर व चाय बागानों से होने वाले निर्यात, खेती, पर्यटन से मिलने वाली विदेशी मुद्रा और श्रीलंकाई श्रमिकों के निर्यात अर्थात विदेशों में काम करने वाले कामगारों द्वारा भेजी गई रकमों पर निर्भर है। कोविड दौरान दुनिया भर में तालाबंदी से मंदी का शिकार अर्थव्यवस्था में श्रीलंका का निर्यात भी गिर गया, पहले दूसरे देशों व बाद में खुद श्रीलंका में हुए लॉकडाउन की वजह से विदेशी पर्यटकों का आगमन भी रुक गया, खास तौर पर रूस-उक्रेन तनाव ने स्थिति और भी बदतर कर दी क्योंकि श्रीलंका में आने वाले पर्यटकों का बाद हिस्सा इन देशों से आता था। अतः इससे मिलने वाली सालाना लगभग 6 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा का स्रोत भी सूख गया। लॉकडाउन के दौरान विदेश में काम करने वाले श्रीलंकाई श्रमिक बड़ी तादाद में बेरोजगार हुए और वहां से भेजी जाने वाली औसतन 7 अरब डॉलर सालाना विदेशी मुद्रा की रकम भी बहुत कम हो गई। जो बेरोजगार नहीं हुए उन्होंने भी अपनी कमाई की रकम श्रीलंका भेजना कम कर दिया क्योंकि आयातित वस्तुओं को सस्ता रखने के लिए श्रीलंकाई रुपये की विनिमय दर कृत्रिम रूप से ऊंची रखी गई थी। विदेशी मुद्रा के ये दो स्रोत ही श्रीलंका के सालाना औसतन 10 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को संतुलित करने में प्रमुख भूमिका अदा करते थे। 

दूसरा तात्कालिक कारण नरेंद्र मोदी की नोटबंदी शैली का महामानवी चमत्कारी निर्णायक फैसला अर्थात पूरी खेती को रातों-रात जैविक (ऑर्गैनिक) खेती में परिवर्तित कर देना था। मोदी की तरह ही राजपक्षे परिवार भी तमिल अल्पसंख्यकों से नफरत आधारित सिंहली उग्र राष्ट्रवाद की सीढ़ी चढ़कर ही श्रीलंका की सत्ता पर काबिज है। ऐसी धुर दक्षिणपंथी राजनीति आज के लगभग असाध्य बन चुके वैश्विक पूंजीवादी संकट के दौर में जनता को ‘अच्छे दिनों’ व विकास के नाम पर चमत्कारिक दिवालिया स्कीमों का विनाश ही दे सकती हैं। अप्रैल 2021 में, राजपक्षे सरकार ने आधुनिक रासायनिक प्रक्रियाओं के जरिए बने सभी सिंथेटिक उर्वरकों के आयात और उपयोग पर प्रतिबंध लगाकर श्रीलंका को जैविक खेती में परिवर्तित करने का एक अभियान चला दिया। वंदना शिवा जैसे भारतीय व पश्चिमी एनजीओ पर्यावरणवादियों ने इस नीति की भारी तारीफ की थी। खुद नरेंद्र मोदी इस नीति के भारी प्रशंसक थे। यह भी बताया गया था कि सिंथेटिक खाद आयात बंद कर देने से विदेशी मुद्रा की बचत होने से आर्थिक तंगी में भी राहत मिलेगी।

श्रीलंका के दो-तिहाई से अधिक लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर हैं। कई अर्थशास्त्रियों और कृषिविदों ने तभी चेतावनी दी थी कि इतनी तेजी से इस पैमाने पर जैविक खेती में संक्रमण कृषि उत्पादकता को नष्ट कर देगा और किसानों की आय को कम कर देगा। लेकिन जैविक खेती के साथ अंधराष्ट्रवाद का तत्व भी जुड़ गया। सिंचाई मंत्री चमल राजपक्षे (राष्ट्रपति के एक और भाई) ने जोर देकर कहा कि देश को “रासायनिक उर्वरक माफिया” की बात नहीं सुननी चाहिए। जैविक खेती को स्वास्थ्य मंत्री से भी महत्वपूर्ण समर्थन मिला। चन्ना जयसुमना नामक इस कट्टर सिंहली राष्ट्रवादी ने देशी पद्धति के बारे में यहां तक कहा कि “पश्चिमी” चिकित्सा के विपरीत स्थानीय धार्मिक गुरु कैंसर और गुर्दे की बीमारियों का इलाज कर सकते हैं क्योंकि वे “अदृश्य आत्माओं के साथ संचार द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।” किंतु जैविक खेती ने श्रीलंकाई आहार के मूल घटक चावल और देश के मुख्य निर्यात चाय का उत्पादन तेजी से डुबा दिया। इससे न केवल किसानों की क्रय शक्ति कम हो खाद्य असुरक्षा बढ़ी, इसने देश के भुगतान संतुलन को भी गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया। श्रीलंका को चावल का आयात शुरू करना पड़ा, जबकि चाय निर्यात से होने वाली आय का सूखा पड़ गया। अंततोगत्वा विदेशी मुद्रा बचाने वाली नीति ने विदेशी मुद्रा के संकट को और भी गहरा दिया।

तीसरा कारण एक नया फैशन है जिसे कुछ सालों से पूंजीवादी संकट से मुक्ति का उपाय बताया जा रहा है। पूंजीवादी आर्थिक संकट के समाधान में कींसवाद के दिवालिया सिद्ध हो जाने के बाद खास तौर से पिछले दो दशकों में पूंजीवादी सुधारवादी जनता को दिग्भ्रमित करने वास्ते एक नया नीम हकीमी नुस्खा लेकर आए हैं जिसका नाम है मॉडर्न मोनेटरी थ्योरी (एमएमटी) अर्थात आधुनिक मौद्रिक सिद्धांत। इसे आजकल अमरीका-यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों में पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर ही संकट के समाधान का रामबाण उपाय कहकर प्रचारित किया जा रहा है। विस्तृत चर्चा में न जाकर इतना कहना पर्याप्त है कि इसके अनुसार एक सार्वभौम देश की सरकार को आर्थिक संकट के समाधान हेतु घाटे के बजट तथा कर्ज लेकर सार्वजनिक व्यय को असीमित तौर पर बढ़ाने में कोई भी बाधा नहीं है क्योंकि वह कितना भी मुद्रा प्रसार (जिसे पहले आम तौर पर नोट छापना कहा जाता था) कर सकती है और उससे मुद्रास्फीति का कोई जोखिम नहीं होता। हालांकि किन देशों में ऐसा करना मुमकिन है उसके लिए एमएमटी के विशेषज्ञ कुछ शर्तें बताते हैं पर अभी हम यहां उस की चर्चा में नहीं जाएंगे। दिसंबर 2019 में श्रीलंका के केंद्रीय बैंक गवर्नर वेलिगामेज डॉन लक्ष्मण ने कहा कि ऋण के बोझ के बारे में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। श्रीलंका को केवल कुल कर्ज में “घरेलू ऋण के अनुपात में वृद्धि” करने की आवश्यकता है। इससे समस्या का समाधान हो जाएगा, क्योंकि “आधुनिक मौद्रिक सिद्धांतकारों के तर्क मुताबिक … मुद्रा मुद्रण की संप्रभु शक्तियों वाले देश में, घरेलू मुद्रा में ऋण कोई बड़ी समस्या नहीं है।” कर्ज ज्यादा होगा तो क्या हुआ, और नोट छाप कर चुका देंगे! इस प्रकार एमएमटी को आधिकारिक तौर पर मुद्रा प्रसार के औचित्य के रूप में स्वीकार करने वाला श्रीलंका दुनिया का पहला देश बन गया। लक्ष्मण दिन-रात प्रिंटिंग प्रेस चलाने लगे। केंद्रीय बैंक में उनके उत्तराधिकारी अजीत निवार्ड कैब्राल, जिन्होंने नोट मुद्रण और मुद्रास्फीति या मुद्रा मूल्य ह्रास के बीच किसी संबंध तक से भी इनकार किया, ने यह नीति जारी रखी। चुनांचे, दिसंबर 2019 और अगस्त 2021 के बीच श्रीलंका की मुद्रा आपूर्ति में 42% की वृद्धि हुई। पर हवाई कल्पनाओं के विपरीत वास्तविकता को स्थापित होने में अधिक देर नहीं लगी। बाजार में उपलब्ध कुल मालों की तुलना में उपलब्ध मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती रहे तो मुद्रा के मूल्य में ह्रास निश्चित है अर्थात उसकी तुलना में दूसरे मालों के दाम बढ़ जाते हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत कॉर्पोरेट व अन्य करों में जो छूट दी गई उससे घरेलू ऋण का बोझ और भी बढ़ा। स्थिति यहां तक पहुंची कि 2020 की कुल सरकारी आय का 72% ऋण के भुगतान पर खर्च करना पड़ा। इस बोझ से निपटने हेतु और भी मुद्रा प्रसार किया गया।   

अतः 2021 के अंत तक मुद्रास्फीति रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई और स्वाभाविक रूप से “घरेलू ऋण के अनुपात में वृद्धि” की चतुर योजना असंभव साबित हुई क्योंकि मुद्रा के गिरते मूल्य के दौर में कम ही लोग सरकार को कर्ज देने के लिए पैसा लगाने के इच्छुक थे। जैसा कि ‘लोकलुभावन’ वादों वाले अधिनायकवादी या फासिस्ट शासनों में आम है, आधिकारिक नीति के दीवानगी भरे सिद्धांतों पर आपत्ति जताने वाले आलोचकों को विदेशी एजेंट, या अभिजात्य, या नकारात्मकता फैलाने वाले खलनायक कहा गया। राजपक्षे की भक्त मंडली के बाहर की किसी भी सलाह को अस्वीकार कर दिया गया। किंतु अब महीनों से अर्थव्यवस्था संकट में है जिसकी तकलीफ देश की आम जनता खासकर मेहनतकश जनता को भुगतनी पड़ रही है। 

संकट के बुनियादी कारण 

अगर हम श्रीलंकाई आर्थिक संकट की और गहराई में जायें तो इसका मूल ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन में के साम्राज्यवादी पूंजी के लाभ के लिए किए गए असंतुलित पूंजीवादी विकास में है। औपनिवेशिक शासकों के लिए ये उपनिवेश अपने उद्योगों के लिए सस्ते कच्चे माल का स्रोत व उत्पादित औद्योगिक मालों हेतु बंधुआ बाजार थे। अतः स्वतंत्र पूंजीवादी विकास में हो सकने वाले चौतरफा औद्योगिक विकास के बजाय औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिश पूंजी के नियंत्रण में यहां की अर्थव्यवस्था को कुछ विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित पंगु अर्थव्यवस्था के तौर पर विकसित किया। इस हेतु श्रीलंका में पारंपरिक कृषि के साथ मुख्यतः रबर व चाय बागानों व वस्त्र उद्योग का ही विकास हुआ। अन्य अधिकांश उत्पादों के लिए वह अभी भी मुख्यतः आयात पर निर्भर है। 

1948 में औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र होने के बाद सत्ता में आये श्रीलंकाई बुर्जुआ वर्ग ने निश्चय ही अन्य नवस्वाधीन देशों की तरह कुछ हद तक औद्योगिक विकास का प्रयास किया। किंतु वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के तब तक संकटग्रस्त व प्रतिक्रियावादी हो चुकने की वजह से इन देशों का राष्ट्रीय पूंजीवाद बीमार पूंजीवाद था, जिसमें चावल, चाय, रबर जैसी प्राथमिक जिंसों से आगे बढ़ते हुए चौतरफा पूंजीवादी औद्योगिक विकास के लिए जरूरी क्षमता व ऊर्जा का अभाव था। इसलिए 70 वर्ष से अधिक गुजरने के बावजूद भी श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था अभी भी मुख्यतः इन क्षेत्रों के अतिरिक्त पर्यटन व श्रमिकों के निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा पर ही निर्भर है, जबकि आबादी का बड़ा अंश खेती पर निर्भर बना हुआ है जो असल में ऐसे सब देशों में अथाह बेरोजगारी अर्ध-बेरोजगारी को छिपाने का तरीका है। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमरीका के ऐसे देशों में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में आये अचानक बदलावों का दुष्प्रभाव अत्यधिक गहन संकट को जन्म देता है। अभी भी विश्व के विभिन्न हिस्सों में कोविड व युद्ध के तात्कालिक कारणों से कई देशों में ऐसे संकट देखे जा रहे हैं जिनकी बुनियाद उनकी पूंजीवादी व्यवस्था के असंतुलित विकास वाले ढांचागत चरित्र में ही है।

एक ओर तो ये देश पहले से ही असंतुलित विकास जनित समस्याओं से पीड़ित हैं वहीं लगभग 1970 से देशी-विदेशी इजारेदार वित्तीय पूंजी के स्वार्थ वाले नवउदारवादी आर्थिक चिंतन के असर में जो नीतियां अपनाई गईं हैं उन्होंने करेले पर नीम चढा वाला प्रभाव पैदा किया है। श्रीलंकाई शासक वर्ग तो नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने में इतना अगुआ था कि 1990 के दशक में उनका दावा था कि श्रीलंका दुनिया की सबसे मुक्त व खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। इन नीतियों में से दो प्रमुख हैं।  पहली  है पूंजीवाद के अनिवार्य अति-उत्पादन व अर्थव्यवस्था में सकल मांग की कमी की स्थिति में सरकार द्वारा कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के मांग प्रबंधन हेतु शुरू किये जाने वाले अनुत्पादक व अलाभकारी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट। इनकी आवश्यकता या मांग सरकारी फैसलों से बनाई जाती है और ये कुछ पूंजीपतियों की बिक्री बढाने के काम आते हैं जो स्वयं बाजार में मांग की कमी का सामना कर रहे होते हैं। ये प्रोजेक्ट देशी-विदेशी कर्ज से प्राप्त पूंजी से कार्यान्वित किये जाते हैं और इनका भुगतान सरकारों द्वारा निजीकरण से प्राप्त धनराशि, जनता पर लादे गये शुल्कों-करों से उगाही रकम तथा बजट घाटा कम करने के नाम पर जनकल्याणकारी कार्यों पर व्यय के बजट में की गई कटौती से जुटाई गई रकम से किया जाता है। श्रीलंका में भी पिछले सालों में ऋण पूंजी से ऐसे एयरपोर्ट, बंदरगाह, आदि निर्मित किये गए हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए सफेद हाथी सिद्ध हुए और उन्होंने कर्ज के बोझ में और भी इजाफा किया है। उदाहरण के तौर पर 1 अरब डॉलर के कर्ज से बना हंबंटोटा बंदरगाह कर्ज न चुका पाने लायक आय न होने पर 99 साल के लिए चीन के पास ही गिरवी रखना पड़ा है। हालांकि पश्चिमी व भारतीय मीडिया इसके लिए सिर्फ चीन को जिम्मेदार ठहराता है मगर चीन के साथ ही भारत, अमरीका-यूरोपीय देश व आईएमएफ-विश्व बैंक सभी ऐसे प्रोजेक्ट में शामिल रहे हैं। भारत को ही देखें तो मौजूदा संकट के दौर में मदद के साथ उसने श्रीलंकाई बिजली ग्रिड को भारतीय बिजली ग्रिड से जोड़ उस पर निर्भर बना देने का दबाव बनाना आरंभ कर दिया है।

दूसरा तरीका है निर्यातोन्मुखी आर्थिक वृद्धि जिसके अंतर्गत ऐसे उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाता है जो अपना माल निर्यात करते हैं। निर्यात करने हेतु जरूरी है एक ओर सरकारों द्वारा ऐसे उद्योगों को टैक्स, शुल्क, नियमों में छूट तथा वित्तीय प्रोत्साहन, और दूसरी ओर, श्रमिकों से कम मजदूरी पर अधिक उत्पादकता हासिल करना अर्थात उनके शोषण की दर को बढ़ाना ताकि उत्पादित मालों के मूल्य में कमी के आधार पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में होड की जा सके। अतः निर्यातोन्मुखी विकास के साथ ही जरूरी होता है श्रम अधिकारों पर हमला व ट्रेड यूनियनों पर दमन। इसके लिए एक्सपोर्ट या स्पेशल प्रोसेसिंग जोन आदि बनाये जाते हैं जिनमें पूंजीपतियों को देश के अधिकांश सामान्य नियमों/कानूनों से खुली छूट दी जाती है। चुनांचे ये दोनों ही तरीके मजदूर वर्ग तथा अन्य वर्गों से कॉर्पोरेट पूंजी को आय व संपदा हस्तांतरण करते हैं। इसके चलते पिछले कुछ दशकों में अधिकांश देशों में आय व संपत्ति का आबादी के ऊपरले लगभग 10% हिस्से में, खास तौर सबसे अमीर 1% हिस्से में जबरदस्त केंद्रीकरण हुआ है। इसने दुनिया भर के देशों में पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक संकट को और भी गहन कर दिया है। इसी के नतीजे के तौर पर दक्षिण अमरीका के चिली, कोलंबिया, पेरू, आदि  हों, या यूरोप के फ्रांस, ब्रिटेन, हंगरी, वगैरह, या एशिया में श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान व मंगोलिया हों, या अरब व उत्तरी अफ्रीका के देश, पिछले दशक में तमाम देशों में विभिन्न रूप रंग के विरोध प्रदर्शनों की नई लहरें उठ खड़ी हो रही हैं हालांकि इनकी राजनीतिक दिशा अभी तक मजदूर वर्गीय न होकर सतरंगी ही कही जाएगी।    

लंबे रक्तरंजित गृहयुद्ध के बाद 2005-06 से श्रीलंकाई शासक वर्ग ने फिर से पूंजीपति वर्ग को रियायतों-प्रोत्साहनों के साथ कर्ज आधारित आर्थिक वृद्धि की नवउदारवादी आर्थिक नीति जोर से अपनाई। तात्कालिक तौर पर इससे आर्थिक वृद्धि तेज भी हुई। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इससे 16 लाख लोग गरीबी रेखा के ऊपर भी पहुंचा दिए गए। मध्यम वर्ग के आकार में भी वृद्धि हुई। 2019 में तो विश्व बैंक ने श्रीलंका को उच्च मध्यम आय वाले देशों की सूची में शामिल कर दिया। मगर इस नीति से एक और तो सरकार का कर राजस्व जीडीपी के 20% से घटकर 13% ही रह गया बल्कि 2006 से 2012 के 6 साल में ही विदेशी कर्ज तीन गुना हो गया तथा कुल कर्ज भी जीडीपी से अधिक हो गया। पर इस ‘उच्च मध्यम आय’ का आधार कुछ अल्पसंख्यक सरमायेदारों की अथाह अमीरी तथा अधिसंख्य मेहनतकश जनता की कंगाली था। नतीजा यह निकला कि ‘उच्च मध्यम आय’ वाले मुल्कों में शामिल होने के एक साल बाद ही पूंजीवादी आर्थिक संकट विकराल रूप में मुंह बाये आ खड़ा हुआ और आज के हालात तो सभी के सामने है।  

मुमकिन है कि भारत व चीन के लघु अवधि ऋणों, आईएमएफ-विश्व बैंक के नए कर्ज व पुराने विदेशी कर्ज के पुनर्गठन के बल पर आर्थिक स्थिति तात्कालिक तौर पर कुछ हद तक स्थिर हो जाए और फिलहाल जारी आंदोलन कुछ मंद पड़ जाए। मगर ये कर्ज जिन नवउदारवादी पूंजीवादी नीतियों को लागू करने की शर्तों पर दिए जाएंगे, और श्रीलंकाई रुपये के अवमूल्यन से आयातित वस्तुओं के दामों में तेज वृद्धि से जो बढ़ी महंगाई जीवन को और भी मुश्किल बनाएगी, उससे जन जीवन में संकट और भी गहराएगा, और ये नए और गहरे संकटों को जन्म देगा, जिसके विरुद्ध जन आक्रोश फिर से अवश्यंभावी रूप से फूटेगा।   

कुछ राजनीतिक पहलू एवं संभावनाएं 

हमेशा ही शासक वर्ग अपने वर्ग हितों के प्रति अधिक सचेत होता है और उनकी हिफाजत के लिए तेजी से पहलकदमी लेता है। वह ऐसे सभी संकटों को पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही ‘हल करने’ का हर संभव प्रयास करता है। जैसा ऊपर ही जिक्र किया गया श्रीलंका में भी विपक्षी दलों एवं सत्तारूढ़ दल का एक हिस्सा पूंजीवादी व्यवस्था व नवउदारवाद के इस आर्थिक संकट की पूर्ण जिम्मेदारी सिर्फ राजपक्षे परिवार पर डालकर खुद सत्ता में आने की कोशिश कर रहा है। ये सभी ठीक उन्हीं नीतियों के हिमायती हैं जो राजपक्षे शासन  लागू कर रहा था। हालांकि फिलहाल इन्हें पर्याप्त जन समर्थन मिलता प्रतीत नहीं हो रहा है मगर शासक वर्ग के दलों, थिंक टैंकों, बुद्धिजीवियों एवं प्रचार माध्यमों की ओर से इस बात का जबर्दस्त प्रचार शुरू हो गया है कि इस संकट का कारण सरकारी अपव्यय और आर्थिक सुधारों की कमी है। उदाहरण के तौर पर एडवोकेटा इंस्टिट्यूट बार-बार बता रहा है कि “वर्तमान समष्टि अर्थ तंत्र या मैक्रोइकॉनमी में अस्थिरता का कारण पिछले 20 साल से अर्थतन्त्र में गहरे ढांचागत सुधार लागू करने में राज्य की नाकामी है।“ उनके मुताबिक संकट का कारण राजपक्षे सरकार द्वारा कीमतों व आयात पर नियंत्रण के प्रयास, सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े कार्यक्रम व अकुशल सार्वजनिक उपक्रम हैं। अर्थात शासक वर्ग का यह हिस्सा इस संकट के जरिए और भी अधिक नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करा लेने का दबाव बना रहा है अर्थात और अधिक निजीकरण, सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों (शिक्षा, चिकित्सा, यातायात, आदि) पर खर्च में कटौती, आर्थिक वृद्धि के नाम पर देशी-विदेशी पूंजीपतियों को कर-शुल्क रियायतें व प्रोत्साहन की योजनाएं। विरोध प्रदर्शनों के प्रथम दौर में मुख्य भूमिका मध्यम व अन्य टटपुंजिया वर्गों की ही रही है, जो अपने वर्गीय चरित्र के कारण वैचारिक रूप से पूंजीपति वर्ग के प्रभाव में होते हैं। चुनांचे, ऐसे विरोध का यह जोखिम रहता ही है कि पूंजीपति वर्ग इस असंतोष की दिशा को इन वर्गों के सहारे और अधिक सुधारों अर्थात और अधिक नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की मांग की ओर मोड़ दे जैसा हम भारत में भी देखते हैं कि मोदी के पूंजीपति वर्गीय विरोधी जैसे रघुराम राजन, अरविंद सुब्रमण्यम जैसे लोग मोदी की आलोचना तीव्र गति से ‘सुधार’ ना करने के लिए करते हुए असल में ‘उन्हीं सुधारों’ की ओर अधिक मांग कर रहे होते हैं जिन्होंने पहले ही मेहनतकश जनता के जीवन में भयावह संकट को जन्म दिया है। आईएमएफ भी व्यापक निजीकरण, सरकारी खर्च घटाने व अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि का दबाव डाल रहा है। 

अगर शासक वर्ग के हित के ये कार्यक्रम लागू हुए तो मजदूरों व मेहनतकश जनता, गरीब किसानों, छोटे दुकानदारों, निम्न मध्यम वर्ग, पेंशनरों, आदि के जीवन में तकलीफों का नया पहाड़ टूट पड़ेगा। राजपक्षे शासन को भी मालूम है कि मौजूदा स्थिति में ये सब शांतिपूर्ण ढंग से लागू नहीं हो सकेगा। अतः वे उपयुक्त स्थिति की बाट जोह रहे हैं, हालांकि 19 अप्रैल को ही रंबुकना में विरोध प्रदर्शन पर पुलिस की गोली से एक व्यक्ति की मृत्यु व दो घायल हो चुके हैं। मगर अभी जनता के गुस्से को देखते हुए तात्कालिक तौर पर कदम पीछे हटाए गए हैं। लेकिन राजपक्षे शासन ने 25 जिलों में फौज को ‘कानून-व्यवस्था संभालने’ हेतु तैयार रहने को भी कहा है। ताजा खबर है कि 6 मई को फिर पुलिस ने छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर आंसू गैस व अन्य दमनकारी  उपायों की आजमाइश की है।          

उधर अभी तक इस जन रोष को पूंजीवादी व्यवस्था के ही खिलाफ मोड़ सकने लायक किसी सशक्त मजदूर वर्गीय खेमे की मौजूदगी नजर नहीं आई है हालांकि 28 अप्रैल व 6 मई की आम हड़ताल की पहलकदमी द्वारा मजदूर वर्ग ने इस आर्थिक-राजनीतिक संकट में अपना हस्तक्षेप किया है। किंतु अभी तक इसकी मुख्य मांग राजपक्षे शासन का इस्तीफा और मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के लिए आर्थिक राहत की मांगे ही हैं। आम हड़ताल में शामिल होने वाली 100 यूनियनों के एक समूह द्वारा जारी पर्चे में कहा गया, “मजदूर वर्ग के नाते हमें नाकाम शासकों को हटाकर जन आकांक्षाओं को पूरा करने वाले शासन को लाने का दबाव बनाना होगा।“ मगर मजदूर वर्ग खुद को भावी शासक के रूप में पेश करने के बजाय जनआकांक्षाओं को पूरा करने का दबाव किस पर बनायेगा? बुर्जुआ विपक्षी दलों पर? मगर ये विपक्षी दल तो खुद ही नवउदारवादी नीतियों को और भी जोर व व्यापकता  से लागू कर शासक पूंजीपति वर्ग के विश्वस्त के रूप में सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। मौजूदा पूंजीवाद विस्तार करता हुआ पूंजीवाद नहीं है जो विस्तार के दौर की सीमित राहत वाली सोशल डेमोक्रेटिक नीतियों को भी लागू कर सके। इस व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग का कोई भी समूह सत्ता में आये, वह इन्हीं नीतियों को लागू करने वाला है। अतः मजदूर वर्ग के शासन अर्थात समाजवादी व्यवस्था की ओर आगे बढ़ने के बजाय पूंजीवादी व्यवस्था में ही ‘जन आकांक्षाओं’ को पूरा करने का भ्रम पैदा करना इस वक्त मजदूर वर्ग को वैचारिक-राजनीतिक तौर पर निहत्था करना होगा। सही है कि मजदूर वर्ग में पूंजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन की बात उठाने वाले क्रांतिकारी समूह भी शामिल हैं। देखना होगा कि क्या उभरती स्थिति क्रांतिकारी स्थिति में ये मजदूर वर्ग को पूंजीवाद विरोधी सटीक दिशा की ओर नेतृत्व दे पाने में सक्षम हो पायेंगे या नहीं।  

साथ ही, ऐसे भारी जन विक्षोभ के दौर में पूंजीवाद विरोधी मजदूर वर्गीय शक्तियों की कमजोरी व सटीक राजनीतिक दिशा के अभाव के चलते विदेशी कर्ज जनित संकट की प्रतिक्रिया में स्वदेशी व आत्मनिर्भरता के नारे लगाती धुर दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी अंध राष्ट्रवादी प्रवृत्तियां भी और अधिक मजबूत हो सकती हैं और मध्यम-टटपूंजिया वर्गों को अपने पीछे लेकर संकट की जिम्मेदारी मजदूर वर्ग पर डालते हुए उन पर नया दमनचक्र भी शुरू कर सकती हैं। श्रीलंका में ऐसी शक्तियां पहले से शासक वर्ग का औजार रही हैं और संकट से निपटने की कोशिश के तौर पर एक बार फिर पूंजीवादी सत्ता खुद इनकी मदद कर सकती है। इस संबंध में मजदूर वर्ग की शक्तियों को क्लारा जेटकिन का वह सबक याद रखना चाहिए कि फासीवाद सर्वहारा क्रांति की स्थिति में क्रांति को पूरा न करने के लिए शासक वर्ग द्वारा सर्वहारा वर्ग को दी गई सजा है।