ब्याज दरों की हेराफेरी के बजाय सीधे दाम घटाओ
May 9, 2022महंगाई की असली वजह कॉर्पोरेट मुनाफाखोरी
संपादकीय अप्रैल-मई 2022
4 मई को रिजर्व बैंक ने अचानक रेपो रेट में 0.4% व नकदी रिजर्व अनुपात (सीआरआर) में 0.5% की वृद्धि का ऐलान कर दिया। बताया गया कि बिना अग्रिम सूचना के ही मौद्रिक नीति कमिटी या एमपीसी की इमर्जेंसी बैठक आयोजित की गई जिसमें यह दरें घटाने का फैसला हुआ। वजह बताई गई कि महंगाई बढने की रफ्तार चिंताजनक है, खास तौर पर गवर्नर शक्तिकांत दास द्वारा खाद्य पदार्थों की बढती कीमतों का कई बार जिक्र किया गया, हालांकि महंगाई बढने और उससे देश की मेहनतकश गरीब जनता के जीवन में मचे हाहाकार की बात तो सभी को पहले से ही मालूम थी और यह दर कानूनी तौर पर रिजर्व बैंक के लिए तय उच्चतर सीमा अर्थात 6% लंबे समय से छू रही थी और मार्च में ही 6.95% पहुंच चुकी थी। इसके बावजूद रिजर्व बैंक पिछले कई महीनों से लगातार बढती महंगाई को कोई समस्या मानने से इंकार करते हुए आर्थिक वृद्धि तेज करने को ही सबसे जरूरी प्राथमिकता बता रहा था। इस वास्ते वह पूंजीपतियों को सस्ती दर पर पूंजी उपलब्ध कराने को ही इस वक्त अपनी मुख्य जिम्मेदारी मान रहा था, हालांकि कमिटी के एक मेंबर जयंत वर्मा ने पिछले एक साल से हर मीटिंग में महंगाई के बढने की चेतावनी देते हुए उस पर जल्द कदम उठाने की मांग की थी, मगर बाकी कमिटी इस समस्या से पूरी तरह इंकार कर रही थी। 8 अप्रैल को इस कमिटी की पिछली दोमाही बैठक हुई थी। उसमें महंगाई बढने के जोखिम को पहली बार स्वीकार करने के बावजूद भी सस्ती पूंजी उपलब्ध कराने और नकदी का प्रवाह बनाए रखने की प्रतिबद्धता जाहिर की गई थी, बस इसकी प्रचुरता की बात हटा ली गई थी। कुल मिलाकर इन आंकड़ों के विस्तार में जाने के बजाय हम कह सकते हैं कि महंगाई की समस्या से लगातार इंकार करते आ रहे रिजर्व बैंक द्वारा ली गई यह अचानक पलटी बताती है कि सरकार को भी महंगाई की वास्तविकता, एवं आगामी विकरालता, का पता है, मगर वह इसे मानने से अब भी इंकार कर रही है, और ब्याज दरों को बढाने की मुख्य वजह कुछ और है।
एक रिपोर्ट मुताबिक महंगाई के सार्वजनिक आंकड़ों के अतिरिक्त रिजर्व बैंक उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय, कृषि बाजारों एवं अन्य स्रोतों के जरिए नजर रख रहा था जिसमें पाया गया कि दाम न सिर्फ बढ रहे हैं बल्कि उनके बढने की रफ्तार पहले के अनुमानों से कहीं तेज है। रिजर्व बैंक को पता चला है कि अप्रैल में ही फुटकर महंगाई की दर 7.6% पहुंच जाने वाली है (हिंदुस्तान टाइम्स, 6 मई)। हालांकि इसकी गणना करने के तरीके की वजह से फुटकर उपभोक्ता महंगाई दर या सीपीआई महंगाई की वास्तविकता को पूरी तरह बयान नहीं करती। पर इसका इतनी तेजी से बढना भी वास्तविकता को इंगित तो करता ही है। उधर थोक महंगाई दर मार्च में ही 14.55% थी और यह लगातार ऊपर ही जा रही है। इससे पता चलता है कि महंगाई बढने से सारे इंकार के बावजूद आखिर मोदी सरकार इससे कुछ चिंतित जरूर हुई है और इस पर कुछ करते दिखना चाहती है ताकि बाद में वह कह सके कि उसने तो कीमतों पर नियंत्रण की पूरी कोशिश की, पर अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है, अतः महंगाई के लिए वह जिम्मेदार नहीं। इसका पता इसी बात से चलता है कि सरकार उन कीमतों को कम करने के लिए कुछ नहीं कर रही जो सीधे उसके नियंत्रण में हैं और जिन्हें कम कर अन्य जरूरी वस्तुओं की कीमतें भी कम की जा सकती हैं। पेट्रोलियम-गैस उत्पादों की यही स्थिति है। इनके वास्तविक मूल्यों पर केंद्र-राज्य सरकारों के लगभग डेढ गुणा अप्रत्यक्ष करों की वजह से न सिर्फ इनकी कीमतें आसमान पर है बल्कि लागत व यात्री-माल भाडा वृद्धि के जरिए इनकी वजह से सभी वस्तुओं की कीमतें बढ रही हैं। ऊपर से सरकारी तेल कंपनियां अभी भी कीमतों को कम बताते हुए डीजल पर 22 रु व पेट्रोल पर 7.5 रु लीटर घाटा होने की शिकायत कर रही हैं अर्थात कीमतों को और भी अधिक बढाना चाहती हैं। इसके लिए वे आपूर्ति में कटौती कर कृत्रिम कमी भी बना रही हैं (हिंदुस्तान टाइम्स, 6 मई)। खाद्य तेलों के दामों में मुनाफाखोरी पर हम पहले भी विस्तार से लिख चुके हैं। जीएसटी के अंतर्गत अप्रत्यक्ष कर कम करना, शिक्षा स्वास्थ्य यातायात आदि में बढते शुल्कों व भाडों को नियंत्रित करना जैसे कई और उदाहरण दिये जा सकते हैं जिन पर कार्रवाई कर सरकार जनता को जरूरी वस्तुओं के दामों में राहत दे सकती है। पर वैसा करने के बजाय वह बस ब्याज दरों व नकदी प्रवाह कुछ ऊपर नीचे की हेरफेर कर रही है जबकि मीडिया में खबरें हैं कि जीएसटी दरों में और भी वृद्धि का प्रस्ताव विचाराधीन है जिससे महंगाई और अधिक बढ़ जाएगी। ब्याज दरों में वृद्धि के दूसरे कारण पर हम बाद में आयेंगे।
इस संबंध में यह भी जान लेना उपयुक्त है कि जिस ब्याज दर पर व्यवसायिक बैंक अपनी सिक्युरिटीज या बांड्स रिजर्व बैंक के पास रेहन रख उससे अल्पावधि उधार लेते हैं उसे रेपो रेट कहा जाता है। माना जाता है कि इससे बैंकों की नकदी लागत बढ जायेगी और यह बैंकों द्वारा दिये जाने ऋणों पर ब्याज दर बढाने का संकेत है। नकदी रिजर्व अनुपात या सीआरआर बैंकों की जमाराशि का वह हिस्सा है जो उन्हें अपने या रिजर्व बैंक के पास नकद रखना अनिवार्य है अर्थात अपनी जमाराशि का इतना अंश वे ऋण नहीं दे सकते। मौजूदा स्थिति में इससे बैंकों के पास कर्ज देने के लिए उपलब्ध रकम 87 हजार करोड़ रुपये कम हो जायेगी। इससे भी उनकी लागत बढेगी और वे ब्याज दर बढाने को मजबूर होंगे। इन दोनों का संयुक्त प्रभाव यह बताया जाता है कि न सिर्फ पूंजीपतियों के लिए कर्ज लेना महंगा हो जायेगा, बल्कि मुश्किल भी। माना जाता है कि कर्ज लेना मुश्किल व महंगा होने से पूंजीपतियों के लिए जमाखोरी अलाभकारी हो जायेगी और वे अपने स्टॉक बेचने के लिए बाध्य होंगे। इससे कीमतें गिरेंगी। मगर यह वास्तव में कितना प्रभावी है इस पर हम बाद में लौटते हैं।
महंगाई के मौजूदा दौर में हमें यह भी जानना जरूरी है कि यह पिछले 5 दशक की पूंजीवादी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के संकट का परिणाम है जिसे कोविड व रूस उक्रेन युद्ध ने और गंभीर कर दिया है। हमारे पडोस में श्रीलंका में भारी संकट सर्वज्ञात है (इस पर अलग से एक लेख इसी अंक में) जहां आधिकारिक महंगाई दर तो 19% तक पहुंची है मगर बाजार में वास्तविक दामों पर आधारित गैरआधिकारिक अध्ययन इसे 55% तक बता रहे हैं। तुर्की में ताजा आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर 69% तक पहुंच गई है। विकसित पूंजीवाद देशों में भी महंगाई 1970 के दशक के सर्वोच्च स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने इसके 10% से ऊपर जाने की चेतावनी दे दी है। अमरीकी आंकड़े भी 8% पार कर रहे हैं। पेट्रोलियम का सबसे बड़ा भंडार व उत्पादन के बावजूद अमरीकी बाजार में डीजल व जेट ईंधन एक साल में दुगना महंगा हो गया है। ऐसी ही स्थिति अन्य कई जरूरी वस्तुओं की है। पाकिस्तान में नई सरकार ने आते ही आईएमएफ के साथ बात कर पहला ऐलान यही किया है कि पेट्रोल डीजल के दाम बढाने जरूरी हैं। ऐसी ही खबरें दुनिया के सभी कोनों से आ रही हैं।
मगर इसका कारण क्या है? पूंजीपति वर्ग का मीडिया प्रचार में जुटा है कि इसका मुख्य कारण पहले कोविड की वजह से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में आई बाधाएं तथा फिर उक्रेन में छिडी जंग से पैदा जरूरी वस्तुओं का अभाव व बढती लागत है। इस आधार पर पहले ही नहीं अभी तक भी बहुत से बुर्जुआ अर्थशास्त्री कीमतों पर नियंत्रण के किसी प्रयास तक का ही विरोध करते रहे हैं। उनके मुताबिक यह महंगाई अस्थायी है और इस महंगाई का इलाज खुद महंगाई है! ये बुर्जुआ विद्वान तर्क देते हैं कि कीमतें अधिक होंगी तो मुनाफा बढेगा जिससे उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश होने से बाजार में माल की आपूर्ति बढने से दाम कम होंगे जबकि कीमतों पर नियंत्रण से मुनाफा कम होगा और पूंजी निवेश नहीं होने से आपूर्ति कम होने से दाम और बढेंगे। अतः इनके मुताबिक महंगाई पर नियंत्रण के लिए असल में महंगाई को और तेजी से बढाना चाहिए! मगर जब पहले से स्थापित उद्योग ही आर्थिक संकट के कारण पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रहे और आपूर्ति शृंखला में संकट का शोर चारों ओर है तब इस तर्क के अनुसार नया पूंजी निवेश होकर इतनी जल्दी उत्पादन कैसे बढ़ जाएगा? आज के समय में तथ्यों के पूरी विपरीत यह बात सिर्फ भोले या धूर्त लोग ही कहते रह सकते है। दूसरे, इजारेदारी पूंजी के युग में नए पूंजीपति द्वारा उनके नियंत्रण वाले उद्योग में प्रवेश के रास्ते में सिर्फ आर्थिक ही नहीं तमाम किस्म की बाधाएं हैं क्योंकि इजारेदार पूंजी बाजार को ही नहीं, राजसत्ता तक पर अधिकाधिक नियंत्रण करती जा रही है। भारत में ही अदानी-अंबानी के रास्ते की बाधाएं कैसे राजसत्ता द्वारा साफ की जा रही हैं, यह इसे समझने के लिए पर्याप्त है।
बुर्जुआ विद्वानों के अनुसार महंगाई का दूसरा कारण (इस पर खास तौर से अमरीकी केंद्रीय बैंक का जोर है और जो ब्याज दरें बढाने का एक खास कारण है) वह यह कि उनके अनुसार अमरीका में रोजगार के बाजार में अधिक नौकरियों व कम श्रमिक आपूर्ति से मजदूरी बढी है जिससे एक और बढी उत्पादन लागत तथा दूसरी ओर बढी मजदूरी से ऊंची बाजार मांग महंगाई बढा रही है। फेडरल रिजर्व के प्रधान जेरोम पावेल तो लगभग कसम खा चुके हैं कि उन्हें अर्थव्यवस्था में मंदी मंजूर है मगर मजदूरी बढना नहीं। इसलिए फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढाना शुरू कर चुका है ताकि आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती आये और श्रमिकों की मांग कम हो मजदूरी गिर जाये। उनके मुताबिक मजदूरी गिरने से बाजार मांग भी सीमित होगी और महंगाई पर नियंत्रण होगा। खैर, मजदूरी जितनी बढ़ी उससे अधिक तो वह वास्तव में महंगाई बढ़ने से कम हुई क्रयशक्ति से पहले ही कम हो चुकी है, पर इस बात पर आज बहुत से बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी भरोसा नहीं करते कि ब्याज दरों के जरिए महंगाई पर नियंत्रण किया जा सकता है। खास तौर पर अगर महंगाई के लिए आपूर्ति की कमी को जिम्मेदार माना जाए तब तो ऊंची ब्याज दरों से पूंजी महंगी होने से पूंजी निवेश रुकेगा और आपूर्ति और भी कम हो जाएगी, तब इससे महंगाई कैसे नियंत्रित होगी। असल में ब्याज दर की मुख्य भूमिका औद्योगिक व वित्तीय पूंजीपतियों के बीच में मुनाफे के बंटवारे में है, कीमतों के नियंत्रण में बहुत कम।
निश्चित रूप से उपरोक्त दो कारणों का महंगाई में भूमिका से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता। किंतु हमने ‘यथार्थ’ के मार्च अंक में कई उदाहरण देते हुए इन तर्कों पर विस्तार से जवाब देते हुए लिखा था कि यह दोनों ही मुख्य कारण नहीं है। इसके बजाय महंगाई का मुख्य कारण बाजार पर नियंत्रण रखने कॉर्पोरेट पूंजीपतियों खास तौर पर इजारेदार पूंजीपतियों की सुपर मुनाफे की हवस है। हम उन तर्कों को यहां दोहरायेंगे नहीं (लेख यहां पढा जा सकता है https://tinyurl.com/2p872x98), बस इतना जोडेंगे कि अमरीका के ही इकॉनोमिक पालिसी इंस्टीट्यूट ने कंपनियों के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों से बढ़े दामों के के हाल में प्रकाशित अध्ययन में बताया है कि दाम बढ़ने का मुख्य कारण (54%) कॉर्पोरेट मुनाफा है जबकि मजदूरी का बढना इसके लिए नाममात्र अर्थात सिर्फ 7.9% ही जिम्मेदार है (https://tinyurl.com/4wcxk55m)। इसके अतिरिक्त भी यह सार्वजनिक जानकारी है कि कोविड, उक्रेन युद्ध व रिकॉर्ड महंगाई के दौर में कॉर्पोरेट मुनाफे भी कई दशकों के रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं। अगर पूंजीपति लागत बढने से परेशान हैं तो उनके मुनाफे इतनी रिकॉर्ड तेजी से कैसे बढ रहे हैं? एक ही उदाहरण दें कि जिस बिजली क्षेत्र में कोयले-गैस की ऊंची कीमतों के हवाले से कॉर्पोरेट बिजली की कमी का शोर मचा रहे हैं उसी क्षेत्र में अदानी पावर का मुनाफा 2021 की मार्च तिमाही के 13 करोड़ से बढ़कर 2022 की मार्च तिमाही में 4645 करोड़ रु हो गया।
किंतु इस पर विस्तृत चर्चा में जाये बगैर हम फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की संभावना से रिजर्व बैंक व भारत सरकार में मचे हडकंप का जिक्र करेंगे जिसकी वजह से फेडरल रिजर्व के कुछ घंटे पहले ही रिजर्व बैंक ने पहले की घोषणाओं से पलटी मारते हुए अचानक न सिर्फ ब्याज दरों में वृद्धि कर दी बल्कि नकदी उपलब्धता को भी संकुचित कर दिया, और कमाल की बात यह कि फिर भी पूंजीपति वर्ग की पूंजी की जरूरतों का ख्याल (accomodate) रखने का आश्वासन भी दिया।
अमरीकी ब्याज दरों से जुड़ी इस वजह को समझने के लिए हमें भारत के व्यापार व भुगतान संतुलन पर एक सरसरी नजर डालनी होगी। हालांकि पिछले दिनों हम सबने पिछले वित्तीय वर्ष में निर्यात में 24% वृद्धि हो उसके 400 अरब डॉलर पार होने की बडी खबरें देखीं, मगर जिन्होंने खबर को नीचे तक पढा उन्हें यह भी जानने को मिला कि आयात इससे भी अधिक तेजी से बढकर 600 अरब डॉलर पार कर गये। अप्रैल के व्यापार आंकड़े आये तो यही रूझान जारी रहा और मासिक व्यापार घाटा 20 अरब डॉलर पार हो गया। अब समस्या है कि इस व्यापार घाटे को भुगतान संतुलन में संकट में बदलने से कैसे रोका जाए? याद रहे कि नेट आयातक होने के कारण भारत 1991 व 2013 में ऐसे ही भुगतान संकट से गुजर चुका है जैसे अभी श्रीलंका गुजर रहा है। पहली बार इसके लिए हवाई जहाजों में भरकर सोना स्विट्जरलैंड के बैंकों में गिरवी रखने के लिए भेजना पडा था तो दूसरी बार रघुराम राजन की गवर्नरी के वक्त ऐसी स्थिति आने के पहले अनिवासी भारतीयों आदि को ऊंचे ब्याज दर का प्रलोभन देकर अपना विदेशी मुद्रा का पैसा भारत में जमा करने के लिए राजी किया गया था।
यहां कोई कह सकता है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार श्रीलंका की तरह खाली नहीं है बल्कि 600 अरब डॉलर से अधिक है। अतः भुगतान संकट का कोई खतरा नहीं है। पर हर महीने निर्यात से 20 अरब डॉलर अधिक आयात करने वाले मुल्क के पास विदेशी मुद्रा का भंडार कैसे इकट्ठा हुआ है? यह भंडार जर्मनी, जापान, कोरिया, चीन आदि की तरह अधिक निर्यात से अर्जित न होकर कर्ज के धन का भंडार है जो मुख्यतः बैंकों या कंपनियों ने विदेशों से लिया है या शेयर बाजार में मुनाफा कमाने के लिए आई मुनाफाखोर वित्तीय पूंजी है। समस्या है कि मुनाफे के लालच में जितनी तेजी से यह विदेशी पूंजी आती है, दूसरी जगह अधिक व सुरक्षित मुनाफे के लालच में उतनी ही तेजी से जा भी सकती है। यहीं पर फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढाने का महत्व है क्योंकि उससे मुनाफे के लिए अमरीकी बाजार का आकर्षण बढ जाता है जो फिलहाल तुलनात्मक रूप से पूंजी के लिए अधिक सुरक्षित भी माना जाता है। 2013 का संकट भी कुछ ऐसे ही परिस्थितियों की वजह से हुआ था। अतः अमरीका में ब्याज दरें बढने की संभावना को देखते ही इमर्जेंसी बैठक बुला रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने भी ब्याज दरें बढा दी हैं, हालांकि बताया जा रहा है कि महंगाई पर नियंत्रण के लिए ऐसा किया गया है। परंतु जाहिर है कि वास्तव में महंगाई पर नियंत्रण के लिए सरकार जो कदम वास्तव में उठा सकती है वह करने का उसका कोई इरादा नहीं है। हो भी कैसे महंगाई का दौर पूंजीपतियों के लिए ऊंचे मुनाफे का मौका जो लाया है जबकि मजदूर वर्ग पर एक और टैक्स जिससे उनकी मजदूरी जीवन निर्वाह के न्यूनतम स्तर से भी नीचे जा रही है।